सोमवार, 31 दिसंबर 2012

एक बहादुर ज़िंदगी की गुमनाम मौत

आज सुबह उस बहादुर लड़की की अंत्येष्टि की कहानी और उससे जुड़ी घटनाएं पढ़ते हुए अनायास ही मेरे दिमाग में कुछ दिनों पहले की इसी तरह की कहानियां ध्यान में आ गईं, जो मुंबई हमलों के एकमात्र ज़िंदा पकड़े गए आतंकवादी को फांसी दिए जाने के बाद अख़बारों में आई थीं। 3.30 बजे सुबह निर्भया (उस लड़की के लिए दिया गया एक छद्म नाम) का शव सिंगापुर से आया। 7.30 बजे उसकी अंत्येष्टि कर दी गई।

उसकी मां चीख-चीख कर बेहोश होती रही कि मेरी बेटी को कुछ देर और मेरे पास रहने दो। लेकिन उस मां को अपनी बेटी को जी भर कर आखिरी बार देखने तक नहीं दिया गया। कांग्रेस सांसद महाबल मिश्रा ने अपने उन्हीं लोगों के साथ, जो उनके लिए चुनावी संसाधन जुटाते होंगे, लड़की की अंत्येष्टि के लिए सामान जुटाए। महाबल निर्भया के पिता की 'मदद' कर रहे थे। लेकिन इस मदद की असलियत इस बात से ही उजागर हो जाती है कि निर्भया के शव को अग्नि देने के लिए सूर्योदय तक का इंतज़ार नहीं किया गया। टॉर्च की रोशनी में आनन-फानन से अंतिम क्रिया कर दिया गया। अंतिम क्रिया कहां किया गया, यह भी गुप्त है।

ये खबरें, ये कहानियां हमारे लोकतंत्र पर एक थप्पड़ है। मैं सुबह से ही सोच रहा हूं सरकार की उस मानसिकता के बारे में, जिसके तहत यह किया गया। सरकारें कसाब और ओसामा बिन लादेन सरीखों के साथ ऐसा ही करती हैं ताकि उनकी तरह सोचने वालों के लिए वह सहेजने की जगह या याद न बन जाए। लेकिन निर्भया न क़साब थी, न ओसामा (अमेरिकी सरकार ने कुछ ऐसा ही किया था। फिर सरकार ने ऐसा क्यों किया? दरअसल क़साब या ओसामा का नाम हमारे ज़हन में इसीलिए आता है कि हम मानते हैं कि यह सरकार हमारी है।

लेकिन क्या यह सरकार भी मानती है कि हम उसके हैं? हां, वह हमें अपनी प्रजा ज़रूर मानती है, लेकिन अपना नहीं मानती। ठीक उसी तरह जैसे अंग्रेज हमें अपनी प्रजा ज़रूर मानते थे, लेकिन अपना नहीं मानते थे। इसीलिए भगत सिंह को जब फांसी दी गई, तो ऐसे कि किसी को पता न चले। उनके शव को आनन-फानन में जलाया गया। क्या इसलिए कि अंग्रेज भगत सिंह की निजता का सम्मान करते थे? निर्भया देश की नवोदित युवा क्रांति की प्रतीक बन चुकी है। और यह सरकार नहीं चाहती कि इस क्रांति को कोई चेहरा मिले।

सरकार दरअसल निर्भया की निजता नहीं, इसी क्रांति के प्रतीक को छिपाना चाहती है। वह नहीं चाहती कि नेहरुओं और गांधियों को टक्कर देता कोई ऐसा स्मारक भी खड़ा हो जाए, जो जनता का हो। यह बलात्कार की शिकार किसी आम लड़की की कहानी नहीं है, जिसे सामाजिक अपमान और क्लेश से बचाने के लिए निजता के नियम को बनाया गया है। उस लड़की के सभी संबंधी उसे जानते हैं, उसका गांव, उसका मोहल्ला उसको जानता है।

फिर यह सरकार किससे उसकी पहचान को छिपाना चाहती है? एक मिनट के लिए मान लीजिए कि उस लड़की का नाम राधा था। आप जान गए कि उस लड़की का नाम राधा था, तो उसकी निजता कैसे खंडित हो सकती है? आप तो उसे पहले भी नहीं जानते थे और अब भी नहीं जानते। यह जनता को बेवकूफ बनाने के लिए गढ़ा गया सिद्धांत है, जिसमें मीडिया को भी शामिल कर लिया गया है। उस बहादुर लड़की ने कोई पाप नहीं किया है कि उसकी पहचान छिपाया जाए।

इस क्रांति को सरकार कितनी हिकारत भरी नजर से देखती है, इसका प्रमाण पहले तो गृहमंत्री के उस मूर्खतापूर्ण बयान से मिला था, जब उसने कहा कि कल अगर गढ़चिरौली में 100 आदिवासी मारे जाएं तो क्या सरकार वहां बात करने चली जाएगी और दूसरा सबूत प्रधानमंत्री के उस घड़ियाली संदेश से मिला, जिसके खत्म होने के साथ ही उन्होंने कैमरामैन से पूछा कि उनका शॉट ठीक रहा कि नहीं। 12 दिनों तक देश का (क्योंकि दिल्ली में पूरा देश रहता है) युवा यहां-वहां मोमबत्तियां जलाता रहा, नारे लगाता रहा और वर्ल्ड कप की जीत के जश्न में भीड़ का हिस्सा बनने वाली सोनिया गांधी या उनके भावी प्रधानमंत्री बेटे में से कोई या उनका कोई विश्वस्त दरबारी एक बार भी उनके बीच नहीं आया। यह भी इस पूरे आंदोलन के प्रति इस सरकार की समझ का ही सबूत है।

