शनिवार, 29 दिसंबर 2007

....ताकि नक्सलवाद का घाव नासूर न बने

इसाइयों पर हो रहे हमले से संबंधित मेरे लेख पर अनिल जी की टिप्पणी मुझे कुछ लिखने को प्रेरित कर ही रही थी कि उस पर संजय भाई की प्रति टिप्पणी भी आ गई। अनिल जी ने नक्सली समस्या से जुड़ी दो टिप्पणियां की हैं, जो दरअसल अपने आप में ही विरोधाभासी हैं। नक्सली समस्या वास्तव में मुझे हमेशा से मथती रही है और जब अनिल जी ने विषय छेड़ ही दिया है तो सोचता हूं, इस पर थोड़ी चर्चा हो जाए। मैं अनिल जी की इस राय से तो बिल्कुल सहमत हूं कि नक्सली समस्या का मूल नागर समाज का आदिवासी समाज के प्रति असंवेदनशील नज़रिया और इन क्षेत्रों के प्रति सरकार और प्रशासन का बर्बर रवैया है, लेकिन इस बात से बिलकुल असहमत हूं कि नक्सली उन्हें उनके असली हक़ से परिचित करा रहे हैं। नक्सली समस्या की जटिलता ही है कि अनिल जी जैसे अनुभवी और सुलझे हुए पत्रकार भी इस मसले पर एक वैचारिक द्वंद्व से गुज़र रहे हैं। तभी तो आप भी स्वीकार कर रहे हैं कि "नक्सली भी उन्हें (आदिवासियों को) अपनी तोप के बारूद के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।"

हो सकता है कि नक्सलियों की लड़ाई आदिवासी समाज के हक़ के नाम पर शुरू होती हो, लेकिन उनका तौर-तरीक़ा क्या वास्तव में किसी को न्याय दिला सकता है। क्या खालिस्तान और कश्मीर के आतंकवाद भी जनांदोलनों की तरह शुरू नहीं हुए थे। क्या हमें पता नहीं कि पंजाब में सिख और कश्मीर में मुसलमान ही इन कथित जनांदलोनों का चारा बने हैं और बन रहे हैं। 'आजादी के लड़ाके' अपने ही 'हमवतनों' के घर रात का खाना खाते हैं, घर की बेटियों का बलात्कार करते हैं, रात भर आराम करते हैं और फिर सुबह आज़ादी के नारे लगाते हुए चले जाते हैं। नक्सली आतंकवाद भी नारों से आगे बढ़कर जब ज़मीन पर उतरता है तो उसे ईंधन के तौर पर उन्हीं आदिवासियों का खून चाहिए होता है, जिनके हक़ की लड़ाई लड़ने का वो दावा कर रहे होते हैं।

इस बात पर बहस लगातार होती रहती है कि नक्सली समस्या का चरित्र सामाजिक है या कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ। सर्वहारा और प्रगतिशील वर्गों के स्वघोषित प्रतिनिधि नक्सलियों को ग़रीबों का रॉबिन हुड प्रमाणित कर इसे सामाजिक समस्या बताते हैं और पुलिस के आधुनिकीकरण और बल प्रयोग को नाजायज़ ठहराते हैं। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि अगर हथियारों से लैस नक्सलियों को अपने हिसाब से सही और ग़लत का फैसला कर जन अदालतों में लोगों के कान काटने, बेंत से मारने या हत्या करने का अधिकार है तो फिर देश में सरकार और प्रशासन की ज़रूरत ही क्या है। क्या हम सब पढ़े-लिखे और ख़ुद को समाज का सबसे जागरुक हिस्सा मानने वाले लोग कभी न कभी पुलिस और सरकारी तंत्र की ज़्यादती और भ्रष्टाचार का शिकार नहीं हुए हैं। तो क्या हम सबको ये अधिकार है कि ट्रेन में बर्थ देने के लिए घूस मांगने वाले टीटीई को या एफ़आईआर दर्ज़ करने में आनाकानी कर रहे हवलदार को या फिर कॉलेज में अपनी जन्मतिथि में हुई गड़बड़ी को ठीक कराने के लिए 15 दिनों से यहां-वहां दौड़ाने वाले क्लर्क के हाथ काट लें, जूतों से उसकी मरम्मत कर दें या फिर उसे गोली मार दें।

चोरी, डकैती और हत्या जैसे अपराध भी अपने मूल रूप में तो सामाजिक समस्या ही होते हैं। लेकिन यही अपराध हो जाने के बाद कानून-व्यवस्था का मसला बन जाते हैं। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि कोई भी अपराध एक कीड़े की तरह है, जो समाज की गंदी नाली से निकलता है, लेकिन जब एक बार ये कीड़ा निकल जाता है तो फिर इसे मारने के लिए कीटनाशक का ही इस्तेमाल करना पड़ता है न। अब अगर आप शहर के नालों में गंदगी का अंबार लगाते जाएं तो उससे निकलने वाले कीड़ों की संख्या भी बढ़ती जाएगी और इन बढ़ते हुए कीड़ों को मारने के लिए अगर हम कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाते जाएंगे तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब कीटनाशकों का ज़हर हमारी भी बलि लेने लगेगा। मेरे विचार से नक्सल समस्या का समाधान भी कुछ इसी तरह ढूंढना पड़ेगा। एक ओर तो तंत्र की उस असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार को मिटाना होगा जहां से नक्सलियों को ऑक्सीजन मिलता है, दूसरी ओर गंदगी से पहले ही पैदा हो चुके कीड़ों को कुचलने के लिए पुलिस बल को अत्याधुनिक बनाना होगा और ज़रूरत पड़ी तो कुछ नए कानून बनाने होंगे। यहां एक बात ये भी समझने की है कि भले ही नक्सलियों की भीड़ हज़ारों में हो, लेकिन कुचले जाने लायक कीड़े चंद मुट्ठी भर ही हैं। उनकी सही पहचान ज़रूरी है। आर्थिक या सामाजिक कारणों से उस भीड़ में शामिल भोले-भाले आदिवासियों और किसानों को सम्मानपूर्वक वापसी का मौका दिया जाना चाहिए, लेकिन उनके उन नेताओं को सख्ती से कुचलना होगा जो ग़रीबों-मज़लूमों के हक़ के नाम पर आईएसआई और दूसरी विदेशी ताक़तों के हाथों में खेल रहे हैं और पशुपति से तिरुपति तक एक लाल पट्टी बनाकर देश के टुकड़े करने के सपने देख रहे हैं।

शुक्रवार, 28 दिसंबर 2007

इसाइयों पर हो रहे हमले आखिर रुकते क्यों नहीं?

