बुधवार, 25 नवंबर 2009

लिब्रहान साहब की रिपोर्ट का इंतजार अब भी जारी है

तीन दिनों से हर तरफ लिब्रहान साहब छाए हुए हैं। स्वाभाविक भी है। 17 साल की मेहनत, करीब 4 दर्जन बार का एक्सटेंशन और करोड़ों रुपए की रकम लगाने के बाद आखिरकार उन्होंने इतना बड़ा खुलासा किया है कि बाबरी ढांचे का विध्वंस कोई औचक घटना नहीं थी, बल्कि आरएसएस ने बहुत सावधानी से पहले ही इसकी योजना बना ली थी। उन्होंने यह भी बताया है कि अटल बिहारी वाजपेयी साम्प्रदायिक संघ परिवार के उदारवादी चेहरा मात्र थे।

लिब्रहान महोदय मुस्लिम संगठनों से भी नाराज हैं कि उन्होंने अपनी जिम्मेदारी ठीक से नहीं निभाई, यह अलग बात है कि उन संगठनों को उन्होंने कभी गवाही के लिए बुलाया ही नहीं। कल्याण सिंह से वह बहुत नाराज हैं कि उन्होंने पूरा तंत्र पंगु बना दिया। यह अलग बात है कि तत्कालीन प्रधानमंत्री नरसिंह राव के बारे में उनका मानना है कि उन बेचारे को राज्यपाल की रिपोर्ट ही नहीं मिली, इसलिए उनका कुछ न करना पूरी तरह उचित है।

है न कमाल की बात। जिस बात को पूरा देश देख रहा था, समझ रहा था, उस पर कार्रवाई के लिए प्रधानमंत्री को राज्यपाल की रिपोर्ट की दरकार थी। लिब्रहान साहब ने एक-दो बातें और दिलचस्प कही हैं। जैसे, उन्होंने कहा है कि संघ परिवार ने अपने जिन साम्प्रदायिक तत्वों को भारतीय प्रशासनिक तंत्र में घुसा दिया है, वह अब भी देश के विभिन्न हिस्सों में फल-फूल रहे हैं।

तीन दिन से ये सारी खबरें मीडिया में गूंज रही हैं। अच्छा भी है, देशहित में खोली गई इन खुफिया सूचनाओं को आखिर अंतिम पंक्ति में बैठे देशवासी तक तो पहुंचना ही चाहिए। मुझे परेशानी केवल एक बात से हो रही है, कि कहीं भी अब तक इन निष्कर्षों का आधार नहीं बताया जा रहा है। वे कौन से तथ्य हैं, किनकी गवाहियां हैं, जिनके आधार पर लिब्रहान साहब ने ये सारे निष्कर्ष निकाले हैं। क्योंकि अब तक जितनी बातें मीडिया में आई हैं, उनमें मुझे रिपोर्ट कम और संपादकीय ज्यादा नजर आ रहा है।

जिनती बातें लिब्रहान साहब के हवाले से कही जा रही हैं, वे हम पिछले 17 वर्षों से लालू जी, मुलायम जी, सीताराम येचुरी जी, अर्जुन सिंह जी और देश के तमाम स्वनामधन्य सेकुलरों से सुनते ही आ रहे हैं। तो 17 वर्षों की जांच का सबब क्या है? जरूर होगा। परसों लिब्रहान महोदय ने नाराज होकर कहा कि वे ऐसे चरित्रहीन नहीं हैं कि रिपोर्ट मीडिया में लीक करें। यानी स्वाभाविक तौर पर यह भी माना चाहिए कि पूर्व न्यायाधीश रहे चुके और एक सदस्यीय आयोग के सर्वेसर्वा लिब्रहान महोदय ने
जो कुछ भी अपनी रिपोर्ट में लिखा है, वह ठोस सबूतों के आधार पर ही कहा जा रहा होगा, न कि अपने व्यक्तिगत विचार और आग्रह के आधार पर।

अब क्योंकि रिपोर्ट संसद के पटल पर रखी जा चुकी है, तो उम्मीद है संपादकीय के पीछे की मजबूत नींव, यानी तथ्य भी धीरे-धीरे मीडिया में आएंगे।

गुरुवार, 10 सितंबर 2009

अब रामनारायण का बेटा भी ज़िहाद करेगा

ये रामनारायण पाकिस्तानी की कहानी है। दो बेटियों का बाप। पत्नी जीवित तो है, लेकिन लापता है। मिलने की उम्मीद भी नहीं, क्योंकि अब उन दोनों के बीच केवल सैकड़ों मीलों की दूरियां ही नहीं, बल्कि हिन्दुस्थान और पाकिस्तान की सर्द, शुष्क सरहद भी है। उम्मीद अगर किसी दिन पैदा हो भी जाए, तो शायद रामनारायण में अपनी जीवनसंगिनी को फिर से पाने की इच्छा ही न हो।

इसलिए नहीं कि उसकी पत्नी का अनगिनत बार बलात्कार किया गया है और इसलिए भी नहीं कि उसे जबरन मुसलमान बनाया जा चुका है, बल्कि इसलिए कि उसके अंदर अपनी पत्नी का नया रूप देख पाने का साहस नहीं है। हर दिन उसे प्यार से भोजन कराने वाली, बीमार होने पर उसकी अनथक सेवा करने वाली और उसके हर दुख में उससे ज्यादा दुखी होने वाली उसकी अर्धांगिनी का नया रूप कैसा होगा, इसकी सोच भी उसे सिहरा देती है। इसलिए अब रामनारायण उसे याद भी नहीं करना चाहता।

अब वह हिन्दुस्थान में है। वह संतुष्ट रहना चाहता है अपनी उन दो बेटियों को देखकर जो तालिबान की दरिंदगी का शिकार बनने से बच गईं। मुसलमान तो अपनी बेटियों के साथ वह खुद भी बन गया था, लेकिन आस्था केवल पूजा पद्धति बदलने का तो नाम नहीं है। कम से कम एक आस्थावान हिन्दू तो यह मानता ही है। इसलिए रामनारायण अपनी बेटियों के किसी तालिबानी नेता का हवस बनने से पहले पाकिस्तान से भागने में कामयाब रहा और अब उसे उम्मीद है तो बस इस बात की कि भारत उसे अपनी गोद में जगह देगा।

वैसे इस देश में एक बड़ी प्रजाति ऐसी है जिनके लिए रामनारायण एक कारतूस है, उन लोगों पर दागने लायक जो बंगलादेशी घुसपैठियों को यहां से निकालने की बात करते हैं। असम की कांग्रेसी सरकारों और पश्चिम बंगाल की वामपंथी सरकार ने इन्हीं प्रजातियों का प्रतिनिधित्व किया है और बंगलादेशी मुसलमानों को इस हद तक भारत में बसाने की साज़िश की है कि पूरे पूर्वोत्तर पर अलगाववाद का खतरा मंडरा रहा है। इस सेकुलर प्रजाति की अंतरात्मा चीख-चीख कर कहती है कि अगर घुसपैठियों को निकालने की शुरुआत करनी ही तो वह रामनारायण से ही करनी चाहिए। लेकिन ख़ैर! यह विषयांतर हो जाएगा। मैं मूल मुद्दे पर लौटता हूं।

ऊपर की कहानी आज टाइम्स ऑफ इंडिया की लीड स्टोरी है। इस कहानी को पढ़ने के बाद से मेरे मन में एक सवाल उठ रहा है। रामनारायण की जो पत्नी अब मुसलमान बन चुकी है क्योंकि तालिबान ने कई बार बलात्कार कर उसका मतांतरण कर दिया है, तो उसके मन की हालत क्या होगी? उसके मन में इस्लाम के प्रति कितनी श्रद्धा, प्रेम या घृणा होगी। लेकिन लाख आक्रोश के बाद भी वह हर अजान के साथ सजदे में बैठती होगी, वो तमाम प्रक्रिया पूरी करती होगी, जिसके न करने पर उसके साथ फिर जिस्मानी और मानसिक बलात्कार किया जाएगा।

फिर सैकड़ों बलात्कारों के बाद हो सकता है कि उसकी कोई संतति भी पैदा हो। वह बच्चा होश संभालने के साथ ही तालिबान मदरसे में जाएगा। उसे बताया जाएगा कि कश्मीर में हिंदू सैनिक उसके क़ौम की औरतों की इज़्ज़त लूटते हैं। उसे मुंबई और गुजरात के दंगों की तस्वीरें दिखाई जाएंगी कि किस तरह भारत में इस्लाम ख़तरे में है। और फिर रामनारायण की पत्नी के जबरन शोषण से पैदा वही बच्चा हाथ में एके 47 लेकर ज़िहाद का पैगाम फैलाने भारत आएगा। मंदिरों, स्टेशनों और बाजारों में लोगों के परखच्चे उड़ा कर आततायी हिंदुओं को सबक सिखाएगा।

क्या भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के उन सभी आतंकवादियों की कहानी कुछ ऐसी ही नहीं है, जो ज़िहाद को अपना नया मज़हब मान बैठे हैं। यह एक हक़ीक़त है कि तीनों देशों के करीब 40 करोड़ मुसलमानों (मोटी गणना से) में शायद ही 1 फीसदी भी ख़ालिस पश्चिम एशियाई वंशावली से हों। तो इन 40 करोड़ मुसलमानों में कितने यह दावा कर पाएंगे कि उनके दादे-परदादाओं ने इस्लाम का अध्ययन कर, उसे ईश्वर को पाने का ज्यादा आसान रास्ता मानकर हिंदू मान्यताओं और परंपराओं का त्याग किया था। यानी इन 40 करोड़ में से 39 करोड़ 99 लाख 99 हज़ार मुसलमानों के पूर्वज ऐसे हिंदू थे, जिन्होंने इतिहास के किसी-न-किसी मोड़ पर, किसी-न-किसी मज़बूरी में इस्लाम स्वीकार किया।

इनमें से लाखों ने हिंदू समाज की उपेक्षा और अमानवीय परंपराओं के खिलाफ इस्लाम को अपना तारणहार माना होगा और करोड़ों ने अपनी बहुओं, बेटियों, बहनों और बीवियों के बलात्कार के बाद, अपने पिता, मां, बेटों और पोतों की अपनी आंखों के सामने हत्या के बाद या फिर उनकी जान बचाने के लिए इस्लाम स्वीकार किया होगा। लेकिन जैसा कि एक बार विवेकानंद ने कहा था कि एक हिंदू के मतांतरित होने का मतलब केवल यह नहीं कि हिंदू समाज से एक सदस्य की संख्या घट गई, बल्कि इसका मतलब यह भी है कि हिंदू समाज के एक शत्रु की संख्या बढ़ गई। तो शायद इसीलिए आज भारत, पाकिस्तान और बंगलादेश के ज्यादातर मुसलमान हिंदुओं को अपने दुश्मन की तरह ही देख पाते हैं।

वे याद नहीं करना चाहते कि उनके अंदर भी एक हिंदू का ही खून दौड़ रहा है और कि हो सकता है कि उनके दादा या परदादा ने इस उम्मीद में इस्लाम ग्रहण किया हो, कि एक दिन उनके बच्चे वापस अपनी मूल परंपरा में लौट आएंगे। लेकिन, आज की तारीख़ में यह एक कपोल कल्पना जैसी ही लगती है। फिर भी, क्या मेरे मुस्लिम मित्र एक बार यह विचार करने का साहस नहीं कर सकते कि उनके अंदर भी गंगा, नर्मदा, कृष्णा, कावेरी का ही पानी खून बन कर दौड़ रहा है। चाहे उनका मज़हब आज इस्लाम हो, लेकिन उनकी राष्ट्रीयता भी हिंदू ही है।

बुधवार, 9 सितंबर 2009

इशरत और मोदी, दोनों निर्दोष क्यों नहीं हो सकते?

इशरत जहां और उसके तीन अन्य साथियों के मुठभेड़ पर चल रही बहस के दो आयाम हैं, पहला कि मुठभेड़ में मारे गए युवक और मुंबई के खालसा कॉलेज की लड़की आतंकवादी थे और दूसरा, कि नरेंद्र मोदी आदमखोर हैं (कांग्रेसी प्रवक्ता की भाषा में)। अब भारतीय राजनीति को देखने-समझने वाला कोई शायद ही ऐसा व्यक्ति हो, जो मोदी पर उदासीन (न्यूट्रल) राय रखता हो। मोदी की दो तस्वीरें हैं- एक प्रखर हिंदुत्वादी कर्मठ नेता और दूसरा मुसलमानों का हत्यारा हिंदू साम्प्रदायिक नेता। इशरत और उसके साथियों के मुठभेड़ की असली कहानी मोदी की इन्हीं दोनों तस्वीरों के बीच पिस रही है। क्योंकि मोदी के राज्य से आने वाली किसी भी खबर पर राय बनाने में किसी को भी एक पल से ज्यादा तो लगता नहीं है।

मोदी समर्थकों के लिए गुजरात से आने वाली कोई भी नकारात्मक खबर मोदी के खिलाफ हिंदू विरोधियों का षड्यंत्र है और मोदी के निंदकों के लिए उनके क्रूर प्रशासन का एक और सबूत। यही कारण है कि इशरत मोदी समर्थकों के लिए आतंकवादी है और मोदी विरोधियों के लिए एक बेचारी अबला। लेकिन क्या ऐसी कोई सूरत नहीं हो सकती कि मोदी भी निर्दोष हों और इशरत तथा उसके साथी भी।

सारी कहानी में यह अब तक साफ नहीं हो सका है कि अहमदाबाद पुलिस ने मुंबई जाकर इन चारों का ही अपहरण क्यों किया? कहीं यह सवाल नहीं पूछा जा रहा कि आखिर अहमदाबाद पुलिस को क्या इन चारों ने सपने में दर्शन देकर अपने नाम-पते बताए या फिर क्या कहानी हुई? कम से कम मेरे सामने तो अब तक यह जानकारी आई नहीं है, अगर आप में से किसी को पता हो तो जरूर बताइए। लेकिन ख़ैर, कारण कोई भी हो? हम मान लेते हैं कि अहमदाबाद पुलिस ने किसी गफ़लत में इन्हें उठा लिया और अपनी किसी ग़लती को छिपाने के लिए इनका मुठभेड़ कर दिया।

अब निश्चित तौर पर मोदी ने तो इन्हें इन चारों के पते देकर मुठभेड़ करने के निर्देश दिए नहीं होंगे। लेकिन मुठभेड़ हो गया और खबर राष्ट्रीय मीडिया में आ गई, तो गुजरात पुलिस के आला अधिकारियों को मोदी को तो बताना ही था कि क्या हुआ? तो क्या यह संभव नहीं कि आतंकवाद के खिलाफ मोदी के रवैये का फ़ायदा उठाने के लिए इन अफसरों ने एक ऐसी कहानी गढ़ी हो, जिससे मोदी तुरंत इनके साथ खड़े हो जाएं और इनके बचाव को राज्य का दायित्व मान लें?