यह सचमुच हमारा दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसी सरकार की प्रजा हैं, जो लोकतंत्र की घोर अलोकतांत्रिक उपज है। इस विशुद्ध जनाक्रोश से निपटने के लिए इसकी प्रतिक्रिया देखिए। इंडिया गेट बंद कर देना, मेट्रो के 10 स्टेशनों को हर दूसरे-तीसरे दिन बंद करना, 1-2 जगहों को छोड़कर पूरी दिल्ली में 144 लगाना और दिल्ली पुलिस को लाठियां भांजने के लिए सड़कों पर उतार देना। लेकिन यह सरकार निश्चिंत है कि 2014 से पहले कैश सब्सिडी फेंक कर यह चुनाव जीत लेगी। 60 साल में हमारा लोकतंत्र इतना ही परिपक्व हुआ है कि पहले वोट के लिए दारू बंटती थी, अब नीतिगत टुकड़े फेंके जाते हैं। फिर क्या फ़िक्र, अंतिम लक्ष्य तो सत्ता ही है।

सोमवार, 24 दिसंबर 2012

फांसी मांगकर इस सरकार को सेफ पैसेज मत दीजिए

बलात्कारियों को कड़ी सज़ा देने की मांग के साथ शुरू हुए आंदोलन में जिस एक भावना का सबसे उग्र प्रदर्शन हुआ है और हो रहा है, वह है पुलिस का विरोध। कल जिस तरह अलग-अलग जगहों पर आंदोलनकारियों ने दिल्ली पुलिस के कॉन्स्टेबलों की ओर थूका, रोड ब्लॉक कर रहे पुलिस के जवानों की ओर सिक्के उछाले और उन्हें नोट दिखा कर यह संकेत दिया कि आओ, इसी के तो भूखे हो तुमलोग। तो आकर ले जाओ अपनी बोटी और हमें जाने दो- वह दिखा रहा है कि अन्ना के आंदोलन में जो घृणा, जो नफ़रत नेताओं के खिलाफ दिखी थी, कुछ उसी तरह का माहौल इस आंदोलन में पुलिस के खिलाफ़ दिख रहा है।

इस गैंगरेप ने देश को एक बेहतरीन मौक़ा दिया है। मौक़ा व्यवस्था परिवर्तन का। एक बार फिर हमें वही बेवकूफ़ी नहीं करनी चाहिए, जो अन्ना आंदोलन ने की। बलात्कारियों को फांसी तो दीजिए, लेकिन इसका आधार क्या होगा? सबूत और पुलिस का आरोप पत्र। लेकिन अगर पुलिस जांच ही नहीं करे, पैसे खाकर सबूत ही नष्ट कर दे, आरोप पत्र ही न दाखिल करे, तो?

हत्या के लिए फांसी होती है, तो कितनों को फांसी हुई अब तक! 6 महीने और साल भर की बच्चियों का बलात्कार कर हत्या कर देते हैं शैतान- तो क्या यह रेयरेस्ट ऑफ द रेयर केस नहीं है? तो उनमें आरोपियों को फांसी क्यों नहीं होती? उसके लिए तो किसी कानून में बदलाव या संविधान में संशोधन की भी ज़रूरत नहीं। जब देश में 54 फीसदी बलात्कार के मामले पुलिस तक पहुंच ही नहीं पाते और जो पहुंचते हैं उनमें 97 फीसदी के आरोपी 24 घंटे भी जेल में बंद नहीं रहते, तो साफ है कि गड़बड़ी कानून में नहीं, नीयत में है।

यह मौक़ा केवल फांसी की सज़ा मांगने का नहीं, पूरी पुलिस व्यवस्था में सुधार की मांग उठाने का है। सुप्रीम कोर्ट के कई प्रयासों के बाद पुलिस सुधार लागू होने की कोई गुंजाइश नहीं बन रही। इसलिए की राजनीति पुलिस को अपने टूल के तौर पर इस्तेमाल करना चाहती है। हमें यह याद रखना चाहिए कि यह वही आईपीएस और आईएएस सेवाएं हैं, जिनका गठन अंग्रेजों ने भारतीयों का खून चूसने के लिए किया था।

