अब तक जो बात ढ़क-छिप कर कही जा रही थी, वह सामने है। एक वामपंथी नेता और मायावती ने खुल कर कह दिया है परमाणु करार इसीलिए बुरा है क्योंकि वह देश के मुसलमानों को पसंद नहीं है। और मुसलमानों को इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि यह अमेरिका के साथ किया जा रहा है। और अमेरिका मुसलमानों का शत्रु इसलिए है क्योंकि उसने इराक और तालिबान पर हमला किया है। इस तर्क के पीछे का तर्क क्या है? कि पूरी दुनिया के मुसलमान एक राष्ट्र हैं और उनका राष्ट्रहित उन मुद्दों से नहीं जुड़ा है जो उनके देश से जुड़े हैं, बल्कि दुनिया के मुसलमानों से जुड़ा है।
और मैं बहुत जोर देकर यह भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि यह बात भारत का मुसलमान नहीं कह रहा, बल्कि यह कह रहा है एक चीन परस्त वामपंथी नेता और खुद को गहनों में तुलवा कर दलित हित का बिगुल बजाने वाली एक ऐसी नेता, जिसने साल भर पहले मुसलमानों को कट्टरतापसंद कौम करार दिया था। आज के इंडियन एक्सप्रेस में कुछ बयान हैं, जो इस मुद्दे पर भारतीय मुसलमानों की राय जानने में काफी हद तक मदद करते हैं। उमर अब्दुल्ला ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि परमाणु करार अच्छा है या बुरा, इस पर बहस तो हो सकती है, लेकिन यह हिंदुओं और मुसलमानों के लिए किस तरह अलग-अलग है, यह उन्हें समझ में नहीं आता। घोर साम्प्रदायिक इतिहास के वारिस इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के मुहम्मद बशीर ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए यूपीए का समर्थन करते रहने की बात कही है। जद (यू) के सांसद महाज अली अनवर ने वामपंथियों और मायावती के विरोध को राजनीति प्रेरित बताया है वहीं हर मुद्दे पर हमेशा साम्प्रदायिक दृष्टि से सोचने वाले सांसद असादुद्दीन ओवैसी ने मायावती के बयान को गंदी राजनीति करार दिया है और कहा है कि मुसलमान प्रेम के नाम पर करार का विरोध करने वाले दरअसल स्वार्थी लोग हैं। तो साफ है कि करार का समर्थन या विरोध केवल एक राजनीतिक मुद्दा है, साम्प्रदायिक नहीं।
लेकिन एक चुके हुए वामपंथी और अपने कॅरियर के शीर्ष पर चल रही मायावती का परमाणु करार पर रुख कुछ याद दिलाती है आपको। आजादी से बहुत पहले 1919-1924 के बीच चला एक आंदोलन, जिसे खिलाफत आंदोलन का नाम दिया गया था। यह आंदोलन दक्षिण एशियाई मुसलमानों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चलाया था। मुद्दा था कि ब्रिटेन ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद ओट्टोमन साम्राज्य के खलीफा के साथ किया गया वादा पूरा नहीं किया था। अब क्योंकि खलीफा मुसलमानों का मजहबी नेता हुआ करता था, तो मुसलमानों के लिए इस आंदोलन में शामिल होना एक मजहबी मसला माना गया। भारतीय मुसलमान भी उसमें शामिल हो गए थे। भारत में उस समय आजादी की लड़ाई चल रही थी और ऐसे में गांधी जी को लगा कि ब्रिटेन के खिलाफ मुस्लिमों की नाराजगी को भुनाने का यह एक अच्छा मौका है। सो उन्होंने खिलाफत को अपना समर्थन दे दिया। बहुत से लोग (मैं भी) इसे गांधी जी की वह ऐतिहासिक भूल मानते हैं, जिसने पाकिस्तान के निर्माण को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी। अल्लाम इकबाल ने जब पाकिस्तान की सोच परोसी, तो यह कहा कि क्योंकि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, इसलिए वह एक देश में नहीं रह सकते। गांधी जी का इस आंदोलन को समर्थन देना यह स्वीकार कर लेना था कि मुसलमानों को इस देश के मुद्दे से जोड़ कर आंदोलित नहीं किया जा सकता। उन्हें इस देश के हितों के लिए खड़ा करने के वास्ते किसी भी मुद्दे को मजहब की चाशनी में लपेट कर पेश करना होगा। यह एक तरफ तो मुसलमानों के अलग राष्ट्र होने के सिद्धांत पर मुहर था, दूसरी ओर उनकी बाह्य निष्ठा को मान्यता देना था।
खैर, अब इराक और तालिबान पर हमले के कारण अमेरिका के मुसलमानों का शत्रु होने का फतवा देना और इसी को अमेरिका से भारत के संबंध तय करने का आधार बनाना, एक बार फिर उसी खिलाफत आंदोलन की याद दिला रहा है। इस नए खिलाफत का परिणाम क्या होगा, भगवान जाने। उम्मीद है तो बस इतनी कि न तो ज़मीन से कटे वामपंथी नेता और मायावती, गांधी जी के कद के सामने कहीं ठहरते हैं और न ही जनता अब किसी भी नेता को उस तरह पूजने को तैयार है, जैसा कि वह 1924 में गांधी जी को पूजती थी।
शिक्षक दिवस पर दो शिक्षकों की यादें और मेरे पिताजी
4 हफ़्ते पहले