क्या देश का कोई ऐसा राज्य या केंद्रशासित प्रदेश है, जो यह दावा कर सके कि उसकी पुलिस कभी फर्ज़ी मुठभेड़ नहीं करती है या उसके यहां पुलिस थाने में हत्याएं नहीं होती हैं। अगर बाकी राज्यों में पुलिस की ऐसी कारस्तानियों के लिए संबंधित अधिकारियों के खिलाफ कार्रवाई होती है, तो गुजरात में इसके लिए नरेंद्र मोदी को फांसी पर क्यों लटकाया जाना चाहिए?

ये तो हुई एक बात। दूसरी बात मजिस्ट्रेट जांच की है। जब केन्द्र सरकार भी अपने हलफनामे में मारे गए लोगों को लश्कर-ए-तोएबा के आतंकवादी बता चुकी है, तब यह अपने आप में जांच का विषय बनता है कि मजिस्ट्रेट साहब को पूरा मामला फर्ज़ी क्यों लगा? मैं इस रिपोर्ट और मजिस्ट्रेट साहब की मंशा पर कोई सवाल नहीं उठाना चाहता, लेकिन मेरा यह कहना है कि इसे अंतिम शब्द कैसे माना जा सकता है। लोअर कोर्ट्स से साबका रखने वाले किसी भी किसान या मज़दूर तक को वहां की हालत का पता है। जब ऊंची अदालतों तक में वित्तीय या राजनीतिक भ्रष्टाचार के मामले आम हो चुके हैं, तो किसी एक मजिस्ट्रेट की ऐसी रिपोर्ट, जिससे साफ है कि देश के सबसे विवादास्पद मुख्यमंत्री की जिंदगी दुश्वार हो जाएगी, पर आंख बंद कर भरोसा क्यों किया जाना चाहिए?

आखिरी बात। माननीय उच्चतम न्यायालय तक से ग़लतियां हो सकती हैं। अगर नहीं, तो गुजरात सरकार को खलनायक मानते हुए ज़ाहिरा शेख का मामला राज्य से बाहर स्थानांतरित करने के बारे में क्या स्पष्टीकरण दिया जा सकता है? बाद में जब यह साफ हो गया कि भ्रष्ट वामपंथी 'मानवाधिकारवादी' तीस्ता शीतलवाड़ ने रिश्वत देकर मोदी सरकार के खिलाफ उसे अपने औज़ार की तरह इस्तेमाल किया था, तब इस पूरे मामले पर क्या किया गया? कानून की दलाली करने वाले शीतलवाड़ जैसे लोगों को क्या कोई सज़ा नहीं होनी चाहिए थी?

पूरी बात का लब्बोलुआब यह है कि चाहे इशरत जहां का मामला हो या कोई और, मामले को तथ्यों के नज़रिए से देखा जाए। केवल मोदी का समर्थन और विरोध के चश्मे से देखने पर तो हम किसी निष्कर्ष पर कभी पहुंच ही नहीं सकते। हां, यह जरूर है कि अगर इशरत और उसके बाकी साथी एक प्रामाणिक भारतीय नागरिक थे, तो फिर उनकी हत्या में शामिल सभी पुलिस अधिकारियों को जरूर फांसी की सज़ा दी जानी चाहिए क्योंकि उनकी ऐसी ही हरक़तें राष्ट्रवादी मुसलमानों को अपने क़ौम में कमज़ोर करती हैं और आतंकवादी संगठनों को भारतीय मुसलमानों के बीच अपनी पैठ गहरी करने का ईंधन मुहैया कराती हैं।

सोमवार, 7 सितंबर 2009

पाकिस्तानी झंडा लगाने वाले कैम्पस पर बुलडोजर चलवाइए

कल और आज में दो घटनाओं का खुलासा हुआ हैं। कल पता चला कि कुछ चीनी सैनिक लेह में भारतीय सीमाक्षेत्र में घुस कर चीनी भाषा में चीन लिख गए और आज पता चला है कि गुजरात के साणंद में हफ्तों से दो पाकिस्तानी झंडे लहरा रहे थे। दोपहर से सोच रहा हूं कुछ लिखूं। लेकिन सोचता हूं कि क्या लिखूं कि मेरी बात एक हिंदू या मुसलमान के तौर पर नहीं, बल्कि एक भारतीय के तौर पर सुनी जाए?

पाकिस्तान का झंडा लगाने वाली दोनों जगहें मुस्लिमों के मजहब से जुड़े स्थल हैं, एक दरगाह और दूसरा कब्रिस्तान। लेकिन मेरे बहुत से मित्र ऐसी किसी भी घटना का जवाब देने के लिए पहले से ही तैयार रहते हैं कि कुछ मुट्ठी भर मुसलमानों के लिए पूरे देश के मुसलमानों को पाकिस्तान परस्त नहीं करार दिया जा सकता। मैं भी सहमत हूं, लेकिन मेरे वे मित्र मुझे समाधान नहीं बताते। खबर यह है कि आसपास के लोगों ने करीब हफ्ते भर पहले से इसकी शिकायत स्थानीय पुलिस थाने में की थी, लेकिन मोदी जी की पुलिस सोई रही। सवाल यह भी है कि उन हफ्तों में उस दरगाह के पीर या पुजारी ने इस बारे में क्या किया? उस कब्रिस्तान के केयरटेकर ने क्या किया? अगर कुछ नहीं किया, तो क्यों नहीं उन्हें इस कृत्य का दोषी माना जाना चाहिए? क्यों नहीं उस दरगाह पर बुलडोजर चलवा देना चाहिए और कब्रिस्तान को नेस्तनाबूद कर देना चाहिए?


इसका जवाब देने की हिम्मत आप तब तक नहीं जुटा सकते, जब तक आप देशद्रोह को एक खालिस देशभक्त के नज़रिए से नहीं देखेंगे। आप दरगाह और कब्रिस्तान को मंदिर और शवदाह गृह से बदल दीजिए। फिर देखिए, आपके लिए जवाब कितना आसान है। यह मसला मजहब का नहीं है, यह मसला है देशनिष्ठा का। कोई नहीं कहता कि सारे मुसलमान पाकिस्तानपरस्त हैं। लेकिन यदि दरगाह पर बुलडोजर चलवाने के बाद अमर सिंह, मुलायम, लालू या सोनिया सरीखा कोई इस पर चूं भी करता है तो ख़ुद मुसलमानों को उनके गाल पर थप्पड़ जड़ने के लिए तैयार रहना चाहिए।

अगर वे ऐसा नहीं करते और बदले में मेरे सेकुलर और वामपंथी मित्रों के उस कुतर्क के साये में छिपना चाहते हैं कि हमें अपनी देशभक्ति के लिए किसी से प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं, तो फिर जरूर पूरे कौम से पाकिस्तानपरस्ती की बू आएगी। मेरे घर की छत पर अगर महीने भर तक पाकिस्तान का झंडा लहराता रहे और मुझे चैन की नींद आती रहे, तो मेरे घर पर जरूर बुलडोजर चलवा देना चाहिए और मुझे जूतों से पीटना चाहिए।

क्या फ़र्क पड़ता है कि मेरा घर कोई दरगाह है या मंदिर और मेरा नाम भुवन भास्कर है या मोहम्मद अब्दुल्ला। इस पर अगर मेरा कोई पड़ोसी यह तर्क देना चाहे कि मुझे किसी से अपनी देशनिष्ठा का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है, तब उस पड़ोसी का घर भी सलामत नहीं बचना चाहिए।

रही बात चीन के हमारी सरहद के अंदर पहले हेलीकॉप्टर से घुसकर खाने के पैकेट गिराने और बाद में चीन लिखने की, तो इससे निपटना कोई एक दिन की बात नहीं है। यह हमें याद दिलाता है 1962 के पहले के कुछ महीनों की, जब चीन की ओर से लगातार इस तरह की भड़काउ घटनाएं होती थीं, और रोम के नीरो की तर्ज पर भारत के जवाहरलाल वंशी बजाते रहे। ग्लोबल स्टेट्समैन बनने की महत्वाकांक्षा में भारतीय जनता को धोखा देते रहे कि चीन कभी कोई ऐसी हरकत नहीं करेगा, जो भारत के लिए नुकसानदेह हो। हुआ क्या, यह इतिहास है।

चीन से लगी भारतीय सीमाओं पर घटी पिछले साल भर की घटनाओं पर नजर डालें, तो लगता है जैसे 1962 के पहले के कुछ महीनों का रिप्ले चल रहा है। भारत सरकार अगर इस पर तुरंत सतर्क न हुई और हमने अगर तुरंत रक्षात्मक उपाय नहीं किए, तो 1962 भी दूर नहीं है।

बुधवार, 2 सितंबर 2009

हे ईश्वर, इन गहलोतों को चिदंबरम की सद्बुद्धि दे

दिल्ली और दूसरे संघ शासित राज्यों में अब किसी भी टुच्चे नेता या अपराधी विधायक के लिए एक फोन कॉल पर एसएचओ या इंस्पेक्टर का तबादला करवा देने सरीखी धमकी शायद अब काम न आ सके। चिदंबरम ने पुलिस सुधार की दिशा में पहला कदम बढ़ाते हुए यह व्यवस्था कर दी है कि साधारण परिस्थितियों में इंस्पेक्टर या उससे ऊपर दर्जे के पुलिस अधिकारियों को कम से कम 2 साल से पहले ट्रांसफर नहीं किया जा सकेगा। सभी केन्द्रशासित प्रदेशों में राज्य सुरक्षा आयोग बनेंगे, जो पुलिस महकमे के लिए नीतियां तैयार करने के अलावा पुलिस अधिकारियों के प्रदर्शन का मूल्यांकन भी करेंगे।

इसके अलावा दो और बोर्ड बनेंगे, जो पुलिसकर्मियों के ट्रांसफर, उनकी पोस्टिंग और प्रमोशन के अलावा उनकी नौकरी से जुड़े दूसरे तमाम फैसले करेंगे। एक बोर्ड इंस्पेक्टर और उससे ऊपर रैंक के अधिकारियों के लिए होगा और दूसरा सब इंस्पेक्टर और उससे नीचे रैंक के लिए। सबसे अच्छी बात यह है कि उन बोर्डों में जनता के कथित सेवकों की कोई भूमिका नहीं रहेगी (अगर कोई चोर दरवाजा बचा रखा गया हो, तो कम से कम अब तक तो उसकी जानकारी नहीं है।)

ये फैसले दिल को खुश करने वाले हैं और पुलिसिया अत्याचार एवं पुलिस-राजनीति गठजोड़ से त्रस्त समाज के लिए उम्मीद की किरण जगाते हैं। लेकिन महत्वपूर्ण बात यह भी है कि देश के 28 राज्यों का इन सुधारों के प्रति क्या नजरिया है। इसकी एक बानगी राजस्थान सरकार ने दी है। गहलोत सरकार ने अपने अधिकारियों के लिए एक निर्देश जारी किया है, जिसमें ताकीद की गई है कि अगर किसी विधायक या सांसद के आने पर अफसर अपनी कुर्सी से उठकर खड़ा नहीं होगा, तो उसका निजी रिकॉर्ड खराब कर दिया जाएगा। कहा गया है कि कोई भी विधायक या सांसद कभी भी किसी भी अधिकारी से अगल मिलना चाहे, तो उसे प्राथमिकता से समय देना होगा। मानो, अधिकारियों का एकमात्र 'सब्जेक्ट' ये माननीय जनप्रतिनिधि ही हैं।

इसके अलावा ज्यादातर राज्यों ने भी इन सुधारों के प्रति अनिच्छा ही जताई है। यह स्वाभाविक ही लगता है क्योंकि किसी भी राज्य की सत्तारूढ़ पार्टी पुलिस के जरिए ही अपनी राजनीतिक ताकत का सही-ग़लत इस्तेमाल कर पाती है। फर्ज़ कीजिए कि अगर बुद्धदेव भट्टाचार्य सरकार के हाथ में राज्य पुलिस की लगाम न होती, तो क्या वामपंथी गुंडे सिंगूर और नंदीग्राम में पाशविकता का वो नंगा नाच कर पाते, जैसा कि उन्होंने किया। मान लीजिए कि गुजरात के पुलिस प्रमुख को यह डर न होता कि मोदी सरकार उन्हें किसी पुलिस महाविद्यालय का प्रिंसिपल बना देगी, तो क्या गोधरा नरसंहार के बाद हुए दंगों में उसकी भूमिका अधिकतर मामलों में मूकदर्शक की होती।

याद कीजिए जयललिता के शासनकाल में टेलीविजन पर दिखे वे दृश्य, जब कुछ पुलिस अधिकारी आधी रात के अंधेरे में पूर्व मुख्यमंत्री करुणानिधि को लगभग घसीटते हुए लेकर गए थे। क्या पुलिस पर नियंत्रण के बिना जयललिता द्वारा प्रशासन का इतना घृणित इस्तेमाल संभव था। जब लालू यादव चारा घोटाले के सिलसिले में पटना हाईकोर्ट की पेशी पर पहुंचते थे, तो पटना की डीएम राजबाला वर्मा वहां उनकी कार का दरवाजा खोलने के लिए पहले से ही मौजूद होती थीं। अगर पुलिस सुधार लागू हो जाएंगे, तमाम राज्यों की गद्दी पर बैठे घोटालाबाज लालुओं का क्या होगा?