यह वही पुलिस व्यवस्था है, जिसे भारतीयों को ग़ुलाम बनाए रखने के हथकंडे सिखाए गए थे। इसीलिए ब्रिटेन की पुलिस और भारत की पुलिस में इतना अंतर है। अंग्रेजों ने ब्रिटेन की पुलिस को अपने लोगों की सेवा के लिए बनाया, जबकि भारत की पुलिस को यहां के लोगों पर शासन करने के टूल के तौर पर खड़ा किया। गठन का यह विज्ञान भारत की पुलिसिया व्यवस्था में अब तक उसी तल्खी के साथ दिखता है। इस बदलने का समय आ गया है। पुलिस सुधार तुरंत लागू करने की ज़रूरत है। केवल बलात्कारियों को लिए फांसी का प्रावधान कर इन नेताओं को, इस सरकार को बचने का रास्ता मत दीजिए।

इस पूरे आंदोलन के खिलाफ़ जिस तरह सरकार अपना मुंह चुराती नज़र आ रही है, वह इस बात का सबूत है हम एक ऐसी सरकार के शासन में रह रहे हैं, जो केवल लाल बत्तियों की कारों, एयर कंडीशंड मीडिंग हॉल्स और एसपीजी के सुरक्षा घेरों से शासन करना जानती और चाहती है। ऐसी सरकार की पुलिस से केवल ऐसे ही व्यवहार की उम्मीद की जा सकती है, जो उसने कल दोपहर बाद और शाम को इंडिया गेट पर दिखाया। शांतिपूर्ण तरीक़े से बैठी लड़कियों पर लाठियां भांजी गईं और कड़ाके की ठंड में युवाओं पर पानी की बौछारें छोड़ी गईं। मेट्रो का इंडिया गेट के आसपास के 9 स्टोशनों को बंद करने का फैसला इस डरी हुई बहरी सरकार की चरम मूर्खता का ही संकेत है।

शनिवार, 22 दिसंबर 2012

पुलिस और राजनीति भी तो हमारे ही हैं

एक लड़की के साथ हुई दरिंदगी से पूरा देश उबल रहा है। मुझे पूरा भरोसा है कि इस उबाल में उन कुछ लोगों का खून भी खौल रहा होगा, जो उस दुर्भाग्यपूर्ण रविवार की रात को उस रास्ते से गुज़रे थे। उन्होंने उस लड़की और उसके दोस्त की खून से लथपथ काया देखी थी, उन तीन फरिश्तों की पुकार सुनी थी, जो उन्हें बचाने की जद्दोज़हद कर रहे थे। वे लोग भी ज़रूर आज टीवी के सामने बैठ कर अपनी बेटियों और बहनों के सामने इस हैवानियत पर पुलिस, नेताओं और उन शैतानों पर गालियों की बारिश कर रहे होंगे। कौन थे ये लोग? क्या अधिकार है इनको किसी और को गाली देने का? और वही लोग क्यों, मैं या आप अगर उसी रास्ते से उस दिन गुज़र रहे होते, तो हमने क्या रुक कर उन दोनों को अपनी गाड़ी से अस्पताल पहुंचाया होता? इन सवालों के जवाब केवल हम ख़ुद ही दे सकते हैं।

लेकिन मेरे मन में यह सवाल है कि जब तक हम ऐसे हैं, तब तक पुलिस या राजनीति कैसे बदल सकती है? यह पुलिस, यह राजनीति भी तो हमारा ही हिस्सा है। हमारे ही लोग हैं। मुझे लगातार यही लग रहा है कि देश भर में आक्रोश से भरी आवाज़ों में मूल मुद्दा कहीं खो सा गया है। मुझे ऐसा लगता है कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तरह ही यह जनांदोलन भी शुरू से ही अपना लक्ष्य भटक-सा गया है। अन्ना ने अपने आंदोलन का आधार जन लोकपाल को बना लिया, मानो जन लोकपाल के बनते ही देश में हर व्यक्ति साधु हो जाएगा, पैसे की ताक़त ख़त्म हो जाएगी और उपभोक्तावाद की मौत हो जाएगी। दिल्ली में हुए गैंगरेप पर हो रही पूरी बहस भी केवल अपराधी के लिए फांसी और कानून-व्यवस्था के मसले के रूप में सीमित हो गई है।

बलात्कार कानून-व्यवस्था का मसला कम और सामाजिक व्यवस्था का ज़्यादा है। बलात्कारियों को फांसी देना या लिंगच्छेदन कर देना या रासायनिक बधियाकरण कर देना जैसी सज़ाओं पर ज़रूर विचार होना चाहिए। लेकिन पिछले केवल हफ्ते भर में जिस तरह तीन साल, पांच साल की बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सामने आई हैं, उसमें दोषी को सज़ा देने से ज़्यादा बड़ा सवाल मुझे यह लगता है कि इस आक्रोश के बीच भी ऐसे मामले क्यों सामने आ रहे हैं? दोषी को सज़ा देने का मूल मक़सद भी यही है कि किसी और को उस शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से न गुज़रना पड़े, जो बलात्कार के बाद ज़िंदगी भर की सौगात होती है।

रेप, एब्यूज़ एंड इनसेस्ट नेशनल नेटवर्क (रेनन) के आंकड़े बताते हैं कि देश में होने वाले बलात्कार के कुल मामलों में से 66 फीसदी के आरोपी किसी न किसी रूप में पीड़ित के जानने वाले होते हैं और 38 फीसदी तो सीधे दोस्त या परिवार से जुड़ा कोई शख़्स होता है। तो आप पुलिसिया व्यवस्था को चुस्त कर कितने बलात्कार रोक लेंगे।

