बुधवार, 5 नवंबर 2008

मायावती और बराक ओबामा में कॉमन क्या है?

अमेरिका में बराक ओबामा की जीत ऐतिहासिक है। दुनिया के सबसे 'सभ्य' और 'सुसंस्कृत' समाज ने एक अश्वेत को देश के राष्ट्रपति का पद देने में पूरे 219 साल लगा दिए। किसी महिला को वहां तक पहुंचने के लिए शायद और कुछ दशकों का इंतजार करना पड़े। लेकिन जैसा कि हम भारतीयों की आदत है, हमने अपने राष्ट्रीय राजनीतिक परिणामों की तुलना ओबामा की जीत से करनी शुरू कर दी है। वैसे भी भारत और अमेरिका के कूटनीतिज्ञ दोनों के बीच कुल मिलाकर यही एक तुलनात्मक विशेषण खोज पाए हैं कि एक जहां दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र है, वहीं दूसरा विश्व का सबसे पुराना लोकतंत्र है (यहां तुलना भी लोकतंत्र की पश्चिमी परिभाषा के आधार पर ही सही है)। तो स्वाभाविक है कि ओबामा की जीत को कुछ कथित राजनितिक विश्लेषक अमेरिकी राजनीति में 'दलित राजनीति के उभार' से जोड़ कर देखना शुरू करेंगे।

विश्लेषण में कोई बुराई नहीं है। ज्यादा से ज्यादा एंगल खोजिए, ज्यादा से ज्यादा सिद्धांत बनाइए। लेकिन बड़े-बड़े तमगे लगाने के बाद थोड़ी समझदारी भी तो दिखाइए। अमेरिकी नतीजों के तुरंत बाद सीएनएन-आईबीएन पर चल रही चर्चा में कुछ देर पहले योगेंद्र यादव को सुना। भरोसा नहीं होता कि इतना नामचीन और स्थापित विश्लेषक इतनी छिछली और बेवकूफाना बात कर सकता है। राजदीप के यह पूछने पर कि ओबामा की जीत के बाद अमेरिकियों की प्रतिक्रिया को भारतीय राजनीतिक संदर्भ में कैसे देखा जा सकता है, योगेन्द्र यादव जी ने कहा कि उत्तर प्रदेश में मायावती की जीत ऐसा ही ऐतिहासिक क्षण था और जब दिल्ली में बैठे अंग्रेजीदां लोग मायावती के जीतने पर गौरव जताना शुरू कर देंगे, तभी वह मानेंगे कि भारत में भी बदलाव आ गया है। यानी योगेंद्र यादव जी ने अपनी ओर से यह तय कर दिया कि कुछ सालों के राजनीतिक जीवन में सैकड़ों करोड़ की संपत्ति खड़ी करने करने वाली, अपने जन्मदिन पर करोड़ों रुपए के जेवरात का भौंडा सार्वजनिक प्रदर्शन करने वाली, अपनी प्रतिमा स्थापित कर व्यक्ति पूजा के नए मानक स्थापित करने वाली और हर प्रकार की राजनीतिक मर्यादा की धज्जियां
उड़ाने वाली मायावती के जीतने पर अगर मुझे गर्व नहीं होता, तो मैं भारत के सामाजिक बदलाव का सबसे बड़ा रोड़ा हूं।

आप में से जिस किसी ने भी जीत के बाद ओबामा के भाषण का टीवी पर प्रसारण देखा हो, वह मायावती और ओबामा की जीत के अंतर को समझ सकता है। ओबामा को सुनने वाली भीड़ में जितने अश्वेत अमेरिकी थे, उतने ही श्वेत भी थे। सामाजिक तौर पर लगभग बराबरी और सम्मान का माहौल पा चुक अश्वेत श्रोताओं में कोई आक्रामकता नहीं थी, बल्कि आंखों में आंसू थे। निश्चित तौर पर ये आंसू घृणा के नहीं हो सकते। जो श्वेत श्रोता थे, उनकी आंखों में भी बदलाव की खुशी और चमक थी। ओबामा की जीत में मैकेन के वोटरों के लिए आतंक नहीं है, ओबामा की जीत में रिपब्लिकंस के लिए घृणा नहीं है। जिस दिन ये विशेषताएं मायावती की जीत का हिस्सा बन जाएंगे, उस दिन पूरा भारत उनकी जीत पर गौरवान्वित होगा। इसलिए मायावती की जीत को दलित समाज की जीत का प्रतीक बनाना एक शातिर राजनीतिक प्रोपैगेंडा के अलावा और कुछ नहीं है।

भारत ने आज से 60 साल पहले ही अपने सबसे महत्वपूर्ण राष्ट्रीय साहित्य यानी संविधान की रचना के लिए जिस टीम का चुनाव किया था, उसकी कमान डॉक्टर भीमराव अंबेडकर को सौंपी गई थी। तब से आज तक वंचित समाज के पता नहीं कितने धरोहरों ने गंदी बस्तियों की नालियों से संसद के गलियारों तक का सफर तय किया है। सैकड़ों.... नहीं हजारों ने। इसके बाद भी अगर देश का बहुसंख्यक दलित और वंचित समाज मूलभूत मानवीय अधिकारों से वंचित है, तो क्या इसका जवाब उन हजारों दिग्गजों से नहीं मांगा जाना चाहिए, जिन्होंने उस समाज के प्रतिनिध के नाम पर ही तमाम विशेषाधिकारों का भोग करते हुए अपनी पीढ़ियों तक के लिए धन का अंबार खड़ा कर लिया। इसलिए भारतीय लोकतंत्र ने तो बहुत पहले अपनी योग्यता साबित कर दी है, अब राजनेताओं को अपनी योग्यता साबित करनी है।

'सेकुलरिज्म' का मानक तय करने वाले अमेरिकी समाज में एक मुसलमान घर में पैदा हुए बराक हुसैन ओबामा को राष्ट्रपति बनने के लिए यह सफाई देनी होती है कि उसने बहुत पहले इसाइयत अपना ली है। एक हिंदू घर में पैदा हुए बॉबी जिंदल को अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत करते ही अपना मजबह बदलकर इसाई बनना पड़ता है। भारत में कितने मुसलमान और इसाई किन प्रमुख राजनीतिक पदों पर बैठे हैं, इसकी सूची बनाने की कोशिश भी बेवकूफी होगी। अपने राजीतिक विश्लेषण को अपनी प्रगति और ताकत की सीढ़ी बनाने वालों से तो कोई खास उम्मीद करना बेकार है, हमें जरूर भ्रम फैलाने वाले ऐसे विश्लेषकों के बचने की जरूरत है।

शुक्रवार, 31 अक्तूबर 2008

यह कमजोर याददाश्त है या छिछली समझदारी?

राहुल गांधी यूं तो 545 सांसदों में से महज एक सांसद हैं, लेकिन देश की मीडिया और यहां का प्रशासन उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर ही देखता है। मैं भी अपवाद नहीं हूं। राहुल बाबा जब कुछ बोलते हैं या करते हैं, तो मुझे तो यही लगता है कि एक ट्रेनी प्रधानमंत्री अपनी रिपोर्ट कार्ड तैयार कर रहा है। इसलिए जब उन्होंने हाल ही में यह कहा कि उन्हें 17 साल से अपने पिता की हत्या का न्याय नहीं मिला है, तो मुझे हंसी भी आई और अफसोस भी हुआ। हंसी इसलिए आई कि एक बेटे को यही नहीं पता कि उसकी मां और बहन क्या कर रहे हैं और कह रहे हैं और अफसोस इसलिए हुआ कि ऐसे छिछले और बचकाने व्यक्तित्व को आज नहीं तो कल हमें अपने प्रधानमंत्री के रूप में देखना पड़ेगा।

राहुल से किसी स्कूली छात्रा (या शायद छात्र) ने अफजल को फांसी नहीं दिए जाने का कारण पूछा था। उस छात्रा ने भी राहुल से यह सवाल शायद इसीलिए पूछा क्योंकि उनमें उसे अपना भावी प्रधानमंत्री दिख रहा था। लेकिन राहुल बाबा को अपनी पहचान राजीव गांधी के पुत्र के तौर पर ज्यादा आकर्षक लगती है। सो उन्होंने कहा कि उन्हें उनके पिता की हत्या का न्यान 17साल में नहीं मिला। मैं तब से समझने की कोशिश कर रहा हूं कि राहुल ने किस न्याय की बात की है?

राहुल के पिता की हत्या श्रीलंका के आतंकवादी संगठन लिट्टे ने की। कानूनी तौर पर बात करें, तो तफ्तीश हुई और एक अभियुक्त नलिनि को इस हत्या के षडयंत्र में शामिल होने के लिए फांसी की सजा दी गई। उस समय इन्हीं राहुल जी की मां ने उसके लिए क्षमादान की अपील कर अपनी महानता की मुहर लगाई थी। इसके बाद बहुत दिन नहीं हुए जब उनकी बहन प्रियंका मीडिया से छिप कर नलिनि से मिलने गईं। बाद में इंडियन एक्सप्रेस में इसका खुलासा होने के बाद उन्होंने इसे मानवीय आधार पर की गई मुलाकात बताया। मां-बेटी ने नलिनि को मानवीय आधार पर सजा की अवधि पूरी होने से पहले रिहा करने की भी सार्वजनिक अपीलें कीं। और अब बेटा कह रहा है कि उसे न्याय नहीं मिला।

अब बात करें राजनीतिक पहलू की। राजीव गांधी के हत्यारे प्रभाकरन और उसके संगठन लिट्टे के प्रति द्रमुक एवं उसके नेता एम करुणानिधि की सहानुभूति और समर्थन कोई गुप्त तथ्य नहीं है। लेकिन केन्द्र सरकार बनाने के लिए राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी ने इसी द्रमुक का समर्थन लिया और आज भी यह यूपीए सरकार का घटक दल है। इतना ही नहीं, इन्हीं करुणानिधि के दबाव में सोनिया गांधी की सरकार ने दूसरे देश के आंतरिक मामलों में दखल न देने की भारत की दशकों की विदेश नीति को धता बता दिया है। और इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि विदेश नीति में यह ऐतिहासिक विसंगति भी देशहित में नहीं, बल्कि राजीव गांधी के हत्यारे लिट्टे को बचाने के लिए की गई है। श्रीलंका सरकार पर शीर्ष स्तर से यह दबाव बनाया जा रहा है कि वह लिट्टे के खिलाफ जारी अपनी निर्णायक लड़ाई में ढील दे दे। और फिर राहुल बाबा कह रहे हैं कि उन्हें अपने पिता की हत्या का न्यान नहीं मिला।

बेहतर होता कि एक स्कूली छात्रा के सामने पिता की हत्या पर न्याय न मिलने का रोना रोने की जगह अपनी मां के सामने इस बात की दुहाई देते। और इससे बेहतर होता अगर व्यक्तिगत मुद्दे छेड़ने के बजाय उस छात्रा के साथ ही पूरे देश को वह अफजल की फांसी पर उठ रहे सवाल का जवाब भी दे देते।

मंगलवार, 28 अक्तूबर 2008

मराठा गृहमंत्री की इस मर्दानगी पर लाखों राहुल राज न्योछावर

महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता शिवराज पाटिल जैसे रीढ़विहीन गृहमंत्री को पांच साल से झेलते-झेलते हम भूल गए हैं कि यह एक ऐसा मंत्रालय है, जिसके ऊपर देश की आंतिरक सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है और इसलिए इसकी अगुवाई करने वाला नेता ऐसा होना चाहिए जो राज्य के प्रति अपराध करने वालों के लिए अपने-आप में एक सख्त संदेश हो। ऐसी विस्मृति के दौर में ही आज जब एकाएक एक और मराठा गृहमंत्री आर आर पाटिल का संदेश सुना तो नसों में रोमांच दौड़ गया। महाराष्ट्र राज्य के मराठा गृहमंत्री आर आर पाटिल ने कहा है कि जो भी कानून के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश करेगा और लोगों को डराएगा, उसे गोली से जवाब दिया जाएगा। छोटे पाटिल साहब ने ये वीरतापूर्ण उद्गार व्यक्त किए वीर मराठा पुलिस की उस मुठभेड़ को जायज ठहराने के लिए, जिसमें बिहार के एक बेरोजगार युवक को इसलिए गोली मार दी गई थी, क्योंकि वह एक बस को 'हाईजैक' कर रिवॉल्वर लहराते हुए मुंबई के कमिश्नर से बातचीत करने की जिद कर रहा था।

एक बिहारी होने के नाते, पिछले कुछ महीनों से मुंबई और महाराष्ट्र में बिहारियों और उत्तर भारतीयों के खिलाफ जो कुछ हो रहा है, उस पर मेरा मन भी आक्रोश से भरा है। वोट की राजनीति के धुन में पागल एक राज ठाकरे ने दोनों राज्यों के करोड़ों लोगों के बीच जिस तरह का अविश्वास और जैसी तल्खी पैदा की है, उससे एक बिहारी को ही नहीं, हर भारतवासी को क्षुब्ध होना चाहिए। लेकिन छोटे पाटिल साहब इससे क्षुब्ध नहीं हुए। राज ठाकरे के गुंडे भारत के अन्य प्रांतों के नागरिकों को सड़कों पर दौड़ाते रहे, उत्तर भारतीय टैक्सी चालकों की टैक्सियों के शीशे तोड़ते रहे, बिहारियों, राजस्थानियों की दुकानें जलाते रहे, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के गरीब, दिहाड़ी मजदूरों को सरेआम पीटते रहे, लेकिन उससे न तो कानून का उल्लंघन हुआ और न ही कोई भयभीत हुआ। क्योंकि अगर इन दोनों में से कुछ भी हुआ होता, तो पौरुष से लबरेज छोटे पाटिल साहब ने इन तमाम गुंडागर्दियों की जड़ में राजनीति सेंक रहे देशद्रोही राज ठाकरे को भी गोलियों से जवाब दिया होता, जैसा कि उन्होंने 'बिहारी माफिया राहुल राज' (आर आर पाटिल कम से कम इस विशेषण के लिए जरूर बाल ठाकरे से सहमत होंगे) को दिया।

राहुल राज पटना के एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर का बेटा था, जो कि परसों नौकरी की तलाश में मुंबई पहुंचा था। उसने उस कृत्य को अंजाम देने की कोशिश की, जो आज हर देशभक्त आपसी बातचीत में अनौपचारिक तौर पर एक-दूसरे से कह रहा है, 'राज ठाकरे जैसे पागलों को तो सड़क पर खड़ा कर गोली मार देना चाहिए।' लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आपसी बातचीत में जिस तरह आप अपना आक्रोश निकालते हैं, उसे आप हकीकत में भी अंजाम देने लगें। राहुल राज ने जो किया, उसके बाद वह न केवल कानून का बल्कि समाज का भी अपराधी हो गया था। बहस इस बात पर है भी नहीं कि वह अपराधी था कि नहीं। बहस इस बात पर है कि क्या वह दर्जे का अपराधी या आतंकवादी था, जिसे गोली मार देनी चाहिए थी। पूरी बस में एक आदमी, हाथ में एक रिवॉल्वर, किसी यात्री को नुकसान न पहुंचाने की उसकी चीखें, कमिश्नर से बातचीत करने के लिए मोबाइल की मांग क्या ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती हैं, कि उसे सीधे सिर में और पेट में शूट कर दिया जाना चाहिए था।

और इन सबसे बढ़कर एक सवाल यह है कि नौकरी की तलाश में आया एक मध्यवर्गीय युवक अगर किसी ऐसे गुंडे को मारने के लिए हथियार उठा रहा है, जो न तो किसी विचारधारा के तौर पर और न ही किसी व्यक्तिगत तौर पर उसका दुश्मन है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? वह क्या उसकी उस कुंठा का चरम नहीं है, जो सरकार की अकर्मण्यता और समाज की राजनीतिक चुप्पी से पैदा हुई है? क्या एक राहुल राज को माफिया करार देकर गोली मार देने से मध्यवर्गीय युवाओं के उस विद्रोह और कुंठा को भी जवाब मिल पाएगा, जो कि न जाने कितने लाख दिलों में धधक रही है?

मंगलवार, 7 अक्तूबर 2008

ये तो अभी झांकी है...

असम में बोडो और बंगलादेशी घुसपैठियों के बीच दंगों में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 50 लोगों की मौत हो चुकी है। एक लाख से ज्यादा लोग बेघर होकर राहत शिविरों में पहुंच चुके हैं। मरने वालों में कोई गर्भवती महिला भी है और बेआसरा होने वालों में 1 दिन का एक शिशु भी है। लेकिन सिर पर हाथ रखकर अफसोस करना और मानवता के बुरे दिन के लिए नेताओं को कोसने का मेरा मूड नहीं है। दंगों में गर्भवतियों के पेट फाड़ने और 1 दिन के बच्चों को भालों पर टांगने की कहानियां चंगेज खान के दिल्ली हमले के समय से ही हम सुनते आ रहे हैं।

इसलिए इन्हें एक भीषण सच्चाई के तौर पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस सच्चाई के सामने घुटने भी टेक दिए जाने चाहिए? मैं अपने हर लेख में यही लिखता आया हूं कि दंगों, हत्याओं, बलात्कारों पर छाती पीटने की आदत छोड़ कर हमें उसकी जड़ों को खोदना होगा, केवल तभी हम इस सच्चाई को अपने दरवाजे से बाहर रख पाएंगे। नहीं तो पिछले हजार सालों से जैसे हम इन्हें मानवता के नाम पर कलंक कहकर छाती पीटते आए हैं, वैसे ही अगले दस हजार सालों तक और छाती पीटते रहेंगे।

पता नहीं अपने देश में कितने लोगों को ये पता होगा कि असम में आज का जनसंख्या संतुलन पूरी तरह बिगड़ चुका है। राज्य के 3,000 गांव ऐसे हैं, जहां की जनसंख्या में एक भी भारतीय नहीं है। छह जिले ऐसे हैं कि जहां मुसलमानों की संख्या 75 फीसदी से ज्यादा हो चुकी है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें अधिसंख्य बंगलादेशी घुसपैठी हैं। अभी हाल ही में एक बंगलादेशी घुसपैठी के बाकायदा विधायकी का चुनाव लड़ चुकने का एक मामला सामने भी आया था। उस पर तुर्रा यह कि असम सरकार के मुताबिक फिलहाल जारी दंगे बंगलादेशी मुसलमानों के जातीय सफाए की साजिश है।

राज्य के तमाम पुलिस प्रमुख, राज्यपाल, न्यायाधीश वर्षों से केन्द्र सरकार को आगाह कर रहे हैं कि क्षेत्र की हालत खराब होती जा रही है। बंगलादेशी घुसपैठियों ने कई जिलों की अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है। कई गांवों में भारतीय हिंदू और मुसलमान, बंगलादेशियों की दहशत झेल रहे हैं। यही बंगलादेशी हूजी जैसे आईएसआई समर्थक आतंकवादी संघठनों के लिए तमाम स्थानीय मदद जुटाने का काम करते हैं। इसके बावजूद राज्य की कांग्रेसी सरकारों का अब तक का रवैया हमेशा से उन्हें हर संभव सहायता और समर्थन देने का ही रहा है। बगल में पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस तरह बंगलादेशियों को मतदाता सूची में नाम शामिल करवाने और राशन कार्ड दिलाने में मदद की है, वह भी अब कोई गुप्त जानकारी नहीं रह गई है।

इन सबके बाद रही-सही कसर पूरी करने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक अमर सिंह छाप नेताओं और मुशीरुल हसन छाप बुद्धिजीवियों की इस देश में कोई कमी नहीं है। ऐसे में अगर ये बंगलादेशी घुसपैठी हमारे-आपके घर में घुस कर हमें न मारें, तो यही कम है। बोडो और बंगलादेशियों की यह लड़ाई तो अभी एक झांकी भर है। आने वाले वर्षों में यह संघर्ष देश की हर गली में होगा। तो छाती पीटना छोड़िए और तैयारी कीजिए की आपकी गर्भवती बहन, भाभी या बीवी का पेट न फाड़ा जाए और आपके 1 दिन के बच्चे को भाले पर न नचाया जाए।