उड़ीसा के कुछ इलाकों में एक बार फिर कुछ चर्चों पर हमले हुए हैं, कुछ इसाई पादरियों को पीटा गया है। केवल पिछले पांच सालों में इस तरह की घटनाओं की सूची बनाई जाए, तो संख्या शायद सौ से ज़्यादा हो जाए। चाहे सालों पहले ग्राहम स्टेंस की जलाकर की गई हत्या हो, डांग के गिरिजाघरों पर हमले हों या हाल में डॉन बॉस्को और उड़ीसा में हुई घटनाएं हों, हर बार हमारे देश की मीडिया और कथिल सेकुलर समाज ने एड़ी-चोटी एक कर हल्ला मचाया। पुलिस ने जांच की, सरकार ने बयान दिए और हम सब अगली बार फिर ऐसी किसी घटना का इंतज़ार करने लगे। उड़ीसा की हालिया घटना भी इससे अलग नहीं होगी। आखिर ऐसा होता क्यों हो?

अच्छा, याद कीजिए उस शोर को जो हर बार इस तरह की घटनाओं के बाद मचता है। क्या सुनाई देता है? आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, बजरंग दल, हिंदू साम्प्रदायिक, फासिस्ट, सेकुलरिज़्म....। यहां दो बातें हैं। आरएसएस, विश्व हिंदू परिषद, हिंदू जागरण मंच या इसी तरह की कोई और संस्था के लोग आते कहां से हैं। उड़ीसा में इसाई पादरियों और गिरिजाघरों पर हमले करने वाले विश्व हिंदू परिषद के लोग क्या दिल्ली, कोलकाता या मुंबई से गए। नहीं, वे उन्हीं इलाक़ों के उन्हीं आदिवासियों के बीच के लोग हैं। वे भी आदिवासी हैं। और जिन इसाइयों पर उन्होंने हमला किया वे भी आदिवासी थे। अंतर केवल ये था कि हमला करने वाले अपने को हिंदू मानते हैं और जिन पर हमला किया गया वे मंदिरों की जगह चर्च जाने लगे हैं। ऐसे में जब सामाजिक-आर्थिक तौर पर एक ही धरातल पर खड़े एक ही समाज के लोग एक-दूसरे पर हमले कर रहे हों, क्या समाज और सरकार का ये फर्ज़ नहीं कि इसे केवल एक संगठन का षडयंत्र मानने की जगह एक सामाजिक दुर्घटना मानकर इसका विश्लेषण किया जाए। केवल इसलिए कि उन 100 आदिवासियों के बीच विश्व हिंदू परिषद का एक पूर्णकालिक कार्यकर्ता भी था, पूरी घटना को हिंदू साम्प्रदायिक ताकतों का षडयंत्र कहकर ख़ारिज़ कर देना तो ये उसी तरह है जैसे गंदे में खेलते बच्चे की बीमारी के लिए आप कीटाणुओं को गालियां देकर संतुष्ट हो लें। बीमारी की जड़ तो गंदगी है न। गंदगी हटाकर आप कीटाणुओं का भोजन ही क्यों नहीं छीन लेते। लेकिन आप तो डॉक्टर हैं। अगर आप गंदगी ही हटा देंगे तो आपकी रोज़ी-रोटी कैसे चलेगी। तो ये वामपंथी और छद्म धर्मनिरपेक्षतावादी भी वैसे ही डॉक्टर हैं जो आदिवासी इलाकों में इसाई मिशनरियों के खिलाफ पनप रहे असंतोष के मूल कारणों को समझने-समझाने से डरते हैं, क्योंकि ये उनकी रोज़ी-रोटी का सवाल है। क्या कोई भी व्यक्ति सैकड़ों लोगों को केवल इसलिए अपने भाइयों पर हमले करने के लिए उकसा सकता है क्योंकि उनका मज़हब दूसरा है। ये समस्या का ऐसा सरलीकरण है, जिससे राजनीति की दुकान तो चल सकती है, समस्या का समाधान नहीं हो सकता।

तो समाधान क्या है? समाधान है समस्या का सही विश्लेषण। आदिवासी समाज बहुत सरल होता है, लेकिन जब उसकी आस्थाओं पर प्रहार होता है, तो फिर वो आक्रामक भी हो जाता है। आदिवासियों को ग़ैर हिंदू प्रमाणित करने पर आमादा वामपंथी समाजशास्त्रियों को ये समझना चाहिए कि हिंदू समाज ने वनवासी बंधुओं पर कभी राम, कृष्ण या शिव के प्रतीक थोपने की कोशिश नहीं की। सूर्य, नाग, पीपल, बैल जैसे प्रतीकों की पूजा करने वाले और कुल देवता परंपरा पर जान छिड़कने वाले वनवासियों को हिंदू समाज ने उनकी आस्था और तौर-तरीकों के साथ अपने भीतर आत्मसात किया। लेकिन जब एक इसाई पादरी एक हाथ में बाइबल और दूसरे में रोटी लेकर आदिवासियों के बीच पहुंचता है, तो सबसे पहले यही बताता है कि सूर्य तो आग का गोला है, नाग तो ज़हरीला दुश्मन है, पीपल तो केवल एक पेड़ है और कुल देवता- वो क्या होता है, पूजने लायक तो केवल प्रभु ईशु हैं। कुल देवता को घर से बाहर फेंको, सलीब पर शहीद प्रभु ईशु को घर में सजाओ। गांव के प्रतिष्ठित ओझा की दी तावीज फेंको और क्रॉस का माला गले में डालो। अब जब एक ही घर में एक भाई इसाई बन जाता है और अपनी परंपरा, संस्कृति, पूर्वजों के प्रतीकों का अपमान और तिरस्कार शुरू कर देता है, तो दूसरे भाई की चेतना में आग लगना स्वाभाविक है। जब तक हम आदिवासी इलाकों में इसाई पादरियों और चर्चों पर हो रहे हमले के इस मैकेनिज़्म को नहीं समझेंगे, हम इन हमलों को बंद नहीं करवा सकते।