दूसरी बात, बलात्कार अनियंत्रित यौन इच्छा का चरम प्रकटीकरण है। तो क्या हमें उन कारकों के बारे में नहीं सोचना चाहिए, जहां से इस तरह की इच्छाओं को उठने से ही रोका जा सके। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि जिन देशों में शराब की कीमतें बढ़ाई गईं, वहां महिलाओं के खिलाफ़ अपराध में कमी आई है। इस बारे में कोई ठोस आंकड़ा नहीं है, लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि 100 में से जिन 66 महिलाओं के साथ उनके किसी-न-किसी परिचित ने यौन उत्पीड़न किया, उनमें से कितनों ने शराब पी रखी थी या फिर शराब पीन के आदी थे। घर-घर में कंडोम के उत्तेजक विज्ञापन, फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता- क्या इन सबका ऐसी घटनाओं में कोई योगदान नहीं है? इन पर भी चर्चा होनी चाहिए।

कानून-व्यवस्था का मसला निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि रेनन के मुताबिक बलात्कार के आरोप में पकड़े गए आरोपियों में से 97 फीसदी 24 घंटे के भीतर जेल से बाहर आ जाते हैं। इस आंकड़े के साथ ही उस स्टडी के निष्कर्षों को भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए जो तिहाड़ जेल में बंद बलात्कार के आरोपियों/दोषियों के बीच किया गया। ऐसा हर क़ैदी पुलिस के हत्थे चढ़ने से पहले कम से कम चार बार किसी-न-किसी का यौन उत्पीड़न कर चुका था। साफ है कि अगर हमारी पुलिस संवेदनशील हो जाए और कानून के छेद बंद हो जाएं तो हर बलात्कारी की शिकार बनी कम से कम तीन लड़कियां बचाई जा सकती थीं। यानी सिर्फ दिल्ली में इस साल अब तक जिन 600 महिलाओं को इस वेदना से गुज़रना पड़ा है, उनमें से 450 को बचाया जा सकता था।

लेकिन एक बार फिर पुलिस के साथ समाज का रवैया कटघरे में है। आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के 54 फीसदी मामले तो पुलिस के पास जाते ही नहीं। ऐसा कुछ तो पुलिस की उदासीनता और कई मामलों में अपराधी के साथ मिलीभगत के कारण होता है और बहुत से मामलों में मां-बाप लड़की के भविष्य की चिंता करते हुए मामला दबा देना उचित समझते हैं। बलात्कार पीड़ितों के प्रति समाज का रवैया हमेशा से दोमुंहा रहा है। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब बलात्कार का शिकार हुई लड़की के परिवार को गांव या शहर तक छोड़ना पड़ गया है। तो हम कानून को जितना भी सशक्त कर लें, जब तक हमारा ख़ुद का रवैया नहीं बदलेगा, कोई फायदा नहीं होगा। इसको ऐसे समझें कि मान लें कि दिल्ली गैंगरेप के छहों आरोपियों को कल फांसी दे दी जाए। लेकिन जो लड़की इनकी दरिंदगी का शिकार हुई है, अगर उसे समाज जीने का अधिकार न दे, सम्मान न दे, एक सामान्य जीवन जीने का मौक़ा न दे- तो क्या फायदा इन छह को फांसी देने का। आख़िर तो हम इस लड़की की पूरी ज़िंदगी को उन दरिंदों के साए से नहीं उबरने देंगे न !

काटजू जैसे बहुत से लोग जिन्हें लग रहा है कि उनकी बहन, बेटी और बीवी घर की चहारदिवारियों में पूरी तरह सुरक्षित है, स्यापा कर रहे हैं कि मीडिया बेवजह इसे इतना ज़्यादा तूल दे रहा है। लेकिन इन बुद्धिजीवियों को यह समझ में नहीं आता कि यह आक्रोश एक दिन में पैदा हुआ आक्रोश नहीं है। और न ही ऐसा है कि ये आंदोलन समस्या के अंतिम समाधान का ब्रह्रास्त्र हैं। लेकिन जनांदोलनों का इतिहास और उनका मनोविज्ञान यही बताता है कि ऐसे आंदोलन लक्ष्य प्राप्ति की महत्वपूर्ण कड़ियां होती हैं। ऐसे कई जनांदोलनों से ही समाज अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है और ऐसे स्वतःस्फूर्त आंदोलन ही समाज के ज़िंदा होने का सबूत हैं।





शनिवार, 18 अगस्त 2012

मीडिया चुप है, नेता चुप हैं, हम 'ख़बर' देख रहे हैं

असम और पूर्वोत्तर के दूसरे राज्यों के लोगों को देश भर से खदेड़ा जा रहा है। सरकार, नेता और मंत्री आश्वासनों की बरसात कर रहे हैं और समाज मूकदर्शक बन कर टीवी चैनल पर 'ख़बर' देख रहा है। कौन सा समाज ख़बर देख रहा है? और अगर समाज ख़बर देख रहा है, तो इन पूर्वोत्तर वासियों को धमकियां कौन दे रहा है और इन पर हमले कौन कर रहा है? इस सवाल पर सब चुप हैं।