शनिवार, 27 सितंबर 2008

मैं आभारी हूं मुशीरुल, अर्जुन, लालू और मुलायम का

फिर दिल्ली में एक बम फटा है। गिनती मायने नहीं रखती। और सच पूछिए तो अब राहत देती है। दो शनिवार पहले जब बम फटे तो राहत हुई कि चलो केवल पांच ही जगह फटे, 20 जगहों की तैयारी थी। यानी 15 जगहों पर तो बचे। आज फटा तो लगा कि एक ही फटा। फॉर ए चेंज। अब तो आदत हो गई है, सीरियल धमाकों की। देश की सरकार के काबिल मंत्री व्यवहारिकता का पाठ पढ़ाते हुए जब कहते हैं कि 100 करोड़ लोगों के पीछे पुलिस की सुरक्षा तो नहीं जा सकती। उसके बाद तो सड़े कुत्ते के चमकते दांत देखने वाले आशावादी लोग भी यह उम्मीद करने की बेवकूफी नहीं कर सकते कि अब और धमाके नहीं होंगे। तो फिर कुल मिलाकर राहत की दो ही बातें बचती हैं। पहला, अपना तो कोई नहीं मरा। दूसरा, अच्छा चलो एक ही जगह फटा, केवल पांच मरे। जब तक हमारा कोई नहीं मरा, तब तक मरने वाले केवल एक संख्या ही तो होते हैं।

खैर, ये हमारी नियति है। हमारी व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय नियति। हमारी नियति हैं सोनिया गांधी और उनके प्रिय पालतू चारण। मान लो सोनिया गांधी नहीं होतीं, तो? मान लो, 2009 में हमारा नेतृत्व बदल जाए, तो? नियति नहीं बदलेगी। नेतृत्व उस पूर्व गृहमंत्री का होगा, जिन्हें यह कहने में शर्म नहीं आती कि तीन आतंकवादियों को छोड़ने के फैसले का उन्हें ज्ञान नहीं था, वह भी तब जब वह उस समय गृहमंत्री, सरकार के दूसरे सबसे बड़े और अपनी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता थे। अगर उनमें इतना नैतिक साहस होता कि वह देश के सामने अपनी नपुंसकता स्वीकार कर माफी मांगते, तो फिर कुछ उम्मीद जग सकती थी, लेकिन....।

इसीलिए मैंने कहा कि यही हमारी राष्ट्रीय नियति है। नेतृत्व बदल जाए तो भी नियति नहीं बदलेगी। यह विक्रमादित्य का सिंहासन है। जो बैठेगा, वहीं सत्ता की भाषा बोलेगा। तो फिर क्या सब खत्म हो गया है? क्या एक राष्ट्र के नाते हम आखिरी सांसें गिन रहे हैं? शायद। लेकिन उम्मीद की एक आखिरी किरण बची है। और वह है, जनता, आम लोग। नियति नेतृत्व के बदलने से नहीं, जनता के बदलने से बदलेगी। मैं शुक्रगुजार हूं, मुशीरुल हसन का, अर्जुन सिंह का, लालू प्रसाद का, मुलायम यादव का। यही वो हैं, जो मुझे उम्मीद की किरण दिखा रहे हैं।

सोनिया और आडवाणी के देशभक्ति के नारे मुझे डराते हैं, क्योंकि इनमें भुलावे का खतरा है। लेकिन मुशीरुल, अर्जुन, लालू और मुलायम इस देश की मदहोश, बेहोश जनता की छाती पर चढ़कर उसकी आंखों में उंगली डाल कर दिखा रहे हैं कि देखो, हमने तुम्हारे भारत को तबाह करने की शपथ उठा ली है, अगर तुममें थोड़ी भी गैरत बाकी है, अगर तुममें अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों के प्रति थोड़ा भी सम्मान बाकी है, तो जाग जाओ।

मुशीरुल हसन मानते हैं कि जामिया के आरोपी आतंकवादियों के लिए चंदा जुटाना उनका शिक्षक धर्म है। अशोक वाजपेयी को एनडीटीवी पर मैंने उनका समर्थन करते हुए सुना। तर्क है कि जब तक आरोप साबित नहीं हुआ, वे बच्चे निर्दोष हैं। इसलिए यह कुलपति महोदय का पैतृक कर्तव्य है कि उन्हें कानूनी मदद दी जाए। और इसके लिए मुशीरुल साहब ने पूरी जामिया के छात्रों को चंदा इकट्ठा करने को कहा है। इस तर्क से तो किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय के हर उस छात्र को कानूनी मदद देना यूनिवर्सिटी का दायित्व है, जिस पर कोई भी आपराधिक मुकदमा चल रहा हो। जेएनयू के किसी चिनॉय महाशय का कहना था, कि हॉस्टल में रहने वाला हर छात्र कॉलेज प्रशासन का बच्चा है। तो फिर हॉस्टल में होने वाले हर अपराध और मिलने वाले हर हथियार के लिए सीध प्रिंसिपल या कुलपति की हड्डी क्यों नहीं तोड़ देनी चाहिए। मुशीरुल साहब गृह युद्ध की तैयारी करा रहे हैं। आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए लड़कों को उन्होंने पूरे कौम के पीड़ित अबोध बच्चों का तमगा दिया है। अर्जुन सिंह का मुशीरुल को समर्थन करना आश्चर्यजनक नहीं है। जिस तरह मुशीरुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर अपने इरादे की घोषणा की, साफ है कि उन्हें मानव संसाधन मंत्री से हरी झंडी पहले ही मिल चुकी थी। लालू जी और मुलायम जी को सिमी भी ऐसे ही अबोध बच्चों की टीम लगती है, जो क्रिकेट या फुटबॉल खेलने के लिए बनी है।

जिन बातों को समझाने के लिए पहले किताबों से खोज कर उदाहरण लाने पड़ते थे, प्रखर वक्तृत्व क्षमता की जरूरत होती थी, वो अब एक अनपढ़, अनगढ़ भारत वासी को भी अपने-आप समझ में आने लगी है। इसलिए बस यही मेरी उम्मीद हैं। शाबास मुशीरुल, शाबास अर्जुन, शाबास लालू, शाबास मुलायम। शायद भारत मां के सीने में सुराख करने की आपकी कोशिशें ही इस देश की जनशक्ति की कुंभकरनी नींद को तोड़ सकें और शायद इन्हीं के कारण हमारी नियति बदल सके।

बुधवार, 27 अगस्त 2008

'इस चैनल को तो बंद करा देना चाहिए'

लगता है जैसे किसी स्टिंग ऑपरेशन से त्रस्त एक भ्रष्ट नेता प्रेस की आजादी के खिलाफ अपनी भड़ास निकाल रहा है। जब भी ऐसा होता है, तो विश्वास मानिए कि हर पत्रकार को काफी खुशी होती है। लगता है पत्रकारिता जिंदा है। लगता है कि भ्रष्टों के बीच कलम का खौफ कायम है। लेकिन जब एक वरिष्ठ और संवेदनशील पत्रकार ही किसी न्यूज चैनल के बारे में दुख और क्षोभ के साथ ऐसी टिप्पणी करे, तो फिर लगता है कि पत्रकारिता को अपने गिरेबान में झांक कर देखने की जरूरत आ गई है। कल का दिन ओलंपिक में भारतीय तिरंगे को सम्मान दिला कर लौटे जांबाजों के स्वागत का दिन था। करोड़ों देशवासियों के लिए उनके प्रति कृतज्ञता जताने का दिन था कि हमारे द्वारा चुने गए पतित नेताओं के भ्रष्टाचार की दलदल में कमर के नीचे तक धंसे होने के बावजूद अपनी अप्रतिम प्रतिभा और कौशल से तीन धुरंधरों ने देश को ओलंपिक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया। दिन में इन विजेताओं ने देश के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात की, एक पांच सितारा होटल में प्रेस से रूबरू हुए। मन में एक गौरवपूर्ण अहसास लिए दिन खत्म करने की उनकी उम्मीद कायम न रह सकी, कम से कम तीनों मुक्केबाजों, विजेन्दर, अखिल और जितेन्द्र के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है।

उनकी किस्मत खराब थी कि रात को वो पहुंच गए इंडिया टीवी के स्टूडियो। करीब 11 बजे रात को चल रहा था लाइव। अब या तो बेचारों को ताजा टीवी संस्कृति की जानकारी नहीं है, या फिर उन्हें यह भी नहीं पता था कि इंडिया टीवी ने महीनों पहले न्यूज चैनल के चोले के अंदर सी ग्रेड मनोरंजन चैनल के टोटके भर लिए हैं। एक एंकर (उसके साथ मेरी सहानुभूति है क्योंकि मुझे पता है कि उसने जो भी किया, उसके पीछे केवल चैनल के नीति निर्धारकों का दबाव होगा और सहानुभूति इसलिए कि पत्रकारिता करने आया कोई भी व्यक्ति लंगूरों और भालुओं की तरह स्क्रीन पर नाचना पसंद नहीं करता) बॉक्सिंग ग्लब्स पहन कर बैठी थी और उन तीनों मुक्केबाजों को खुद से लड़ने के लिए ललकार रही थी। बेचारे हरियाणे के खिलाड़ी गिड़गिड़ा रहे थे कि जी, वो... हम तो रिंग में ही लड़ पाते हैं। जी, हमें तो माफ ही कर दो। फिर अंत में उनमें से एक बेचारा लड़ने को तैयार हुआ और इंडिया टीवी को अपना प्रिय टीआरपी तमाशा मिल गया। एक मुक्केबाज को ऐसा कच्छा पहनाया गया था, कि जिन अंगों को तमाम साहित्यों में गुप्त कह कर पुकारा गया है, वो प्रकट होने का आभास दिला रहे थे।

टीआरपी के इस नंगे खेल में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का फट पड़ना स्वाभाविक है। तो इस लेख के शीर्षक के तौर पर जिस बयान का मैंने जिक्र किया, वह आश्चर्यजनक नहीं लगता। लेकिन इसकी गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब एक गुजराती और एक हिंदी अखबार शुरू करने वाले अनुभवी और देश के सबसे प्रतिष्ठित आर्थिक अखबार में वरिष्ठ संपादक के पद पर मौजूद मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी जैसे पत्रकार ऐसी टिप्पणी करने पर मजबूर हो जाएं। दरअसल यह पूरा खेल जब इंडिया टीवी पर चल रहा था, उस समय मैं अपने अखबार के पन्ने छोड़ने में व्यस्त था। लेकिन उसी बीच उनका फोन आया और बातचीत में उनका दुख और क्षोभ भी बाहर आ गया। मीडिया के गिरते स्तर पर चर्चा नई नहीं है, लेकिन मेरे मन में कल रात से यही सवाल आ रहा है कि जब ऐसे वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार भी इंडिया टीवी छाप पत्रकारिता से इस हद तक क्षुब्ध हों, तो एक आम आदमी के मन में पत्रकारिता (क्योंकि आम आदमी पत्रकारिता को चैनल या अखबार के नजरिए से नहीं देखता, उसके लिए तो हर पत्रकार पूरी पत्रकारिता का प्रतिनिधि है) की क्या प्रामाणिकता बच रही होगी।

शनिवार, 23 अगस्त 2008

'प्रमाण पत्र' का जुमला फेंकने की बजाय आइए मुद्दों की बात करें

जब भी आतंकवाद की बात होती है और जब भी उसके खिलाफ मुस्लिम समुदाय के सक्रिय सहयोग की बात होती है, इस समीकरण से असहज हुए एक तबके की ओर से छूटते ही एक बड़ा लोकप्रिय जुमला जड़ दिया जाता है- मुसलमानों को किसी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है। कल मैंने लिखा था कि भारतीय मुसलमानों को कौम के घोषित ख़ैरख़्वाहों की देशविरोधी नीतियों के विरोध में आगे आना चाहिए। प्रसंगवश आरएसएस का भी जिक्र किया था, क्योंकि दुर्भाग्य से इस देश में राष्ट्रीय गौरव और अल्पसंख्यकवाद का विरोध करने वाले सभी लोगों को संघी ही करार दिया जाता है। मुझे चार टिप्पणियां मिलीं उनमें तीन का स्वर यही था कि मुसलमानों को संघ या बीजेपी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं हैं।

मैं आम तौर पर टिप्पणियों पर टिप्पणी करने के पक्ष में नहीं रहता, लेकिन मुझे लगता है कि 'प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है' के जुमले पर मुझे कुछ कहना चाहिए। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि आपको किसी से देशभक्ति का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है, लेकिन आपको अपने आसपास के लोगों और समाज के प्रति संवेदनशील तो रहना ही होगा। दरअसल यह बात समझने में उन लोगों को दिक्कत होती है जो अपने घर को साफ रखने के लिए कचरा सड़क पर फेंकने में यकीन रखते हैं। नहीं तो क्या आप खुद उस मुहल्ले में रहना पसंद करते हैं, जहां आपका पड़ोसी रोज शराब पीकर दंगे कर रहा हो, जहां आपकी बेटी और पत्नी खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर रही हों। वहां तो आप यह जुमला नहीं उछालते कि इस दारूबाज को किसी से अच्छा होने का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है। वहां आप उसे मुहल्ले से निकालने के लिए सबसे पहले झंडा उठाते हैं, लेकिन जब यही घटना पड़ोस के मुहल्ले में होती है तो आप उस शराबी के मानवाधिकार का कानून पढ़ने लगते हैं।

पिछले 5 साल में हुए दसियों विस्फोट में पकड़े गए सभी आतंकवादी अगर एक ही कौम के हैं तो क्या इसके लिए दूसरे कौम दोषी हैं। हर दूसरे महीने बाजारों में, अस्पतालों में, रेलवे और बस स्टेशनों पर लोगों के चीथड़े उड़ रहे हैं और हमें कहा जा रहा है कि ऐसा करने वाले भटके हुए बच्चे हैं। हर प्राकृतिक आपदा में बिना मजहब देखे लोगों की दिन-रात सेवा करने वाले लोगों को साम्प्रदायिक होने का प्रमाण पत्र देने वाले लोग सिमी और हूजी का खुलकर समर्थन कर रहे हैं, लेकिन उनसे नहीं पूछा जाता कि उन्हें किसी को सेकुलरिस्ट, फासिस्ट, कम्युनलिस्ट आदि के सर्टिफिकेट बांटने का क्या अधिकार है।

बम विस्फोट के मामले में पकड़े गए हर संदिग्ध के घर वाले अपने बयान में यह जरूर कहते हैं कि उनके बच्चे को इसलिए परेशान किया जा रहा है कि वह मुसलमान है। मतलब किसी को केवल इसलिए नहीं छुआ जाए कि वह मुसलमान है। सुप्रीम कोर्ट को पागल घोषित करने वाले बुखारी की जामा मस्जिद में करीब साल भर पहले एक विस्फोट हुआ था। क्या हुआ उसकी जांच का? वहां गए दिल्ली पुलिस के अधिकारी को वहां से अपमानित कर, डरा कर भगा दिया गया था, जांच भी नहीं करने दी गई। और अब वही बुखारी कह रहा है कि बशीर का बलिदान कौम की भलाई करेगा। यानी सारे आतंकवादी मुसलमानों की भलाई में विस्फोट और हत्याएं कर रहे हैं। इसके बाद भी बुखारी मुसलमानों का सबसे बड़ा मजहबी नेता है। सिमी का समर्थन करने वाले लालू और मुलायम मुसलमानों के सबसे बड़े नेता हैं।

तो अनिल जी, तस्लीम जी और दिनेशराय जी मुझे बताएं कि प्रमाण पत्र का सवाल कहां उठता है। हमारे आसपास, अगल-बगल, आगे-पीछे जो हो रहा है, उसकी अनदेखी एक अंधा भी नहीं कर सकता। सब चीजें शीशे से भी ज्यादा साफ है। फिर भी अगर आप नहीं देख पा रहे, तो मतलब यही है कि आपने अपनी संवेदी इन्द्रियां कुंद कर ली हैं और आप देखना ही नहीं चाहते। आपको यह तो जरूर याद होगा कि विश्व हिंदू परिषद के एक नेता वेदांती ने करुणानिधि का सर काटने का फतवा दिया था और उसके साथ खड़ा होने के लिए एक आम हिंदू की तो बात छोड़िए, बीजेपी और संघ के लोग भी तैयार नहीं हुए। उस समय किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि वेदांती को किसी से सभ्य होने का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं। यह हाल बुखारी या लालू या मुलायम का क्यों नहीं होता?

बेहतर होता कि अगर प्रमाण पत्र का जुमला फेंकने के बजाय उन मुद्दों पर बात की जाती जिनके कारण यह कहने की जरूरत पड़ रही है कि हमें आपसे प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

भारत का मुसलमान- राष्ट्रवादी या आतंकवादी ?

भारत में लगातार हो रही आतंकवादी घटनाएं, इनमें स्थानीय मुसलमानों की बढ़ती भूमिका, साथ ही साथ इस्लामी आतंकवाद के विरोध में मुखर होता मुसलमानों का एक तबका। इन तीनों घटनाओं के बीच एक आम भारतीय मुसलमान का खुद को आतंकवादी कहे और समझे जाने का दर्द। गड़बड़ कहां है? इसे समझे बिना नतीजे पर तो पहुंचा नहीं जा सकता। तो आइए समझने की कोशिश करते हैं।

वामपंथियों, सेकुलरों और मुसलमानों की नजर में भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन राष्ट्रवाद। और राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)। दूसरा पक्ष, सेकुलरों के सबसे बड़े प्रतिनिधि लालू यादव और मुलायम यादव और मुसलमानों का सबसे पड़ा पंथिक नेता अब्दुल्ला बुखारी। आरएसएस कहता है कि इस देश के 98 फीसदी मुसलमानों की मूल भूमि भारतवर्ष है इसलिए इन सभी की संस्कृति राम और कृष्ण की संस्कृति है। मक्का, मुहम्मद और कुरान मुसलमानों का धर्म हो सकते हैं, लेकिन उनकी संस्कृति आर्य संस्कृति है। इस ढांचे को समझने-समझाने के लिए वह इंडोनेशिया का उदाहरण देता है जो इस्लामिक देश है, लेकिन जहां का सबसे बड़ा सामाजिक आयोजन रामलीला होती है, जहां का राष्ट्रीय एयरलाइन 'गरुड़' है और जहां के मुसलमान का नाम मेगावती सुकर्णोपुत्री जैसा होता है। तो आरएसएस की
नजर में हिंदू राष्ट्रवाद और इस्लाम का आपस में कोई विरोध नहीं है। अपनी इसी सोच के कारण संघ ने राष्ट्रवादी मुसलमानों के संगठन की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं और इसके लिए एक प्रचारक इंद्रेश को बाकायदा जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।

और आइए अब देखते हैं कि दूसरे पक्ष के प्रतिनिधि लालू, मुलायम और बुखारी क्या कहते हैं? लालू और मुलायम घोषित और सिद्ध आतंकवादी संगठन सिमी पर प्रतिबंध का विरोध कर रहे हैं। और बुखारी? अहमदाबाद बम विस्फोट के मास्टर माइंड बशीर के पिता को सांत्वना देने गए बुखारी साहब कहते हैं कि बशीर के इस बलिदान से कौम की सलाहियत होगी। (इंडियन एक्सप्रेस, फ्रंट पेज, 22 अगस्त)। समझने की बात यही है और गड़बड़ भी यहीं है। लालू, मुलायम और बुखारी ने मुसलमान समाज के प्रति अपनी राय साफ कर दी है। उन्हें लगता है कि देश का हर मुसलमान या तो आतंकवादी है या आतंकवाद का समर्थक है, पाकिस्तान का हामी है।

दृश्य अब कुछ साफ लग रहा है। एक ओर राष्ट्रवाद और दूसरी ओर आतंकवाद। राष्ट्रवाद की धारा कह रही है कि मुसलमान राष्ट्रवादी है और उसे मिलकर आतंकवाद को कुचल देना चाहिए। आतंकवाद कह रहा है कि मुसलमान आतंकवादी है और उसे राष्ट्रवाद को मटियामेट कर देना चाहिए। गेंद मुसलमानों के पाले में है। चुनाव मुसलमान का है। अगर इस देश का मुसलमान बशीर को कौम का शहीद मानने वाले और सिमी पर प्रतिबंध से अनिद्रा के शिकार हुए राष्ट्रद्रोहियों के साथ खड़ा होगा, तो फिर खुद को संदेह की नजरों से देखे जाने का उसका दर्द ढकोसले से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा।