अब दूसरी बात। व्यक्ति का मनोविज्ञान है कि जब वो अपने को असुरक्षित पाता है, जब उसे लगता है कि उसकी पुकार सुनने वाला कोई नहीं है, तो वो आक्रामक और हिंसक हो जाता है। यही मनोविज्ञान समाज का भी होता है। मैंने पहले भी अपने एक लेख में इस स्थिति का ज़िक्र किया था। जाति, क्षेत्र, भाषा या रूस-चीन के प्रतीकों पर अभिमान करने वालों के बारे में मैं नहीं जानता, लेकिन भारतीय संस्कृति और हिंदू पहचान का अभिमान करने वाला हर व्यक्ति आज भारत में क्षुब्ध है। अपनी आने वाली पीढ़ियों को लेकर वो घोर असुरक्षित महसूस करता है। उसकी धार्मिक-सांस्कृतिक भावनाओं की फिक्र करने वाली राजनीति उसके अपने देश में आज भी फासिस्ट कही जा रही है। एक ताज़ा उदाहरण उड़ीसा की चर्चों पर हुए हमले का ही ले लीजिए। चारों तरफ इसाइयों पर हो रहे अत्याचार का डंका पीटा जा रहा है। कहीं भी उस घटना का ज़िक्र नहीं हो रहा है, जिसके बाद ये हमले शुरू हुए। उड़ीसा की सरकार ने दलित इसाइयों को अनुसूचित जनजाति (एसटी) का दर्ज़ा दे दिया। ये सरकारी षडयंत्र इसलिए किया गया ताकि बेहतर जीवन स्तर के लोभ में इसाई बने दलितों को भी एसटी कोटे का फायदा मिल सके। लेकिन ऐसा होने से सीधे तौर पर आदिवासियों यानी असली एसटी का हक़ मारा जा रहा था। इसी का विरोध करने के लिए आदिवासी स्थानीय संगठन 'कुई समाज' के बैनर तले प्रदर्शन कर रहे थे। इसी पर मतांतरित इसाइयों ने आदिवासियों पर हमला किया। बाद में विश्व हिंदू परिषद के एक नेता, जो मतांतरण के खिलाफ काफी सक्रिय थे, उनपर हमला किया गया। अब अगर मतांतरित कराने वालों पर हमला निंदनीय है, तो इसका विरोध करने वालों पर हमला करना कैसे प्रशंसनीय हो सकता है। इतना ही नहीं, चार मंदिरों पर भी हमले किये गए और उन्हें नुकसान पहुंचाया गया। लेकिन आप देखिए। कहीं इन हमलों की चर्चा नहीं हो रही। सेकुलरों को केवल इसाइयों पर हुए हमलों की चिंता है। इससे क्या हिंदू समाज क्षु्ब्ध, असुरक्षित, आक्रामक और हिंसक नहीं होगा?

इसाई समाज अगर वास्तव में सेवा करना चाहता है, तो उसका स्वागत है। लेकिन सेवा की आड़ में भारतीय समाज का मूलभूत ढांचा छिन्न-भिन्न करने का उन्हें कोई अधिकार नहीं है। भारतीय संविधान में अपनी मर्ज़ी का मज़हब अपनाने की छूट है। लेकिन किसी को उनकी मर्ज़ी का मज़हब अपनाने से रोकना जितना असंवैधानिक है, उतना ही असंवैधानिक किसी को मज़हब बदलने के लिए उकसाना और प्रभावित करना है। जिसे रामायण, गीता, राम और कृष्ण के दर्शन से अध्यात्मिक शांति नहीं मिलती, वो बेशक बाइबल और प्रभु ईशु के संदेश का सहारा ले, मगर इसमें पादरियों का क्या काम। अध्यात्मिक उन्नति अगर व्यक्तिगत विषय है, तो खुद व्यक्ति को चलकर पादरियों के पास जाने दीजिए। लेकिन रोटी फेंककर आस्था ख़रीदने के इस इसाई षडयंत्र पर अगर रोक नहीं लगाई गई तो और भी भयानक मंज़र दिख सकते हैं।

पाकिस्तान में तालिबान की आहट


बेनज़ीर भुट्टो की जान लेने वाला आत्मघाती विस्फोट दरअसल पाकिस्तान में तालिबान-अल क़ायदा गठजोड़ के आने की आहट है। तालिबान ने बेनज़ीर की हत्या करने की सार्वजनिक घोषणा कर रखी थी और आखिरकार वे सफल हुए (अल क़ायदा ने बाक़ायदा इस हत्या की ज़िम्मेदारी ले ली है)। राजनीति में हत्याएं कोई असाधारण घटना नहीं होती, लेकिन बेनज़ीर की हत्या पाकिस्तान की तारीख में एक ऐसी भयावह घटना के रूप में याद की जाएगी, जिसके बाद मुल्क़ की तकदीर पर बदनसीबी के काले बादलों ने अपनी छाया डाल दी।

बेनज़ीर क़रीब 6 साल तक निर्वासित जीवन जीन के बाद हाल ही में पाकिस्तान लौटी थीं और आते के साथ ही उनका स्वागत एक शिशु बम से किया गया था। राजनीतिक विश्लेषकों का मानना था कि अमेरिकी दबाव में परवेज़ मुशर्रफ और बेनज़ीर एक समझौता फार्मूले पर तैयार हो गए थे और इसी के बाद बेनज़ीर की वापसी हुई थी। फार्मूले के तहत आगामी आम चुनावों के बाद मुशर्रफ राष्ट्रपति और बेनज़ीर प्रधानमंत्री बनने वाली थीं। शायद इसी अंदेशे से तालिबान परेशान थे। अफगानिस्तान से तालिबान के सफाये और आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की कथित लड़ाई में मुशर्रफ की सक्रियता से नाराज़ तालिबान खुले विचारों वाली बेनज़ीर भुट्टो को देश की प्रधानमंत्री पद तक नहीं पहुंचने देना चाहते थे।