मीडिया चुप है, नेता चुप हैं। होना लाज़िमी है। इसलिए कि हमला करने वाले 'कुछ भटके हुए नौजवान' हैं। ये कुछ मुट्ठी भर वही भटके हुए नौजवान हैं, जिन्होंने मुंबई के आज़ाद मैदान में 50,000 की संख्या में इकट्ठा होकर नंगा नाच किया। ख़बरिया चैनलों के ओवी वैन जलाए, अमर जवान ज्योति पर लातों और लोहे के रॉड से हमले किए। लेकिन इन मुट्ठी भर भटके हुए नौजवानों की पहचान क्या है? कौन हैं ये? इन्हें किस बात का गुस्सा है? और आख़िर में एक सवाल, यह घटना के सबक क्या हैं?

देश भर में फैले इन मुट्ठी भर नौजवानों को गुस्सा इस बात पर है कि असम में और म्यांमार में जो दंगे हुए हैं, उनमें मुसलमानों पर अत्याचार हुए हैं। हैदराबाद के सांसद असदुद्दीन ओवैसी ने हफ्ते भर पहले यह धमकी दी थी कि इन दंगों के कारण पूरे देश के मुसलमान युवक कट्टरवाद की ओर आकर्षित होंगे। असम में हुए दंगे बोडो हिंदू आदिवासियों और बंगलादेशी मुसलमानों के बीच के दंगे हैं।

यह कोई गुप्त तथ्य नहीं है कि आज असम में बंगलादेशी मुसलमान वहां की राजनिति को नियंत्रित करने लगे हैं, वहां के मूल निवासियों की आजीविका के लिए बड़ा ख़तरा बन चुके हैं और यहां तक कि उनकी ज़मीनों पर कब्ज़े कर रहे हैं। ये दंगे उसी का नतीजा हैं, जिनमें इस बात की कोई आधिकारिक जानकारी नहीं है जानोमाल के नुकसान के तौर पर किस पक्ष को कितनी क्षति हुई है। लेकिन पूरे देश के मुसलमानों में आक्रोश है। माफ़ कीजिए, मुट्ठी भर भटके हुए नौजवानों के मन में इस घटना को लेकर आक्रोश है। और उस आक्रोश का प्रकटीकरण यह है कि पूरे देश में पूर्वोत्तर के हिंदुओं पर हमले हो रहे हैं, उन्हें धमकियां दी जा रही हैं।

कल ईद के पहले की आख़िरी नमाज थी, जिसे अलविदा नमाज कहते हैं। उत्तर प्रदेश के कई शहरों, लखनऊ, कानपुर, इलाहाबाद सहित देश के कई दूसरे हिस्सों में भी इस नमाज के बाद इन मुट्ठी भर भटके हुए नौजवानों ने पथराव किए। किस पर किए, मैं नहीं समझ पा रहा हूं, क्योंकि एक बार फिर मीडिया इस सवाल पर चुप है।

लखनऊ, कानपुर या इलाहाबाद में पूर्वोत्तर के लोगों की बस्तियां तो हैं नहीं कि उन पर पथराव हुए। तो पथराव का निशाना कौन था? हां, यह ख़बर ज़रूर है कि इन भटके हुए नौजवानों ने लखनऊ के एक पार्क में टहल रही कुछ महिलाओं को घेर कर उनके कपड़े फाड़ दिए। यह तो ख़बर है, लेकिन इस पूरे घटनाक्रम में और क्या कुछ हुआ होगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है।

एक रहस्य और है। हमने आज तक यही सुना है कि नमाज ख़ुदा की इबादत है। यह भी कि पांच नमाजी मुसलमान सच्चा मुसलमान होता है और अल्लाह के ज़्यादा क़रीब होता है। फिर ऐसा क्यों होता है कि पथराव, गुंडागर्दी और आतंकवाद की ऐसी घटनाएं अक्सर नमाज के बाद ही होती हैं। ये मुट्ठी भर भटके हुए नौजवान जब नमाज के बाद निकलकर पथराव कर रहे थे, तो अधिसंख्य उदार, समन्वयवादी और धार्मिक सहिष्णुता की भावना से लबरेज मुस्लिमों ने उन्हें रोकने के लिए क्या किया?

सोचिए, मंदिर में 100 या 200 लोग आरती के लिए इकट्ठे हों, पूजा करें और फिर बाहर निकल कर महिलाओं को नोचने लगें, अपने पड़ोसियों पर पथराव करने लगें। कल्पना कर पाते हैं क्या आप इसकी? और अगर ऐसा हो तो, इस देश के हिंदू समाज (वामपंथियों और सेकुलरों को छोड़कर, क्योंकि उन्हें तो वैसे भी इस शब्द से ही दस्त और उलटियां शुरू हो जाती हैं) की प्रतिक्रिया क्या होगी?