ऐसे में चिदंबरम ने 7 केन्द्रशासित प्रदेशों की जनता पर जो उपकार किया है, उसके लिए उन्हें मेरी ओर से बधाई। ईश्वर करे दूसरे गहलोतों, मोदियों, लालुओं और जयललिताओं को भी सद्बुद्धि आए, क्योंकि ये महानुभाव हमेशा सत्ता में नहीं रहने वाले और फिर जब वसुंधराएं, नीतीशों और करुणानिधिओं के हाथ में सत्ता आएगी तो उसका शिकार वे खुद भी होंगे। जनता का क्या है, अगर पुलिस सुधार नहीं हुए तो शासन किसी का भी हो, उसके लिए तो हर हाल में ही खाकी खौफ का प्रतीक है।

बुधवार, 12 अगस्त 2009

भारत के 20-30 टुकड़े करने के चीनी सपने का तोड़

चीन के एक थिंक टैंक की चीन सरकार को सलाह है कि भारत के 20-30 टुकड़े कर देने चाहिए। उनकी यह सलाह एक अर्द्धसरकारी वेबसाइट पर प्रकाशित हुई है। हालांकि इस स्पष्टीकरण का कोई खास मतलब है नहीं, क्योंकि चीन में वैसे भी प्रकाशित या प्रसारित होने वाली हर राय सरकारी ही होती है। और ऐसा भी नहीं है कि इस राय के सामने आने से पहले तक किसी को भारत के प्रति चीन की शुभेच्छा पर कोई संदेह था। तो ऐसे में यह राय प्रकाशित करने के लिए हमें उन थिंक टैंक महोदय का शुक्रगुज़ार होना चाहिए। क्योंकि उन्होंने एक ओर तो हमारी आंखों से जबरिया दोस्ती का यूटोपियन चश्मा नोंचने की भरपूर कोशिश की है, दूसरी ओर उन्होंने हमारी तमाम कमजोरियों को सूचीबद्ध कर हमारे सामने खुद की मजबूती का एक लक्ष्य भी दे दिया है।

गांधी जी की अनूठी और सफल रणनीति ने अपने देश में शांति को महिमामंडित करने का फैशन कुछ इस कदर चला दिया है, कि मजबूती की बात करने वाले तुरंत उपद्रवी करार दिया जाता है। यह अलग बात है कि खुद गांधी जी मजबूती की एक जीती-जागती मिसाल थे और उनका मानना था कि बिना मजबूती के शांति की चाह दूसरों की कृपा पाने की गुहार से ज्यादा और कुछ नहीं है। चीन ने हाल के वर्षों में जो आर्थिक और सामरिक ताकत बढ़ाई है, उसके बाद भारत उसके सामने एक बच्चा लगता है। आजादी के 62साल बाद हमने जो पहली परमाणु पनडुब्बी अरिहंत बनाई है, उस तरह की 10 पनडुब्बियां पहले से ही चीन की नौसेना का अंग हैं। चाहे अंतरमहाद्वीपीय प्रक्षेपास्त्र हों या अत्याधुनिक युद्धक विमानों का दस्ता, हर मोर्चे पर चीन हमसे दशकों आगे है। अरुणाचल और सिक्किम में हमने अब सड़कें और हेलीपैड बनाने पर जोर देना शुरू किया है, जबकि चीन भारत की सीमा से लगने वाले हर इलाके तक ट्रेन और सड़कों का जाल आज से 5 साल पहले बिछा चुका है।

चीन के थिंक टैंक महोदय ने भारत के टुकड़े करने की जो रणनीति बताई है, उसमें दो मसले हैं। एक तो भारत के अंदर सक्रिय आतंकवादी गुटों को बढ़ावा देना और दूसरा भारत के पड़ोसी देशों, पाकिस्तान, बंगलादेश, म्यांमार आदि का सहयोग लेना। यानी हमारे दुश्मनों और हमारी कमजोर नसों की पहचान बहुत साफ है। आतंकवाद के प्रति हमारी नीति के बारे में तो बहुत कुछ कहा-सुना जा चुका है। लेकिन विदेश नीति के मोर्चे पर नजर डालें, तो वहां भी चीन हमसे मीलों आगे है। पाकिस्तान की बात छोड़ देते हैं, लेकिन बंगलादेश के साथ हमारे संबंध पूरी तरह दल आधारित हैं। शेख हसीना की सरकार के रहते बंगलादेश, भारत का मित्र है। लेकिन जैसे ही सत्ता खालिदा ज़िया के हाथ में आएगी (जो कि लगभग हर पांच साल बाद होता है), बंगलादेश, भारत विरोधी गतिविधियों का केन्द्र बन जाएगा। अफसोस यह है कि इस स्थिति के जो ऐतिहासिक कारण है, उन्हें हम चाह कर भी बदल नहीं सकते।

म्यांमार में परेशानी यह है कि वहां एक ऐसी सैनिक सरकार है, जिसके लिए मानवाधिकार और मौलिक स्वतंत्रता गालियों की तरह हैं। भारत भले ही चीन के दबाव में म्यांमार का दोस्त होने की कसमें खाए, लेकिन म्यांमार की सरकार को पता है कि दोनों देशों की आत्माएं भिन्न हैं और इसलिए तमाम कूटनीतिक संबंधों के बावजूद वह चीन के साथ ज्यादा आत्मीय अनुभव करती है। नेपाल में एक बार तो नियति ने भारत को बचा लिया है, लेकिन कितनी बार बचाएगी, कहना कठिन है। श्रीलंका में लिट्टे से लड़ने की वहां की सरकार की तैयारियों में जिस तरह पाकिस्तान और चीन ने सहयोग किया, उसके बाद उनके आपसी संबंध वहीं खत्म हो जाएंगे, यह सोचना भोलापन ही होगा। साफ है कि हमारे पड़ोसी देशों के साथ हमारे संबंधों की सीमाएं हमारी सबसे बड़ी चुनौती है। लेकिन, इन सीमाओं को तोड़ कर इन चुनौतियों को हल करने का कोई विकल्प भी नहीं है। भारत को किसी भी हालत में यह करना होगा और इसके लिए हमारे पास ज्यादा समय नहीं है।

पड़ोस से अलग हट कर अगर देखें, तो भारतीय राजनीतिक नेतृत्व की अक्षमता और अकर्मण्यता के असली दर्शन होते हैं। पिछले करीब एक दशक की कोशिश से चीन ने अफ्रीका को अपने आर्थक हितों का जबर्दस्त केन्द्र बना लिया है, जबकि भारत ने अब इस बारे में कोशिशें शुरू की हैं। हिंद महासागर में स्थित दसियों द्वीप देशों के साथ चीन के संबंध इस हद तक मधुर हो गए हैं कि वहां उसने नौसैनिक अड्डे बनाने की तैयारी शुरू कर दी है। श्रीलंका में एक चीनी नौसैनिक अड्डे ने काम करना भी शुरू कर दिया है और हालत यह है कि मॉरीशस जैसे देश से भी भारत के मुकाबले चीन के संबंध ज्यादा अच्छे हो गए हैं। हिंद महासागर में फैले छोटे-छोटे देशों में चीन ने योजनाबद्ध तरीके से एक निश्चित अंतराल पर अपने राष्ट्रपति, प्रधानमंत्री, चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के प्रमुख, चीन के सेना प्रमुख जैसे अधिकारियों को भेजना जारी रखा है, जबकि इनमें से कई ऐसे भी देश हैं, जहां पिछले छह दशकों में एक भी भारतीय राष्ट्राध्यक्ष नहीं गया।

इन परिस्थितयों में स्वाभाविक ही है कि चीन के थिंक टैंक महोदय भारत को 20-30 टुकड़ों में तोड़ने का सपना देख रहे हैं। इस सपने का तोड़ इसका विरोध नहीं है, बल्कि इसका तोड़ रणनीतिक और कूटनीतिक तौर पर खुद को उस हद तक मजबूत करना है कि चीन के थिंक टैंक महोदय अपनी सरकार को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की सलाह देने पर मजबूर हों और भारत से इसलिए डरें कि कहीं सैनिक ताकत के बल पर बनी उनकी राष्ट्रीय एकता के 20-30 टुकड़े न हो जाएं...

बुधवार, 22 जुलाई 2009

3 रुपए किलो चावल और 'अमेरिकी उपनिवेशवाद' का बौद्धिक जुमला

इन दोनों में किसमें ज्यादा वोट खींचने की ताकत है? इस सवाल का जवाब जितना आसान है, उतना ही आसान कांग्रेस की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार की हाल की 'विदेश नीति के मोर्चे पर की गईं भयानक गलतियां' के पीछे के कारणों का जवाब ढूंढना है।

पहले पाकिस्तान के साथ बातचीत के लिए आतंकवाद पर उसका समर्थन बंद होने की शर्त को माचिस दिखाना, 60 साल में पहली बार किसी द्विपक्षीय वार्ता में बलूचिस्तान का जिक्र ले आना, फिर जलवायु परिवर्तन के मुद्दे पर दशकों की भारतीय नीति पर मिट्टी डाल कर अमेरिका से गलबहियां करना और अब अमेरिकी प्रशासन को देश के अतिसंवेदनशील रक्षा प्रतिष्ठानों में चहलकदमी करने का लाइसेंस देना- ये सब ऐसे कदम हैं, जिनकी व्याख्या के लिए यही एक पंक्ति कही जा सकती है कि हमने अपनी वैदेशिक सम्प्रभुता अमेरिका के हाथों गिरवी रख दी है। लेकिन जैसे ही मेरे जेहन में भारी-भरकम बौद्धिक जुमलों से भरी यह पंक्ति आती है, मेरा मन डर से भर जाता है। यह अकेली पंक्ति यह साबित करने के लिए काफी है कि भारतीय राष्ट्र की संप्रभुता कितनी वलनरेबल (कमजोर) है।

ऐसा इसलिए कि मैं जब भी सोचता हूं कि क्यों नहीं पूरा देश इस सरकार के इन राष्ट्रविरोधी फैसलों के खिलाफ उठ खड़ा होता है, तो मेरे सामने दिल्ली की झुग्गियों में खुली नालियों के किनारे खेलते बच्चे, विदर्भ के किसानों का जीवन से हारा चेहरा, डिस्कोथेक में शराब के पैग के साथ झूमते अति संपन्न युवाओं का बेतकल्लुफ अंदाज, अपने करियर को बुलंदियों तक पहुंचाने के जुनून में 16-18 घंटे की पढ़ाई करने वाले होनहार छात्र, सुबह 8 बजे से शाम 6 बजे तक अपने बॉस और अपनी नौकरी की दुनिया में गिरे-पड़े रहने वाला मध्य वर्ग और कुछ बोतल देसी शराब तथा मुर्गे की टांग के लिए किसी भी राजनीतिक दल के कार्यकर्ताओं का सर फोड़ देने को हमेशा तैयार गरीब बेरोजगारों का छुट्टा समूह आ खड़ा होता है।

फिर मैं कल्पना करता हूं कि मैं पूरे देश के सामने खड़ा होकर सरकार के ऐसे भयानक फैसले के खिलाफ कोई ओजपूर्ण उद्भोधन दे रहा हूं, और फिर अपनी कल्पनाओं में ही मैं देखता हूं कि धीरे-धीरे भीड़ का चेहरा उदासीनता और उपेक्षा से भरने लगा है। फिर कुछ खुसफुसाहट। तभी भीड़ में से कोई एक आवाज आती है- अरे, ये भाषण क्या दे रहे हो, कौन है ये अमेरिका और ये बलूचिस्तान किस मोहल्ले में है। आतंकवाद! कौन सा उसके बिना इस देश में लोग मरते नहीं है और फिर, कि ये पागल कार्बन उत्सर्जन जैसी अंग्रेजी बोलकर हमें बरगलाने की कोशिश कर रहा है। भीड़ कहती है- अरे ये तो विपक्ष का आदमी है, जो हमारे पेट पर लात मारने की कोशिश कर रहा है। अमेरिका और बलूचिस्तान के चक्कर में पड़े रहेंगे तो हमें 3 रुपए किलो चावल कैसे मिलेगा?