लेकिन इस पूरे घटनाक्रम के कारण भारत के लिए भयानक खतरे पैदा हो गए हैं। पश्चिमोत्तर प्रांत में पाकिस्तानी सीमा पहले ही एक हारी हुई लड़ाई लड़ रहे हैं। रिपोर्टों के मुताबिक वहां के सभी सरकारी कार्यालयों से पाकिस्तान के झंडे उतार दिए गए हैं और तालिबान के ठेकेदार अत्याधुनिक हथियारों के साथ खुली गाड़ियों में घूम-घूम कर तालिबानी कानून लागू करवा रहे हैं। कई जगहों से सेना के जवानों के आत्मसमर्पण करने की ख़बरें आ रही हैं। ऐसे में सेना की विशाल छावनी वाले शहर रावलपिंडी में हुई भुट्टो की हत्या के कई मायने हैं। कई स्रोतों से इस तरह की ख़बरें आती रही हैं कि सेना और आईएसआई का एक वर्ग मुशर्रफ की अमेरिकापरस्त नीतियों से खार खाए बैठा है। ऐसे में अगर किसी भी दिन ऐसे ही मुशर्रफ की भी हत्या हो जाए और तालिबान समर्थक सैनिक सत्ता की कमान संभाल लें, तो क्या होगा। अगर ऐसा हुआ तो अमेरिका के पास पाकिस्तान के परमाणु हथियारों को संभालने के लिए सीधे तौर पर हस्तक्षेप करने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होगा। ये हस्तक्षेप हमले के तौर पर भी हो सकता है और कमांडो कार्रवाई के तौर पर भी। अगर सफल कमांडो कार्रवाई से परमाणु हथियारों पर अमेरिकी नियंत्रण स्थापित भी हो जाए, तो ख़तरा फौरी तौर पर ही टल सकेगा। एक बार पाकिस्तान में तालिबान समर्थकों का शासन स्थापित हो जाने के बाद अफगानिस्तान की करज़ई सरकार के लिए अस्तित्व की लड़ाई बहुत मुश्किल हो जाएगी और नाटो की सेनाओं के लिए स्थिति नियंत्रण से बाहर होने लगेगी। तब अमेरिका के लिए सीधे पाकिस्तान पर हमला करने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा। अगर अमेरिका हमला करता है, तो भारत पर दो तरह से संकट आएगा। पहला तो वहां से भारतीय सीमा में आकर शरण लेने वाले पाकिस्तानियों की बाढ़ आ जाएगी, जिन्हें पूरी तरह से रोक पाना मानवीय आधार पर कठिन होगा। और भारतीय राजनेताओं की वोट बैंक राजनीति को देखते हुए कल्पना ही की जा सकती है कि एक बार भारत में आए इन पाकिस्तानियों को यहां के समाज में शामिल होकर पूरे देश में फैलने में कितनी मुश्किल होगी। दूसरा संकट ये होगा कि भारत को पाकिस्तान के खिलाफ अमेरिका की लड़ाई में खुलकर साथ देना होगा। ये भारत की मज़बूरी होगी, क्योंकि तालिबान के खिलाफ अमेरिकी हार के परिणाम कितने भयानक हो सकते हैं इसकी कल्पना भी नहीं की जा सकती है।

कुल मिलाकर यही कहा जा सकता है कि भारत में इस्लामिक कट्टरपंथ के सहारे आतंकवाद फैलाने की जो नीति पाकिस्तान चला रहा था, उसका ये स्वाभाविक परिणाम है। पाकिस्तान कल का अफगानिस्तान बनने जा रहा है। भारत सीधे तौर पर पाकिस्तान को तो नहीं बचा सकता, लेकिन जिस तरह हमारे यहां के राजनीतिज्ञ देश में आतंकवाद फैला रहे तत्वों को मज़हब के आधार पोषण दे रहे हैं, अगर वो नीति नहीं बदली तो हम भी बहुत सुरक्षित नहीं रह सकते।

सोमवार, 24 दिसंबर 2007

मोदी की जीत का मातम और जश्न एक ही सिक्के के दो पहलू हैं

परसों से आज तक लगभग 40 घंटों में अगर हिन्दी के तमाम ब्लॉगों पर लिखे लेखों का सर्वे किया जाए तो मुझे लगता है लगभग 70-75% लेख केवल नरेंद्र मोदी पर ही लिखे गए हैं। मोटे तौर पर देखें तो दो तरह के लेख हैं। मोदी की तारीफ के और मोदी के विरोध में। लेकिन इन लेखों में एक तीसरा वर्ग भी है। ऐसे लेख जिनमें राष्ट्रीय राजनीति में मोदी की जीत के मायने तलाशने की कोशिश की गई है। इन सभी लेखों में लेखकों ने जितना ज़ोर लगाकर अपनी बात रखने की कोशिश की है उसे देखकर इतना तो साफ है कि मोदी का व्यक्तित्व गुजरात की सीमाओं से कहीं परे पहुंच चुका है। किसी राज्य के चुनाव ने आज तक शायद ही पूरे देश के चिंतन तंत्र को इतना झकझोरा हो। आखिर मोदी की जीत पर इतना बवाल है क्यों?

मोदी की जीत पर चाहे वामपंथियों का मातम हो या हिंदू राष्ट्रवादियों का उत्सव, दरअसल दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। राम मंदिर आंदोलन के बाद से ही हिंदू राष्ट्रवाद और वामपंथ के बीच की लड़ाई अपनी चरम पर है। कांग्रेस की अपनी कोई विचारधारा है नहीं, तो कांग्रेसी अपने वैचारिक अस्तित्व के लिए वामपंथियों की गोद में ही बैठे हैं। इसलिए इस चर्चा में कांग्रेसियों का उल्लेख बेमानी होगा। हिंदू राष्ट्रवाद की जीत का मतलब है वामपंथ की मौत। क्योंकि एक ओर जहां हिंदूवादी भारत को सनातन राष्ट्र मानते है, वहीं वामपंथी इसे एक राष्ट्र मानते ही नहीं (इस पर 6 दिसंबर के लेख में विस्तार से चर्चा की गई थी)। मोदी आधुनिक राजनीति में हिंदू राष्ट्रवाद का सबसे मुखर चेहरा हैं। मोदी के रूप में अगर हिंदुत्व का उभार होता है, तो वामपंथियों की वो ज़मीन ही खिसक जाएगी, जिसपर वो खड़े हैं। तो बहुत स्वाभाविक है कि मोदी की विजय उन्हें मातम लगे। दूसरी ओर राजनाथ सिंह या लालकृष्ण आडवाणी के खुशी से दमकते चेहरों का राज़ 2004 के बाद से मिल रही लगातार चुनावी शिकस्तों के इतिहास में साफ देखा जा सकता है। लेकिन दिल्ली, उत्तर प्रदेश, बिहार, राजस्थान, मध्य प्रदेश, महाराष्ट्र जैसे राज्यों के हिंदुवादी सोच वाले सामान्य लोगों, जिन्हें सत्ता के खेल से कोई मतलब नहीं, के इस मदहोश उत्सव का क्या मतलब?