और अब आख़िरी सवाल। इन घटनाओं का सबक क्या है? देश के एक हिस्से में भारतीयों और विदेशी घुसपैठियों के दो समूहों के बीच संघर्ष होता है। इस संघर्ष के मूल में कहीं भी इनकी अलग-अलग मज़हबी पहचान नहीं है, बल्कि इसका कारण जनसंख्या संतुलन का विदेशी घुसपैठियों के पक्ष में झुक जाना है। यह पूरी तरह से एक सामाजिक-आर्थक संघर्ष है। लेकिन क्योंकि विदेशी घुसपैठिए एक ख़ास मज़हब के हैं, इसलिए पूरे देश में उस मज़हब के लोगों को गुस्सा आ जाता है। और फिर वे पूरे देश में हिंदू पूर्वोत्तर वासियों को मारना और धमकाना शुरू कर देते हैं।

यह महत्वपूर्ण है। क्योंकि पूर्वोत्तर के जिन लोगों को धमकाया जा रहा है, मारा जा रहा है- वे बोडो जनजाति के नहीं हैं। लेकिन वे हिंदू हैं। असम का बंगलादेशी घुसपैठी पूरे देश के मुसलमानों का सगा है और बोडो हिंदू क्योंकि उनके प्रभुत्व का विरोध कर रहे हैं, तो पूर्वोत्तर का हर हिंदू उनका दुश्मन है। यह सबक उन वामपंथियों के लिए भी है, जो देश के आदिवासियों को हिंदू मानने से इंकार करते हैं।

काश, कि वे अपनी बात अपने कलेजे के टुकड़ों इन मुट्ठी भर भटके हुए नौजवानों को समझा पाते। ख़ैर, ये तो सबक तभी लेंगे, जब उनका भी नंबर आ जाएगा। लेकिन देखना है, बाकी का समाज समय रहते इससे सबक लेता है कि नहीं। उसकी कुम्भकर्णी नींद अब भी खुलती है कि नहीं?

बुधवार, 25 जुलाई 2012

वहशी और सफेदपोश नक्सलियों का गठजोड़

अगर आप इमानदार नहीं है, तो इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि आप किसी की आलोचना कर रहे हैं या प्रशंसा। आतंकवाद का सबसे बड़ा शिकार वही निरीह जनता होती है, जिसके नाम पर उस कृत्य को सैद्धांतिक जामा पहनाया जाता है। कश्मीर, खालिस्तान, उल्फा और अब नक्सली- इन सबने सबसे ज्यादा खून और आंसू उन्हीं का बहाया है, जिनके नाम पर ये लडऩे का दावा करते हैं। लेकिन विडंबना देखिए, तमाम सेकुलर मानवाधिकारवादी और वामपंथी आतंकवाद के नाम पर केवल उनसे लडऩे वाले सुरक्षा बलों पर ही प्रहार करते हैं।

छत्तीसगढ़ में निरीह आदिवासी मारे गए। कैसे मारे गए? क्या पुलिस ने उन्हें घर में घुस कर मारा या थाने में लाकर मारा? खुफिया सूचना पर नक्सलियों को दबोचने जा रहे सुरक्षा बलों पर रात के अंधेरे में फायरिंग हुई और जवाबी कार्रवाई में ये आदिवासी मारे गए। इसलिए कि गोलियां चलाने वालों ने इन निरीह बेचारे आदिवासियों को ह्युमन शील्ड के तौर पर सुरक्षा बलों की गोलियों के सामने कर दिया। लेकिन यहां एक और महत्वपूर्ण एंगल है। अगर नक्सलियों को सुरक्षा बलों से लडऩा ही नहीं था, उन्हें नुकसान पहुंचाना ही नहीं था, तो उन पर गोली ही क्यों चलाई। क्या इसका देश भर में सेकुलर मानवाधिकारवादी और वामपंथी के विरोध प्रदर्शनों से कोई संबंध है? कहीं यह एक ही नक्सली खेल के दो हिस्से तो नहीं? खेल का पहला हिस्सा छत्तीसगढ़ के गांव में गरीब आदिवासियों को सुरक्षा बलों की गोलियों के आगे परोस कर खेला गया और अब दूसरा हिस्सा शहरों और बुद्धिजीवी संस्थाओं में मौजूदा सफेदपोश नक्सलियों द्वारा सुरक्षा बलों को खलनायक साबित कर खेला जा रहा है?

गुरुवार, 19 जुलाई 2012

नई मस्जिद, पुरानी कहानी


कुछ दिन पहले मेरे एक मुसलमान पत्रकार परिचित (मित्र इसलिए नहीं लिख रहा क्योंकि अभी कुछ दिनों पहले मैंने फेसबुक पर उनको अनफ्रेंड कर ब्लॉक कर दिया है) ने फेसबुक पर एक पोस्ट लिखा था, जिसकी पहली लाइन थी कि भारत का मुसलमान मंदिर के घंटे की तरह है, जिसे जो चाहे, जब चाहे बजा जाता है। उस पर चली बहस तीन दिन तक खिंची और अंत में इतनी गंदी और अमर्यादित हो गई कि उन सज्जन को अपनी पूरी पोस्ट ही डिलीट करनी पड़ी।