सच भी तो है। भूखे पेट सोने वालों को आप एंड यूजर टेक्नोलॉजी निगरानी के मुद्दे पर आंदोलित कैसे करेंगे? रोज आयरन की अधिकता वाला गंदा पानी पीने वालों को जलवायु परिवर्तन की अंतरराष्ट्रीय राजनीति आप कैसे समझाएंगे? रोज डीटीसी बसों से कुचल कर और लोकल ट्रेनों से गिर कर मरने वालों को आप आतंकवाद की कूटनीति कैसे बताएंगे? तो क्या 3 रुपए किलो चावल के बदले हमें एक बार फिर हमारे राजनीतिक नेतृत्व की रीढ़हीनता का खामियाजा भुगतना पड़ेगा? भारत को 'आध्यात्मिक विश्वगुरू' और 'सामरिक एवं आर्थिक महाशक्ति' बनाने के हमारे सपने की आयु क्या इतनी ही थी?

कोई आशाजनक जवाब तो मुझे मिल नहीं रहा। घोर निराशा के अंधेरे में बस एक मद्धिम चिराग है, जो एक अपरिभाषित उम्मीद के तेल से टिमटिमा रहा है, देखें कब तक?

गुरुवार, 18 जून 2009

भाजपाई हार के चीथड़े बीनने की एक और कोशिश - 2

अब बात करें भाजपा के स्पेशियलाइज्ड सब्जेक्ट की- हिंदू राष्ट्रवाद। कई विश्लेषकों का मत है कि हिंदुत्व के मुद्दे में चुनाव जिताने की क्षमता नहीं है। हिंदुत्व का मुद्दा भारतीय जनता पार्टी को पूरे भारत की जनता का प्रतिनिधि बनने में बाधा है। ये वही विश्लेषक हैं, जो हमेशा मुस्लिमों को एक वोट वर्ग मानते हुए उसे पाने की जुगत में लगी तमाम पार्टियों की तुष्टिकरण नीतियों की सहज रूप से चर्चा करते हैं। लेकिन हिंदुओं के हित में बोले गए शब्द इन्हें इन्क्लूजिव पॉलिटिक्स की राह में सबसे बड़ी बाधा लगते हैं। खैर, यहां मुद्दा ये विश्लेषक नहीं हैं, बल्कि भारतीय जनता पार्टी है। अयोध्या में राम मंदिर के मुद्दे को अपनी रीढ़ बना कर सत्ता के करीब पहुंची भाजपा के भीतर हिंदुत्व को लेकर भ्रम कोई नई बात नहीं है। यह भ्रम उसी वक्त से शुरू हो गया था, जब राम मंदिर आंदोलन थकने लगा था। यह कहा जाने लगा कि हिंदुत्व का मुद्दा लंबे समय तक वोट नहीं खींच सकता।

पके बालों वाले खांटी विचारकों और थिंक टैंकों से भरी भाजपा और संघ में कोई भी इसे भ्रम का निदान नहीं खोज सका। दरअसल हिंदू राष्ट्रवाद और उग्र हिंदूवादी आंदोलनों का फर्क समझने की जरूरत है। हिंदू राष्ट्रवाद भारत का एक चिरंतन सत्य है, जबकि हिंदू आंदोलन किसी खास घटना की तात्कालिक प्रतिक्रिया। इसे इस तरह भी समझा जा सकता है कि भारत में अपने 25 वर्षों के स्वतंत्रता आंदोलन में महात्मा गांधी ने 4-5 बड़े आंदोलन किए। लेकिन इन आंदोलनों की एक खास अवधि रही। क्योंकि एक महान जन नेता होने के नाते गांधी को पता था कि जनांदोलनों को अनिश्चितकाल तक नहीं चलाया जा सकता। इसीलिए जब-जब उन्होंने अपने आंदोलनों को जनता से दूर होते देखा, बिना आलोचकों की परवाह किए, उन्हें वापस ले लिया। चौरी-चौरा कांड के बाद वापस लिया गया असहयोग आंदोलन इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। गांधी के आंदोलन वापस लेने का मतलब कभी भी यह नहीं था कि उन्हें जनता में आज़ादी की प्रतिबद्धता को लेकर संदेह कोई संदेह पैदा हो गया। दरअसल गांधी जानते थे कि आम जनता की सहनशीलता और जुझारूपन की एक सीमा होती है। एक महान नेता वही होता है, जो उस सीमा को पहचान कर उसके टूटने से ठीक पहले आंदोलन समाप्त कर दे, नहीं तो प्रतिद्वंद्वी पक्ष को उसकी कमजोरी का आभास हो जाता है। लेकिन फिर महान नेता का काम यहीं खत्म नहीं हो जाता है। वह उस आंदोलन की मुख्य धारा को जीवित ऱखने के लिए दूसरे सामाजिक-आर्थिक माध्यमों का सहारा लेता है, जैसा कि गांधी जी ने आज़ादी की मुख्य धारा को जीवित रखने के लिए खादी, स्वदेशी, महिला शिक्षा, छुआछूत निषेध जैसे माध्यमों से लिया।

लेकिन भाजपा के ज्ञानी रणनीतिकार इस सिद्धांत को या तो समझ नहीं पाए या फिर सत्ता भोग की लिप्सा ने उनकी समझदारी पर पर्दा डाल दिया। राम मंदिर आंदोलन से जगी हिंदू राष्ट्रवाद की धारा की अनंतकाल तक के लिए सत्ता प्राप्ति का माध्यम मान लिया गया। हर बार किसी चुनाव के समय अयोध्या का मुद्दा उछाल कर भाजपा ने न केवल राम मंदिर मुद्दे पर अपनी विश्वसनीयता खो दी, बल्कि हिंदू राष्ट्रवादी पार्टी के तौर पर बनी उसकी पहचान पर भी धब्बे लगने लगे। पार्टी ने अपनी अगुवाई वाले 6 साल के शासन में मदरसों को मुख्यधारा में शामिल करने, बंगलादेशी घुसपैठियों को बाहर करने और आतंकवाद की रीढ़ तोड़ने से संबंधित कोई ऐसा कदम नहीं उठाया, जिसके लिए वह उसे जनादेश मिला था। यहां तक कि राम मंदिर मुद्दे पर फास्ट ट्रैक अदालत का गठन कर और दैनिक सुनवाई करा कर वह कम से कम जनता को यह संदेश तो दे ही सकती थी कि वह इस मसले के समाधान के लिए गंभीर है। 1991 से 2009 तक भारतीय जनता पार्टी ने केवल आंदोलनों की राजनीति करने की कोशिश की क्योंकि उसके नीतिकारों को भरोसा था कि आंदोलन से पैदा उन्माद ही उन्हें सत्ता में ला सकता है। दो आंदोलनों के बीच उसकी मुख्य धारा को पोषित करने वाले सामाजिक-आर्थिक कार्यक्रमों से न तो कभी उसका कोई सरोकार रहा और न ही उन्हें चलाने की इच्छा शक्ति।

यही कारण है कि चुनाव परिणाम आने के ठीक एक महीने बाद भी भाजपा नेता हार के असली कारणों की मीमांसा करने के बजाए सरफुटौव्वल में लगे हैं। हिंदुत्व को गालियां दी जा रही हैं और हार का ठीकरा उसी के सिर फोड़ा जा रहा है। इन्हें कौन समझाए कि आंदोलनों के बल पर मिली सत्ता की नींव बहुत कमजोर होती है। उसे मजबूत बनाने के लिए सालों की मेहनत और योजनाबद्ध कार्यक्रम की जरूरत होती है। आडवाणी की एक रथ यात्रा ने 6 साल की सत्ता तो दे दी, लेकिन वह ज़मीनी मेहनत और योजनाबद्ध कार्यक्रम कहां है, जिनसे इस सत्ता की नींव मजबूत होनी थी।

बुधवार, 17 जून 2009

भाजपाई हार के चीथड़े बीनने की एक और कोशिश - 1

15वीं लोकसभा चुनाव के परिणामों आए ठीक एक महीना बीत गया है। नतीजों का विश्लेषण अब भी जारी है। कुछ विश्लेषक राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत करार दे रहे हैं और कुछ आडवाणी के थके-बूढ़े नेतृत्व की हार। कुछ ने इसे विकासपरक राजनीति के एक नए दौर का आग़ाज़ क़रार दिया है, तो कुछ ने हिंदुत्ववादी राजनीति का अंत।

कुछ विद्वान इसे क्षेत्रीय राजनीति के अंत की शुरुआत बता रहे हैं, कुछ ने दो दलीय राजनीति के युग का प्रारंभ घोषित कर दिया है और कुछ आत्ममोहित अति उत्साही बंधुओं ने इसे भारतीय जनता पार्टी के ताबूत में आखिरी कील साबित कर दिया है। देश के एक जागरूक नागरिक और सक्रिय पत्रकार होने के नाते मैं भी पिछले 1 महीने से इन तमाम विश्लेषणों और मतों को पढ़ता रहा हूं, सोचता रहा हूं।

अगर यह केवल राहुल गांधी के युवा नेतृत्व की जीत है, तो उड़ीसा में युवा नवीन पटनायक की ऐतिहासिक जीत का क्या राज है? यदि यह केवल बूढ़े और थके आडवाणी का हार है, तो बूढ़े येदियुरप्पा के कर्नाटक में मिली भाजपा की जीत को क्या कहा जाएगा? अगर यह विकासपरक राजनीति की जीत है, तो फिर अपने आप में यह साफ है कि यह कोई राष्ट्रीय जनादेश नहीं है, बल्कि राज्यों के जनादेशों का जोड़ है।

अगर यह हिंदुत्ववादी राजनीति के अंत की शुरुआत है, तो पिछले साल भर में हुए नौ विधानसभा चुनावों में से छह में भाजपा को मिली जीत की व्याख्या कैसे होगी? अगर यह क्षेत्रीय राजनीति का अंत है, तो चुनाव की पूर्व संध्या पर श्रीलंका में अलग तमिल देश के समर्थन की होड़ और एक परिवार में सिमटे द्रमुक को मिली भारी जीत को कैसे समझा जाए?

इसलिए मुझे लगता है कि यह जनादेश, ये चुनाव परिणाम इनमें से कुछ भी नहीं हैं, जो हमें अब तक बताया जा रहा है। मेरा साफ मत है कि यह परिणाम देश में एक सक्षम, समर्थ विपक्षी दल के अभाव का नतीजा है। क्यों? क्योंकि आप खुद याद कर देखिए। चुनाव परिणाम आने और उसके पहले के लगभग 4-5 महीने में कौन से मुद्दों ने आपके विचार को मथा है। किन मुद्दों ने एक मतदाता के तौर पर आपको झकझोरा है? आप जब मतदान केंद्र पर गए, उस समय आपके दिमाग में क्या मुद्दे थे? मैं जब आज इन्हीं सवालों पर विचार करता हूं, तो मन वितृष्णा से भर जाता है।

वितृष्णा इस देश की उस विपक्षी पार्टी के लिए, जिसे एक मजबूत प्रतिपक्ष की भूमिका निभाने का जनादेश मिला था। पिछले पांच साल में यूपीए की सरकार आतंकवादी घटनाओं को रोक पाने में पूरी तरह विफल रही, लेकिन चुनाव की पूर्व संध्या पर यह तर्क दिया गया कि आडवाणी के गृहमंत्री रहते एक आतंकवादी को अफगानिस्तार ले जाकर सी ऑफ किया गया था। यानी क्योंकि वाजपेयी की सरकार आतंकवाद के खिलाफ घुटने टेकने में डॉक्टरेट है, इसलिए को भी इसमें पीएचडी करने का पूरा अधिकार है।

पिछले पांच साल में आर्थिक मोर्चे पर सरकार का योगदान शून्य रहा, लेकिन तर्क यह दिया गया कि वाम मोर्चे ने कुछ करने ही नहीं दिया। विपक्ष ने यह सवाल नहीं उठाया कि जिस तरह मनमोहन सिंह ने परमाणु करार के मुद्दे पर जुआ पटक दिया, उसी तरह उन्हें देश हित के लिए जरूरी आर्थिक सुधारों के लिए सत्ता छोड़ने की धमकी देने का साहस क्यों नहीं किया?