रविवार, 6 जुलाई 2008

एक और खिलाफत! ईश्वर जाने इस बार परिणाम क्या होगा

अब तक जो बात ढ़क-छिप कर कही जा रही थी, वह सामने है। एक वामपंथी नेता और मायावती ने खुल कर कह दिया है परमाणु करार इसीलिए बुरा है क्योंकि वह देश के मुसलमानों को पसंद नहीं है। और मुसलमानों को इसलिए पसंद नहीं है क्योंकि यह अमेरिका के साथ किया जा रहा है। और अमेरिका मुसलमानों का शत्रु इसलिए है क्योंकि उसने इराक और तालिबान पर हमला किया है। इस तर्क के पीछे का तर्क क्या है? कि पूरी दुनिया के मुसलमान एक राष्ट्र हैं और उनका राष्ट्रहित उन मुद्दों से नहीं जुड़ा है जो उनके देश से जुड़े हैं, बल्कि दुनिया के मुसलमानों से जुड़ा है।

और मैं बहुत जोर देकर यह भी ध्यान दिलाना चाहूंगा कि यह बात भारत का मुसलमान नहीं कह रहा, बल्कि यह कह रहा है एक चीन परस्त वामपंथी नेता और खुद को गहनों में तुलवा कर दलित हित का बिगुल बजाने वाली एक ऐसी नेता, जिसने साल भर पहले मुसलमानों को कट्टरतापसंद कौम करार दिया था। आज के इंडियन एक्सप्रेस में कुछ बयान हैं, जो इस मुद्दे पर भारतीय मुसलमानों की राय जानने में काफी हद तक मदद करते हैं। उमर अब्दुल्ला ने अपने ब्लॉग में लिखा है कि परमाणु करार अच्छा है या बुरा, इस पर बहस तो हो सकती है, लेकिन यह हिंदुओं और मुसलमानों के लिए किस तरह अलग-अलग है, यह उन्हें समझ में नहीं आता। घोर साम्प्रदायिक इतिहास के वारिस इंडियन यूनियन मुस्लिम लीग के मुहम्मद बशीर ने भाजपा को सत्ता से बाहर रखने के लिए यूपीए का समर्थन करते रहने की बात कही है। जद (यू) के सांसद महाज अली अनवर ने वामपंथियों और मायावती के विरोध को राजनीति प्रेरित बताया है वहीं हर मुद्दे पर हमेशा साम्प्रदायिक दृष्टि से सोचने वाले सांसद असादुद्दीन ओवैसी ने मायावती के बयान को गंदी राजनीति करार दिया है और कहा है कि मुसलमान प्रेम के नाम पर करार का विरोध करने वाले दरअसल स्वार्थी लोग हैं। तो साफ है कि करार का समर्थन या विरोध केवल एक राजनीतिक मुद्दा है, साम्प्रदायिक नहीं।

लेकिन एक चुके हुए वामपंथी और अपने कॅरियर के शीर्ष पर चल रही मायावती का परमाणु करार पर रुख कुछ याद दिलाती है आपको। आजादी से बहुत पहले 1919-1924 के बीच चला एक आंदोलन, जिसे खिलाफत आंदोलन का नाम दिया गया था। यह आंदोलन दक्षिण एशियाई मुसलमानों ने ब्रिटिश हुकूमत के खिलाफ चलाया था। मुद्दा था कि ब्रिटेन ने प्रथम विश्व युद्ध के बाद ओट्टोमन साम्राज्य के खलीफा के साथ किया गया वादा पूरा नहीं किया था। अब क्योंकि खलीफा मुसलमानों का मजहबी नेता हुआ करता था, तो मुसलमानों के लिए इस आंदोलन में शामिल होना एक मजहबी मसला माना गया। भारतीय मुसलमान भी उसमें शामिल हो गए थे। भारत में उस समय आजादी की लड़ाई चल रही थी और ऐसे में गांधी जी को लगा कि ब्रिटेन के खिलाफ मुस्लिमों की नाराजगी को भुनाने का यह एक अच्छा मौका है। सो उन्होंने खिलाफत को अपना समर्थन दे दिया। बहुत से लोग (मैं भी) इसे गांधी जी की वह ऐतिहासिक भूल मानते हैं, जिसने पाकिस्तान के निर्माण को सैद्धांतिक मंजूरी दे दी। अल्लाम इकबाल ने जब पाकिस्तान की सोच परोसी, तो यह कहा कि क्योंकि हिंदू और मुसलमान दो अलग-अलग राष्ट्र हैं, इसलिए वह एक देश में नहीं रह सकते। गांधी जी का इस आंदोलन को समर्थन देना यह स्वीकार कर लेना था कि मुसलमानों को इस देश के मुद्दे से जोड़ कर आंदोलित नहीं किया जा सकता। उन्हें इस देश के हितों के लिए खड़ा करने के वास्ते किसी भी मुद्दे को मजहब की चाशनी में लपेट कर पेश करना होगा। यह एक तरफ तो मुसलमानों के अलग राष्ट्र होने के सिद्धांत पर मुहर था, दूसरी ओर उनकी बाह्य निष्ठा को मान्यता देना था।

खैर, अब इराक और तालिबान पर हमले के कारण अमेरिका के मुसलमानों का शत्रु होने का फतवा देना और इसी को अमेरिका से भारत के संबंध तय करने का आधार बनाना, एक बार फिर उसी खिलाफत आंदोलन की याद दिला रहा है। इस नए खिलाफत का परिणाम क्या होगा, भगवान जाने। उम्मीद है तो बस इतनी कि न तो ज़मीन से कटे वामपंथी नेता और मायावती, गांधी जी के कद के सामने कहीं ठहरते हैं और न ही जनता अब किसी भी नेता को उस तरह पूजने को तैयार है, जैसा कि वह 1924 में गांधी जी को पूजती थी।

शुक्रवार, 4 जुलाई 2008

अमरनाथ हो या परमाणु करार, बवाल की जमीन तो एक ही है

कश्मीर की पीपुल्स डेमोक्रेटिक पार्टी यानी पीडीपी और भारत की कम्युनिस्ट पार्टियां आजकल एक ही राजनीतिक रणनीति पर काम कर रही हैं। पीडीपी ने साढ़े चार साल तक कश्मीर की सत्ता का सुख लिया, वामपंथियों ने चार साल से ज्यादा तक भारत की सत्ता का। अब जब कश्मीर में विधानसभा और देश में लोकसभा चुनावों की आहट सुनाई देने लगी है, तब दोनों को ध्यान आया कि जिसके साथ मिलकर वे सत्ता का सुख ले रहे हैं, उसी के खिलाफ तो उन्हें चुनाव भी लड़ना है। पश्चिम बंगाल और केरल में कांग्रेस को गालियां देकर वामपंथियों को जहां अपने लिए वोट बटोरने हैं, वहीं कश्मीर में कांग्रेस के खिलाफ पीडीपी को जंग लड़नी है। तो दोनों ने अपने-अपने इलाकों में उन्हीं मुद्दों पर सरकार से समर्थन वापस लेने का एलान किया है, जो पिछले चार-साढ़े चार साल के सत्ता में उनकी भागीदारी के दौरान पैदा हुए और पले।

लेकिन यह गणित कोई महान गुप्त विज्ञान तो है नहीं, जिसे कोई समझ न सके। इसके बावजूद ये निर्लज्ज पार्टियां अगर इस रणनीति पर काम कर रही हैं, तो इसका मतलब है कि उन्हें पता है कि मतदाता मूलतः मूर्ख होता है और भावनाओं में बहकर ही अपने मताधिकार का इस्तेमाल करता है। सच है, कि बाद के पांच सालों में रोता-कलपता ही रहता है, लेकिन तब तक तो चिड़िया खेत चुग चुकी होती है।

दरअसल यह केवल राजनीतिक रणनीति का सवाल नहीं है, दोनों पार्टियों का चरित्र भी एक ही है। वामपंथियों का चीन प्रेम जगजाहिर है और इसके लिए वे भारत के हितों की बलि चढ़ाने से भी नहीं चूकते। खास बात यह है कि इन्हें इसमें कोई शर्म भी महसूस नहीं होती और 1962 में हुए चीन हमले, अरुणाचल, सिक्किम पर चीन के दावे और अमेरिका से परमाणु करार के अनेकों मसले पर उनके रुख को देखते हुए साफ है कि उन्हें भारत से ज्यादा चीन के प्रति अपनी प्रतिबद्धता दिखाने की चिंता ज्यादा होती है। इसका एक प्रकट कारण तो उनकी विचारधारा ही हो सकती है, लेकिन इसके गुप्त कारणों को जानने के लिए उस बातचीत का ब्योरा जानने की जरूरत होगी जो हर कुछ महीनों पर चीन जाने वाले वाम दलों के प्रतिनिधिमंडल और चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) के बीच होती है। वामपंथी दलों की फंडिंग की जांच से भी इसका कुछ अंदाजा मिल सकता है।

दूसरी ओर पीडीपी है। पीडीपी की नेता महबूबा मुफ्ती की प्रेस कॉन्फ्रेंस या सार्वजनिक तकरीरें सुनी हैं आपने? उनके भाषणों में भारत और भारतीय सेना का जिक्र ऐसे होता है, जैसे वह किसी तीसरे मुल्क के बारे में बात कर रही हों। अभी हाल ही में वह पाकिस्तान गई थीं और वहां उनका जैसा भव्य स्वागत हुआ और वह उससे जितनी अभिभूत हुईं, उसका ब्योरा गूगल बाबा के शरण में जाकर कोई भी जान सकता है। कश्मीर लौटकर भी उन्होंने बार-बार पाकिस्तान की अपनी यात्रा का जिक्र इस तरह किया जैसे उनका जन्म ही इसी यात्रा के लिए हुआ था और इसके बाद वह सफल हो गया। तो इसे उनका पाकिस्तान प्रेम कहा जा सकता है। लेकिन महबूबा मुफ्ती के पाकिस्तान प्रेम का कारण समझना बहुत मुश्किल नहीं है। उनकी जवाबदेही पूरे देश के सामने नहीं है। उनका टार्गेट ऑडिएंस केवल कश्मीरी मुसलमान है और सच्चाई यही है कि आज भी कश्मीरी मुसलमान का अधिसंख्य हिस्सा भारत से प्रेम नहीं करता। उसके मन में एक अलगाव बोध (sense of alienation) है। कश्मीर (जम्मू के अलावा) में जो भारतीय पक्ष है, उसका प्रतिनिधित्व कांग्रेस के पास है, जो भारत के प्रति तटस्थ हैं और विरोधी है, उनके प्रतिनिधित्व के लिए नेशनल कॉन्फ्रेंस और पीडीपी में मारामारी है। साथ ही चाहे महबूबा मुफ्ती हों या उमर अब्दुल्ला, कोई भी अलगाववादियों और आतंकवादियों से सीधे टक्कर लेकर कश्मीर में अपनी राजनीति नहीं चला सकता।

तो यही कारण है कि न तो महबूबा मुफ्ती को इस बात से कोई मतलब है कि अमरनाथ श्राइन बोर्ड पर शुरू हुई राजनीति से कश्मीर में अलगाववादियों को कितनी ताकत मिलेगी और न ही वामपंथियों को इससे कि परमाणु करार नहीं होने से देश की ताकत पर किस तरह का और कितना असर पड़ेगा।

गुरुवार, 3 जुलाई 2008

मैं एक प्रखर हिंदू हूं, लेकिन मैं आहत नहीं हूं

मेरी पत्नी एक गृहिणी हैं और राजनीति से उनका संबंध उतना ही है, जितना हमारे देश की महिलाओं (चाहे गृहिणी हों या कामकाजी) का आम तौर पर होता है। लेकिन वे अखबार पढ़ती हैं और बड़े ध्यान से पढ़ती हैं। खास बात यह है कि वे उसमें राजनीति की खबरें भी पढ़ती हैं। इस बात का पता मुझे आज सुबह तब चला जब मेरे सोकर उठते ही उन्होंने इस देश में अल्पसंख्यक के विशेषण से विशेष आदर और सम्मान पाने वाले करीब 17-18 फीसदी भारतवासियों के खिलाफ बहुत ही कड़े और उग्र विचार व्यक्त करने शुरू किए। वे विचार इतने उग्र और भड़काउ थे कि यहां उन्हें लिखने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा। मैं इन विचारों को सुनकर घबरा गया और पूछा कि इस तरह के अलोकतांत्रिक और अराष्ट्रीय विचारों का कारण क्या है। पता चला कि वह अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के सरकार के फैसले से बहुत आहत थीं। मैंने सोचा कि हो न हो, उन्होंने किसी राजनेता का कोई भड़काउ बयान पढ़ लिया होगा। मैं आश्वस्त था कि उन्हें इस मुद्दे की पूरी जानकारी नहीं होगी, इसलिए मैंने उनके अज्ञान को ही उनके विचारों की काट का हथियार बनाना चाहा। मैंने पूछा कि क्या आपको पता है ये पूरा मुद्दा क्या है। उन्होंने घटना का सटीक ब्योरा भी दे दिया। फिर मैंने उन्हें समझाने के लिए कुछ दूसरी बातों का सहारा लिया, लेकिन मैं बहुत सफल रहा, इसका मुझे भरोसा नहीं है।

दरअसल इस देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हो रहे भेदभावपूर्ण रवैये पर साम्प्रदायिक और फासिस्ट करार दिए जाने से डरे बगैर मैंने हमेशा से लिखा है। यह जानने के लिए कोई डॉक्टरेट लेने की जरूरत नहीं है कि इस देश की राजनीति समय-बेसमय हिंदुओं को लतियाने-गलियाने में लेश भी नहीं हिचकती, जबकि मुसलमानों से लात-जूते और गालियां खाने पर भी दांत निपोर कर उन्हें गले लगाने को बेचैन रहती है। लेकिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन दिए जाने और फिर लिए जाने का खेल सामान्य राजनीति नहीं है। इस राजनीति से कश्मीर का भविष्य जुड़ा है।

इस खेल को समझने के लिए यह समझना होगा कि किस पार्टी का क्या दांव पर लगा है। कश्मीर में इस खेल के दो मुख्य पक्ष हैं। कांग्रेस और पीडीपी। कांग्रेस से कोई पूछे कि अगर पिछली आधी शताब्दी से सब कुछ ठीक ही चल रहा था, तो एकाएक बोर्ड को ज़मीन देने की जरूरत क्या पड़ गई। दरअसल ऐन चुनाव के वक्त किया गया कांग्रेस का यह खेल शाहबानो केस की याद दिलाता है। पहले मुसलमानों को खुश करने के लिए संविधान संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलना, फिर नाराज हिंदुओं को खुश करने के लिए बिना किसी उकसावे के अयोध्या के राम मंदिर के ताले खोलना। इस बार मामला थोड़ा उलटा है। पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देना और फिर मुसलमानों को खुश करने के लिए उसे वापस लेना।

पीडीपी की राजनीति में उलझाव नहीं है। उसे कश्मीरी मुसलमानों का वोट चाहिए (वैसे भी घाटी में अब शायद ही कोई हिंदू बचा है)। इसके साथ ही उसकी जमीनी मजबूरियां हैं कि वह अलगाववादी और आतंकवादी ताकतों के सीधे निशाने पर नहीं आना चाहेगी। जिस कांग्रेस सरकार ने बोर्ड को ज़मीन दी, पीडीपी उसका हिस्सा थी और उसके उप मुख्यमंत्री ने संबंधित दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे। ऐसे में चुनाव के ठीक पहले पीडीपी के इस नाटक को समझने के लिए राजनीति का पंडित होने की जरूरत नहीं है।

अब एक तीसरा पक्ष भी है, जो वैसे तो इस घटनाक्रम में पक्ष नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति में हिंदू हितों के एकमात्र पैरोकार के तौर पर उसका पक्ष बनना लाजिमी है। यह तीसरा पक्ष है भाजपा और विहिप का, जिन्होंने बोर्ड से ज़मीन वापस लिए जाने के विरोध में आज भारत बंद रखा है। भाजपा और विहिप आहत हैं हिंदू हितों पर हुए आघात से।

लेकिन एक प्रखर और मुखर हिंदू होने के बावजूद मैं इस भारत बंद से अलग हूं। मैं आहत नहीं हूं, क्योंकि मैं समझ सकता हूं घात और प्रतिघात की यह राजनीति। जिस तरह पीडीपी ने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए कश्मीरी मुसलमानों के मन में भारत के प्रति जहर भरा है, कुछ वही काम भाजपा और विहिप देश के मन में कश्मीरी मुसलमानों के प्रति जहर भर के कर रहे हैं।

पाकिस्तान न तो कश्मीरियों का हामी है, न उसे कश्मीर से कोई मतलब है। उसका एकमात्र उद्देश्य भारत को तोड़ना और कमजोर करना है। इस बात के पूरे संकेत हैं कि घाटी में हुआ बवाल पाकिस्तान के इशारे पर हुआ। बोर्ड को ज़मीन देने का मुद्दा अलगाववादियों और आतंकवादियों के लिए कश्मीरी जनता के बीच फिर से अपनी पकड़ बनाने का एक बेहतरीन मौका लेकर आया था। इसलिए मेरे विचार से बोर्ड से ज़मीन वापस लेकर आजाद सरकार ने एक सही कदम उठाया है। कश्मीरी जनता बोर्ड को ज़मीन देने का विरोध नहीं कर रही थी, दरअसल वह इस अफवाह के कारण सड़क पर उतरी थी कि यह जमीन स्थाई निर्माण और बाहर से लोगों को वहां बसाने के लिए दिया गया है। इस पर अड़ने का अर्थ कश्मीर अवाम में फिर यह सोच मजबूत करना होता कि बाकी देश को उसकी भावनाओं से कोई मतलब नहीं है।

यहां प्रकारांत से एक और मुद्दा भी उठा है। यह है धारा 370 का। मेरा सुविचारित मत है कि इस धारा को हटना चाहिए और कश्मीर में बाहरी लोगों के बसने का रास्ता खुलना चाहिए। लेकिन यह जोर-जबर्दस्ती से नहीं हो सकता। इसके लिए पहले कश्मीर की जनता को तैयार करना होगा। पूरी कश्मीरी जनता को खिलाफ कर हम कश्मीर को अपने साथ नहीं रख पाएंगे। वैसे भी जब राज ठाकरे जैसा देशद्रोही महाराष्ट्र से गैर मराठियों को बाहर करने का अभियान छेड़ कर जननेता कहला सकता है, तो कश्मीरियों को इसी मांग के लिए देशद्रोही कहने का हमें क्या अधिकार है?

रविवार, 25 मई 2008

राजदीप के सवाल पर जयंती का 'वफादार' जवाब

राजदीप सरदेसाई का एक सवाल है, जो उन्होंने कांग्रेस नेता जयंती नटराजन से पूछा। जयंती कुछ भी जवाब दें, राजदीप के सवाल से उठने वाले सवाल वाकई मजेदार हैं। राजदीप जानना चाहते हैं कि जिस एस एम कृष्णा को कर्नाटक की सक्रिय राजनीति में उतारने के लिए महाराष्ट्र के राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलाया गया, उन्हें पूरे प्रचार अभियान के दौरान कोई महत्वपूर्ण जिम्मेदारी क्यों नहीं दी गई। यहां तक तो ठीक है। लेकिन इसके बाद राजदीप ने जो सवाल पूछा और जयंती ने जो जवाब दिया, वह बहुत मजेदार है।

राजदीप ने पूछा कि कृष्णा के साथ इस तरह की रणनीति के लिए जिम्मेदार कौन है, इसके लिए जवाबदेही किसकी होगी। जयंती को चाहिए था कि वे अपने पुराने नेता और पूर्व प्रधानमंत्री नरसिंह राव की शैली में मुस्करा कर शांत रह जातीं। क्योंकि देश की राजनीति का ककहरा जानने वाला आदमी भी जानता है कि कृष्णा को राज्यपाल पद से इस्तीफा दिलाना सोनिया-राहुल के अलावा किसी और के वश की बात नहीं थी। कृष्णा को कर्नाटक की जिम्मेदारी देने या न देने का फैसला करने की औकात कांग्रेस में सोनिया-राहुल के अलावा किसमें है? फिर अगर कृष्णा को अगर राज्यपाल से केवल इस एक चुनाव के लिए इस्तीफा दिलाया गया, तो साफ था कि उन्हें मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित किया जाना चाहिए था। क्या जयंती बता सकती हैं कि यह अधिकार कांग्रेस में किसके पास है?