ख़ैर, मैंने उनके पोस्ट पर अपना जो प्रतिवेदन दिया था, उसका लब्बोलुआब यही था कि भारत के मुसलमानों को हर उस राजनेता को अपना असल दुश्मन मानना चाहिए जो उनकी गलत मांगों को प्रश्रय देकर उन्हें वोट बैंक की तरह इस्तेमाल करता है। उन्हें मेरी बात नहीं समझ में आई, जैसा कि मेरा अनुमान था। अब फिर मैं अपनी बात वहीं से शुरू कर रहा हूं। दिल्ली में 200 करोड़ रुपए की लागत से पूरी तरह तैयार मेट्रो स्टेशन की खुदाई में एक मस्जिद के अवशेष मिले। दावा है कि यह मस्जिद औरंगजेब ने बनवाई थी।

तुरंत उस इलाके का मुस्लिम विधायक और वहां के इमाम, मुल्ले दिल्ली की मुख्यमंत्री के पास पहुंचे। अब इस देश की राजनीति में कहां इतनी हिम्मत कि वह मुसलमानों की किसी मांग पर उनसे उसका स्पष्टीकरण पूछने का साहस कर सके। तो तुरंत शीला दीक्षित ने उनको मस्जिद की पूरी सुरक्षा का भरोसा देते हुए डीएमआरसी को निर्देश दिया कि 200 करोड़ रुपए से तैयार मेट्रो स्टेशन को कहीं और शिफ्ट किया जाए। जैसे ये 200 करोड़ रुपए शीला जी के पिताजी ने उन्हें विरासत में दिए थे।

खैर, यह तो एक अध्याय था। दूसरा अध्याय। भारतीय पुरातात्विक विभाग ने उस इलाके को किसी भी निर्माण के लिए प्रतिबंधित कर दिया और एमसीडी (भाजपा प्रशासित) ने घोषणा की कि वह अपनी ज़मीन नहीं देगा। लेकिन इस देश का मुसलमान यहां के कानून से हमेशा ऊपर रहा है (अगर आपको याद हो तो वहीं जामा मस्जिद के इमाम ने अपने खिलाफ़ वारंट जारी करने वाले सुप्रीम कोर्ट को पागल क़रार दिया था और उसका बाल भी बांका नहीं हुआ)। इस देश की राजनीति मुसलमानों के पैरों पर लोटने वाली दासी रही है (तभी दिग्विजय सिंह जैसे नेताओं ने बाटला हाउस मुठभेड़ में मारे गए आतंकवादियों के घर जाकर अपनी नाक रगड़ी थी)। सो, तमाम प्रशासन और कानून को धता बताते हुए मस्जिद के खंडहर का पुनर्निर्माण शुरू हो गया है। स्टील के ढांचे, क्रंक्रीट और सीमेंट से दीवारें खड़ी की जा रही हैं और पूरा प्रशासन नपुंसक हो गया है।

एक और मज़ेदार बात देखिए। कल ही एनडीटीवी ने घंटे भर का प्रोग्राम किया और महान पत्रकार बरखा दत्त ने अपने पेट पैनल के जरिए देश को यह बताने की कोशिश की कि इस देश में अल्पसंख्यक (मुसलमान पढ़ें) पूर्वग्रह और भेदभाव का सामना कर रहा है। उन्होंने एक मुस्लिम को केस हिस्ट्री बनाया था, जिसे स्पाइसजेट के विमान से उतार दिया गया था। सैनिक अधिकारी बताए जाने वाले उस मुस्लिम ने स्पाइसजेट पर उन्हें मुसलमान होने के कारण उतारने का आरोप लगाया। स्पाइसजेट का कहना है कि वह प्रतिबंधित इलाकों की तस्वीर उतार रहे थे और इसलिए उनका कैमरा लेकर यह सुनिश्चित करने की कोशिश की गई कि उन्होंने तस्वीर डिलीट कर दी है। उन्होंने क्रू के साथ बदतमीजी की और सहयोग करने से इंकार किया।

सच-झूठ का फैसला इंक्वायरी के बाद होगा, लेकिन सेकुलरिज़्म (मतलब हिंदू विरोध) के प्रति निष्ठावान एनडीटीवी ने यह घोषित कर दिया कि इस देश में मुस्लिम पीड़ित है। यह एक ख़तरनाक स्थिति है, जिससे देश के हर नागरिक को डरना चाहिए। उपर जिन मुस्लिम पत्रकार का मैंने ज़िक्र किया, उन्हें तकलीफ़ थी कि यहां मुसलमानों को किराए का मकान नहीं मिलता और कि आपस में लड़ने वाले हिंदू, मुसलमानों के ख़िलाफ़ एक हो जाते हैं। मैं भी यह मानता हूं। बीमारी की पहचान आपने ठीक कर ली है, लेकिन सही इलाज से आप डरते हैं। भले ही कोई हिंदू लालू, मुलायम, सोनिया, दिग्विजय या शीला दीक्षित का वोटर हो, लेकिन यह खेल उसे भी अखर रहा है। देश की पूरी राजनीति को मुसलमानों के पैरों पर लोटते देख कर उनके अंदर पर भी प्रतिक्रिया हो रही है। और इसी कारण हर दिन इस देश के हिंदू के अंदर मुसलमानों के प्रति थोड़ी-थोड़ी घृणा और थोड़ा-थोड़ा गुस्सा भर रहा है।