नरेगा जैसे सामाजिक कार्यक्रमों से निश्चत तौर पर आम ग्रामीण जनता को अपेक्षाकृत काफी फायदा हुआ, लेकिन उसमें चल रहे भ्रष्टाचार और वादे से काफी कम कामकाजी दिन काम देने जैसी विसंगतियों को देश के सामने लाना क्या एक सशक्त विपक्ष का काम नहीं था? लेकिन महत्वाकांक्षी सत्तालोभियों से भरी भ्रष्ट भाजपा ने लगभग तमाम घेरे जा सकने वाले मुद्दों पर कांग्रेस को वाकओवर दे दिया।

(अगले खंड में हिंदू राष्ट्रवाद के मसले पर भारतीय जनता पार्टी की रणनीतियों का विश्लेषण)

सोमवार, 15 जून 2009

'डायन हिंदुत्व! इसे नंगा कर चौराहे पर घुमाओ'

भारतीय जनता पार्टी चुनाव क्या हारी, बेचारी हिंदुत्व पर तो मुसीबतों का पहाड़ ही टूट पड़ा है। उसे समझ ही नहीं आ रहा है कि उसका दोष क्या है। उसकी हालत उत्तर प्रदेश या बिहार में आए दिन होने वाली उन घटनाओं से समझा जा सकता है, जिनमें किसी एक दबंग जाति के कुछ 'जांबाज़ मर्द' इसलिए किसी दलित अबला को नंगा कर गांव में घुमाते हैं, क्योंकि उनके घर का कोई लड़का ज्यादा दारू पीने से बीमार हो गया। बेचारी वह दलित स्त्री अपनी झोपड़ी में पड़ी होती है या फिर किसी के खेत में मजदूरी कर रही होती है कि तभी उन जांबाज़ मर्दों की टोली आती है, उस पर डायन होने का आरोप लगाती है और इससे पहले कि वह कुछ समझ पाए, उसके कपड़े फाड़ कर उसे गांव भर में घुमाती है। वो तो उसे क़यामत के उन सदियों से लंबे घंटों के बीतने के बाद पता चलता है कि दरअसल उसे इसलिए डायन क़रार दिया गया कि वह बाबू साहब के घर के सामने से निकली थी और उसी के बाद उनके दारूबाज बेटे को खून की उलटियां होने लगीं थीं।

भाजपा की हार के बाद बेचारी हिंदुत्व की हालत भी उसी दलित बेसहारा स्त्री की सी हो रही है। हिंदुत्व बेचारी को तो भाजपा ने बहुत पहले, यानी जब अटल जी की 13 दिन की सरकार बनी थी, उस की पूर्व संध्या पर ही धकिया दिया था। वह तो बस अब अपने उन कुछ शुभचिंतकों की रूखी-सूखी रोटियां खाकर अपनी ज़िंदगी निकाल रही थी, जिनके लिए वह कभी केवल सत्ता चढ़ने की सीढ़ियां नहीं रही। लेकिन अब उसके करीब 12 साल बाद एकाएक उसे अपने नाम का शोर सुनाई दे रहा है। कुछ 'जांबाज़ भाजपाई', जो कल तक सत्ता की कुंजी जानकर उसके दरवाजे पर मत्था टेकते थे, उसकी झोपड़ी के आगे उसे ललकार रहे हैं। उसे पार्टी की हार का दोषी बताया जा रहा है।

लगभग ढाई महीने के चुनाव अभियान में किसी भाजपाई नेता ने उसका नाम तक नहीं लिया। वरुण गांधी के मूर्खतापूर्ण एक बयान ने ज़रूर उसकी जगहंसाई कराई, लेकिन कहीं भी उसके सच्चे स्वरूप यानी हिंदू राष्ट्रवाद का नामलेवा नहीं था। पार्टी के पीएम इन वेटिंग की चुनावी रणनीति तय करने वाले सुधींद्र कुलकर्णी ने कमजोर पीएम के नारे को केन्द्रीय विषय बनाने के बाद बहुत बेशर्मी से हार के बाद यह सलाह दे डाली कि हिंदुत्व ने ही उनकी यह दुर्गति करा दी। पार्टी के अल्पसंख्यक कोटे से तमाम विशेष पद और जिम्मेदारियां हथियाने वाले और अपने संसदीय क्षेत्र में चौथे स्थान पर आने वाले मुख्तार अब्बास नकवी ने तो चुनाव परिणाम आने के अगले दिन ही घोषणा कर दी थी कि अब हिंदुत्व की राजनीति का अंत हो गया है। स्वप्न दास गुप्ता ने अपने एक लेख में हिंदुत्व के सर हार का ठीकरा फोड़ते हुए कहा कि भावनात्मक ज्वार के आधार पर लंबे समय की राजनीति नहीं की जा सकती।

इन सब दिग्गज रणनीतिकारों के बयानों से ऐसा लग रहा है कि भाजपा ने यह चुनाव हिंदुत्व के केन्द्रीय मुद्दे पर ही लड़ा था। वरुण गांधी के जिस बयान पर सबसे ज्यादा वितंडा खड़ा किया गया और किया जा रहा है, हालांकि वह हिंदुत्व की राजनीति का आत्मघाती पक्ष है, लेकिन फिर भी भाजपा ने कौन सा उसका समर्थन कर दिया था और उसे अपना केन्द्रीय विषय बना लिया था। उसमें भी दो कदम आगे, तीन कदम पीछे का रणनीतिक खोखलापन ही दिखा। इसके अलावा हिंदू राष्ट्रवाद की दृष्टि से जो भी महत्वपूर्ण मुद्दे थे, उनमें से एक पर भी पार्टी ने ढाई महीने में एक क्षीण सा स्वर भी नहीं निकाला।

प्रधानमंत्री का देश के संसाधनों पर मुसलमानों का पहला हक बताना, आम शेयरधारकों और जमाकर्ताओं की हिस्सेदारी वाले सरकारी बैंकों पर कर्ज देने के लिए मुसलमानों को आरक्षण देने का दबाव बनाना, सेना में मजहबी आधार पर गिनती कराना, सुप्रीम कोर्ट के आदेश के बावजूद बंगलादेशी घुसपैठियों को संरक्षण देने वाले आईएमडीटी एक्ट को बनाए रखना, सुप्रीम कोर्ट के ही आदेश का उल्लंघन कर अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा बरक़रार रखना, मदरसे के दकियानुसी और साम्प्रदायिक पाठ्यक्रम को सीबीएसई के समकक्ष मान्यता देना और ऐसे तमाम गंभीर और राष्ट्र विरोधी फैसले कांग्रेसी सरकार के नाम हैं। लेकिन आप सर्वे कर लीजिए, देश की कितनी फीसदी जनता को इन मुद्दों में से आधे की भी जानकारी है। ये हैं हिंदू राष्ट्रवाद के असल मुद्दे। क्या इनमें से कोई भी एक हममें से किसी ने भी चुनाव प्रचार के दौरान सुना। यहां तक कि वरुण गांधी के मूर्खतापूर्ण बयान के तुरंत बाद आंध्र प्रदेश कांग्रेस के अध्यक्ष ने लगभग वैसा ही बयान दिया कि मुसलमानों के खिलाफ उठने वाली उंगली के बदले पूरा हाथ काट लिया जाएगा। मैं अपने अनुभव के आधार पर कहता हूं कि देश की 90 फीसदी से ज्यादा जनता को इस बयान का पता भी नहीं है, जबकि वरुण गांधी पर हुआ बवाल हम सब जानते हैं। क्या यह भाजपा की जिम्मेदारी नहीं थी कि इन मुद्दों से देश को अवगत कराएं।

'मजबूत नेतृत्व, निर्णायक सरकार' का ढोल पीटने वाली पार्टी अब हिंदुत्व पर लाल-पीला हो रही है। जैसे यह पूरा चुनाव हिंदुत्व के केन्द्रीय विषय पर ही लड़ा गया। ऐसे में हिंदुत्व सबसे निरीह और बेचारा दिख रहा है। देखें इसकी बेचारगी खत्म करने के लिए राष्ट्रवाद के किसी नायक के उभरने का इंतजार और कितना लंबा होगा?

सोमवार, 25 मई 2009

अब थोड़ी बहस विकास पर भी कर लें

पिछले साल जब विधानसभाओं चुनावों में राजस्थान और दिल्ली में कांग्रेस की और गुजरात, कर्नाटक, मध्य प्रदेश तथा छत्तीसगढ़ में भाजपा की जीत हुई थी, तब इसे भारतीय राजनीति में एक सकारात्मक अध्याय की शुरुआत करार दिया गया था। कहा गया था कि देश की राजनीति अब जाति, प्रांत, भाषा और पंथ के दायरे से निकल कर विकास की गोद में बैठने लगी है। खैर, 2009 के लोकसभा चुनाव परिणामों पर शुरुआती आश्चर्य के बाद धीरे-धीरे एक बार फिर विश्लेषक समुदाय इसी निष्कर्ष पर पहुंचने लगा है कि कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए की जीत दरअसल विकासोन्मुख राजनीति की जीत है। और तो और भाजपा के प्रवक्ता और रामपुर से चौथे स्थान पर रहे मुख्तार अब्बास नकवी ने भी तुरंत घोषणा कर दी कि मंडल (जाति केन्द्रित) और कमंडल (हिन्दुत्व केन्द्रित) राजनीति का दौर खत्म हो गया है और अब केवल विकास ही सत्ता का फॉर्मूला है।

मैं व्यक्तिगत तौर पर इस आकलन से सहमत नहीं हूं कि 2009 की जीत के पीछे कांग्रेस का विकासोन्मुख एजेंडा है। लेकिन यह बिल्कुल अलग विषय है, जिस पर एक अलग लेख लिखने की जरूरत होगी। फिलहाल तो जो विषय मेरे दिमाग में 16 मई के बाद से लगातार घूम रहा है, वह दूसरा है। मैं तमाम राजनीतिक पंडितों की विश्लेषणात्मक क्षमता का सम्मान करते हुए थोड़ी देर के लिए यह मान लेता हूं कि कांग्रेस की यह जीत दरअसल विकास की राजनीति की जीत है। विकास यानी अर्थव्यवस्था की मजबूती, बुनियादी ढांचे का प्रसार, शिक्षा का विस्तार, स्वास्थ्य सुविधाओं तक ज्यादा से ज्यादा जनता की पहुंच और ऐसे ही तमाम दूसरे मानक। लेकिन सवाल यह है कि विकास के ये तमाम मानक किसके लिए हैं? क्या किसी खास समुदाय या वर्ग के लिए किया गया विकास में पूरे देश की भागीदारी मानी जा सकती है। पिछले साल 110 करोड़ लोगों के प्रधानमंत्री ने एक बयान दिया था, जिसकी चर्चा कम की गई (पता नहीं क्यों?), कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक मुसलमानों का है। चुनाव की तैयारी में दिए गए अपने इस बयान को प्रधानमंत्री ने चुनाव प्रचार के दौरान दिए गए अपने भाषणों में भी दुहराया। बात केवल भाषणबाजी तक ही सीमित नहीं रही। पिछले साल के बजट में बाकायदा इस बात के प्रावधान किए गए कि बैंकों द्वारा बांटे जाने वाले कर्ज में अल्पसंख्यकों (यानी मुसलमान) का प्राथमिकता दी जाए। यहां तक कि वित्त मंत्री ने बैंकरों के साथ अपनी बैठक में भी बार-बार इस बात के लिए दबाव बनाया कि देश के तमाम नागरिकों से लिए गए जमा से बांटे जाने वाले कर्ज में एक खास हिस्सा मुसलमानों के लिए सुरक्षित हो। यानी अगर कोई मुसलमान उस खास आरक्षित हिस्से के लिए लोन एप्लिकेशन न दे, तो वह बैंक के पास ही पड़ा रहे, लेकिन किसी दूसरे जरूरतमंद को न दिया जाए।

अगर कांग्रेस के विकास की यही परिभाषा है, तो मुझे यह विकास नहीं चाहिए। मुझे लगता है कि पूरे देश को यह विकास नहीं चाहिए। देश ने अगर कांग्रेस को चुनाव जितवाया है, तो इसलिए नहीं कि उसे विकास का यह मॉ़डल पसंद है, बल्कि इसलिए कि विपक्षी दल भाजपा देश को इस कांग्रेसी विकास के मायने बता पाने में पूरी तरह नाकाम रही है। विदर्भ में कर्ज के बोझ से आत्महत्या कर रहे किसान को केवल इसलिए बैंकों के कर्ज का पहला अधिकारी नहीं माना जाएगा, क्योंकि वह एक खास पूजा पद्धति को नहीं मानते या किसी खास पवित्र किताब की इबादत नहीं करते। क्या हम सचमुच एक पंथनिरपेक्ष देश में रह रहे हैं? और अगर सचमुच हमें किसी भी कीमत पर विकास चाहिए, तो हम ओबामा को ही अपना राष्ट्रपति क्यों नहीं घोषित कर देते? क्या किसी हाइवे के निर्माण में यह शर्त लगाई जा सकती है कि इस पर से गुजरने वाली पहली 500 गाड़ियां किसी खास सम्प्रदाय की होंगी या किसी फ्लाईओवर पर चढ़ने वाली पहली 50 कारें उन्हीं लोगों की होंगी, जो एक खास मजहब में यकीन रखते हों। यह विकास का कैसा मॉ़डल है? क्या कांग्रेस की अगुवाई वाली यूपीए को मिला जनादेश इस मॉडल के समर्थन में है। मैं यह मानने के लिए तैयार नहीं।

अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय को अल्पसंख्यक संस्थान का दर्जा देने की 'धर्मनिरपेक्ष' कोशिशों को स्वयं सुप्रीम कोर्ट ख़ारिज़ कर चुका है। इसके बावजूद इस विश्वविद्यालय को यह सुविधाएं जारी हैं। निजी शिक्षण संस्थाओं में आरक्षण की देशव्यापी नीति से मुस्लिम संस्थानों को छूट दी गई है। मदरसों की पढ़ाई को सीबीएसई के समतुल्य होने का दर्जा दिया जा चुका है। यह विकास का कौन सा मॉडल है, कोई मुझे समझाए। आप देश के मुसलमानों को यह संदेश दे रहे हैं कि आपको देश की मुख्यधारा में शामिल होने की कोई जरूरत नहीं है, आप जहां हैं, जड़ बुद्धि से वहीं जमे रहिए, हम आपकी धारा को ही मुख्यधारा बना देंगे। फिर भी वे कहते हैं कि आपकी जीत विकास की जीत है। माफ कीजिए, आपकी जीत विकास की जीत नहीं, नपुंसक विपक्ष की हार है। मैं इस देश में तमाम सुविधाओं से केवल इसलिए वंचित किया जा रहा हूं क्योंकि मेरा नाम भुवन भास्कर है, मैं मंदिर जाता हूं, रामायण और गीता में आस्था रखता हूं, राम और कृष्ण में श्रद्धा रखता हूं। उस पर तुर्रा यह कि यह सब इस देश की धर्मनिरपेक्ष परंपरा को अक्षुण्ण रखने के लिए किया जा रहा है। इसलिए मेरा साफ मत है कि कांग्रेस की यह जीत विकास की नहीं, बल्कि आम जनता की
उदासीनता और जानकारियों के अभाव की जीत है।

शनिवार, 25 अप्रैल 2009

गरीब की लुगाई, धर्मनिरपेक्षता बेचारी

धर्मनिरपेक्षता तो भइया, जैसे गरीब की लुगाई हो गई है। अबला पांचाली के तो पांच ही पति थे, लेकिन इस धर्मनिपेक्षता के तो पचीस खसम उसे अपनी अंकशायिनी बनाने के लिए एक-दूसरे की गर्दन उतारने को तैयार हैं। अब धर्मनिरपेक्षता कनफ्यूज हो गई है। बिचारी को समझ ही नहीं आ रहा कि किसे बलात्कारी माने और किसके गले लगे। अभी कुछ महीने पहले तक तो सब ठीक था। उसे समझा दिया गया था कि केवल जो भी हिंदुओं के पक्ष की बात करे, उसे अपनी दुश्मन मान लेना। वह भी खुश थी। केवल एक भाजपा थी, जो उसकी दुश्मन थी। बाकी लालू और मुलायम टाइप के समाजवादी, प्रकाश करात और बुद्धदेव टाइप के वामपंथी, सोनिया और अर्जुन टाइप के कांग्रेसी सब धर्मनिरपेक्ष थे। नीतीश और नवीन टाइप के लोग, वैसे तो धर्मनिरपेक्ष (अल्पसंख्यक हितों के प्रति लगातार निष्ठा जताते रहने के कारण) थे, लेकिन भाजपाइयों के साथ होने के कारण उनके सिर भी धर्मनिरपेक्षता के खून के छींटे थे। तो सीन कुछ साफ था। लेकिन ये एकाएक सब गड़बड़ हो गई है।

एक ओर कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की अगुवा होने का दावा ठोंका, तो दूसरी ओर लालू-मुलायम-पासवान की तिकड़ी ने ऐलान कर दिया कि चुनाव के बाद जो धर्मनिरपेक्ष गठबंधन सत्ता बनाएगा, उसमें कांग्रेस शामिल ही नहीं होगी। अब धर्मनिरपेक्षता का तमगा लेने की जब ऐसी होड़ मची हो, तो हिंदू शब्द सुनते ही जिनके पूरे देह में खुजली मच जाती हो, वैसे वामपंथी भला कैसे चुप रहते। तो, हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद जोड़तो़ड़ और अवसरवादी राजनीति के नए सरताज बनने को बेताब प्रकाश करात ने भी घोषणा कर दी कि नई धर्मनिरपेक्ष सरकार में कांग्रेस का कोई स्थान नहीं होगा। अभी धर्मनिरपेक्षता बिचारी थोड़ी सांस ले पाती, गणित बैठा पाती और लालू-मुलायम-पासवान के साथ करात की जोड़ी मिला पाती, तब तक करात जी के अनुशासित सिहापी और नंदीग्राम नरसंहार के प्रणेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कह दिया कि कांग्रेस के बिना तो किसी धर्मनिरपेक्ष सरकार का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। लो, फिर वही ढाक के तीन पात। धर्मनिरपेक्षता तो है एक और एक-दूसरे पर तलवार ताने इसके दावेदारों की जमात है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती।

मुसलमानों पर उठने वाली उंगली के बदले हाथ काटने का ऐलान करने वाले आंध्र प्रदेश के धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस अध्यक्ष डी श्रीनिवास, भाजपा के साथ गठबंधन का कलंक धोने के लिए बात-बात में मुस्लिम हितों की सुरक्षा की कसमें खाने वाले धर्मनिरपेक्ष नीतीश कुमार, कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद वनवासियों द्वारा चर्च पर किए गए हमलों से आहत धर्मनिरपेक्ष नवीन पटनायक जैसे धर्मनिरपेक्षता के स्वयंभू दावेदार अलग से। आपकी पता नहीं, पर मेरी तो पूरी सहानुभूति है इस धर्मनिरपेक्षता से। आप ही बताएं, क्या करे बिचारी धर्मनिरपेक्षता ?

शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009

नेपाल में बन रही है गृह युद्ध की पृष्ठभूमि

कभी तिब्बत, भारत और चीन के बीच का बफर स्टेट हुआ करता था। नेहरू जी की अदूरदर्शी और आत्म केन्द्रित विदेश नीति के कारण आज वह चीन का हिस्सा बन चुका है। अब निशाने पर नेपाल है। नेपाल भी अब तक भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट का ही काम करता रहा है और 1962 के हमले से अब तक चीन की तमाम शत्रुतापूर्ण कूटनीति के बावजूद कम से कम नेपाल की सीमा पर तो हम बहुत हद तक निश्चिंत ही रहे हैं। लेकिन अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। हालिया घटना नेपाल के सेना प्रमुख को हटाने की है। भारत ने जहां एक ओर इस घटनाक्रम पर चिंता जताई है, वहीं चीन ने प्रचंड को अपना खुला समर्थन दे दिया है। यह चीन की एक और धूर्त कूटनीति है और साथ ही यह आने वाले कल का एक संकेत भी है।

नेपाल जल्दी ही गृह युद्ध के अगले दौर में प्रवेश करने वाला है। प्रचंड को निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने की सहूलियत और देश में पानी, बिजली, सड़क, रोजगार जैसी व्यवस्थाएं खड़ी करने की कठिनाई समझ में आने लगी है। करीब तीन साल पहले तक जिन राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री बनने में प्रचंड का साथ दिया था, अब वे उनके खिलाफ खड़े होने लगे हैं। वामपंथ और लोकतंत्र कभी एक साथ नहीं चल सकते और पिछले 100 साल की वामपंथी क्रांतियों के इतिहास में शायद ही इसका कोई अपवाद हो। आम जनता (जिन्हें वामपंथियों की शब्दावली में सर्वहारा कहा जाता है) के समर्थन से सत्ता हासिल करने के बाद वामपंथी शासकों ने हर बार पहला काम उसी जनता के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का किया है, लेकिन नेपाल में राजशाही के विरोध में उठी लहर ने इतिहास के इस सबक से आंखें मूंद लीं। इस गलती का परिणाम नेपाल को तो अभी भुगतना ही है, भारत भी उसकी धधक से नहीं बच सकेगा। इसलिए बिना कोई समय गंवाए भारतीय नीति निर्माताओं को इसकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।

माओवादियों और नेपाली सेना के टकराव की पृष्ठभूमि समझना जरूरी है। दरअसल यह उन हजारों माओवादियों की रोजी-रोटी की लड़ाई का सवाल है, जिन्होंने प्रचंड के राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होने से पहले 10 सालों तक हिंसा, लूट, अपहरण और अपराध छोड़ कर कुछ किया ही नहीं। अब प्रचंड तो बन गए प्रधानमंत्री, लेकिन ये रंगरूट क्या करें? उनसे यह उम्मीद करना तो बेवकूफी ही होगी न कि वे 10 साल तक अराजक और स्वच्छंद जीवन जीने के बाद अब एकाएक हल पकड़ कर किसान बन जाएं या फिर किराने की दुकान खोल कर आटा और मैदा बेचने लगें। तो फिर वे क्या करेंगे? उनके लिए एक ही काम हो सकता है, और वह है नेपाली सेना में उन्हें शामिल करना। लेकिन जिस नेपाली सेना ने करीब एक दशक तक इन्हीं लुटेरों, हत्यारों के खिलाफ लड़ाई में अपने सैकड़ों जवान शहीद किए हों, उसके लिए इन्हें अपना हिस्सा बनाना एक दुःस्वप्न हो होगा। लेकिन प्रचंड पर अपने पुराने लड़ाकों और कैडर की ओर से भारी दबाव है कि उन्हें सेना में भर्ती किया जाए। इसके अलावा दूसरा पहलू सैनिक निष्ठा का है। नेपाली सेना हमेशा से राजशाही समर्थक मानी जाती रही है। राजशाही नहीं रही, फिर भी उससे माओवादियों के समर्थन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। जबकि देश में अपनी तरह का शासन स्थापित करने के लिए प्रचंड को सेना की बिना शर्त निष्ठा चाहिए और वह उन्हें केवल अपने माओवादी रंगरूटों से ही मिल सकती है।

किसी देश के संदर्भ में विदेश नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश में सरकार हमारे लिए कितनी अनुकूल है। यह दरअसल विदेश नीति का ऐसा पहलू है, जो अब तक हमारी रणनीति में या तो शामिल नहीं रहा है या फिर अदृश्य रहा है। इसीलिए हम जब नेपाल में भारत के दोस्त महाराज वीरेन्द्र विक्रम शाह की पूरे परिवार के साथ हत्या हो गई, तो हम उसे नेपाल का आंतिरक मामला बताकर तमाशा देखते रहे। उसी के बाद से नेपाल में आईएसआई और चीन की पैठ बढ़ती गई और भले ही माओवादियों के नेतृत्व में हुए राजशाही विरोधी आंदोलन को जनता का भारी समर्थन देखा गया, लेकिन इसके पीछे चीन की भूमिका पर शायद ही कोई अध्ययन किया गया हो। अफ्रीका तक पर दबाव डाल कर दलाई लामा का वीजा अस्वीकार करवाने वाले चीन के बारे में कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है कि वह माओवादी आंदोलन के बारे में तटस्थ रहा हो। खास कर तब, जब विदेश नीति का ककहरा जानने वाला भी यह समझ सकता था कि माओवादियों के सत्ता में आने के बाद नेपाल चीन की गोद में बैठ जाएगा और भारत के लिए एक स्थाई सिरदर्द हो जाएगा।

प्रचंड की राह में नेपाली सेना और न्यायपालिका ही सबसे बड़ी बाधा हैं। न्यायपालिका ने पहले पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारी और अब सेना प्रमुख को अपदस्थ करने की प्रचंड की कोशिशों को तो असफल तक दिया है, लेकिन इससे प्रचंड की बढ़ती झुंझलाहट का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। अगले साल तक मौजूदा माओवादी सरकार को नया संविधान लागू करना है, लेकिन प्रचंड के रूख से ऐसा लग रहा है कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं। जिस तरह नेपाल में माओवादी शासन अपना जनसमर्थन खोता जा रहा है, उसमें इस बात की महती संभावना बन रही है कि आने वाले महीनों में प्रचंड पर सत्ता छोड़ने का दबाव बनने लगे और अगर ऐसा हुआ तो प्रचंड के पास अपने पुराने तौर-तरीकों का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा, क्योंकि सत्ता तो वह अब छोड़ने से रहे। ऐसे में उसके लिए चीन का बढ़ता समर्थन हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश की क्या गत बनाएगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। सवाल यह है कि क्या हम एक बार फिर इस समूचे घटनाक्रम के तमाशबीन बने रहेंगे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक और चिरस्थाई सरदर्द छोड़ जाएंगे, या अभी से कोई ठोस रणनीति बनाकर ऐसी पहल करेंगे कि आने वाला समय नेपाल और भारत, दोनों के लिए अमन और विकास की पृष्ठभूमि तैयार करे।

गुरुवार, 23 अप्रैल 2009

फिर तैयार हो रही है एक असफल विदेश नीति की भूमिका

मेरे एक तमिल मित्र से जब मैंने यह पूछा कि श्रीलंका में चल रहे संघर्ष पर तमिलनाडु की आम जनता क्या सोचती है, तो मैंने यह सोचा था कि जवाब एक बड़े सैद्धांतिक आवरण के साथ डिप्लोमैटिक किस्म का होगा। लेकिन मेरे मित्र ने बहुत साफ कहा कि भले ही प्रभाकरन आतंकवादी हो या चाहे जो कुछ हो, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि वह तमिल हितों के लिए लड़ रहा है। इसके बाद उसने जिस रूप में अपनी बात का विस्तार किया, वह काफी गंभीर था और उससे एक ओर तो श्रीलंका को लेकर भारतीय विदेशी नीति की द्वंद्वात्मक स्थिति समझ में आ जाती है, वहीं दूसरी ओर एक राष्ट्र के रूप में भारतीयता के सूत्र की स्थापना पर भी कुछ असहज सवाल उठते हैं।