लेकिन जिस पार्टी की पूरी राजनीति एक परिवार के प्रति वफादारी के एलान पर टिकी हुई हो, उसके किसी नेता से चुप रहने की राजनीतिक ईमानदारी की अपेक्षा भी मुश्किल है। इसलिए जयंती ने कहा, हम जरूर इसकी समीक्षा करेंगे। मतलब सोनिया की असफलता के लिए एक बार फिर कुछ और गर्दन कटेंगे। खैर, राजशाही में होता भी तो यही है।

शनिवार, 24 मई 2008

युवराज के दौरों से फिर तन सकेगा कांग्रेस का 'बहुरंगी' शामियाना?- 2 (अंतिम)

इसके बाद की कहानी भी दिलचस्प है। पटेल के बेटे-बेटियों का हममें से कोई नाम तक नहीं जानता, लेकिन नेहरू की बेटी पूरे देश की बेटी बन गई। गांधी जी की गोद में खेलती इंदिरा से लेकर फिरोज से विवाह के बंधन में बंधती इंदिरा तक की तस्वीरें, देश की धरोहर बनती गईं। इंदिरा को लिखी नेहरू की चिट्ठियों से साफ है कि नेहरू आजादी के पहले से ही उन्हें अपना उत्तराधिकारी बनाने की योजना बना चुके थे। इसके कारण समझना भी मुश्किल नहीं है। जवाहरलाल अपने जमाने के देश के गिने-चुने वकीलों में से एक मोतीलाल के बेटे थे। गोखले सरीखे विशाल कद वाले राजनेता का उनके घर आना-जाना था। राजनीति उन्हें विरासत में मिली थी। उनके पास आनंद भवन जैसा विशाल महल था। उनके पास पिता से मिली आलीशान विरासत थी। पटेल के पास कुछ नहीं था। राजनीति में उनका प्रवेश न अपने पारिवारिक रसूख के कारण था, न किसी महान राजनीतिक हस्ती से करीबी के कारण। देश के प्रति जज्बा और जनता से उनके दिल का रिश्ता ही उन्हें राजनीति में लेकर आया। इसलिए वह कभी गांधी जी को नेता मानने के बावजूद, उन्हें असीम सम्मान देने के बावजूद वह कभी उनके व्यक्तित्व में विलीन नहीं हुए। और इसलिए उनकी राजनीतिक धारा भी उनके साथ ही खत्म हो गई।

सुभाष चन्द्र बोस हों या तिलक, भगत सिंह हों लाला लाजपत राय, उन्होंने अपने सिद्धांतों की राजनीति की। न दूसरों की विरासत का बोझ ढोया, न किसी के ढोने के लिए अपनी विरासत का बोझा बनाया। लेकिन नेहरू ने वही किया। उनकी राजनीति का उद्देश्य साफ था। देश की जनता ने सोचा एक राजकुमार अगर अपना राजमहल छोड़ हमारे लिए सड़क पर आया है, तो यह उसका त्याग है। उसी त्याग की विरासत इंदिरा को मिली। शास्त्री जी के प्रधानमंत्री बनने तक इंदिरा का कद बहुत बड़ा नहीं हुआ था। लेकिन अपनी निष्ठा की दुहाई देने वाले अर्जुन सिंह जैसे नेताओं की पहली पीढ़ी के सामने संकट था। शास्त्री जी जैसे नेताओं के रहते उनका साम्राज्य नहीं चल सकता था। इसलिए इंदिरा को मजबूत करने का काम शुरू हुआ जिसका परिणाम कांग्रेस के विभाजन के तौर पर सामने आया। इंदिरा ने तमाम राजनीतिक प्रपंच कर अपने विरोधियों को पटखनी दी, अवैध तरीके से चुनाव जीतीं और फिर अपनी सत्ता पुख्ता करने के लिए आपातकाल लगाया। लेकिन वह सब उनका बलिदान था। जैसे उन्होंने यह सब कुछ इसीलिए किया था क्योंकि उन्हें पता था कि 31 अक्टूबर 1984 को सतवंत सिंह और बेअंत सिंह उन्हें अपनी गोलियों का निशाना बनाने वाले हैं। इंदिरा जी की हत्या के बाद देश अनाथ हो गया। 80 करोड़ की जनता में इंदिरा जी के बड़े बेटे राजीव को छोड़कर एक भी ऐसा व्यक्ति नहीं था, जो प्रधानमंत्री बन सके। इसलिए यह जानते हुए भी कि 1989 की 21 मई को श्रीपेरुंबुदूर में लिट्टे के हमले में उनकी मौत हो जाएगी, वे प्रधानमंत्री बने। जानते हुए इसलिए कह रहा हूं कि केवल तभी उनके प्रधानमंत्री बनने को बलिदान कहा जा सकेगा। उसके बाद सालों तक ना-ना कहने के बाद इटली की गलियों में खेलकर बड़ी हुईं और ब्रिटेन में पढ़ी-लिखीं सोनिया जी, जो राजीव जी से प्रेम करने के कारण पूरे भारत की बहू बन गईं, कांग्रेस अध्यक्ष बनीं। फिर उन्होंने प्रधानमंत्री बनने से इंकार कर बलिदान की वह गाथा लिख दी, जो त्रेता युग के
राम-भरत प्रकरण के बाद दिखी ही नहीं थी। यह अलग बात है कि राम ने जंगल में जाकर जो गलती की थी, उसे न दुहराते हुए सोनिया जी ने अपने निवास 10, जनपथ को देश सेवा का वह केन्द्र बनाया जिसके कारण दुनिया की 100 सबसे प्रभावशाली हस्तियों की फोर्ब्स की सूची में प्रधानमंत्री को तो जगह नहीं मिल सकी, सोनिया जी जरूर उसमें शामिल हो गईं। अब त्याग और बलिदान की यही गाथा लिखने की तैयारी युवराज कर रहे हैं।

तो क्या कांग्रेस का बहुरंगी शामियाना फिर तन पाएगा। मुझे तो मुश्किल लगता है। क्योंकि अब जनता उतनी भावुक नहीं रही। जनता अब अपने जीवन में वास्तविक बदलाव होते देखना चाहती है। एक गरीब, तंगहाल, अछूत माने जाने वाले दलित के घर देश के सबसे बड़े ब्राह्णण का रुकना जरूर इस उपेक्षित समाज के मन पर एक अच्छी छाप छोड़ेगा। लेकिन उसके जाने के बाद उसकी झोपड़ी क्या महल बन जाएगी? क्या थाने का हवलदार उस पर डंडा फटकारना बंद कर देगा? गांव के ठाकुर साहब या पंडित जी क्या उसे हिकारत की नजर से देखना बंद कर देंगे? दूसरी ओर क्या कांग्रेस का संगठन ऐसा है, जो मन पर पड़े इस अच्छे छाप को बैलेट पेपर पर हाथ छाप में बदल पाएगा? इन सभी सवालों का जवाब नकारात्मक है।

दूसरी एक जो बात उड़ीसा के एससी, एसटी सम्मेलन में हुई, उसके भी दूरगामी परिणाम हो सकते हैं। युवराज की बैठक से सभी गैर एससी, एसटी नेताओं, कार्यकर्ताओं को बाहर कर दिया गया। इसका उन कार्यकर्ताओं के मन पर क्या असर हुआ होगा? संगठन शास्त्र में हर कार्यकर्ता की भूमिका चुंबक की होती है, जो सामान्य लोहे को पहले तो खुद से चिपका कर संगठन में ले आता है और फिर धीरे-धीरे लंबे संपर्क से उसे भी चुंबक यानी कार्यकर्ता बना देता है। नए सदस्यों को पार्टी के संस्कार में दीक्षित करना भी अंतिम पंक्ति के कार्यकर्ता की ही जिम्मेदारी होती है। ऐसे में नए कार्यकर्ताओं में अपमानबोध होना या अपने कॅरियर को लेकर उनके मन में असुरक्षा का भाव पैदा होना, संगठन की कब्र खोदने के लिए काफी है।

इन सबके बावजूद अप्रैल-मई की जलती गर्मी में धूल भरे रास्तों पर घूमते हुए हर तरह से सुविधाविहीन घरों में राहुल गांधी का रुकना और देश के सबसे ज्यादा वंचित समाज की जरूरतों और उनके दुखों को समझने की कोशिश करना मुझे एक ऐसी ईमानदार कोशिश लगती है, जिसका सम्मान किया जाना चाहिए। अगर राहुल इनमें से कुछ भी न करें तो भी अपने जीवन काल में उनका देश का प्रधानमंत्री बनना तय है। ऐसे में देश की उनकी समझ, एक आम आदमी की परेशानियों की समझ और संगठन को जमीनी स्तर पर देखने से बनी उनकी समझ का दूरगामी फायदा उनकी पार्टी और देश को होगा, यह मानने में मुझे कोई परेशानी नहीं है। राजनाथ सिंह जब भाजपा के अध्यक्ष बने थे तो भी मेरा मानना यही था कि क्योंकि वह कभी एक राष्ट्रीय नेता नहीं रहे, तो उन्हें 2 साल का समय देश के हर प्रखंड में जाकर वहां के पार्टी कार्यकर्ताओं के बीच 2-3 दिन रहने, उनकी समस्याओं को समझने और संगठन से परिचय करने में लगाना चाहिए। लेकिन राजनाथ सिंह का मानना कुछ और था। उन्होंने इस समय का सदुपयोग पार्टी में दूसरी पंक्ति के अन्य नेताओं को निपटाने में, अपने बेटे की राजनीतिक महत्वाकांक्षा की पूर्ति करने, उत्तर प्रदेश में पार्टी का अपराधीकरण करने और ठाकुरवाद फैलाने में करना ज्यादा जरूरी समझा। परिणाम सामने है कि भाजपा एक अचेत विपक्ष बन कर रह गई है।

तो अगर लेख का निचोड़ देना हो तो मैं यही कहूंगा कि युवराज यानी राहुल गांधी के जमीनी दौरों से यह उम्मीद तो नहीं है कि पार्टी एक बार फिर 50 और 60 के दशक का रुतबा पा लेगी, लेकिन खुद राहुल के लिए और पार्टी के लिए इसके कुछ फायदे हो सकते हैं। बशर्ते कि राहुल खुद पार्टी को जातिगत आधार पर बांटने का राजनीतिक खेल न खेलें और एक ऐसी पार्टी बनाने की कोशिश करें जहां पहले से मजबूत जातियां कमजोरों का हाथ पकड़ कर पार्टी प्लेटफॉर्म पर खींचने को तैयार हों।

गुरुवार, 22 मई 2008

युवराज के दौरों से फिर तन सकेगा कांग्रेस का 'बहुरंगी' शामियाना?- 1

कांग्रेस के युवराज दलितों के घरों का दौरा कर रहे हैं और बहन जी के पसीने छूटने शुरू हो गए हैं। तीसरी-चौथी के बच्चों की आपसी लड़ाई के स्तर पर वह सार्वजिनक तौर से आरोप लगा रही हैं कि युवराज दलित के घर से जाने के बाद खास साबुन से नहाते हैं। इधर मीडिया में अटकलें लगने लगी हैं कि अपने दौरों से युवराज कांग्रेस को उसकी खोई जमीन कितनी वापस दिला पाएंगे।

दरअसल राजनीतिक विश्लेषकों को मैंने अक्सर यह कहते सुना है कि कांग्रेस आजादी के बाद चार दशकों तक अपने बहुरंगी शामियाने के भीतर देश के सभी वर्गों, सभी मजहबों और सभी जातियों को समेटे रही। लेकिन बाद में क्योंकि संकीर्ण स्वार्थों का पोषण करने वाली बहुत सी क्षेत्रीय पार्टियां भारत के राजनीतिक पटल पर उभरती गईं, तो कांग्रेस का वोट आधार बिखरता गया। मुझे लगता है कि यह उन कई झूठे सिद्धांतों में से एक है, जो आजादी के बाद से देश में योजनापूर्वक फैलाया गया है।

दरअसल आजादी के चार दशकों तक देश में कांग्रेस का एकछत्र राज्य देश की जनता के राजनीतिक भोलेपन और अशिक्षा का नतीजा था। आज भी कई कांग्रेसी बेवकूफी मिश्रित श्रद्धा से नेहरू-गांधी परिवार के बलिदानों की बात करते हैं। सिंधिया परिवार, वी पी सिंह, अर्जुन सिंह जैसे रजवाड़ों के वंशजों के प्रति उनके इलाकों के लोगों की श्रद्धा हमारी उसी वंशवादी राजनीतिक मानसिकता के प्रतीक हैं, जिनकी बात ये कांग्रेसी करते हैं। नहीं तो, अरबी हमलावरों, मुगलों और अंग्रेजों के हजार साल के शासन के बाद भी अगर कोई रजवाड़ा अपना किला, अपना ऐश्वर्य और अपना धन सुरक्षित रखने में कामयाब रहा, तो मतलब साफ है कि उसने देश और देश की जनता के खिलाफ विदेशी षड्यंत्रों में साझेदारी की, गरीबों का खून चूसा और आजादी के परवानों को अंग्रेजों के जाल में फंसाया। क्योंकि महाराणा प्रताप और भगत सिंह सरीखों के परिवारों का तो आज नामोनिशान भी नहीं मिलता, किलों और रजवाड़ों की तो बात ही क्या?

आज हम नेहरू और पटेल के विचारों, उनकी समझ, उनके सिद्धांतों और उनके जीवन के आधार पर यह विवेचना करने की कोशिश करते हैं कि देश का पहला प्रधानमंत्री किसे बनना चाहिए था। लेकिन 1947 की कल्पना कीजिए। साक्षरता दर 14 फीसदी थी, मतलब ग्रैजुएट कितने होंगे और उनमें भी ऐसे कितने होंगे जो वास्तव में अखबार पढ़ते होंगे, रेडियो सुनते होंगे। सोचिए, शायद 1 या 2 फीसदी। दूसरी ओर 85-90 फीसदी से ज्यादा ऐसी जनता थी, जो गांवों में रहती थी, साइकिल भी जिनके लिए लग्जरी होती थी और अंग्रेजी, हवाई जहाज या मोटर गाड़ी उनके लिए राजा-रानी के किस्सों का हिस्सा हुआ करते थे। जवाहरलाल नेहरू इन्हीं कहानियों के राजकुमार थे। उनकी नफासत, उनकी शेरवानी, उनकी जेब में लगा गुलाब, उनका अंग्रेजी रहन-सहन जनता के लिए ख्वाबों की तरह था और राजा की उनकी कल्पनाओं में फिट बैठता था। उनका स्वतंत्रता आंदोलन में कूदना देश और जनता पर उनकी कृपा के तौर पर देखा गया। दूसरी ओर पटेल का रहन-सहन, बोली, एटीट्यूड सब कुछ खालिस देसी था। वह चांदी का चम्मच मुंह में लेकर पैदा नहीं हुए थे, इसलिए आजादी के लिए उनका संघर्ष उनका कर्तव्य माना गया। यह मानसिकता समझना आज भी मुश्किल नहीं है। इसके बावजूद कांग्रेस ने प्रधानमंत्री पद के लिए पटेल को ही ज्यादा योग्य माना और यह सब इतिहास के पन्नों में दर्ज हो चुका है किस तरह गांधी जी ने अपने प्रभाव का इस्तेमाल करते हुए पहले सुभाष चन्द्र बोस को और फिर पटेल को कमजोर कर नेहरू की राह साफ की। जनता ने गांधी जी के प्रति श्रद्धा और नेहरू के प्रति अपने आह्लाद के कारण उन्हें तुरंत स्वीकार स्वीकार कर लिया। .......(जारी)

तो इसीलिए सोनिया जी को पसंद हैं पाटिल

देश के गृहमंत्री शिवराज पाटिल का मानना है कि भारत में पैदा हुआ और संसद पर हमले का आरोपी अफजल गुरू तथा पाकिस्तान की जेल में फांसी की सजा पा चुका भारतीय सरबजीत दोनों एक ही जैसे हैं। अभी तक सरबजीत का परिवार और भारत सरकार उसके मामले को 'गलत पहचान का मामला' बताते हुए उसके लिए क्षमा की मांग कर रहे थे। लेकिन पाटिल का मानना है कि सरबजीत आतंकवादी है। अगर सरबजीत आतंकवादी है और फिर भी भारत सरकार उसे छुड़ाना चाहती है, तो इसका साफ मतलब है कि उसे पाकिस्तान में आतंकवाद फैलाने के लिए भारत सरकार ने भेजा है। यानी जिस तरह पाकिस्तान भारत में आतंकवाद फैला रहा है, उसी तरह भारत पाकिस्तान में आतंकवादी भेज रहा है।

और यह कहना है देश के गृहमंत्री का। वह भी ऐसे समय में जब भारत का एक उच्चस्तरीय प्रतिनिधिमंडल इस समय पाकिस्तान में है और कल ही हम सबने पढ़ा कि उसने पाकिस्तान सरकार को साफ कहा है कि अगर वास्तविक शांति चाहते हो, तो आतंक रोकना पड़ेगा। पाकिस्तान ने भारत को पलट कर यह नहीं कहा कि तुम भी तो आतंक फैला रहे हो, पहले उसे रोको। तो क्या हुआ, हमारी आंतरिक सुरक्षा के लिए जिम्मेदार हमारा गृहमंत्री है न पाकिस्तान की भाषा बोलने के लिए।

हम सभी भारतीयों को चुल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए कि हम ऐसे मूर्ख गृहमंत्री की प्रजा हैं। वैसे यह वही गृहमंत्री हैं, जो संसदीय चुनाव में अपना क्षेत्र तक नहीं जीत सके थे। जिनके पूरे राजनीतिक कॅरियर में कोई ऐसा तमगा नहीं है, जिससे इनके एक मजबूत प्रशासक होने का सबूत मिले। लेकिन सोनिया जी को गृहमंत्री बनाने के पूरी कांग्रेस में इनसे कोई योग्य आदमी नहीं मिला। पाटिल की सबसे बड़ी योग्यता है कि उनकी रीढ़ की हड्डी नहीं है। ऐसे आदमी को बैठने और खड़े होने की तो बात छोड़िए, सोने के लिए भी दो लोगों का सहारा चाहिए। फिर इससे बढ़िया व्यक्ति कौन हो सकता था देश की आंतरिक सुरक्षा की जिम्मेदारी संभालने को। सोनिया जी का अपना पूरा परिवार, यानी बेटा, बेटी, दामाद सभी देश की सबसे इलीट सुरक्षा एजेंसी से घिरे रहते हैं। फिर देश की सुरक्षा एक रीढ़विहीन के हाथ में हुई, तो क्या बुरा है?

मंगलवार, 20 मई 2008

दूर कीजिए नपुंसकता, आतंकवाद भी गायब हो जाएगा

तो कुल मिलाकर हमारे भाग्यनियंताओं को आतंकवाद से मुक्ति के तीन रास्ते सूझ रहे हैं। आडवाणी के लिए आतंकवाद रोधक कानून पोटा की वापसी में इसकी कुंजी है, प्रधानमंत्री को लगता है कि एक संघीय जांच एजेंसी से इस पर काबू पाया जा सकता है और वामपंथियों का कहना है कि आतंकवाद से निपटने के लिए किसी कानून या विशेष एजेंसी की जरूरत नहीं, क्योंकि पाकिस्तान और अल कायदा से मुकाबला करना जनता की जिम्मेदारी है। बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने भी वामपंथियों की राय से सहमति जताई है।

अगर आतंकवाद से निपटना जनता की जिम्मेदारी है, तो चोरी, डकैती, पॉकेटमारी, बलात्कार, हत्या, धोखाधड़ी जैसे टुच्चे अपराधों से निपटने के लिए पुलिस की क्या जरूरत है? तो क्या नीतीश कुमार बिहार में और वामपंथी पश्चिम बंगाल तथा केरल में पुलिस व्यस्था खत्म करने का कदम उठाएंगे। कभी नहीं, क्योंकि ये दोनों जो यह अति मानववादी बयान दे रहे हैं, उसके पीछे की असली मंशा ही पुलिस व्यवस्था पर पूरा नियंत्रण कायम रखना और अपने तमाम अच्छे-बुरे राजनीतिक अपराधों के संरक्षण के लिए रास्ता साफ रखना है। क्योंकि कानून-व्यवस्था फिलहाल राज्यों का मसला है इसीलिए राज्य सरकारें पुलिस का इस्तेमाल अपनी रखैल की तरह करती रही हैं। अब अगर पोटा जैसा कानून हो और पूरे देश में जांच का अधिकार रखने वाली संघीय एजेंसी बन जाए, तो उसकी जांच के दायरे में बहुत बार ऐसी बातें भी आ जाएंगी, जो इस सामंतवादी सरकारों की सेहत के लिए खतरनाक हो सकता। तो इसलिए नीतीश और वामपंथियों की बेचैनी समझी जा सकती है।

रही बात भाजपा और प्रधानमंत्री (क्योंकि कांग्रेस ने अभी इस पर अपना रुख साफ नहीं किया है) के सुझावों की, तो मुझे लगता है कि दोनों ही काफी महत्वपूर्ण हैं। और पोटा एवं एक संघीय एजेंसी होने से एक राज्य (मतलब अंग्रेजी का स्टेट) के तौर पर आतंकवाद से निपटने की हमारी ताकत काफी बढ़ जाएगी। लेकिन एक राष्ट्र के तौर पर इससे निपटने के लिए हमें एक कानून और एक एजेंसी से भी ज्यादा कुछ चाहिए। हमें चाहिए मजबूत राजनीतिक इच्छाशक्ति, हमें चाहिए ऊर्जा और सपनों से भरा राजनीतिक नेतृत्व और हमें चाहिए एक ईमानदार प्रशासन।

जब एक महान राष्ट्र का ताकतवर विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर घुटने टेकने कंधार गया था, तब पोटा की सलाह देने वाले यही आडवाणी तो उप प्रधानमंत्री और गृहमंत्री हुआ करते थे। जब एक महान राष्ट्र की सीमाओं की रक्षा कर रहे 16 जवानों को मारकर एक पिद्दी देश के रेंजरों ने उनका जुलूस निकाला तो आडवाणी के अंदर का लौह पुरुष मोम का क्यों हो गया था? संसद हमले के बाद पाकिस्तान की सीमा पर फौज खड़ी करना और फिर सैकड़ों करोड़ रुपए बरबाद कर बिना किसी परिणाम के उसे बैरक में भेज देना, क्या उस समय देश की कमान भाजपा के हाथ में नहीं थी? कारगिल में हमने अपने 500से ज्यादा जांबाज खोकर अपना ही हिस्सा वापस पाया लेकिन पाकिस्तान को इस पूरे घटनाक्रम में क्या नुकसान हुआ? कुछ भी नहीं। तो अगर आडवाणी और उनकी पार्टी के लिए नपुंसकता ही कूटनीति का दूसरा नाम है, तो केवल पोटा क्या कर लेगा?