इस स्थिति से केवल मुसलमानों को ही नहीं, हर हिंदू को भी डरना चाहिए। क्योंकि घृणा और हिंसा हिंदू समाज का मूल संस्कार नहीं है। लेकिन इतिहास गवाह है कि समाज का गठन तर्क पर नहीं, इतिहास की नींव पर होता है। अगर देश की 100 करोड़ जनता मुसलमानों से घृणा करने लगेगी, तो उस स्थिति की कल्पना कोई भी कर सकता है। लालू, मुलायम, सोनिया और शीला को उस स्थिति से डर नहीं, क्योंकि उन्हें तो बस 5-10-15 या 20 साल की गद्दी चाहिए। मुसलमानों की क़ौमी गुंडागर्दी बंद होनी चाहिए, नहीं तो इस देश के लिए एक भीषण त्रासदी की भूमिका तैयार होती रहेगी।

गुरुवार, 21 जून 2012

क्यों जरूरी है मोदी का समर्थन


नरेंद्र मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनना चाहिए। क्यों? क्योंकि उन्होंने 2002 के गुजरात दंगों में मुसलमानों की सुरक्षा के पर्याप्त उपाय नहीं किया। नीतीश टाइप के सेकुलरिस्ट इसके लिए अक्सर अटल बिहारी वाजपेयी के शब्दों का हवाला देते हैं कि उन्होंने राजधर्म का पालन नहीं किया। बिलकुल सही है। मैं भी ऐसा ही मानता हूं। लेकिन 1984 में कांग्रेसी दंगाइयों को सिखों की हत्या का खुलेआम संदेश देने वाले राजीव गांधी के बारे में अटल जी के क्या विचार हैं? उत्तराखंड की मांग को लेकर अपने लोकतांत्रिक मांगों के समर्थन में आंदोलन कर रहे निरीह और निहत्थे लोगों की हत्या और महिलाओं का बलात्कार करवाने वाले मुलायम यादव के बारे में अटल जी ने कुछ कहा था कि नहीं, पता नहीं। नंदीग्राम में गरीब जनता पर बेइंतहां जुल्म ढाने वाली कम्युनिस्टों की सरकार सेकुलर हैं। अल्पसंख्यकों (मुसलमानों) का इस देश के संसाधनों पर पहला अधिकार बताने वाले मनमोहन सिंह सेकुलर हैं। शराब के नशे में की गई शाहरूख खान की गुंडागर्दी के बाद जब उनपर कार्रवाई की गई, तो लालू यादव ने कहा कि उनको मुसलमान होने के कारण परेशान किया जा रहा है। लालू यादव सेकुलर हैं। मुसलमानी टोपी (स्कल कैप) पहनकार ख़ुद को मुल्ला घोषित करने वाले मुलायम सेकुलर हैं।

ये तमाम सेकुलरिस्ट प्रधानमंत्री बन सकते हैं, मुख्यमंत्री बन सकते हैं। मोदी नहीं बन सकते हैं। क्योंकि मोदी हिंदू साम्प्रदायिक हैं। यानी इस देश में मुस्लिम साम्प्रदायिक (जिन्हें यहां सेकुलर कहा जाता है) तो हर पद पर बैठ सकते हैं, लेकिन हिंदू साम्प्रदायिक नहीं। बस यही एक कारण है, जिसके कारण अपने को हिंदू मानने वाले हर भारतीय को मोदी के लिए खड़े हो जाना चाहिए।

नीतीश ने कम से कम मेरा भ्रम तो खत्म कर ही दिया है। मोदी एक अच्छे प्रशासक हो सकते हैं। लेकिन उन्होंने बहुत बार यह साबित किया है कि उनका अहंकार पार्टी से बड़ा हो गया है। संजय जोशी प्रकरण में उन्होंने यह भी साबित किया कि वह बड़े नेता तो हैं, लेकिन महान नेता नहीं। मैं अब तक इसी उधेड़-बुन में था कि क्या मोदी जैसे अड़ियल और अहंकारी व्यक्ति को सच में प्रधानमंत्री बनना चाहिए। लेकिन अगर इस देश के तमाम मुस्लिम साम्प्रदायिक सेकुलरिस्ट केवल इसलिए मोदी को प्रधानमंत्री नहीं बनने देना चाहते कि उनमें सत्ता के शीर्ष पर जाने के बाद भी हिंदुत्व के प्रति अपनी निष्ठा व्यक्त करने का माद्दा है, तो फिर ये हिंदू समाज की जिद होनी चाहिए कि प्रधानमंत्री तो मोदी ही बनेंगे।

बनेंगे या नहीं बनेंगे... ये तो समय ही बताएगा। लेकिन अब मेरा 110 फीसदी मत मोदी के साथ है। और मैं फिर कहता हूं, कि हर हिंदू (दुर्घटनावश हिंदू घर में पैदा होने वालों से मुझे कुछ नहीं कहना है) को 110 फीसदी समर्थन के साथ मोदी के लिए खड़े हो जाना चाहिए।