दरअसल 2002 के गुजरात दंगों के बाद से ही वामपंथियों ने मोदी को एक व्यक्ति के तौर पर नहीं, बल्कि एक विचारधारा के तौर पर निशाना बनाया। मोदी की हार को एक राजनेता की सामान्य चुनावी हार नहीं, बल्कि हिंदू राष्ट्रवाद की असफलता का जामा पहना दिया जाता। इसीलिए मोदी की जीत हिंदू राष्ट्रवाद के सम्मान के लिए एक जीवनरेखा के तौर पर सामने आई है। इसके साथ ही एक और कारण है, जो मुझे लगता है कि ज़्यादा महत्वपूर्ण है। अटल बिहारी वाजपेयी भले ही भारतीय जनता पार्टी के सबसे ज़्यादा लोकप्रिय नेता रहे हों, लेकिन पार्टी के कोर वोटरों ने उन्हें कभी बहुत पसंद नहीं किया। उनकी पसंद तो हमेशा लालकृष्ण आडवाणी रहे, क्योंकि राम मंदिर के लिए निकाली गई रथ यात्रा आडवाणी को एक गौरवान्वित हिंदू की छवि दी। इसी छवि में हिंदू राष्ट्रवाद का अक्श ढूंढने वाले भाजपा के कैडर मतदाताओं को उस समय क़रारा झटका लगा जब आडवाणी ने जिन्ना की मज़ार पर जाकर उन्हें धर्मनिरपेक्षता का मसीहा क़रार दिया। पार्टी की चुनावी मज़बूरियों के कारण हाल के महीनों में भले ही हमने आडवाणी को एक बार फिर भाजपा के केन्द्र में आते देखा हो, लेकिन ये सच्चाई है कि आडवाणी अब हिंदू राष्ट्रवाद के प्रतीक नहीं रहे। हिंदू राष्ट्रवाद के नये प्रतीक हैं नरेन्द्र मोदी। मोदी की जीत से भारतीय राजनीति के एक बार फिर हिंदू राष्ट्रवाद रहित होने की चिंता से व्यग्र हिंदुवादियों की जान में जान आई है।

हिंदूत्वनिष्ठ तत्वों का यही वो मनोविज्ञान है, जिसके कारण मीडिया के स्वनामधन्य राजनीतिक विश्लेषक अब राष्ट्रीय राजनीति में नरेन्द्र मोदी की भूमिका तलाशने लगे हैं। सच भी है, मोदी का राष्ट्रीय राजनीति में आना तय है क्योंकि अब पूरे देश के हिंदु राष्ट्रवादियों को केवल मोदी में ही अपने सपनों की हक़ीक़त दिख रही है। लेकिन मुझे ताज़्जुब होता है इन विश्लेषकों की बुद्धि पर जब ये मोदी के पार्टी से बड़ा होने की बात कहते हैं। इसके पीछे शायद इनका विश्लेषण कम और राजनीतिक प्रतिबद्धता की मज़बूरी ज्यादा है। मोदी से पहले केशुभाई पटेल गुजरात में भाजपा के सबसे बड़े नेता हुआ करते थे, आज सौराष्ट्र के लिउआ पटेलों ने भी उन्हें दूध की मक्खी बना दिया। वघेला गुजरात भाजपा के मज़बूत नेता हुआ करते थे, पार्टी छोड़ने के बाद अपना अस्तित्व बचाने के लिए उन्हें वैचारिक आत्महत्या करनी पड़ी। उमा भारती के बिना मध्य प्रदेश में भाजपा का अस्तित्व ही मुश्किल लगता था, अभी हुए उपचुनाव में भोपाल के पड़ोसी विधानसभा क्षेत्र में उमा की पार्टी को 3,000 मत मिले हैं। स्वयं आडवाणी का उदाहरण सामने है जब उन्होंने पार्टी की मूल विचारधारा से हटकर जिन्ना पर बयान दिया और पार्टी के अंदर ही सबके लिए अछूत हो गए। इसलिए मोदी कभी पार्टी से बड़े नहीं हो सकते। हां, मोदी की जीत का अगर राष्ट्रीय राजनीति में कोई मायना है, तो वो केवल यही है कि इस जीत ने आडवाणी के बाद भाजपा में दूसरी पंक्ति के नेताओं की संभावित महाभारत के बिगुल में छेद कर दिया है। अब आडवाणी के स्वाभाविक उत्तराधिकारी मोदी हैं और इसलिए 2014 के लोकसभा चुनाव में भाजपा के प्रधानमंत्री उम्मीदवार भी।

...और अब शुरू होती है प्रतिक्रियाओं की राजनीति

नरेन्द्र मोदी के नेतृत्व में भारतीय जनता पार्टी की ऐतिहासिक जीत पर बहुत दिलचस्प प्रतिक्रियाएं आई हैं। पहले मोदी विरोधियों की बात करें। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने फोन कर मोदी को बधाई दी, लेकिन उनकी पार्टी यानी कांग्रेस ने मोदी की जीत को लोकतंत्र के लिए खतरा बताया। यानी कांग्रेस मानती है कि मोदी को मुख्यमंत्री बनाने के लिए भारतीय जनता पार्टी को वोट देने वाले 48% गुजराती लोकतंत्र के विरोधी हैं। विडंबना देखिए, अपने विचार से सहमति न रखने वाली करोड़ों जनता को लोकतंत्र विरोधी क़रार देने वाली कांग्रेस के प्रवक्ता कपिल सिब्बल अपनी प्रतिक्रिया में मोदी को फासिस्ट क़रार देते हैं। ये फासिस्ट शब्द बड़ा ही मज़ेदार लगने लगा है अब। ख़ैर, इसपर चर्चा फिर कभी। वामपंथियों की प्रतिक्रिया और भी रोचक है। उन्होंने कांग्रेस को नाकारा क़रार देते हुए आरोप लगाया है कि यूपीए सरकार का न्यूनतम साझा कार्यक्रम लागू न किए जा सकने के कारण ही मोदी की जीत हुई है।