चार साल तक देश पर दसियों आतंकवादी हमलों में किसी भी एक में अपराधियों को पकड़ने में नाकाम रही कांग्रेस गठबंधन सरकार के मुखिया मनमोहन सिंह चुनाव से 10 महीने पहले संघीय एजेंसी की वकालत कर रहे हैं। क्या कर लेगी संघीय एजेंसी अगर उसे जांच से पहले ही कह दिया जाएगा कि खबरदार किसी मुसलमान को परेशान नहीं किया जाना चाहिए। कांग्रेस का इतिहास है संस्थाओं को कमजोर करने का। नवीन चावला जैसे लोगों की मदद से चुनाव आयोग को नष्ट करने की कोशिश की जा रही है, हंसराज भारद्वाज को लगता है कि सुप्रीम कोर्ट के न्यायाधीश उनके पेरोल पर हैं, सोमनाथ चटर्जी को विधायिका की सबसे बड़ी दुश्मन न्यायपालिका लगती है, सीबीआई तो बहुत पहले से ही प्रधानमंत्री कार्यालय के पालतू की तरह काम करना शुरू कर चुकी है। तो क्या संघीय जांच एजेंसी अपना काम ईमानदारी से कर पाएगी। क्या होगा अगर आतंकवादी सूत्रों की के सिरे लोकतंत्र के मंदिर की चौखटों तक जा पहुंचे। क्या कर लेगी संघीय एजेंसी अगर उसके द्वारा दोषी साबित अफजल सत्ता के आशीर्वाद से उन्हें मुंह चिढ़ाता रहेगा और फिर किसी विमान अपहरण में उसी एजेंसी को उसे सुरक्षित उसके अड्डे पर पहुंचाने की जिम्मेदारी दे दी जाएगी।

इसलिए मेरा मानना तो केवल यही है कि देश को पहली जरूरत एक सशक्त देशभक्त राजनीतिक नेतृत्व की है और इसके बाद ही पोटा और संघीय एजेंसी आतंकवाद के पिशाच को गीदड़ की मौत मारने में सफल हो सकेंगे।

शुक्रवार, 16 मई 2008

वो सुबह कभी तो आएगी....

मैं अक्सर एक कल्पना करता हूं कि मैं सोया हुआ हूं और एकाएक 1,000 लोगों की भीड़ हाथों में मशाल लिए नारे लगाते हुए मेरे घर पर हमला कर देती है। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मेरे भीतर किस तरह का डर होगा। मैं अक्सर कल्पना करता हूं कि मैं खाना खा रहा हूं। अचानक मेरे घर पुलिस आती है मुझे बिना कोई कारण बताए खींचती हुई ले जाती है और कुछ दूर ले जाकर गोली मार देती है। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मैं किस तरह डरूंगा। मैं अक्सर कल्पना करता हूं कि मेरी मां, मेरी बेटी या मेरी पत्नी मेरे साथ कहीं जा रही हैं। कुछ गुंडों की टोली आती है और उन्हें मेरे सामने तार-तार कर देती है। मैं कुछ नहीं कर पाता। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मैं किस तरह चीखूंगा। और इन कल्पनाओं में एक और कल्पना है मैं कि अगर इनमें से कुछ भी न हो, लेकिन हमेशा इनमें से कुछ भी होने की आशंका बनी रहे, तो मेरी ज़िंदगी कैसी होगी। मैं ऐसी भयानक कल्पनाएं इसलिए नहीं करता क्योंकि मैं कोई मनोरोगी हूं, मैं ऐसी पैशाचिक कल्पनाएं इसलिए करता हूं क्योंकि मैं उस कुंठा, उस डर, उस दहशत को समझना चाहता हूं जो 1947 के विभाजन के समय लाखों लोगों ने झेली होगी, सोमालिया, रवांडा, सर्बिया-हर्जेगोविना, यूगोस्लाविया में लाखों ने सही होगी और तिब्बत, म्यांमार तथा पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में लाखों लोग आज भी झेल रहे हैं।

दरअसल मैं आज एक लेख पढ़ रहा था म्यांमार के बारे में। जिसमें कहा गया था कि म्यांमार की सरकार दुनिया की सबसे बुरी सरकार है। उसी अखबार में एक और खबर थी नंदीग्राम के बारे में। नंदीग्राम की खबर बहुत ही दुखद होने के बावजूद काफी रोचक भी थी। वाम मोर्चा सरकार में आरएसपी के मंत्री के घर सीपीएम के कुछ गुंडों ने बम फेंक दिया। घर जलकर खाक हो गया, मंत्री की बहू 90 फीसदी जली हालत में अस्पताल में है और बेटा भी बुरी तरह घायल है। एक ऐसी पार्टी के मंत्री का यह हाल, जो पिछले 30 वर्षों से सीपीएम के साथ सत्ता में है। अभी हफ्ते भर पहले ही नंदीग्राम उस समय खबरों में आया था जब पंचायत चुनावों के दौरान वहां गश्त कर रहे डीआईजी आलोक राज को सीपीएम के एक सांसद ने क्षेत्र में न निकलने की धमकी दी थी। वैसे ये तो खबरें हैं, जो बाहर आती हैं। इसलिए कि इनमें पीड़ित होने वाला डीआईजी और मंत्री है। लेकिन उस दहशत का क्या जो वहां रहने वाली हर मां, बेटी, बहू, पत्नी और हर बेटे, बाप और पति के जेहन में दिन-रात भरे रहते हैं। छह महीने पहले जब पहली बार नंदीग्राम चर्चा में आया था, उस समय वहां से आने वाली खबरें दिल दहला देने वाली थीं। महिलाओं के साथ सरेआम बलात्कार किए गए थे, उनकी योनियों में सरिए डाले गए थे, पुरुषों को जानवरों की तरह दौड़ा कर गोली मार दी गई थी और यह सब किया था उस पार्टी के गुंडों ने जो पश्चिम बंगाल में शासन में है। उसी पार्टी के मुख्यमंत्री ने इन पाशविक कृत्यों को सही ठहराते हुए कहा था कि उन महिलाओं का बलात्कार और उन अधनंगे किसानों गोली मारना दरअसल उन्हीं की भाषा में उन्हें दिया गया जवाब था।

खैर, ये तो वे घटनाएं हैं जिनका जिक्र पहले भी हो चुका है। मैं तो बात कर रहा था दहशत की। छह महीने पहले भूमि उच्छेद समिति के किसानों को गांवों से खदेड़े जाने से लेकर आरएसपी के मंत्री का घर उड़ाने तक हम आराम से घरों में सोते रहे हैं। नई-नई फिल्मों में नई-नई मॉडलों के अंगों का विश्लेषण करते रहे हैं। अपनी-अपनी नौकरियों में अपने-अपने समीकरण बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। छोटी-छोटी बातों पर हेठी करते रहे हैं, अपनी शेखी बघारते रहे हैं। लेकिन उन्हीं छह महीनों में नंदीग्राम की हर धड़कन की दहशत की कल्पना कीजिए। घरों में दुबके गरीब अधनंगे किसान। और उनकी झोपड़ियों को हिलाती मोटरसाइकिलों का शोर। उस शोर के दूर होने का इंतजार करते बेबस कान। अगर कहीं वह शोर घर के आगे आकर थमे तो लगे जैसे जान निकल गई। हर घर पर लगे सीपीएम के झंडे मानो उन्हें उनके खून का रंग याद दिला रहे हों कि अगर हमारा साथ नहीं दिया इसी रंग से रंग देंगे तुम्हें। अखबारों में आई खबरें आपने भी पढ़ी होंगी, जिनमें बताया जाता था कि किस तरह सभी घरों पर सीपीएम के झंडे लगा दिए गए हैं और निकलने वाले हर सीपीएम जुलूस में हर घर से एक आदमी का शामिल होना अनिवार्य कर दिया गया था।

कैसी होगी वह दहशत। जहां बीडीओ, एसडीओ, दारोगा सभी सीपीएम कैडर की तरह बर्ताव करते हैं और मुख्यमंत्री बदले की बात करता है। किसका सहारा होगा उन्हें। क्या यही वह दहशत नहीं है, जो कभी चंगेज खां के हमले के समय दिल्ली वालों ने महसूस किया होगा, मुगलों के समय मंदिरों ने महसूस किया होगा और पिछले पचास सालों से तिब्बत महसूस कर रहा होगा। यह चीन नहीं, यह सोवियत संघ नहीं, चिली नहीं, क्यूबा नहीं, भारत के पश्चिम बंगाल का एक इलाका है। लेकिन शायद इसीलिए वामपंथी देश की सीमाओं को नहीं मानते। वामपंथ का चरित्र पूरी दुनिया में एक ही है।

कहते हैं लोकतंत्र में नेताओं का सबसे अच्छा इलाज जनता ही करती है। लेकिन पिछले छह महीने में नंदीग्राम का लोकतंत्र देखने के बाद लगने लगा है कि क्या पश्चिम बंगाल में वास्तव में लोकतंत्र की सुबह होगी। क्या सच में यह रात कभी खत्म होगी?

गुरुवार, 15 मई 2008

सोनिया जी की धर्मनिरपेक्षता और जयपुर के विस्फोटों में संबंध तो है

कितना आसान होता है ऊंची दीवारों के बीच रह कर, लोगों को निर्भीकता का पाठ पढ़ाना, कितना आसान होता है छत के नीचे से बारिश में भीगते लोगों को धैर्य बनाए रखने की शिक्षा देना, कितना आसान होता है खुद एसपीजी के साये में रहकर डरी हुई जनता को शांति का ज्ञान देना। जिस दिन जयपुर में 11 जगहों पर हुए बम विस्फोटों ने 100 घरों में मातम भर दिया, उसी दिन सोनिया गांधी बंगलुरु में एक चुनावी सभा में लोगों को धर्मनिरपेक्षता के विरोधी ताकतों का मुकाबला करने की सलाह दे रही थीं।

ठीक भी है, किसी समाज और देश के अंतर्मन में सर्वधर्म समभाव का उसकी उन्नति और शांति में क्या भूमिका है, इससे किसी को इंकार नहीं। लेकिन जयपुर के धमाके और सोनिया गांधी की धर्मनिरपेक्षता में कुछ संबंध तो है। साल 2000 के बाद से देश में जो भयंकर आतंकवादी हमले हुए हैं, उनकी फेहिरस्त देखिए। लाल किला हमला, संसद हमला, समझौता एक्सप्रेस विस्फोट, मुंबई बम विस्फोट, दिल्ली में लाजपत नगर विस्फोट, वारणसी में संकटमोचन हनुमान मंदिर विस्फोट, हैदराबाद में हुए विस्फोट, मालेगांव में हुए विस्फोट और अब जयपुर में हुए ताजा विस्फोट। इनमें लाल किला और संसद पर हुए हमलों को छोड़कर बाकी सभी सोनिया गांधी जी की सरकार में हुए। लाल किला और संसद हमलों की जांच पूरी हो चुकी है। अदालतों के फैसले आ चुके हैं। क्या किसी को भी पता है कि इनके अलावा बाकी विस्फोटों की जांच कहां तक पहुंची है?

यह सही है कि सरकार हर जगह हर हमला नहीं रोक सकती। लेकिन प्रशासन का ककहरा समझने वाला भी जानता है कि रथ में जुते सात घोड़ों के नियंत्रण के लिए सातों के पीठ पर सवार होना जरूरी नहीं। सारथी के लगाम पकड़ने का तरीका ही घोड़े को बता देता है कि उसे नियंत्रण में चलना है। सोनिया जी ने सरकार के रथ का लगाम पकड़ते हुए घोड़ों को जो संदेश दिया, वह था कि इस देश का हर आतंकवादी एक मुसलमान है और क्योंकि मुसलमान से हमारी सत्ता है इसलिए किसी भी आतंकवादी को परेशान न किया जाए। सुनने में बहुत ही कठोर और सनकी सा बयान लगता है ये, लेकिन जिस सरकार की पहली प्राथमिकता आतंकवाद का मुकाबला करने को खास तौर पर तैयार किया गया कानून पोटा हटाना हो, उसके अधिकारियों को क्या संकेत मिलेगा, आप ही बता दीजिए।

पोटा पर आरोप था कि इसमें केवल मुसलमानों को ही पकड़ा जा रहा है। इस आरोप का जवाब आप सबको पता है। लेकिन मैं यह कहता हूं कि अगर किसी कानून में खामी होने का मतलब ही उसे खत्म करना है, तो सबसे पहले इस देश से पुलिस व्यवस्था को खत्म करना चाहिए। क्योंकि जितना दुरुपयोग इस व्यवस्था का हो रहा है, गरीबों पर जितना अत्याचार इस संस्था ने किया है, उतना पूरी ज़मींदारी व्यवस्था ने मिलकर भी नहीं किया होगा। हां, लेकिन यहां गरीबों की बात है, मुसलमानों की नहीं, इसलिए पुलिस व्यवस्था का अत्याचार, भ्रष्टाचार सब सहनीय है।

तो इसीलिए मैंने कहा कि सोनिया गांधी की धर्मनिरपेक्षता और जयपुर के विस्फोट में कुछ संबंध तो है। सोनिया गांधी या वामपंथियों के लिए धर्मनिरपेक्षता के दुश्मन का मतलब क्या है, यह जानने के लिए किसी खास खुफिया रिपोर्ट की जरूरत नहीं है। उनके लिए साम्प्रदायिक का मतलब हर वह हिन्दू है, जो गला फाड़ कर यह कह सकता है कि हां मैं हिन्दू हूं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब प्रधानमंत्री का यह बयान है कि देश के संसाधनों पर पहला हक देश के अल्पसंख्यकों (मतलब मुसलमानों) का है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब न्यायालय में हलफनामा देना है कि राम एक काल्पनिक चरित्र हैं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब कुतुब मीनार के लिए मेट्रो का रास्ता तबदील करना और समुद्री जहाज चलाने के लिए अपेक्षाकृत ज्यादा फायदेमंद विकल्पों को छोड़ कर राम सेतु तुड़वाना है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब एक छोटे से गुट के चलते तसलीमा नसरीन को नजरबंद कर मानसिक तौर पर इस हद तक प्रताड़ित करना है कि वह देश छोड़कर चली जाएं। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब कोयम्बटूर बम विस्फोट के आरोपी केरल के मदनी का जेल से छूटने पर जोरदार स्वागत करना है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब बंगलादेशी घुसपैठियों को बसाने में सहयोग करना है। उनके लिए धर्मनिरपेक्षता का मतलब मुस्लिम बहुल जिलों की पहचान कर उन्हीं पर विकास की वर्षा करना है। और जो कोई भी उनकी इस धर्मनिरपेक्षता का विरोधी है, वह साम्प्रदायिक है। बंगलुरु की चुनावी सभा में दरअसल सोनिया जी इन्हीं साम्प्रदायिकों का विरोध करने के लिए कह रही हैं।

पिछले साल संसद के एक सत्र में विपक्ष के नेता लालकृष्ण आडवाणी ने सरकार से सवाल पूछा था कि हैदराबाद बम विस्फोट के सिलसिले में किसी मस्जिद के एक मौलवी को गिरफ्तार किया गया था, फिर उसे बिना किसी कागजी कार्यवाही और पूछताछ के छोड़ दिया गया, क्यों? सरकार ने कोई जवाब नहीं दिया, ठीक वैसे ही जैसे फांसी की सजा मिलने के साल भर से ज्यादा होने के बाद भी आज देश को पता नहीं है कि संसद हमले का आरोपी अफजल आखिर जिंदा क्यों है? आखिर कौन लोग हैं, जो सरकार के शीर्ष स्तर से यह धर्मनिरपेक्षता निभा रहे हैं। जो भी हों, इससे इतना तो तय है कि सोनिया जी की धर्मनिरपेक्षता और जयपुर के विस्फोटों में संबंध तो है।

बुधवार, 14 मई 2008

बाजार की ज़रूरतों को साधने की कोशिश करता 'भूतनाथ'

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेकिन अब शायद सिनेमा ने इस भूमिका में साहित्य को ज्यादा कड़ी प्रतियोगिता देनी शुरू कर दी है। कारण यह है कि सिनेमा पर बाजार का ज्यादा प्रभाव है और इसलिए उस पर समाज की ख्वाहिशों के तुष्टिकरण का दबाव शायद कुछ ज्यादा ही रहता है। और अगर यह सच है तो पिछले शुक्रवार को पर्दे पर आई भूतनाथ ने अपनी यह भूमिका बखूबी निभाई है।

अमिताभ बच्चन के अभिनय की समीक्षा करना एक ऐसा बचकानापन होगा, जो मैं नहीं करूंगा। शाहरूख खान के जिम्मे इस फिल्म में करने को कुछ खास था नहीं, सो उनका अभिनय उनकी ख्याति के अनुरूप रहा, कहना सही नहीं होगा। जूही चावला काफी दिनों बाद बड़े पर्दे पर पहले जैसी ही खूबसूरत दिखी हैं और उनके अभिनय में ताजगी है। बाल कलाकार बंकू, जो अमिताभ के साथ फिल्म के केन्द्र में हैं, ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन क्योंकि 'तारे ज़मीं पर' के ईशान अवस्थी के अभिनय ने मुझे बहुत गहराई से प्रभावित किया था, तो शायद बंकू के प्रति मैं न्याय नहीं कर पा रहा। उसके अभिनय को मैं सामान्य की श्रेणी में ही रखूंगा।

अखबार वालों को शाम की हवा कम ही नसीब होती है। सो आज साप्ताहिक छुट्टी का पूरा फायदा उठाते हुए मैं भूतनाथ देखने निकल गया। यह नहीं कहूंगा कि पैसे वसूल नहीं हुए, क्योंकि फिल्म के कथानक को जानते हुए मैं इसके कोई असाधारण होने की उम्मीद भी नहीं कर रहा था। अमिताभ का एक नया चेहरा देखने की इच्छा थी और इस लिहाज से मेरे पैसे वसूल हो ही गए। फिल्म की बिलकुल शुरुआत में एक गाना फिल्माया गया है, जिसे देखकर मन ही मन मैं निर्देशक को कुछ 'आशीर्वचन' दे रहा था। गाना बच्चों के दो गुटों पर है, जो लड़ने को उतारु हैं। उन्हें फिल्म जोश के 'मैं भी हूं जोश में' वाले गाने का गेटअप दिया गया है। पूरा गाना देख कर आप साफ अनुमान लगा सकते हैं उसका हर स्टेप किसी अमेरिकी एलबम से उठाया गया है। गाने को देखकर मैं और मेरी पत्नी बच्चों के मन पर उस गाने से हो सकने वाले तमाम कुप्रभावों को लेकर चिंतित हो रहे थे। जिस तरह 10-15 साल के बच्चों को एडल्ट गेट अप दिया गया था और उस गाने के बोल में जिस तरह 'घूंसे मारूंगा', 'हड्डियां तोड़ूंगा', 'जूते लगाउंगा','दांत तोड़ दूंगा' जैसे उद्गार प्रयोग किए गए हैं और जिस तरह की आक्रामकता बच्चों में प्रदर्शित की गई है, छोटे बच्चों पर उसके असर की कल्पना मात्र से सिहरन होती है।

लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी, मैंने लेखक-निर्देशक को अपने शुरुआती आरोपों से बरी कर दिया। मुझे लगा कि वे बेचारे हमारे सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करने का कोई षड्यंत्र नहीं कर रहे, दरअसल वे बाजार के हाथों मजबूर हैं। फिल्म के उत्तरार्द्ध में कुछ अच्छी बातें दिखाई गईं। जैसे जादू कर स्कूल की दौड़ जिताने की बंकू की जिद पर भूतनाथ को उसे यह समझाते हुए दिखाया गया कि जिंदगी की दौड़ चमत्कार से नहीं जीती जाती, उसे जीतना होता है। अमेरिका में रहने वाले कैलाशनाथ के 8-9 साल के पोते को उनका पैर छूते दिखाना और फिर उनके साथ रहने की जिद करना, बच्चों के मन पर कुछ अच्छा असर छोड़ेगा, मुझे लगता है। इसमें मुझे गीता के इस महान सूत्र के भी दर्शन हुए जिसमें भगवान ने कहा है कि तुम मरते हुए जिस भाव का चिंतन करते हो, वही तुम्हारे बंधन का कारण होता है। अपने घर के मोह में बंधे कैलाशनाथ मरने के बाद भी उसी घर में भूतनाथ बन कर बंधे रह जाते हैं। आत्मा की मुक्ति के लिए श्राद्ध जैसे विशुद्ध भारतीय संस्कारों को स्थापित करने की भी फिल्म में कोशिश की गई है।

तो आखिर में मुझे लगा कि भूतनाथ दरअसल हमारे समाज का ही एक प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर रहा है, जहां हम हर दिन डिस्कोथेक की आधुनिकता और मंदिर की पारंपरिकता में संतुलना साधने की जुगत लगाते रहते हैं। कुल मिलाकर फिल्म औसत कही जा सकती है, जिसमें कम पात्रों के साथ एक भावनात्मक ताना-बाना बुनने की कोशिश की गई है।

सोमवार, 12 मई 2008

RSS सरसंघचालक को एक भारतीय की चिट्ठी

आदरणीय सुदर्शन जी,
आप दुनिया के सबसे बड़े गैर सरकारी संगठन के मुखिया हैं, तो जाहिर है आपके पास समय की कमी रहती होगी। फिर एक सामान्य भारतीय नागरिक का पत्र पढ़ना तो आपके लिए बहुत ही मुश्किल होगा। इसलिए बिना किसी भूमिका के मैं आपको पहले यह बता दूं कि यह पत्र एक ऐसे राष्ट्रीय विषय के बारे में है, जिसका असर भारत के भविष्य पर हमेशा महसूस किया जाएगा। इसलिए कृपया अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर इसे जरूर पढ़ें।

यह पत्र है भारत-अमेरिकी असैनिक परमाणु करार के बारे में जो अब बस दम तोड़ने को है। 28 मई तक अगर भारत सरकार ने इस पर कोई अंतिम फैसला नहीं किया तो यह संग्रहालयों में रखे जाने वाले ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा बनकर रह जाएगा। भारत की ओर से इस समझौते को सफल या असफल बनाने के लिए जिम्मेदार तीन पक्ष हैं- कांग्रेस, कम्युनिस्ट और भारतीय जनता पार्टी। तो आपको लगेगा कि आपको पत्र लिखने के पीछे मेरा क्या निहितार्थ है। बताता हूं। इस समझौते में सबसे बड़ी बाधा कम्युनिस्ट हैं। उनसे इससे अलग उम्मीद भी नहीं है क्योंकि वे किसी भी ऐसे कदम को रोकने के लिए कटिबद्ध हैं, जिससे भारत शक्तिशाली बनता हो। चीन का दुनिया में प्रभुत्व स्थापित हो, यह उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना है। सो उनसे कोई बात करना ही बेकार है।

कांग्रेस की बात करें तो पिछले 4 से ज्यादा सालों में सत्ता के लोभ ने जिस तरह बार-बार उसे वामपंथियों के सामने घुटनों पर खड़ा किया है, उसके बाद उससे किसी तरह की उम्मीद की जा सकती है, मुझे नहीं लगता। बजट के बाद उम्मीद जगी थी कि शायद कांग्रेस देश के सामने अपनी छवि सही करने के लिए जल्दी चुनाव का खतरा उठाने को तैयार हो, लेकिन जैसे-जैसे चिदंबरम के बजट की आभा पर कालिख पुतती चली गई, यह तिनका भी छूटता गया। इसके बाद एक उम्मीद भाजपा पर थी कि शायद वह देशहित में कांग्रेस का समर्थन कर इस समझौते को परवान चढ़ाए, लेकिन वह भी अपने घटिया चुनावी स्वार्थ के कारण इसे मिट्टी देने को तैयार है।

चूंकि भाजपा के बड़े सभी नेताओं से आपकी गाहे-बगाहे मुलाकात होती रहती है तो आपने शायद इस मुद्दे पर उनसे चर्चा भी की हो। आपकी वैज्ञानिकों से भी मुलाकात होती है, तो उन्होंने भी अपनी राय दी होगी। अब क्योंकि अब्दुल कलाम से लेकर के सुब्रह्मण्यम जैसे वैज्ञानिक और जसजीत सिंह से लेकर सी राजामोहन जैसे तमाम विशेषज्ञ इस समझौते को बहुत ही जरूरी और राष्ट्रहित में बता रहे हैं, तो वैज्ञानिकों से आपको भी कुछ ऐसी ही राय मिली होगी। फिर आपने एक विशुद्ध वैज्ञानिक मसले पर अब्दुल कलाम पर आडवाणी को तरजीह क्यों दी है, यह किसी भी व्यक्ति के समझ से बाहर हो सकता है। आडवाणी सत्ता की राजनीति में हैं, इसलिए उन्हें सत्ता चाहिए। जिन कारणों से कांग्रेस पोखरण-2 की सालगिरह नहीं मनाती, कुछ उन्हीं कारणों से भाजपा यह समझौता नहीं होने देना चाहती।

आडवाणी जी का कहना है कि इस समझौते से हमारी परमाणु परीक्षण की आजादी खत्म हो जाएगी। जैसे समझौता न होने पर हम हर साल परीक्षण ही कर रहे हैं। फिर हमारे पास इस समझौते से निकलने की आजादी तो हमेशा है। खैर, तर्क-वितर्क की बाद छोड़ दीजिए। सीधी सी बात यह है कि इसके जो भी सुरक्षात्मक और वैज्ञानिक पहलू हैं, वह समझ पाने की क्षमता न आपमें है, न मुझमें, न आडवाणी जी में, न सोनिया जी में। आप और हम तो वही समझेंगे, जो समझाया जाएगा। जो पक्ष वाले हैं, वह अपनी मतलब के दो उपबंधों को बताएंगे, विपक्ष वाले अपनी मतलब के। इसलिए ऐसे मामले में जीवन की संध्या में किसी भी कीमत पर सत्ता पाने को आतुर एक राजनीतिज्ञ की राय के मुकाबले तपस्वी की तरह जीवन बिताते हुए एक शिक्षक का दायित्व निभा रहे पूर्व राष्ट्रपति, जो एक परमाणु वैज्ञानिक भी रह चुके हैं, की राय हर हालत में ज्यादा वजनी है।

अब क्योंकि चाहे यह मेरी गलतफहमी ही हो, मुझे आज भी लगता है कि आप निःस्वार्थ भाव से केवल और केवल देशहित पर विचार करने में सक्षम हैं और साथ ही आप भाजपा की नीतियों में बदलाव करने में भी समर्थ हैं (कम से कम अभी तक), इसलिए परमाणु करार को सफल होते देखने की अपनी चरम उत्कंठा से मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं। आप मेरे लिए उम्मीद की आखिरी किरण हैं और शायद देश के लिए भी।

भुवन भास्कर

रविवार, 11 मई 2008

हम मदर्स डे को मां दिवस क्यों नहीं कह पाते

बात वहीं से शुरू करते हैं जहां सुबह छोड़ी थी। बदलाव एक दोधारी तलवार है। चाहे हमारा अपना जीवन हो, हमारा समाज हो या फिर हमारा देश, हम हमेशा बदलावों को लेकर आशंकित होते हैं, असुरक्षित महसूस करते हैं। रत्नाकर का वाल्मीकि होना बदलाव है, तो विश्वामित्र जैसे राजर्षि का पतित होना भी बदलाव है। बदलाव के प्रति इसी नजरिए के कारण मैं अब तक तय नहीं कर पाया हूं कि मुझे ये डेज़ मनाने का विरोध करना चाहिए या समर्थन। इस असमंजस के बावजूद मैं भी वैलेंटाइन डे को प्रेमी दिवस, फादर्स डे को पिता दिवस या मदर्स डे को मां दिवस नहीं बोल पाता। तो इसीलिए मैंने सुबह अपना यह सवाल रखा था कि ऐसा क्यों है?

निश्चित तौर पर दिवसों को मनाने की यह परंपरा पश्चिमी समाज की देन है। लेकिन क्या केवल इसीलिए यह गलत हो जाती है। फिर तो 'बात निकलेगी तो दूर तलक जाएगी'। दरअसल समस्या की जड़ हर बात को केवल सही या गलत के खांचे में बांटने की हमारी आदत है। रामनवमी और कृष्णाष्टमी का त्योहार भी तो राम और कृष्ण के जन्म दिवस ही हैं। अगर उन्हें मनाना हमारी आत्मिक और आध्यात्मिक चेतना को ऊंचा उठाने की प्रक्रिया है तो फिर मदर्स या फादर्स डे में क्या बुराई है?

सच में, कोई बुराई नहीं है। उसी तरह जैसे अगर किसी को कैंसर हो जाए, तो उसकी दवा खाने में कोई बुराई नहीं है, लेकिन अगर यही दवा टायफाइड के मरीज को खिलाई जाने लगे तो? जी हां, तब यह बुराई ही नहीं, जीवनघाती भी हो सकती है। पश्चिम के समाज में मदर्स, फादर्स या पैरेंट्स डे एक दवाई की तरह है। एक ऐसा समाज जहां बूढ़े मां-बाप, विधवा बुआ, पीड़ित बहन आदि के लिए पति-पत्नी और बच्चे के एकल परिवार में कोई जगह नहीं। उन्हें रखने के लिए, उनके पालन-पोषण के लिए तमाम सरकारी इंतजाम हैं और उनके जिगर के टुकड़ों से बस यही उम्मीद की जाती है कि कम से कम साल भर में एक बार तो वे कुछ कार्ड्स, कुछ उपहार और कुछ मीठी बातें लेकर जीवन के आखिरी पल का इंतजार कर रहे अपनी मदर और अपने फादर से मिलने आ जाया करें।

ऐसे समाज में मदर्स, फादर्स या पैरेंट्स डे का सचमुच काफी महत्व है। लेकिन उस समाज में इसका क्या काम, जहां मां-बाप आखिरी क्षण तक बेटे-बेटियों के जीवन का हिस्सा होते हैं। ये मैं वेदों, पुराणों की सूक्तियों की बात नहीं कर रहा। आज भी आप किसी अस्पताल में चले जाइए या तीर्थ स्थान पर चले जाइए, आपको इस तथ्य की सच्चाई पता चल जाएगी।

आज मदर्स डे है। तो क्या? मेरी मां के प्रति मेरी जिम्मेदारियों का अहसास तो कल भी था और कल भी रहेगा। मेरी मां के प्रति मेरा प्यार कल भी उतना ही गहरा था, जितना कल रहेगा। मेरी मां के लिए मेरे जीवन का हर पल कल भी उतना ही उपलब्ध था, जितना कल रहेगा। मेरे लिए तो साल के सभी 365 दिन मदर्स डे होते हैं। लेकिन वक्त की लहर के साथ बहना भी तो होगा। स्कूलों में मदर्स डे के नाम पर मांओं को बुलाया जा रहा है, तो वहां तो जाना ही होगा। अंग्रेजी स्कूलों में मदर्स डे का महिमामंडन कर उसके नाम पर बच्चों को प्रेरित किया जा रहा है कि वे अपनी मांओं को कार्ड दें, गिफ्ट दें। तो बच्चों की भावनाओं का सम्मान करने के लिए इसमें सहयोग तो करना ही होगा। फिर क्या हमारे बच्चे भी धीरे-धीरे यह नहीं मानने लगेंगे कि मां को प्यार करने का साल में केवल यही एक दिन होता है? शायद मानने लगें। लेकिन इसका हल यह नहीं हो सकता कि हम अपने बच्चे की भावनाओं को कुचल दें। इसका हल एक ही है कि हम अपने बच्चों में मजबूत और पवित्र संस्कारों के जरिए यह सुनिश्चित करें कि वह मां या पिता की भारतीय अवधारणा को समझे। उनका आध्यात्मिक महत्व जाने।

मेरे कम्युनिस्ट मित्र माफ करेंगे। लेकिन अगर उन्हें अपना बुढ़ापा ओल्ड एज होम्स में न गुजारना हो, तो उन्हें भी ऐसा करना चाहिए, भले ही सार्वजनिक तौर पर वे भारतीयता और आध्यात्मिकता को गाली देते फिरें। शायद उनका वैचारिक दुराग्रह उन्हें यह स्वीकार करने से रोके, लेकिन एक भारतीय मां और ए मदर का अंतर तो वे भी बखूबी समझते हैं, तभी तो मदर्स डे को मां दिवस वे भी नहीं कह पाते।

मदर्स डे पर एक सवाल

आज सुबह से ही एक सवाल मुझे परेशान कर रहा है। जिस तरह इंडिपेंडेंस डे को स्वतंत्रता दिवस कहते हैं, रिपब्लिक डे को गणतंत्र दिवस कहते हैं, बर्थ डे को जन्म दिवस कहते हैं, टीचर्स डे को शिक्षक दिवस कहते हैं, उसी तरह वैलेंटाइन डे को प्रेमी दिवस, फादर्स डे को पिता दिवस या मदर्स डे को मां दिवस क्यों नहीं कहते? हां, आप चाहें तो कह सकते हैं, लेकिन मेरे मन का सवाल व्यवहारिक स्तर का है। हर अंग्रेजी शब्द का तर्जुमा करने को तत्पर हम हिंदी वाले भी जहां पहले चार डे को दिवस में अनुवाद कर बोल देते हैं, वैसे ही बाद वाले तीन डे का हम अनुवाद करना क्यों नहीं चाहते? जाहिर है कि आज मदर्स डे की खबरों को पढ़ते-सुनते ही मेरे मन में ये सवाल आया है।

हममें से बहुत होंगे जो इस तरह के डे मनाने में कुछ भी बुरा नहीं मानते होंगे और बहुत सारे ऐसे भी होंगे जो इन्हें मनाने को पश्चिमी संस्कारों और विचारों के सामने घुटने टेकने के बराबर मानते होंगे। लेकिन फिर वही सवाल है कि इन डेज़ का हिंदी अनुवाद तो दोनों में से कोई भी वर्ग नहीं करता है। क्यों?

शनिवार, 10 मई 2008

छगन लाल और खली के लिए कानून के चेहरे अलग-अलग क्यों हैं?

मेरा नाम छगन लाल है। एक फरियाद करना चाहता हूं। दरअसल मैंने दो साल पहले अपने ऑफिस में सिक लीव के लिए अर्जी दी थी। सिक लीव यानी छुट्टी की अर्जी जिसका कारण मैंने इस बुरी तरह बीमार होना बताया था, कि आफिस आने में समर्थ नहीं था। लेकिन आपको एक राज की बात बताउं,किसी से कहिएगा नहीं। मुझे एक जबर्दस्त ऑफर मिला था, अमेरिका जाकर कुश्ती लड़ने का। अब उस अनिश्चित ऑफर के लिए मैं लगी लगाई सरकारी नौकरी तो छोड़ नहीं देता न। मैंने सिक लीव की अर्जी बढ़ा दी और निकल लिया अमेरिका कुश्ती लड़ने। लेकिन मेरी किस्मत, मैं सफल नहीं हो सका।

मेरे प्रायोजकों ने क्योंकि मेरे पर काफी पैसे खर्च कर दिए थे, तो मैं यूं तो आ नहीं सकता था। तो मैं छोटी-मोटी प्रतियोगिताओं में लड़कर उनका घाटा पूरा करता रहा और आखिकार 2 साल बाद मुझे किसी तरह देश लौटने का मौका मिल सका। इस बीच कोई चारा नहीं होने के कारण अपनी सिक लीव बढ़ाता गया था। सो लौटकर सोचा पुरानी नौकरी में ही एक बार फिर लौट जाउं। ज्वाइन करने गया, तो मुझसे कहा गया कि पूरे दो साल के मेडिकल सर्टिफिकेट और दवाओं की रसीद लेकर आउं। किसी तरह कर्ज लेकर कुछ पैसे जुटाए। डॉक्टर को कुछ घूस वगैरह देकर सारे कागज जुटाए और लेकर पहुंच गया ऑफिस। पर ये क्या? वहां मेरा इंतजार पुलिस कर रही थी। किसी ने अमेरिका में मेरी कुश्ती वाली तस्वीरें बॉस तक पहुंचा दीं और ऑफिस में गलत जानकारी देने, धोखाधड़ी करने और कुछ और आरोपों में 4-5 धाराएं लगाकर पुलिस ने मुझे बंद कर दिया। अब आज ही मैं किसी तरह जमानत पर छूटा हूं। घर पहुंच कर कुछ अखबार देख रहा था। मेरी नजर एक ऐसी खबर पर पड़ी कि मेरे तनबदन में आग लग गई। व्यवस्था में मेरा कोई विश्वास रहा नहीं, इसलिए फरियाद लेकर आपके दरबार में आया हूं।

यह खबर है दिलीप सिंह राणा की जिसे अब सब इज्जत से द ग्रेट खली कहकर पुकारते हैं। अमेरिका में दो साल तक एक ऐसा खेल (?) खेलने के बाद वह भारत आया है, जिसके खिलाड़ी से लेकर दर्शक तक, सभी ज्यादा से ज्यादा पशुता प्रदर्शित करने को ही प्रतिष्ठा का प्रतीक मानते हैं। देश के नेता, अभिनेता, पुलिस, मीडिया सब उसके सामने हाथ बांधे खड़े हैं और अखबार उसी के फोटो से रंगे हैं। बच्चे उसे अपना हीरो मानने लगे हैं और वह एक नेशनल कैरेक्टर बन गया है। यह अलग बात है कि उसे देश में यह शोहरत एक ऐसे कथित खेल के लिए मिल रही है, जिसके खिलाड़ी आदमी कम जानवर ज्यादा दिखते हैं और जिसका भारतीय सोच और संस्कृति से दूर-दूर तक का भी कोई वास्ता नहीं हैं। खैर, यह तो है मेरी भड़ास। लेकिन मेरी फरियाद कुछ और ही है।

दिलीप सिंह अमेरिका जाने से पहले पंजाब पुलिस में हवलदार हुआ करता था (हालांकि वीकीपीडिया उसे 'ऑफिसर इन पंजाब पुलिस' लिखता है)। वह अमेरिका गया लेकिन उसकी हवलदारी नहीं गई। मेरी तरह वह भी सिक लीव लेकर गया और मेरी ही तरह दो साल तक इसे बढ़वाता रहा। वक्त की बात उसका धंधा चमक गया और वह लाखों-करोड़ों डॉलर का मालिक बन गया। मेरी तस्वीर तो ज्वाइनिंग के बाद बॉस के पास पहुंची, लेकिन वह साल भर से अखबारों की सुर्खियां बनता रहा है, टीवी पर लोग रातों को जगकर उसकी वहशियाना लड़ाई देखते रहे हैं। अखबार पढ़ने और टीवी देखने वालों में पंजाब पुलिस के जांबाज अधिकारी भी रहे होंगे। लेकिन अब जब वह भारत आया और जैसा कि हमारे यहां अक्सर होता है, उसे सजदा करने के लिए ज्यादा से ज्यादा कमर झुकाने की होड़ शुरू हुई। पंजाब पुलिस भला कैसे पीछे रहती। तो द ग्रेट खली को प्रोन्नति देने की घोषणा कर दी गई।

व्यवस्था का इससे घिनौना मजाक क्या हो सकता है? जिस आदमी को पूरी दुनिया लड़ता, लोगों को हाथों में लेकर उछालता और चिग्घाड़ता देख रही है, उसे बीमार होने के नाम पर छुट्टी लेने के बावजूद प्रमोशन दिया जा रहा है। दूसरी ओर इसी अपराध के लिए मैं यानी छगन लाल जेल और कचहरी के चक्कर लगा रहा हूं, नौकरी गई सो अलग। छगन लाल और दिलीप सिंह राणा उर्फ द ग्रेट खली के साथ यह अंतर क्यों? मैं मानता हूं कि मैंने गैर कानूनी काम किया, तो क्या खली इसीलिए कानूनी है क्योंकि वह अमेरिका के मानकों पर सफल है? कानून की देवी कब तक अपनी आंखों पर पट्टी बांधे खड़ी रहेगी?