मेरे तमिल मित्र ने कहा कि आखिर इंदिरा गांधी के समय भारत ने भी तो प्रभाकरण की मदद की ही थी, फिर बाद में उसके बारे में भारतीय नीति क्यों बदली। इस सवाल का जवाब खुद ही देते हुए उसने कहा कि कश्मीर में आतंकवाद के बढ़ने से भारत ने मजबूरन तमिल हितों के लिए अपने समर्थन को तिलांजलि दे दी। कश्मीर तो वैसे भी अपने पास है नहीं, थोड़ा सा हिस्सा बचा है, उसके लिए तमिल हितों के प्रति भारत अपनी जिम्मेदारी से कैसे पीछे हट सकता है। इस दलील में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा झकझोरा, वह था एक ऐसा स्वर, जो कहीं न कहीं कश्मीर को भारत से जोड़े रखने की अहमियत के लिए केवल इसलिए पूरी तरह उदासीन था, क्योंकि उसे लगता है कि यह उसके अपने जातीय भाइयों के हितों के आड़े आ रहा है।

तुलसीदास ने लिखा है, "बहुत कठिन जाति अपमाना।'' करुणानिधि जब प्रभाकरण को अपना दोस्त बताते हैं और वाइको जब प्रभाकरण के समर्थन के लिए जेल जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो जातीय अपमान के प्रति इसी असहनीयता का बोध होता है। तमिलनाडु की जनता के प्रभाकरण और लिट्टे से इसी भावनात्मक जुड़ाव ने श्रीलंका जैसे रणनीतिक तौर पर भारी महत्वपूर्ण देश के प्रति भारतीय विदेश नीति को अपंग बना दिया है। भारत के प्रति घोर शत्रुता का भाव रखने वाले दोनों पड़ोसी देश, पाकिस्तान और चीन इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं। पाकिस्तान से पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका के सामरिक संबंध काफी बढ़े हैं और पाकिस्तानी सेना लिट्टे से लड़ने के लिए श्रीलंका को हथियारों की सीधी आपूर्ति करने लगी है। इधर चीन ने भी सीधे तौर पर लिट्टे के खिलाफ कार्रवाई में राजपक्षे सरकार का पूरा समर्थन कर दिया है।

पाकिस्तान और चीन के इरादे किसी से छिपे नहीं हैं। नेपाल और बंगलादेश में अपना आधार बनाने के बाद आईएसआई को श्रीलंका में भी अपनी उपस्थिति मजबूत करनी है ताकि भारत को घेरा जा सके। दूसरी ओर चीन ने हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है और इस समुद्री सीमा के दूसरे महत्वपूर्ण देशों, जैसे मॉरीशस और सिशली से पहले ही पींगे बढ़ा रहा है। ऐसे में लिट्ट के खिलाफ चल रही कार्रवाई पर भारत की 'दो कदम आगे, एक कदम पीछे' नीति भले ही मानवीय आधार और तमिल जनता की भावनाओं के लिहाज से व्यावहारिक हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज से यह खतरनाक साबित हो सकती है।

सवाल यह है कि भारत के पास विकल्प क्या हैं? भारत दो तरह की रणनीति पर विचार कर सकता है। पहला, राष्ट्रीय स्तर पर एक ताकतवर अभियान चला कर देश की जनता, खास तौर पर पर तमिलनाडु की जनता के दिलोदिमाग में यह बैठाना जरूरी है कि सभी श्रीलंकाई तमिल लिट्टे के सदस्य नहीं हैं और क्योंकि श्रीलंका में एक स्वतंत्र तमिल राष्ट्र की स्थापना व्यावहारिक नहीं है, इसलिए हिंसात्मक अभियान तमिल समाज को न केवल कमजोर करेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रगति और विकास के रास्ते बंद करेगा। दूसरा, राजपक्षे सरकार पर दबाव डाल कर भारत अपनी मशीनरी के बूते श्रीलंका के भीतर बड़े पैमाने पर राहत कार्य चला सकता है और गृह युद्ध में तबाह हुए तमिलों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था अपने कंधों पर ले सकता है। अगर भारत ऐसा कर सका, तो हम तमिल जनभावना का सम्मान करते हुए लिट्टे के खिलाफ सरकारी लड़ाई में पूरी तरह मददगार बन सकते हैं।

श्रीलंका सरकार अभी अपने राष्ट्रीय जीवन की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रही है और इस समय उसका बिना शर्त समर्थन कर पाकिस्तान और चीन उसके लिए वही महत्व प्राप्त कर सकते हैं, जो कभी दुर्योधन का कर्ण के जीवन में हो गया था। कर्ण के जीवन में आए ऐसे ही संकट के समय उसका समर्थन कर दुर्योधन ने उसके जीवन में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जहां कर्ण ने न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित की सारी सीमाएं छोड़ कर दुर्योधन के समर्थन को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसलिए ऐसे मौके पर श्रीलंका को ऐसा संकेत देना, कि हम उसके राष्ट्रीय संकट में उससे मोलभाव कर रहे हैं, हमारी विदेश नीति के लिए घातक साबित हो सकता है।

सोमवार, 30 मार्च 2009

वरुण गांधी पर रासुका : फिर जागा धर्मनिरपेक्षता का भूत

वरुण गांधी पर राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लगा दिया गया है। उन पर हत्या के प्रयास का भी मुकदमा किया गया है। इस देश के धर्मनिरपेक्षतावादी खुश हैं। इसलिए नहीं कि एक वर्ग या सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ विष वमन करने वाले को सही जवाब दिया गया है, बल्कि इसलिए कि, पहला, विष वमन करने वाला अपने को हिंदू हितैषी बता रहा था और दूसरा, क्योंकि विष वमन करने वाला मुस्लिम सम्प्रदाय को अपना निशाना बना रहा था। लेकिन क्या केवल इसीलिए वरुण गांधी आतंकवादियों और राष्ट्रविरोधियों के लिए तैयार किए गए रासुका के हकदार बन जाते हैं?

अभी कुछ ही महीनों पहले महाराष्ट्र में राज ठाकरे के गुंडों ने रेलवे की परीक्षा देने आए विद्यार्थियों, टैक्सी ड्राइवरों और पान दुकान वालों को दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। उनके सामान लूट लिए, टैक्सियां तोड़ दीं और दुकान उजाड़ दिए। ये विद्यार्थी, टैक्सी ड्राइवर और दुकानदार दो आधारों पर पीटे गए। पहला, कि वे देश के किसी दूसरे प्रांत से थे और दूसरा, कि वे हिंदी भाषी थे। वे मुसलमान नहीं थे, क्या केवल इसीलिए इस देश की सरकार और प्रशासन ने वहां अपने संवैधानिक दायित्व को कूड़ेदान में डाल दिया? वरुण गांधी ने एक भाषण दिया और बाद में उससे मुकरने की भी कोशिश की, लेकिन राज ठाकरे ने हमले करवाए और बार-बार करवाए। भाषणों में और मीडिया इंटरव्यू में खुलेआम कहा कि वह ऐसा करते रहेंगे।

हमारे देश के धर्मनिरपेक्षतावादियों को से कोई शिकायत नहीं क्योंकि उन्होंने तो खुद को और अपनी अंतरात्मा को एक खास सम्प्रदाय के हितों की चिंता तक बांध ही रखा है। लेकिन सरकार और पुलिस की संवैधानिक जिम्मेदारियों का क्या? नक्सलवाद और आतंकवाद को न्यायोचित ठहराने के लिए पुलिसिया जुल्म और सरकारी उदासीनता को कारण बताने वाले इन धर्मनिरपेक्षतावादियों ने राहुल राज जैसे नवयुवकों की हताशा को समझने की कोशिश क्यों नहीं की? मऊ में जीप पर घूम-घूम कर दंगाइयों का नेतृत्व करने वाले विधायक की पार्टी का समर्थन करने वाले वामपंथियों और धर्मनिरपेक्षतावादियों के गुजरात की मंत्री का दंगा फैलाने के आरोप में गिरफ्तार होने पर खुश होने को चाहे जो सैद्धांतिक मुलम्मा चढ़ाया जाए, यह है तो केवल क्षुद्र साम्प्रदायिकता का ही दूसरा चेहरा।

और साम्प्रदायिक वैमनस्य फैलाने वाले भाषणों की ही बात करें तो क्या ऐसा देश में पहली बार हुआ है। मेरे एक प्रगतिशील मित्र का तर्क है कि केवल इसीलिए वरुण गांधी को छोड़ देने की दलील बिलकुल गलत है कि ऐसा पहले भी होता रहा है। मैं भी उनसे बिलकुल सहमत हूं। लेकिन उनका यह तर्क तब सही होता, अगर पहले के उदाहरणों में सरकारें या सरकार से जुड़े दलों ने ऐसे लोगों का बहिष्कार किया होता। कानूनी तौर पर न सही, नैतिक तौर पर उनकी मज़म्मत की होती। पर, सुप्रीम कोर्ट को पागल करार देने वाला इमाम बुखारी तो आपका प्रिय है, लश्कर-ए-तोएबा के केरल रिक्रूटमेंट इंचार्ज के साथ गुप्त बैठकें करने वाला और कोयम्बटूर बम विस्फोट के आरोप में वर्षों जेल में रहने वाला मदनी तो आपका सहयोगी है, बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए मुख्य आतंकवादी के घर जाकर आंसू बहाने वाले नेता तो देशभक्त हैं और अपने पूरे राजनीतिक जीवन के दौरान पहली बार एक सम्प्रदाय विशेष के खिलाफ भाषण देने वाले और उसके बाद उस पर कायम न रहने वाले वरुण
गांधी देशद्रोही है। यह बात कुछ हजम नहीं होती।

लेकिन हर बार की तरह इस बार भी धर्मनिरपेक्षतावादी (छद्म लगाना जरूरी नहीं है, क्योंकि पिछले 10 सालों की धर्मनिरपेक्ष राजनीति और इसके अलंबरदारों ने इस शब्द को अपने आप छद्म साबित कर दिया है) वरुण गांधी और भाजपा दोनों के सबसे हितैषी बन कर उभरे हैं क्योंकि शायद साल भर के संभावित जेल और रासुका ने एक बार फिर चुनाव से ठीक पहले उन्हें वो ताकत दे दी है, जिसकी उन्हें जरूरत थी।

शनिवार, 14 फ़रवरी 2009

वैलेंटाइन बाबा की पुण्यतिथि मनाने में बुरा क्या है?

वैलेंटाइन डे हमारे देश में हर साल पहले से ज्यादा महत्वपूर्ण होता जा रहा है। दो कारक हैं जो इसके महत्व के लिए कैटेलिस्ट की भूमिका निभा रहे हैं। पहला, बाजार और दूसरा भारतीय संस्कृति के मर्म से अपरिचित संस्कृतिवादी। पहले की बात पहले की जाए। जितने भी लोग वैलेंटाइन डे मनाते हैं, वे वास्तव में इसके दार्शनिक पहलू के प्रति कितने निष्ठावान हैं? पता नहीं। कोई प्रामाणिक आंकड़ा तो मेरे पास है नहीं, फिर भी समाज के प्रति अपनी समझ के आधार पर दावा कर सकता हूं कि 2-3 फीसदी लोगों से ज्यादा को न इस दिन के इतिहास का पता होगा, न दर्शन का। इसलिए "वैलेंटाइन डे मनाने वाले" यह वाक्यांश ही ग़लत है। मनाया विजयदशमी जाता है, मनाए 15 अगस्त और 26 जनवरी जाते हैं, मनाई दिवाली जाती है, लेकिन वैलेंटाइन डे मनाया नहीं जाता है। ये तो "पीने वालों को पीने का बहाना चाहिए" की तर्ज पर मनता है।

अगर वैलेंटाइन नाम के कोई संत तीसरी शताब्दी के रोम में पैदा हुए थे और अगर उन्होंने वहां के शासक क्लॉडियस द्वितीय की उस राजाज्ञा को चुनौती दी थी, जिसमें युवाओं के विवाह करने पर इसलिए रोक लगा दी गई थी, क्योंकि उसका मानना था कि विवाहित युवक कभी बहुत अच्छा सैनिक नहीं हो सकता और अगर उन्हें इस विद्रोह के लिए मौत की सजा दे दी गई थी, तो यह कहानी पश्चिमी देशों या इसाई संस्कृति को भले ही रोमांचित कर जाए, भारतीयों के लिए तो मुझे इस कहानी में रोमांच का कोई सूत्र नजर नहीं आता। यह एक क्षेत्र विशेष के राजा की सनक के खिलाफ वहां की स्थानीय प्रजा का विद्रोह था, जिसके पीछे कारण प्रेम भी हो सकता है और राजनीति भी। गांधी ने भी तो अंग्रेजों के खिलाफ लड़ाई में खिलाफत का इस्तेमाल किया था या भारतीय क्रांतिकारियों ने द्वितीय विश्वयुद्ध को अंग्रेजों को कमजोर करने का एक बेहतरीन मौका माना था। इसका मतलब यह तो नहीं कि हम खिलाफत या द्वितीय विश्व युद्ध के मुरीद बन जाएं। लेकिन वैलेंटाइन डे मनाने वालों से इतने सारगर्भित विचार की उम्मीद भी बेवकूफी होगी क्योंकि यह वो वर्ग है जिसकी चले तो पूरे 365 दिन प्रेम के नाम पर उच्छृंखलता और अमर्यादा का खेल खेलकर आनंदित होता रहे। वैलेंटाइन डे तो बस एक ऐसा दिन है जब इस खेल को सामाजिक मान्यता मिल चुकी है, इसलिए यह उन्हें प्रिय है। और फिर भारतीय संस्कृति के कुछ मूर्ख अलंबरदारों के कारण इस दिन के आयोजन को अनायास ही बड़ी संख्या में बुद्धिजीवियों का समर्थन भी मिलने लगा है। तो महीनों से दिल में दबे अरमानों को अभिव्यक्ति देने का ऐसा बेहतरीन मौका क्यों गवाया जाए, भले ही यह वैलेंटाइन डे की खोल में हो या फिर किसी और दिन के लिफाफे में।