बेचारे भाजपाई नेताओं की स्थिति तो बहुत ही दयनीय रही है। उनकी प्रतिक्रिया दोधारी तलवार पर चलने के समान थी। उनसे पूछा जा रहा था कि क्या मोदी की जीत से पार्टी उनके सामने पिद्दी हो गई है, क्या मोदी अब आडवाणी की छाती पर मूंग दलेंगे, क्या हिंदुत्व की जगह अब मोदित्व ने ले लिया है। अब बेचारे भाजपाई प्रवक्ता के सामने संकट कि बोलें क्या? हां बोलें तो भी फंसे और ना तो भी। वो कहानी सुनी ही होगी आपने कि एक बार पोप अमेरिका की यात्रा पर गए। जैसे ही पोप अमेरिका की धरती पर उतरे, हवाईअड्डे पर एक पत्रकार ने उनसे पूछ लिया- वुड यू लाइक टू विजिट न्यूडिस्ट क्लब्स इन अमेरिका (क्या आप अमेरिका में स्थित नंगों के क्लब) में जाएंगे। अब पोप थे बड़े समझदार। सोचा, अगर कह दूं जाउंगा, तो सब कहेंगे कि पोप होकर नंगों के क्लब में जाना चाहते हैं और अगर कह दूं नहीं जाउंगा, तो सब कहेंगे पोप होकर भी सुधार की जगह बहिष्कार कर रहे हैं। तो पोप ने समझदारी दिखाते हुए उस पत्रकार से ही पूछ लिया- इज़ देयर एनी न्यूडिस्ट क्लब इन अमेरिका (क्या अमेरिका में नंगों के क्लब भी हैं)? इसके बाद पोप चले गए। लेकिन अगले दिन सुबह उन्होंने अखबार देखा तो उसकी सुर्खी थी- अमेरिकी धरती पर पैर रखते ही पोप ने पूछा, क्या अमेरिका में नंगों के क्लब हैं? मुझे नहीं पता कि ये कहानी कितनी सही है या ग़लत। लेकिन सुर्खियां बनाने की मज़बूरी में अक्सर पत्रकार ऐसी रचनात्मकता दिखाते हैं। तो भाजपाई प्रवक्ताओं के सामने भी इसी रचनात्मकता का जाल फेंका गया। अरुण जेटली, राजनाथ सिंह, मुख्तार अब्बास नकवी, नवजोत सिंह सिद्धू, प्रकाश जावड़ेकर, शहनवाज हुसैन जैसे भाजपा नेताओं को पता तो ज़रूर होगा कि उनके जवाबों की क्या सुर्खियां बनेंगी, लेकिन उनके पास कोई चारा भी नहीं था। एनडीटीवी के विजय विद्रोही ने राजनाथ सिंह से पूछा- क्या मोदी पार्टी से बड़े हो गए हैं? राजनाथ ने कहा पार्टी से बड़े तो अटल बिहारी वाजपेयी भी नहीं हैं, ये मोदी के नेतृत्व में पार्टी की जीत है। एनडीटीवी ने सुर्खी बनाई कि भाजपा अध्यक्ष मोदी की जीत में केंन्द्रीय नेतृत्व के हिस्से का भी दावा ठोक रहे हैं। पुण्य पसून वाजपेयी के नेतृत्व में तेज़ी से उभर रहे 'समय' के एक रिपोर्टर ने अरुण जेटली से पूछा कि क्या मोदी की जीत से दूसरी पंक्ति के नेताओं को बेदखली का डर सताने लगा है? जेटली ने जवाब दिया- आगे चलकर क्या होगा मुझे नहीं पता, लेकिन मोदी अभी गुजरात के मुख्यमंत्री होंगे। समय के डेस्क ने तुरंत अपनी रचनात्मकता का भरपूर इस्तेमाल करते जेटली को कोट करते हुए फ्लैश चलाया कि मोदी निभा सकते हैं राष्ट्रीय राजनीति में भूमिका।

दरअसल प्रतिक्रियाओं का भी अपना एक मैकेनिज़्म होता है। क्या आपने कभी किसी विपक्षी नेता को सरकारी बजट की तारीफ करते सुना। क्या आपने कभी किसी भ्रष्ट या दुराचारी नेता की मौत पर आयोजित श्रद्धांजलि सभा में नेताजी के कुकर्मों या उन पर जारी मुकदमों की चर्चा सुनी। बाबरी ढांचा गिरने पर घर में जश्न मनाने वाले कई कांग्रेसियों को मैंने सार्वजनिक तौर पर मातम करते देखा है। आपसी बातचीत में गुजरात दंगों में मारे गए मुसलमानों को अच्छा सबक सिखाए जाने के सिद्धांत की वकालत करने वाले कई लोगों को मैंने सार्वजनिक तौर पर उन्हें दुखद घटना कहते हुए सुना है। क्योंकि प्रतिक्रियाओं का मतलब ही किसी विषय पर अपनी राय सार्वजनिक तौर पर ज़ाहिर करना होता है, इसलिए प्रतिक्रियाएं आपकी सार्वजनिक निष्ठाओं की मज़बूरी से ही पैदा होती हैं। इसी लिहाज से चाहे प्रधानमंत्री, कांग्रेस या कपिल सिब्बल हों, या भाजपाई नेता या फिर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धताओं में जकड़ी मीडिया, सबकी प्रतिक्रिया सार्वजनिक निष्ठाओं की मज़बूरी ही है। तभी तो पत्रकारिता की सारी मर्यादाएं ताक पर रखकर अब तक मोदी के खिलाफ एड़ी-चोटी एक करने वाले एनडीटीवी के आत्ममुग्ध 'पत्रकार' अब हमें ये बताकर खुश हो रहे हैं कि मोदी की जीत दरअसल भाजपा, संघ और विश्व हिंदू परिषद की हार है।

शुक्रवार, 21 दिसंबर 2007

"देश के संसाधनों पर पहला हक़ किसका हो?"

हर्षवर्धन ने कुछ दिनों पहले अपने ब्लॉग में पूछा था कि विनोद दुआ की समस्या क्या है। दरअसल वो कोई सवाल नहीं था, बल्कि अपने आप एक जवाब था। विनोद दुआ की समस्या किसी विचार की नहीं, बल्कि वैचारिक प्रतिबद्धता की समस्या है। ये समस्या किसी व्यक्ति की भी हो सकती है, संस्था की भी हो सकती है, समाज की या फिर किसी देश की भी हो सकती है। गुजरात चुनावों के दौरान विनोद दुआ जी लोगों से पूछते फिर रहे थे कि आप किसी अच्छे व्यक्ति को वोट देंगे या नरेंद्र मोदी को। विनोद दुआ वैचारिक प्रतिबद्धता के कारण उपजी एक व्यक्ति की समस्या का प्रकट कर रहे थे। यही समस्या जब एक संस्था को त्रस्त करती है, तो उसका नाम एनडीटीवी हो जाता है जिसका लोगो लगा माइक लेकर दुआ जी घूम रहे थे।