मंगलवार, 6 मई 2008

'मायावती के राज में दलितों पर अत्याचार सबसे ज्यादा'

उत्तर प्रदेश की राजनीति आधुनिक भारत की एक ऐसी ज़मीन मानी जाती है, जहां दलित-पिछड़ा मुखी राजनीति सबसे ज्यादा मुखर हुई है। मायावती को दलितों की राजनीतिक चेतना का सबसे स्वाभिमानी चेहरा बताकर पेश किया जाता है और उनकी सैकड़ों करोड़ की निजी संपत्ति और हीरों के जगमग हार किसी व्यक्ति के नहीं, बल्कि एक पूरे समाज के वैभव का प्रतीक बन जाते हैं। अनुसूचित जातियों के खिलाफ अत्याचार तो दूर, कोई अपशब्द कहने के लिए भी जितने कड़े कानून उत्तर प्रदेश में हैं, उतने देश के किसी दूसरे हिस्से में नहीं। फिर भी केंद्र सरकार के आंकड़ों के मुताबिक इन जातियों के खिलाफ अपराध की सबसे ज्यादा घटनाएं यहीं हो रही हैं।

ऐसा क्यों होता है? जहां सबसे ज्यादा कानून होते हैं, वहीं कानून की सबसे ज्यादा धज्जियां क्यों उड़ाई जाती हैं? अमेरिका में अपराध विज्ञान सबसे ज्यादा उन्नत है, वहां अपराध भी सबसे ज्यादा उन्नत तरीके से किए जाते हैं। पिछड़े गरीब देशों में पुलिस डंडे से काम चलाती है, वहां अपराधी भी चोरी, झपटमारी और गिरहकटी तक ही सीमित रहते हैं। यह पहले मुर्गी या पहले अंडे जैसा कुछ मामला लगता है। अपराधों को नियंत्रित करने के लिए कानून बनते हैं और फिर कानून की काट के लिए अपराधी रास्त ढूंढते हैं। लेकिन क्या उत्तर प्रदेश में अनुसूचित जातियों के प्रति बढ़ता अपराध केवल कानून-व्यवस्था का मसला है?

किसी व्यक्ति या समाज में आक्रामकता बढ़ने के दो मनोवैज्ञानिक कारण हो सकते हैं। एक तो अपनी ताकत का अहंकार और दूसरा असुरक्षा की भावना। वैदिक काल में जब तक ब्राह्णण और अन्य कथित सवर्ण जातियां अपने पवित्र आचरण के दायित्व बोध से लदी होती थीं, तब तक समाज में उनका प्रभाव अपने आप कायम था। लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने आचरण की पवित्रता को गंगा में बहा दिया और कोई ऐसा घृणित और अनुचित काम नहीं रह गया, जो किसी खास जाति से अछूता रह गया। स्वाभाविक तौर पर उनकी सामाजिक प्रतिष्ठा और असर कम हुआ। लेकिन ठसक नहीं गई। तो उन्होंने अपनी दबंगता कायम रखने के लिए दूसरी जातियों पर अत्याचार शुरू कर दिया।

बाद में देश गुलाम हुआ फिर आजाद हुआ और फिर देश में समतामूलक समाज की स्थापना के सिद्धांत बनाए गए। एक व्यक्ति-एक मत ने धीरे-धीरे सवर्णों की राजनीतिक सत्ता में सुराख करना शुरू किया और साथ ही उनकी सामाजिक सत्ता भी डोलने लगी। फिर आया मंडल राजनीति का दौर। इस दौर ने सवर्णों की सत्ता के ताबूत में आखिरी कील ठोक दी। सवर्णों ने अपनी राजनीतिक-सामाजिक सत्ता का पराभव स्वीकार कर लिया। लेकिन क्योंकि सत्ता का सिंहासन कभी खाली तो रहता नहीं, इसलिए नए ब्राह्णणों, नए ठाकुरों का जन्म हुआ। कुर्मी, कोइरी, यादव, लोध, जाट, मीणा जैसी पिछड़ी जातियों की अगुवाई में राजनीतिक सत्ता पिछड़े और अन्य पिछड़े वर्गों के हाथों में सरक गई। अब इन नए ब्राह्णणों को भी पुराने ब्राह्णणों का रुतबा और उनकी ताकत चाहिए थी। तो इसके लिए उन्हें चाहिए था नया कमजोर वर्ग। और इस बार दलितों की बारी आई।

दक्षिण भारत के मंदिरों में प्रवेश का संघर्ष बिहार और उत्तर प्रदेश के सामाजिक संघर्ष से बिलकुल अलग है। दक्षिण में अब भी ब्राह्णणों की पवित्रतावादी और अव्यवहारिक मूर्खता से इस तरह की स्थितियां पैदा होती हैं। लेकिन उत्तर भारतीय राज्यों में दलितों पर होने वाला अत्याचार शुद्ध तौर पर सामाजिक है। यह अत्याचार किसी जाति पर नहीं, बल्कि गरीबी और पिछड़ेपन पर है। किसी बड़े किसान के खेत में घुसने वाली बकरी एक ब्राह्णण, राजपूत, यादव, कुर्मी या जाट की भी हो सकती है, लेकिन अगर कहीं वह किसी दलित की हुई तो उसकी शामत आनी तय है। समाज के नए या पुराने ब्राह्णणों के घर में आई किसी भी आफत के लिए एक गरीब, बेचारी दलित औरत को जिम्मेदार ठहराकर उसे नंगा किया जा सकता है, उसकी परेड कराई जा सकती है।

पिछले 60 साल में बनाए गए कानून उनकी मदद कर पाने में नाकाम रहे हैं। लेकिन इसका मतलब यह नहीं कि कानून खत्म कर दिए जाएं। लेकिन यह भी सच है कि कानून बनाकर वोट तो लिए जा सकते हैं, इन अत्याचारों को रोका नहीं जा सकता। इन्हें रोका जा सकता है केवल और केवल सामाजिक बदलाव से। क्योंकि सामाजिक बदलाव की जो कोशिशें हो रही हैं, उनका आधार प्रेम नहीं, घृणा है। अमुक जाति ने कल तक हम पर अत्याचार किया, इसलिए अब हमें ज्यादा ताकत मिलनी चाहिए (ताकि हम उनपर अत्याचार कर सकें)- यह है सामाजिक बदलाव का आधुनिक सिद्धांत। इस सिद्धांत की परिणति संघर्ष ही हो सकती है, समरसता नहीं और इसलिए लालू, मुलायम, पासवान या मायावती जैसे नेता अपनी राजनीति तो चमका सकते हैं, दलितों को सम्मान नहीं दिला सकते।

रविवार, 4 मई 2008

खाने की असभ्यता से उपजा अनाज का विश्वव्यापी संकट

खाना हमेशा से सभ्यता का प्रतीक रहा है। आप क्या खाते हैं और कैसे खाते हैं, इसी से तय होता है कि आप कितने सभ्य हैं। यहां सभ्यता शब्द दरअसल अनुवाद है अंग्रेजी के सिविलाइजेशन का, जिसका इस्तेमाल अंग्रेजों ने सदियों से तीसरी दुनिया के देशों को बर्बर यानी असभ्य बताने के लिए किया है। लेकिन यह अकेले अंग्रेजों की बात नहीं है, बचपन से घरों में हम सुनते आए हैं कि 'आदमी की तरह खाया करो', खाने में ज्यादा हबड़-हबड़ मत करो, खाने में चभड़-चभड़ की आवाज नहीं होनी चाहिए आदि। कई सालों तक छुरी-चम्मच से नहीं खाने की कुंठा मुझे भी सालती रही और वह खत्म तभी हुई जब मैंने यह महान कला सीख ली। खाने के तरीके पर पूरी एक संहिता है जो हमें पश्चिमी देशों से मिली है।

इसलिए जब पहली बार मैंने अमेरिकी विदेश मंत्री कोंडोलीजा राइस से यह सुना कि भारतीयों और चीनियों के ज्यादा खाने से पूरी दुनिया में अनाज का संकट पैदा हो गया है, तो मुझे ताज्जुब नहीं हुआ। अब अमेरिकी राष्ट्रपति और विशेषज्ञ भी इसी सिद्धांत की पुष्टि कर रहे हैं। इससे पहले मैंने कहीं पढ़ा था कि दुनिया भर में अनाज संकट पैदा होने के पीछे मुख्य दोषी अमेरिका है, जिसने करीब 1 करोड़ टन अनाज को जैव ईंधन में बदल दिया है।

अब यही तो सभ्यता और असभ्यता का कंट्रास्ट है। असभ्यों का आरोप है कि सभ्यों ने खाने का सारा माल ईंधन में बदल दिया। यानी वह काम जो वे खुद नहीं कर सकते, वह काम जिसमें बहुत उच्च तकनीक और बहुत विज्ञान चाहिए। दूसरी ओर सभ्यों का कहना है कि संकट इसलिए पैदा हुआ कि असभ्यों ने बहुत खा लिया। इसलिए कि उनके पास अभी हाल में बहुत पैसे आ गए। समझे आप! यानी अमेरिकियों का मानना है कि अगर आपकी आमदनी महीने के दस हजार रुपए हैं तो आप एक किलो अनाज खाएंगे और अगर आपके पड़ोसी की 1 लाख रुपए महीने तो वह दस किलो अनाज खाएगा। क्या सच में ऐसा हो सकता है। नहीं न! अगर एक सामान्य आदमी महीने में 1 किलो खा सकता है तो उसकी आमदनी कितनी भी हो, वह 1 किलो ही खाएगा। तो दूसरा मतलब तो यही हो सकता है कि जहां पहले दस में से एक आदमी को भर पेट भोजन मिल पाता था, वहीं अब शायद छह लोग भरे पेट सो सकते हैं। अगर ऐसा है तो क्या भारत या चीन इसीलिए दोषी हैं कि उनके यहां अब कुछ कम लोग भूखे पेट सो रहे हैं।

उसमें भी खुद अमेरिकी कृषि विभाग के आंकड़ों को देखें तो भारत में हर आदमी साल भर में केवल 178 किलो अनाज खाता है जबकि अमेरिका में हर आदमी 1,046 किलो अनाज खा जाता है। अब ऐसा तो है नहीं कि राइस या बुश को ये आंकड़े पता न हों। तो फिर भारतीयों को पेटू कहने का मतलब। इसे इस तरह से समझिए। हमारे गांव में अगर 1,000 लोगों का एक भोज देना हो तो सारे प्रबंध करने के बाद एकदम टॉप क्लास खाने पर मेरे करीब एक लाख रुपए खर्च होंगे। यानी हर आदमी पर करीब 100 रुपए। यहां दिल्ली में इनते रुपए में शायद 100 लोगों को भी टॉप क्लास रिसेप्शन न दिया जा सके। यानी हर आदमी पर 1,000 रुपए भी कम। लेकिन गांव में आपको चावल शायद ढाई सौ किलो खरीदना हो जबकि दिल्ली में 20 किलो चावल भी ज्यादा पड़े। तो यह गणित है सभ्यता और असभ्यता का। सभ्य जहां 20 किलो चावल खाने में 1 लाख रुपए खर्च करते हैं, वहीं असभ्य इतने में 250 किलो चावल खा जाते हैं।

राइस और बुश अमेरिकियों के अधिक खाने का यह गणित समझते हैं। अमेरिकी भात और रोटी खाने पर चावल, गेहूं बरबाद नहीं करते। वह चावल और गेहूं खिलाते हैं गायों और सुअरों को और फिर खाते हैं उनका मांस। अमेरिका में गेहूं की बड़ी खपत होती है शराब बनाने में। जबकि हम तो बस ये सब सान-मान के पकाते हैं और खा जाते हैं। इसीलिए दुनिया के अनाज संकट के लिए सबसे बड़े दोषी हैं भारत और चीन। क्योंकि दोषी हमेशा गरीब होते हैं, कमजोर होते हैं।

सोमवार, 14 अप्रैल 2008

नेपाल में माओवादियों की लोकतांत्रिक जीत

नेपाल में प्रचंड के नेतृत्व में हुई माओवादियों की जीत कोई सामान्य घटना नहीं है। अगर छह महीने पहले मैं यही लेख लिख रहा होता, तो शायद बिना हिचक माओवादियों के लिए आतंकवादी विशेषण का प्रयोग कर सकता था, लेकिन लोकतंत्र की तमाम बुराइयों और सड़न के बावजूद इसमें मेरी अप्रतिम आस्था के चलते अब मैं ऐसा नहीं कर सकता। माओवादियों को आतंकवादी कहना अब नेपाल की जनता को आतंक प्रेमी कहना होगा, जो कि सच नहीं हो सकता। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि माओवादियों की जीत को समाज और मानवता के हित में एक महान घटना मान लिया जाना चाहिए।

राजशाही के विरोध की लड़ाई लड़ रहे माओवादियों ने पिछले एक दशक में कितने गरीबों और निर्दोषों का खून बहाया है, कितनी मज़बूर और अबला स्त्रियों की प्रतिष्ठा नष्ट की है और कितने अबोध बच्चों को अनाथ बनाया है, इसका हिसाब तो खुद उनके पास भी नहीं होगा। सत्ता को बंदूक की नली से निकलने वाली कमोडिटी मानने वाले माओ के इन अनुयाइयों लोकतंत्र के जरिए सत्ता का सुख लेना कितना रास आएगा, यह तो वक्त ही बता सकता है लेकिन लोकतंत्र की अपनी इसी आस्था के कारण मुझे यह एक घोर विडंबना तो लगती है। पुलिस को बुर्जुआ समाज के शोषण का उपकरण मानने वाले ये 'रेडिकल लेफ्टिस्ट' सत्ता को प्रयोग किस तरह का समाज बनाने के लिए करेंगे, यह देखना सबसे ज्यादा रोचक होगा।

लेकिन यहां एक जो सबसे ज्यादा खतरनाक संभावना मेरे ध्यान में आती है, वह है नेपाल में लोकतंत्र का भविष्य। सोचिए, अगर अगले चुनाव में जनता इन्हीं माओवादियों को नकार देती है। क्या माओवादी शराफत से सत्ता अगली निर्वाचित सरकार को सौंप देंगे? मुझे तो इसकी संभावना शून्य फीसदी भी नहीं दिखती। खास तौर पर तब जब एक ओर भारत है, जिसके राजनीतिक नेतृत्व में ऐसी स्थिति में कुछ उखाड़ सकने की न इच्छा दिखती है, न शक्ति और दूसरी ओर चीन है, जो खुद एकदलीय शासन पद्धति और जनइच्छाओं के दमन से कम्युनिज्म की लाश ढो रहा है। तो इसीलिए मुझे यह भी लगता है कि माओवादियों के लोकतांत्रिक ढंग से सत्ता में आने के बावजूद इस घटना से लोकतंत्र के हर प्रेमी को चिंतित हो जाना चाहिए।

दूसरी ओर भारत के लिए माओवादियों का सत्ता में आना वैचारिक जुगाली, लोकतंत्र की प्रतिबद्धता और समाजशास्त्रीय शोध से कहीं बड़ा मसला है। प्रचंड के सत्ता के शीर्ष में आना भारत के लिए मोटे तौर पर तीन चुनौतियां तो तुरंत प्रस्तुत कर रहा है। पहला, चीन से व्यावहारिक समानता। एक दलीय शासन व्यवस्था वाला चीन क्योंकि विचार के तौर पर अब विश्व के अग्रणी पूंजीवादी देशों की जमात में शामिल है, तो इसे वैचारिक समानता कहना ग़लत होगा। भारत के प्रति चीन का रुख जगजाहिर है। तिब्बत दांतों में दबाए अरुणाचल पर चीन का ड्रैगन पंजा मारता ही रहता है। पाकिस्तान पर चीन का असर हमें पता है, म्यांमार में प्रभाव की लड़ाई हम चीन के हाथों लगभग हार चुके हैं, बंगलादेश चाहे चीन के असर में न हो, लेकिन आईएसआई वहां अपना खेल बिना किसी रुकावट के खेलती रहती है। अब केवल एक नेपाल था, जो अब तक चीन और आईएसआई के सीधे असर से काफी हद तक बचा हुआ था। प्रचंड के आने के बाद अब यह नहीं मानने का कोई कारण नहीं है कि चीनी ड्रैगन के दांत सीधे बिहार और यूपी की सीमाओं पर आ लगेंगे।

दूसरा खतरा भारत में पहले से ही विकराल हो चुके नक्सलियों को मिलने वाला नेपाली समर्थन होगा। तिरुपति से पशुपति तक का जुमला अब काफी पुराना हो चुका है। लाल पट्टी का असर बढ़ता जा रहा है। ऐसे में काठमांडू की सत्ता पर माओवादियों के कब्ज़े का क्या असर होगा, यह सोचकर ही सिहरन हो जाती है। यह देखने की बात होगी कि क्या अब नक्सलियों को एक पूरे देश का समर्थन हासिल होगा? तीसरा खतरा आईएसआई की गतिविधियों को लेकर हो सकता है। पाकिस्तान और बंगलादेश की सीमाओं पर भारतीय सुरक्षा एजेंसियों की ज्यादा कड़ी नजर होने के कारण पिछले करीब एक दशक से आईएसआई नेपाल को अपनी गतिविधियों का केन्द्र बनाने की कोशश करती रही है। वैसे तो प्रचंड के आईएसआई प्रेम का कोई ठोस आधार नहीं दिखता, लेकिन दोनों के भारत विरोध की साझा ज़मीन तो है ही। फिर चीन के असर से भी नेपाल में आईएसआई को खुली छूट मिल सकती है।

शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

मुझे राज ठाकरे पर गुस्सा क्यों नहीं आता?