अब बात करते हैं दूसरे तरह के कैटेलिस्ट की, जिसका पर्याय फिलहाल प्रमोद मुतालिक के गुंडे और शिव सेना जैसी क्षुद्र पार्टियां बनी हुई हैं। इन्हें यह छोटी सी बात समझ में नहीं आ रही कि क्रिया के बराबर प्रतिक्रिया होती है। जब से इन लोगों ने वैलेंटाइन डे का विरोध शुरू किया है, तभी से इसका ग्लैमर भी बढ़ता गया है। अगर इन मूर्खों ने इसके खिलाफ नकारात्मक प्रचार अभियान चलाने के बजाए सकारात्मक आंदोलन चलाया होता, तो ऐसी कुरीति का ज्यादा सक्षम विरोध किया जा सकता था। क्योंकि वैश्वीकरण, इंटरनेट और टेलीविजन के प्रभाव ने जिस तरह पूरी दुनिया को एक गांव में बदल दिया है, उसमें अपने गांव को पूरी दुनिया से अलग रखने की कोशिश समय की लहरों को पलटने का दुस्साहस ही कहा जाएगा। और समय के साथ तारतम्य नहीं बैठा पाने से तो डायनासोर भी विलुप्त हो गए। इसलिए जरूरत पश्चिमी संस्कृति की खाद से फल-फूल रहे इस तरह के आयोजनों का विरोध करने की नहीं, बल्कि इनका भारतीयकरण करने की है। अगर वैलेंटाइन बाबा सचमुच प्रेम के प्रतीक हैं, तो वह प्रेम केवल कॉलेज जाने वाले ऐसे लड़के-लड़कियों तक सीमित क्यों रहे, जिसकी परिणति किसी पार्क में
एक-दूसरे के स्पर्श या उससे भी अधिक किसी बंद कमरे में हो जाती है। वह प्रेम समाज के हमारे पिछड़ों (जाति आधार पर नहीं) और वंचितों तक क्यों नहीं पहुंचे। श्री राम सेने, शिव सेना और बजरंग दल जैसे संगठन इस दिन का खास इस्तेमाल समाज के इन वर्गों को मुख्यधारा में लाने के लिए कर सकते हैं। और वैलेंटाइन डे को एक ऐसे भारतीय आंदोलन में बदला जा सकता है जहां क्षुद्र शारीरिक कामेच्छाओं को प्रेम की चाशनी में लपेटने की कोशिश करने वाले खुद ही शर्मिंदा होकर भौंडे सार्वजनिक प्रदर्शनों से बाज आ जाएं।

शुक्रवार, 13 फ़रवरी 2009

बोलो बेटा क्या बनोगे ....गांधी या मुतालिक?

टाइम्स ऑफ इंडिया में दिल्ली संस्करण के मास्टहेड पर आज दो कटआउट लगे हैं, जिनका कंट्रास्ट अद्भुत है। दाईं ओर महात्मा गांधी और बाईं ओर प्रमोद मुतालिक। मुझे पूरा विश्वास है कि इस लेख को पढ़ते समय किसी के भी मन में यह सवाल नहीं कौंधा होगा कि "कौन प्रमोद मुतालिक"। क्योंकि आज की तारीख में प्रमोद मुतालिक से भी इस देश के लोग उतने ही ज्यादा परिचित हैं, जितने मोहनदास करमचंद गांधी। दरअसल भारत में यह गुंडागर्दी का इनाम है।

कॅरियर का विचार करते समय हम अक्सर मुनाफे और नुकसान का हिसाब लगाते हैं। बहुत बार हमें हिंदी अच्छी लगती है, लेकिन हम इसलिए स्नातक के लिए अंग्रेजी का चुनाव करते हैं, क्योंकि वहां कॅरियर की संभावनाएं व्यापक और बेहतर हैं। अब अगर देश के सबसे प्रभावशाली अखबार के पैनल पर छपने की मेरी इच्छा जाग जाए, तो मेरे लिए गांधी बनने का रास्ता तो हजारों मील लंबा और वर्षों की तपस्या से होकर गुजरेगा, लेकिन मुतालिक बनने का रास्ता...... बस कुछ गुंडों के साथ एक पब में घुस कर गुंडागर्दी करना। या शायद खुद पब में जाने की भी जरूरत नहीं। कुछ बेरोजगार मू्र्खों को उकसा कर मारपीट करवाइए और गांधी के बराबर खड़े हो जाइए।

कुछ मित्रों को लग सकता है कि पैनल के कटआउट को इतना बड़ा आयाम देना उचित नहीं है। लेकिन, क्योंकि मैं भी अपने कुछ मित्रों के साथ मिलकर एक अखबार के मास्टहेड के लिए रोज पैनल कटआउट का चुनाव करता हूं, तो हम आपस में जरूर इस बात पर विचार करते हैं कि क्या अमुक व्यक्ति को इतना बड़ा मंच देना उचित है। तो यह मानने का कोई कारण नहीं कि टाइम्स ऑफ इंडिया में इस विषय के लिए जिम्मेदार पत्रकारों ने यह विचार नहीं किया होगा। दूसरी बात, सवाल एक कटआउट का नहीं, सवाल हमारी व्यवस्थागत त्रुटि का है, जहां किसी समाज के सबसे वंचित समुदायों के लिए दशकों तक काम करने वाले को तो हम केवल तभी जान पाते हैं जब उसे कोई विदेशी पुरस्कार मिलता है, लेकिन प्रमोद मुतालिकों और राज ठाकरों को एक दिन की गुंडागर्दी से राष्ट्रीय पहचान मिल जाती है।

यह त्रुटि किसी कानून से ठीक नहीं हो सकती। इसके लिए मीडिया को ही अपने ऊपर संयम और अनुशासन लगाना होगा। लेकिन जब भूत, गड्ढे और नागों की कहानी से नंबर वन पाने की दौड़ मची हो, तो इस प्रकार का आत्मसंयम और आत्मानुशासन लागू हो पाना फिलहाल तो किसी आकाश कुसुम से कम जान नहीं पड़ता।

शनिवार, 31 जनवरी 2009

श्रीलंका ने दिखाई है राह, चलना तो हमें ही होगा

आज से दो साल पहले यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि श्रीलंका को कभी तमिल चीतों से मुक्ति मिल सकती है। अंतरराष्ट्रीय मान्यता के तौर पर भले ही श्रीलंका एक देश था, लेकिन सार्वभौम सत्ता की परिभाषा के आधार पर श्रीलंकाई सीमा क्षेत्र में दो देश चल रहे थे। एक संयुक्त राष्ट्र से मान्यताप्राप्त श्रीलंका और दूसरा एलटीटीई के प्रशासन वाला श्रीलंका। दूसरे श्रीलंका में पूरी तरह एलटीटीई का शासन था। कर व्यवस्था, कानून व्यवस्था, सड़कों और अस्पतालों आदि के निर्माण की लोककल्याणकारी योजनाएं, सब की जिम्मेदारी पूरी तरह लिट्टे के चीतों की थी। ऐसे में श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे और वहां की सेना ने पिछले दो वर्षों में जिस तरह की इच्छाशक्ति और ताकत दिखाते हुए एलटीटीई का सफाया किया है, वह लाजवाब है।

यह इसलिए भी लाजवाब है कि भारत भी अपने दसियों जिलों में कमोबेस ऐसी ही स्थिति झेल रहा है। पूर्वोत्तर के कई इलाके भारतीय सैनिकों के लिए वर्जित हैं। वे कहने के लिए भारतीय इलाके हैं, लेकिन भारत सरकार का कोई अधिकारी या कोई नागरिक भी बिना आतंकवादियों या उग्रवादियों की मर्जी के उन इलाकों में नहीं जा सकता। यहां तक कि देश के हृदयस्थल में बसे छत्तीसगढ़ के करीब 40 फीसदी जिलों में माओवादियों की समानान्तर सरकार चलती हैं। इन सभी इलाकों में लोग इन आतंकवादियों को टैक्स देते हैं, इनकी अपनी न्याय व्यवस्था है, अपना साम्राज्य है। लेकिन भारत सरकार ने इन उग्रवादियों और इनकी प्रभुसत्ता के आगे घुटने टेक रखे हैं। चाहे पूरे भारत में 60-70 श्रीलंका समा जाएं, चाहे भारतीय सेना श्रीलंकाई सैनिकों की तुलना में दस गुने से भी ज्यादा हों, लेकिन भारतीय प्रशासकों में श्रीलंकाई राजनीतिक इच्छाशक्ति का लेशमात्र भी नहीं है। जिस माओवाद की समस्या को स्वयं देश का प्रधानमंत्री सबसे बड़ी समस्या बता चुका हो, उससे निपटने की कोई समग्र रणनीति तक नहीं होना, इसी अभाव का प्रमाण है।

श्रीलंका की सरकार ने भारत को एक रास्ता दिखाया है। कोई भी समस्या कभी इतनी बड़ी नहीं होती कि राष्ट्र शक्ति को चुनौती दे सके बशर्ते इस शक्ति की कमान संभालने वाली भुजाओं में ताकत हो और हृदय में आग हो। दिक्कत यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा ही कुछ इस तरह है कि इसमें आगे बढ़ने के लिए हर कदम पर, हर दिन समझौते करने होते हैं। और शीर्ष तक पहुंचते-पहुंचते हम इतने समझौते कर चुके होते हैं, कि न तो हमारी भुजाओं में ताकत बचती है और न ही हृदय में आग।

बुधवार, 28 जनवरी 2009

इन कुसंस्कारियों से संस्कृति की रक्षा कीजिए

मैंगलोर में कुछ गुंडों ने एक पब में घुसकर जो कुकृत्य किया, उसकी केवल घोर निंदा काफी नहीं है। देश के एक महान राष्ट्रीय व्यक्तित्व के नाम पर सेना गठित कर निर्लज्जता और बेहूदगी का यह नाटक मेरे लिए या किसी भी भारतीय के लिए शर्म का नहीं, बल्कि आक्रोश का विषय है। लेकिन इसमें एक राहत की बात भी है। ये गुंडे कम से कम एक बात तो मानते हैं कि ये मानव नहीं हैं। ये पशु हैं। इनमें सामान्य बंदरों और सामान्य भालुओं के सारे गुण हैं, भले ही इनमें हनुमान और जाम्बवंत की भक्ति और संस्कार न हों। इसलिए इन पशुओं को मानव समाज में रहने का अधिकार नहीं है और इनका कोई मानव अधिकार भी नहीं होना चाहिए।

इन पशुओं को खुद संस्कार का ज्ञान नहीं है। केवल एक केसरिया दुपट्टा गले में बांधकर ये हिंदू संस्कारों का रक्षक होने का दावा कर रहे हैं, जबकि उन्हें इस देश की मूल संस्कृति का खुद ज्ञान नहीं है। किसी भी प्राचीन भारतीय साहित्य में 'हॉनर किलिंग' की अवधारण नहीं है। अगर कहीं अपवाद स्वरूप इस तरह की किसी घटना का जिक्र हो भी, तो समाज ने कभी इस तरह की प्रथाओं को मान्यता नहीं दी। संस्कृति के रक्षक बनने वाले ये गुंडे दरअसल खुद कभी किसी लड़की के साथ नहीं नाच पाने की कुंठा से ग्रस्त हैं और इसलिए इस प्रकार के कुकृत्य करते फिर रहे हैं।

लेकिन यहां मैं यह भी साफ करना चाहता हूं कि मैं पब में देर रात युवाओं के शराब पीकर उन्मत्त होने को कत्तई आधुनिकता की पहचान नहीं मानता। मेरा मानना है कि इस तरह की उच्छृंखलता न किसी समाज को और न ही किसी राष्ट्र को महान बना सकती है। लेकिन साथ ही मैं यह भी मानता हूं कि इसे मैंगलोर में दिखाई गई पशुता से भी नहीं रोका जा सकता। इन पशुओं के उत्पात से निपटना तो राज्य शक्ति के लिए बाएं हाथ का खेल है। सीएमओ से थाने में की गई एक फोन कॉल इनकी पशुता को जीवन भर के लिए इनका बोझ बना सकती है।

लेकिन लेट नाइट डांसिंग पार्टी, पब कल्चर और दारू कल्चर से भी सावधान होने की जरूरत है। पूरे समाज, सरकार और देश को इसके लिए तैयार होना होगा। समस्या केवल केसरिया दुपट्टा लपेटे किसी हिंदू नामधारी संगठन की गुंडागर्दी नहीं है। हिंदू और केसरिया से तोसमाज के ऐसे सांड भी भड़क जाते हैं, जिनका वास्तव में कोई सामाजिक सरोकार नहीं है।

लेकिन 2007 के 31 दिसंबर की आधी रात को मुंबई की सड़क पर कुछ लड़कियों के साथ खेले गए वहशियाना खेल या नोएडा के पब से रात को निकली लड़की के साथ हुए सामूहिक बलात्कार जैसी घटनाओं पर भी समाज को वैसे ही चिंतित होना चाहिए, भले ही उसमें 'हिंदू तालिबानिज्म' की सड़ांध न हो।