एनडीसी की बैठक में जब प्रधानमंत्री ने पहली बार एक ऐसी पंचवर्षीय योजना का खाका पेश किया जिसका आधार विकास नहीं, बल्कि अल्पसंख्यकवाद था तो नरेन्द्र मोदी की अगुआई में बीजेपी शासित राज्यों ने उसका विरोध किया। एक पत्रकार के तौर पर अगर इस मुद्दे की रिपोर्टिंग करनी हो, तो मेरा साफ मानना है कि आपको किसी तरह का ढुलमुल रवैया नहीं अपनाना चाहिए। यह एक राष्ट्रीय महत्व का मुद्दा है और इसके पक्ष या विपक्ष में धारदार तरीके से जिरह की जानी चाहिए। लेकिन अगर आपमें इस फैसले के परिणामों को स्वीकार कर पाने की हिम्मत नहीं है और फिर भी आप पत्रकार के तौर पर मिले मंच पर अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता की दुर्गंध फैलाना चाहते हैं, तो फिर आपके लिए एनडीटीवी जैसे मंच ही मुफीद हैं। एनडीसी की बैठक के दिन एनडीटीवी ने देश की जनता से एक सवाल पूछा। सवाल कुछ इस प्रकार था- देश के संसाधनों पर किसका पहला अधिकार होना चाहिए? विकल्प थे, (क) बहुसंख्यकों का, (ख) अल्पसंख्यकों का और (ग) जिसकी लाठी उसकी भैंस। ये है वैचारिक प्रतिबद्धता से त्रस्त एक संस्था की समस्या। अगर आपको ठीक याद हो तो कुछ ही दिनों पहले प्रधानमंत्री ने बयान दिया था कि देश के संसाधनों पर पहला हक़ मुसलमानों का है। और अब एनडीटीवी के ये तीन विकल्प। देश के सभी नागरिकों के बीच उनकी ज़रूरतों के मुताबिक राष्ट्रीय संसाधनों के बंटवारे का विकल्प न तो प्रधानमंत्री की वैचारिक प्रबद्धता में है और न ही एनडीटीवी के।

मेरा हमेशा से मानना रहा है कि पत्रकारिता में तटस्थता की अवधारणा एक छलावा है। लेकिन साथ ही मैं ये भी मानता हूं कि ख़बर का एंगल तय करते समय तथ्यों को छुपाना या तोड़ना-मरोड़ना एक आपराधिक कृत्य है। लेकिन आप हर ज़रूरी तथ्य को उजागर करते हुए भी ख़बर अपने एंगल से दें, इसके लिए आपमें हिम्मत होनी चाहिए। ख़ुद को ग़लत कहने की हिम्मत। एनडीटीवी या विनोद दुआ की दिक्कत ये है कि उनकी प्रतिबद्धता तथ्यों के उजागर होने के पहले से ही तय है। ऐसे में अपना एंगल तय करते समय प्रतिकूल तथ्यों को छुपाना उनकी मज़बूरी है। इसीलिए जब एनडीटीवी ये सवाल करता है कि देश के संसाधनों पर किसका हक़ होना चाहिए तो उसके जवाबों में 'सबका' का विकल्प नदारद होता है।

गुरुवार, 13 दिसंबर 2007

13 दिसंबर की सड़ांध का अपराधी कौन है

हम भारतीय बड़े उत्सव प्रेमी हैं। वैसे तो हमारे देश में साल भर उत्सवों का मेला लगा ही रहता है, लेकिन इतने से हमारा मन भरता नहीं। इसलिए हम समय-समय पर अपने लिए उत्सवों की रचना भी करते रहते हैं। अच्छा भी है, उत्सव जीवन में नई ताज़गी भरते हैं और सामाजिक-सांस्कृतिक तौर पर हमें और ज़्यादा समृद्ध बनाते हैं। लेकिन बहुत बार जीवन में ताज़गी और समृद्धि भरने वाली उत्सव की प्रेरणा, उसकी आत्मा गायब हो जाती है। फिर धीरे-धीरे वही उत्सव मरने लगते हैं, सड़ने लगते हैं और फिर दुर्गंध फैलाने लगते हैं। ऐसे मरे और सड़े उत्सवों की खासियत ये होती है कि इन्हें केवल सरकारी अमला और निहित स्वार्थ वाले राजनीतिक ग्रुप मनाते हैं। 14 सितंबर को हिंदी दिवस और 6 दिसंबर को बाबरी ढांचा गिरने का मातम मनाने जैसे त्यौहारों की सड़ांध से पहले ही हमारे नथुने फट रहे थे कि अब इस सूची में 13 दिसंबर का संसद हमला भी शामिल हो गया है।

क्योंकि आज भी 13 दिसंबर है, तो सरकारी अमला, सत्ता दल और विपक्ष के कर्णधार आज भी उन आठ अभागों की तस्वीर पर फूल चढ़ाकर अपने कर्तव्य की इतिश्री कर आए, जो आज ही के दिन 2001 में एक आतंकवादी हमले में मारे गए थे। मैं माफी चाहूंगा अपना कर्तव्यपालन करते हुए मारे गए उन आठ पुलिसवालों के लिए अभागा शब्द का प्रयोग करने के लिए। लेकिन क्या आप उन्हें भाग्यशाली कहेंगे। जिस हमले में उनके प्राण गए, उसी हमले का योजनाकार अफ़जल इस देश की सरकार का दामाद बना हुआ है। जब ये सरकार या इसके नौकर इन पुलिसकर्मियों को शहीद कहते हैं, तो मुझे लगता है कि ये उन्हें गाली दे रहे हैं। पिछले साल पूरे देश को स्तब्ध करते हुए इन्हीं अभागे शहीदों की विधवाओं ने कुछ ग्राम धातुओं के बने वे तमगे सरकार के मुंह पर दे मारे थे, जो उनके पतियों की मौतों के एवज में उन्हें मिले थे। वह सरकार के प्रति उस क्षोभ की पराकाष्ठा थी जो संसद हमले के दोषी को बचाने की सरकार की कोशिशों से उपजी थी। लेकिन इस सरकार के कर्णधारों की निर्लज्जता देखिए, उन विधवाओं को किसी तरह का जवाब या आश्वासन तक नहीं दिया गया। अफ़ज़ल आज भी ज़िंदा है।