राज ठाकरे चाहते हैं कि सभी उत्तर भारतीय, ख़ास तौर पर बिहारी और यूपी वाले महाराष्ट्र और मुंबई छोड़ कर चले जाएं। इसके लिए उन्होंने अपने चाचा जी से सीखे तमाम राजनीतिक पैंतरे आजमाए हैं। अपने गुंडों से कहकर उत्तर भारतीयों पर हमले करवाए हैं, बयानबाजियां की हैं और सबसे ताजा घटनाक्रम में निजी क्षेत्र की कंपनियों को धमकियां दी हैं। लेकिन इन सबके बावजूद मेरे मन में राज ठाकरे को लेकर कोई गुस्सा, कोई कटुता नहीं है। मैं पिछले महीने भर से समझने की कोशिश कर रहा हूं कि ऐसा क्यों है? मैं भी एक बिहारी हूं और अगर राज ठाकरे विशुद्ध क्षेत्रीय आधार पर बिहारियों को सरे बाज़ार दौड़ा रहे हैं, पीट रहे हैं, तो मेरा मन भी राज ठाकरे के खिलाफ ज़हर से भरा होना चाहिए। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? मैं परेशान हूं। फिर सोचता हूं कि शायद इसलिए गुस्सा नहीं आता, क्योंकि मैं एक बिहारी हूं। अगर मैं एक तमिल होता, नगा होता या गुजराती होता, तो मैं राज ठाकरे के इस कृत्य की तुलना राष्ट्रद्रोह से करता (जैसा कि बाबा रामदेव ने किया है), लेकिन एक बिहारी के तौर पर जब मैं इस पूरे प्रकरण पर सोचता हूं तो राज ठाकरे का अस्तित्व मुझे नजर ही नहीं आता। मुझे चलते-फिरते रोज ऐसे पचासों ठाकरे दिखते हैं और इसलिए इन्हें देखने का मेरा नजरिया थोड़ा अलग हो गया है। मुझे इन ठाकरेओं में नजर आती है एक मानसिकता। यह मानसिकता जो और ज्यादा, और ज्यादा पाना चाहती है, जो किसी चीज में बंटवारा पसंद नहीं करती, जो अपनी अयोग्यता को लेकर हमेशा असुरक्षित है।

आज पूरे देश में बिहारी एक गाली, एक अपमानजनक शब्द के तौर पर क्यों प्रचलित है? क्या वास्तव में इसके लिए राज ठाकरे दोषी हैं? आपको एक कहानी सुनाता हूं। एक दिन मैं और मेरे दो मित्र (तीनों बिहारी) कहीं बस का इंतजार कर रहे थे और आपस में कुछ चर्चा कर रहे थे। बगल में 70 साल के करीब के एक पंजाबी बुजुर्ग बैठे थे, जो सुंदरकांड का एक गुटखा पढ़ रहे थे। एकाएक उन्होंने कहा कि आप सब तो बिहार के ही हैं, अपने रेल मंत्री को क्यों नहीं कहते कि पास के स्टेशन पर ट्रेनों का स्टॉपेज बनवा दें। हमें कुछ समझ में ही नहीं आया कि एकाएक ये बात कहां से आ गई। फिर उन्होंने कुछ और बातें कहीं और फिर कहा, आप सब बेचारे जो यहां आकर धक्का खाते रहते हैं, आप लोगों के लिए वहीं कुछ क्यों नहीं कर दिया जाता है? और यह कहते ही वे उठे और वहां से चल दिए। हमने भी कुछ कहने की कोशश की, लेकिन वे सुनने को तैयार न थे। अपनी भड़ास निकाल कर वह तुरंत वहां से चले गए। मेरी भड़ास मेरे मन में रह गई। मेरे मन में कुछ सवाल थे, जो मैं उनसे पूछ नहीं पाया। मैं पूछना चाहता था कि आज से 60 साल पहले जब वे अपने बहू-बेटियों की इज्जत गवां कर और अपने भाइयों-भतीजों की लाशें लांघ कर दिल्ली पहुंचे थे, तब अगर बाकी के देश ने भी उनसे इसी भाषा में बात की होती तो वह क्या कहते? मैं उनसे पूछना चाहता था कि अगर देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक में एक वरिष्ठ पदनाम के साथ काम कर रहा मैं अगर धक्के खा रहा हूं, तो हैदराबाद, बंगलुरु और अमेरिका में काम कर रहे हजारों-लाखों आईटी प्रोफेशनल्स को भी क्यों नहीं खुद को धक्का खाता हुए मानकर अपने-अपने घर लौट जाना चाहिए? मैं उनसे और बहुत कुछ पूछना चाहता था, लेकिन उन्होंने मौका ही नहीं दिया। बहरहाल, इस प्रकरण का एक अच्छा नतीजा यह निकला कि मुझे पता चल गया कि मुझे राज ठाकरे पर गुस्सा क्यों नहीं आता।

आज से सवा सौ साल पहले भी एक बिहारी को मुंबई में चलती ट्रेन से सारे सामान के साथ इसलिए नीचे फेंक दिया गया था, क्योंकि उसने पहले दर्जे में चढ़ने की हिमाकत की थी। उस समय उस बिहारी की पहचान एक भारतीय के रूप में थी, उसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था और मुंबई दक्षिण अफ्रीका में हुआ करती थी। उस समय दक्षिण अफ्रीका में जाने वाला हर भारतीय पिछड़ा, गरीब और अशिक्षित हुआ करता था भले ही वह ब्रिटेन में अंग्रेजी पढ़ा एक वकील ही क्यों न हो। वैसे ही आज की तारीख में देश के हर हिस्से में रहने वाला बिहारी गरीब, अशिक्षित और असभ्य ही हुआ करता है चाहे वो कितना भी पढ़ा-लिखा, प्रतिष्ठित और अच्छा नागरिक क्यों न हो। यह एक मानसिकता है। राज ठाकरे इसी मानसिकता का नाम है और यह तब तक नहीं बदलेगी, जब तक हम सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने और ठेले खींचने के लिए दूसरे राज्यों की मिट्टी फांकते रहेंगे। टाटा किस राज्य के रहने वाले हैं, बिड़ला का जन्म कहां हुआ, अंबानी कहां की पैदाइश हैं? देखिए सभी मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री कैसे बिछे रहते हैं उनके आगे। यही अर्थ तंत्र है। जब हम महाराष्ट्र के किसी जिले में फैक्ट्री में मजदूरी करने जाएंगे तो राज ठाकरे की ठोकरें हमारे स्वागत करेंगी, लेकिन जब हम उसी जिले में वही फैक्ट्री खोलने जाएंगे, तो यही राज ठाकरे हमारे तलवे चाटते भी नजर आएंगे। अगर हम बिहारी देश भर में बिखरी ऐसी मानसिकताओं से निपटना चाहते हैं, तो हमें बिहार के अंदर एक गौरवशाली बिहार का निर्माण करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राज ठाकरे हमारे लिए या तो क्रूर आततायी बना रहेगा या फिर दयालु आश्रयदाता।

गुरुवार, 10 अप्रैल 2008

हम खुद का सम्मान करना कब सीखेंगे?

आज से ठीक एक महीना पहले 10 मार्च को दलाई लामा के निर्वासन की 49वीं सालगिरह मना रहे शांतिप्रिय तिब्बती बौद्धों के दमन से शुरू हुआ ताजा संघर्ष अब विश्वव्यापी बन गया है। किसी को नहीं मालूम कि इन 30 दिनों में कितने तिब्बती बौद्धों को मौत के घाट उतार दिया गया, कितनों को जेल में अमानवीय अत्याचार झेलना पड़ रहा है और कितने गायब हैं। इन एक महीनों में मेरे सामने चीन और तिब्बत से जुड़े जो भी लेख और समाचार आए, मैंने सभी पढ़े। अमेरिकी स्पीकर का दलाई लामा से मिलना भी जाना और चीन में भारतीय राजदूत निरुपमा राव को रात के 2 बजे बुलाकर दी गई बंदरघुड़की के बाद उपराष्ट्रपित हामिद अंसारी का दलाई लामा से अपनी मुलाकात रद्द करना भी पढ़ा। विरोध प्रदर्शनों के कारण बीजिंग के लिए चले ओलंपिक मशाल के का तीन-तीन बुझना भी पढ़ा और भारत में संभावित विरोध को कुचलने के लिए की जा रही भारी सुरक्षा तैयारियों के कारण किरण बेदी का मशाल दौड़ में शामिल होने से इंकार भी सुना।

भारत सरकार की चीन नीति की यह खास बात है। भारतीय जनता की भावनाएं कुछ और हैं, सरकार की मजबूरी (?) कुछ और है। तभी तो चीन जाकर तिब्बत के चीन का अभिन्न हिस्सा होने का ऐलान करने वाले अटल बिहारी वाजपेयी के रक्षा मंत्री जॉर्ज फर्नांडीज सार्वजनिक तौर पर उसे दुश्मन नंबर एक मानने की घोषणा करते हैं। तभी तो एनडीए सरकार में विदेश मंत्री रहे भारतीय जनता पार्टी के थिंक टैंक पार्टी लाइन से हटकर तिब्बत की पूर्ण स्वतंत्रता का समर्थन कर बैठते हैं। चीन से जुड़ी सरकार की कथित मजबूरी के पीछ छिपे डर को हम सभी भारतीय भी स्वीकार करते हैं। हम सब चीन की सैनिक शक्ति और राजनीतिक आक्रामकता से डरते हैं। हम मतलब जनता भी और सरकार भी। लेकिन प्रतिक्रिया हम दोनों की अलग-अलग है।

मैंने इस विषय पर जितने भी लेख इस दौरान पढ़े, सभी जाने-माने विद्वानों के थे, चीन मामलों के जानकारों के थे। ये वे विश्लेषक हैं, जो वर्षों से चीन की मिजाज, उसकी ताकत, उसके स्वभाव और उसके इतिहास पर नजर रख रहे हैं। मुझे एक भी, जी बिल्कुल, मैं जोर देकर कह रहा हूं कि एक भी लेख ऐसा नहीं मिला, जो इस मुद्दे पर भारत सरकार की नीतियों को सही कह रहा हो। ठीक है, हम सैनिक, आर्थिक और राजनीतिक तौर पर चीन से उन्नीस हैं। तो क्या इसीलिए हम तिब्बत के प्रति अपने राष्ट्रीय कर्तव्य को अनदेखा करते रहें? राष्ट्रवाद की बात से बहुतों को खुजली होने लगती है, तो आइए कूटनीति यानी डिप्लोमेसी की बात करते हैं। क्या चीन हमसे नाराज होकर हम पर हमला कर देगा? यह सोचना बेवकूफी है। क्योंकि अपने आर्थिक उत्थान को लेकर चीन हमसे ज्यादा गंभीर है, इसलिए 21वीं सदी के पहले दशक में वह ऐसा कभी नहीं करेगा। और फिर भी अगर हम मान लें कि वो ऐसा कर ही देगा, तो क्या हम अपनी चापलूसी से ऐसा होने से रोक लेंगे? क्या इसी डर से 1962 के पहले नेहरू ने चीन की सभी कारगुजारियों पर आंखें नहीं मूंद ली थीं?

इसी बात पर मेरी एक दिन जेएनयू के एक विद्वान मित्र (क्योंकि जेएनयू में हर कोई विद्वान ही होता है) से बातचीत हो रही थी। मैंने उनसे कहा कि नेहरू ने तिब्बत को चीन की गोद में बैठा दिया। उन्होंने मुझसे विद्वत्तापूर्ण मुस्कुराहट के साथ कहा, आप तो ऐसे कह रहे हैं जैसे उस समय भारत के बूते में कुछ कर लेना था। ऐसी बात अंतरराष्ट्रीय कूटनीति की नासमझी में ही कही जा सकती है। वियतनाम चीन के सामने एक पिद्दी भर देश है, जिसे दुनिया में किसी बड़े देश का समर्थन नहीं है। लेकिन उसने चीन की नाक में दम तो किया हुआ है ही न। और जहां तक न रोक पाने का सवाल है, तो भारत तो तवांग में चीनी सैनिकों के घुसकर बुद्ध की मूर्ति तोड़ पाना भी नहीं रोक पाता है। फिर क्या हम अरुणाचल भी चीन को सौंप दें? खैर, मेरा सवाल भारतीय कम्युनिस्टों से नहीं है क्योंकि ऐसा होने पर शायद चीन से ज्यादा खुश वहीं होंगे जो आज भी चीन द्वारा 1962 में हड़पी गई भारतीय ज़मीन को विवादित भूमि मानते हैं।

चीन ने निरुपमा राव को रात के 2 बजे बुलाकर एक सूची दी, जिसमें उन जगहों के नाम थे, जहां ओलंपिक मशाल के दौरान विरोध प्रदर्शन होने का डर है। क्या यह सूची दिन में नहीं दी जा सकती थी? भारत सरकार ने विरोध जताना तो दूर, उपराष्ट्रपति की दलाई लामा से पहले से तय मुलाकात भी रद्द कर दी। और भारत के तमाम पिलपिले रुख के बाद भी जब चीन ने 15 देशों के राजनयिकों को तिब्बत का जायजा लेने के लिए आमंत्रित किया, तो उसमें भारत को जगह नहीं दिया गया। दूसरी ओर अमेरिका की तीसरी सबसे शक्तिशाली शख्सियत (नैन्सी पेलोसी) सात समुन्दर पार कर दलाई लामा से मिलने आईं, फ्रांस के राष्ट्रपति ने सार्वजनिक तौर पर ओलंपिक खेलों में भाग नहीं लेने की संभावना जताई, लेकिन इन दोनों देशों के राजनयिक उस टीम में शामिल किए गए। मोरल ऑफ द स्टोरी यही है कि जो अपना सम्मान खुद नहीं करना जानता, दुनिया उसे ठोकरों पर ही रखती है। कहानी का ट्विस्ट यह है कि जिस बात को आम जनता समझ रही है, चीन को समझने वाले तमाम विद्वान समझ रहे हैं, रक्षा विश्लेषक और सेना के अधिकारी समझ रहे हैं, उसे साउथ ब्लॉक में बैठे सरकारी बाबू और हमारा पिलपिला राजनीतिक नेतृत्व क्यों नहीं समझ पा रहे हैं।

रविवार, 9 मार्च 2008

"बाल ठाकरे को एक बिहारी की चिट्ठी"

(ठाकरे कुनबे के मराठा प्रेम जागने और महाराष्ट्र के गली चौराहों में बिहारियों और पूर्वी उत्तर प्रदेशियों को लतियाते-जुतियाते गुंडों को देखने के बाद लालू छाप बिहारी नेताओं की अनर्गल बयानबाजी और नीतीश कुमार की गंभीर प्रतिक्रियाएं तो हम सबने सुनी लेकिन एक आम बिहारी की राय कभी इस दौरान मीडिया में नहीं आई। शायद यही कारण था कि जब मेरे मित्र और पत्रकार प्रभाष झा ने नवभारत टाइम्स की वेबसाइट पर बाल ठाकरे के नाम एक बिहारी की चिट्ठी लिखी, तो मीडिया ने उसे हाथोहाथ लिया। बिहार और झारखंड में प्रभात खबर के लगभग हर संस्करण ने इस चिट्ठी को छापा। लेकिन इस चिट्ठी की चर्चा कुछ अलग कारण से एक और जगह हुई। बीबीसी की वेबसाइट पर छपे एक लेख की पूरी भूमिका वही चिट्ठी थी। बीबीसी के एक वामपंथी पत्रकार, जो उस लेख के लेखक हैं, ने मुसलमानों को विशेष दर्जा देने का विरोध करने वालों को ठाकरे के बराबर माना और महाराष्ट्र में बीच सड़क पर बेइज्जत हो रहे बिहारियों को इस देश में 'अत्याचार सह रहे बेचारे' मुसलमानों के बराबर ठहराया। खैर इस पर बात फिर कभी...। फिलहाल यहां मैं प्रभाष का लेख प्रकाशित कर रहा हूं।)

बाल ठाकरे को एक बिहारी की चिट्ठी

बालासाहब जी ,
पाए लागूं।
हम बिहारी राजनीति को लेकर काफी इमोशनल होते हैं और मैं भी कुछ अलग नहीं हूं। इसलिए जिस उम्र में बड़े-बड़े शहरों के बच्चे फिल्म और कार्टून से मनोरंजन करते रहे होंगे , मैं नेताओं के बयानों और उनके मायने ढूंढ़ने में उलझा रहता था क्योंकि मुझे लगता था कि नेता ही देश का भविष्य हैं। राजनीति के साथ प्रेम परवान चढ़ने के दौर में आप कब मेरे नायक बने , मुझे खुद भी नहीं पता चला। अबोध मन में आपके लिए इतनी इज़्ज़त क्यों थी , आज की तारीख में ठीक-ठीक बताना मुश्किल है। लेकिन शायद इसकी वजह यह रही होगी कि जिस दौर में मैं राजनीति समझ रहा था उस दौर में आप मुझे देश और हिंदू समाज के नायक लगते थे।

जैसे-जैसे राजनीति , देश , समाज और व्यवस्था की समझ बढ़ती गई , आप लगातार नायक से खलनायक के पाले में जाते दिखाई दिए। पहले आप देश को हिंदू और मुसलमानों में बांटने की राजनीति कर रहे थे और मैं हिंदू होने के कारण आपके साथ था। लेकिन फिर आप हिंदुओं को भी मराठी-गैरमराठी में बांटने लगे और मुझे लगा कि न तो आपको हिंदुओं से कोई लेना-देना है न ही हिंदुस्तानियों से। आज मुझे समझ में आ रहा है कि आपको सिर्फ अपने वोट बैंक से मतलब है और उसके लिए आप किसी को भी विलेन बता सकते हैं - चाहे वह आपका भतीजा ही क्यों न हो !

आज जब मैं पहले की तरह बच्चा नहीं रहा तो मैं यह भी सोचता हूं कि कोई ऐसा व्यक्ति किसी राष्ट्र या समाज का नायक कैसे हो सकता है , जो उसको कई हिस्सों में तोड़ने की सियासत कर रहा हो। हालांकि , यह पहली बार नहीं है जब आप और आपकी पार्टी ने भौगोलिक आधार पर देश के किसी खास हिस्से के लोगों को निशाना बनाया हो। लेकिन इस बार बात दूर तलक निकल पड़ी है।

आप मानते हैं कि एक बिहारी , सौ बीमारी। वैसे यह विचार आपके अकेले के नहीं हैं। बिहारी शब्द देश के ज्यादातर हिस्सों में हिकारत का भाव दिखाने का प्रतीक बन गया है। हालांकि , आज सिर्फ वही बिहारी नहीं हैं जिनकी जड़ें बिहार में हैं। दिल्ली और मुंबई में मजदूर , कारीगर , मूंगफलीवाला , गुब्बारेवाला और वे सब बिहारी हैं जिनकी समाज में कोई ' हैसियत ' नहीं है।

आपका और आपके भतीजे राज ठाकरे का आरोप है कि बिहार और पूर्वी यूपी के लोग मुंबई में रहकर मराठी संस्कृति पर हमला बोल रहे हैं। ठाकरे जी , आपने कभी गणेश चतुर्थी पर मुंबई के पूजा मंडपों में जमा होनेवाली भीड़ में शामिल यूपी और बिहार के लोगों की गिनती की होती तो आपको पता चलता कि आपका आरोप कितना गलत हैं। जैसे कलकत्ता में रहनेवाला हिंदीभाषी दुर्गा पूजा में सारे परिवार के साथ पंडाल-पंडाल घूमते हैं , वैसे ही हम भी जहां रहते हैं , वहां के तीज-त्योहारों से खुद को कैसे अलग कर सकते हैं !

लेकिन इसके साथ यह भी सच है कि हम अपनी संस्कृति से भी उतना ही प्यार करते हैं और हम उसे भुलाना भी नहीं चाहते। इसीलिए जब छठ पूजा होती है तो हम उसे भी पूरी निष्ठा के साथ मनाते हैं। आपको और आपके भतीजे को इस पर एतराज है जो कि मुझे समझ में नहीं आता। ठाकरे जी , अगर आप अमेरिका चले जाएं तो क्या आप वहां गणेश चतुर्थी के दिन उत्सव नहीं मनाएंगे ? अगर आप और आपकी ही तरह सारे मराठी महाराष्ट्र से बाहर भारत में और विदेश में कहीं भी अपने पर्व और त्योहारों को धूमधाम से मना सकते हैं ( और मनाना भी चाहिए ) तो बाकी लोगों पर पाबंदी क्यों ? अगर आपके ही तर्क मान लिए जाएं तो फिर मराठियों को भी राज्य से बाहर गणेश चतुर्थी नहीं मनानी चाहिए। क्या ठाकरे जी , आप भी कैसी बात करते हैं , वह भी उस देश में जिसका मिजाज़ यही है कि आप छठ पूजा में शरीक हों और हम गणपति बप्पा मोरया के नारे लगाएं। हम ईद में शरीक हों और हमारे मुस्लिम भाई दीवाली में। यह ऐसा देश है जहां हिंदू घरों में भी क्रिसमस पर केक खाया जाता है।

बालासाहब जी , हम मानते हैं कि हमारे नेता करप्ट हैं। लेकिन करप्ट नेता कहां नहीं हैं ? अगर अन्ना हज़ारे से पूछें तो शायद वह एक लंबी लिस्ट निकाल देंगे महाराष्ट्र के ऐसे नेताओं की। आप भी कांग्रेसी नेताओं पर भ्रष्ट होने के आरोप लगाते रहते हैं। वैसे भी आप राजनीति में लंबे समय से है , आपको क्या बताना कि इस हमाम में सभी नंगे हैं। रही बात जहालत की और समस्याओं की तो गरीबी और अन्याय अगर बिहार में है तो क्या महाराष्ट्र में नहीं ? आत्महत्या कहां के किसान कर रहे हैं ? क्या उनकी आत्महत्याओं के लिए भी बिहारी ही दोषी हैं ?

मैं बिहार की वकालत नहीं कर रहा। बिहार में समस्याएं हैं। वे सुलझेंगी या नहीं या कितनी जल्दी या देर से सुलझेंगी , यह कहना मुश्किल है। पूंजी निवेश , उद्योग , बाज़ार और रोज़गार के मौके मिलेंगे तो यही बिहार चमचमा जाएगा और सारे पूर्वाग्रह खत्म हो जाएंगे। जब देश के दूसरे हिस्सों के लोग मोटी तनख्वाह पर कॉरपोरेट नौकरी के लिए बिहार जाएंगे तो सच मानिए , बिहार और बिहारी उतने बुरे नहीं लगेंगे।

आपका
प्रभाष झा