आज टेलीविजन चैनलों पर उन्हीं शहीदों की एक विधवा को हमने फिर देखा। आज उसकी आंखों में क्षोभ नहीं था, बेबसी थी, हार थी। उसके सामने देश के दो सबसे शक्तिशाली नीति निर्माता खड़े थे। एक गृह मंत्री और दूसरा देश की सबसे शक्तिशाली महिला का पुत्र और संभवत: देश का भावी प्रधानमंत्री। आश्चर्य ये कि जितनी बेबसी उस विधवा की आंखों में थी, उतना ही बेबस वे दोनों शख्स भी दिख रहे थे। विधवा फूट-फूट कर रो रही थी और चीख-चीख कर अपने साथ हो रही धोखाधड़ी की कहानी सुना रही थी। छह साल पहले अटल बिहारी वाजपेयी की सरकार ने शहीदों के परिवारों को पेट्रोल पंप देने का वादा किया था। इसके बाद के दो सालों में वाजपेयी सरकार उन शहीदों के परिवारों को तमगे का झुनझुना देकर बहलाती रही। और उसके बाद चार साल से मारे गए पुलिसकर्मियों के परिवार वाले मनमोहन सिंह सरकार के दरवाज़े पर चप्पलें चटका रहे हैं। आईबीएन 7 पर मैंने इन शहीदों की विधवाओं को उनका अधिकार दिलाने की लड़ाई लड़ रहे मनिंदरजीत सिंह बिट्टा का फोनो इंटरव्यू सुना। बिट्टा का कहना था कि 6 दिनों पहले उन्होंने पेट्रोल पंप के मुद्दे पर पेट्रोलियम मंत्री मुरली देवड़ा से मुलाक़ात की थी। बकौल बिट्टा देवड़ा ने जिन शब्दों में उन विधवाओं का अपमान किया, उन्हें वे टीवी पर बता नहीं सकते। बिट्टा कांग्रेस के नेता हैं और इसलिए वे यह कहना नहीं भूले कि मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी को इसके लिए कत्तई दोषी नहीं ठहराया जा सकता, सारा दोष केवल मुरली देवड़ा का है। हो सकता है कि पेट्रोल पंप के मामले पर मुरली देवड़ा अपराधी हों, लेकिन अफ़जल को फांसी से बचाने का दोषी कौन है। क्या शहीदों की विधवाएं पेट्रोल पंपों से अपने पतियों के खून का सौदा कर रही हैं। अगर हमारे माननीय सांसदों की तरह वे पुलिसकर्मी भी अपने बीवी-बच्चों के लिए लाखों-करोड़ों की संपत्ति छोड़ गए होते, तो क्या यही विधवाएं पेट्रोल पंप के कागज़ों की चिद्दियां उड़ा कर नहीं कहतीं कि इन्हें अपने पास रखो और हमारे पतियों के क़ातिल को फांसी दो। जिस तरह सत्ता के अहंकार में चूर होकर मुरली देवड़ा ने पेट्रोल पंप का अपना हक़ मांगने गईं बेसहारा विधवाओं को अपमानित किया है, उसी तरह सोनिया गांधी और मनमोहन सिंह ने अफ़जल को फांसी से बचाकर इस देश के हर उस नागरिक के प्रति अपराध किया है, जो इस देश को अपनी मातृ और पितृ भूमि मानता है।

गुजरात के चुनावों में नरेन्द्र मोदी के विकास के दावों को झूठा ठहराने के लिए मनमोहन सिंह और सोनिया गांधी ने आंकड़ों की बाजीगरी कई बार दिखाई, लेकिन आश्चर्य है कि अफ़जल को फांसी से बचाने के आरोपों पर दोनों ने अब तक एक शब्द नहीं कहा है। शहीदों की विधवाओं के प्रति इस सरकार की संवेदनहीनता का जवाब तो हमारे पूरे सरकारी तंत्र के नाकारपन में फिर भी खोजा जा सकता है, लेकिन पूरा देश (सोनिया गांधी के धर्म पुत्रों और चीन की अवैध संतानों को छोड़कर) जानना चाहता है कि इस देश की सरकार के सामने ऐसी कौन सी मज़बूरी है जिसके कारण संसद हमले का दोषी उच्चतम न्यायालय से फांसी की सज़ा पाने के महीनों बाद भी जीवित है।

बुधवार, 12 दिसंबर 2007

गुड़गांव का जवाब ही तय करेगा हमारे भविष्य की राह

दिल्ली के नज़दीक गुड़गांव के एक स्कूल में आठवीं क्लास के एक लड़के का अपने दोस्त की गोली मारकर हत्या करना रोज़ हो रहे अपराधों की श्रृंखला में केवल एक कड़ी भर नहीं है। ये घटना 9% की दर से बढ़ रही भारतीय अर्थव्यवस्था के बीच ढीले पड़ रहे सामाजिक मूल्यों की एक झांकी है। अब तक स्कूली छात्रों के अपने स्कूल में गोलियां चलाने और अपने दोस्तों की हत्याएं करने की ख़बरें केवल कनाडा और अमेरिका जैसे देशों से ही आती थीं और हम संतोष से कहते थे कि ये तो पश्चिमी समाज की बीमारी है जिससे हम बिल्कुल अछूते हैं। लेकिन गुड़गांव की घटना ने हमें एक करारे तमाचे के साथ ये बता दिया है कि हम भी अछूते नहीं है। ऐसा नहीं है कि ये बीमारी की शुरुआत है। ये तो बीमारी का लक्षण है। यानी समाज पहले ही बीमार हो चुका है और उसके लक्षण अब प्रकट होने लगे हैं। यह लक्षण है उपभोग केन्द्रित विकास का। यह लक्षण है नवधनाढ्यता से पैदा मनोविकारों का। स्कूलों में बच्चों की आपसी लड़ाई कोई नई बात नहीं है। अपने स्कूली दिनों में आपने और हमने सबने ऐसी लड़ाइयां की हैं, लेकिन शाम होते ही जब हम खेल के मैदान में पहुंचते थे, तो दिन की लड़ाई हवा हो जाती थी। हम एक बार फिर साथ दौड़ते थे, साथ खेलते थे और साथ लड़ते थे, फिर साथ खेलने के लिए।

गुड़गांव की घटना बाल मनोविज्ञान की दृष्टि से एक भयानक घटना है। गोली चलाने वाले 13 साल के बच्चे ने लगभग 24 घंटे पहले इस हत्या की योजना बनाई, अपने घर से रिवॉल्वर चोरी की, स्कूल के टॉयलेट में उसे छुपाया और फिर मौका देखकर अपने सहपाठी के सर में गोली मार दी। यानी पिछले 24 घंटे में उसने इस हत्या के अलावा कुछ और नहीं सोचा। और ताज्जुब ये है कि पिछले 24 घंटे में उसके मन में एक बार भी इस हत्या के परिणामों का ख्याल नहीं आया। क्योंकि अगर उसने इस हत्या के बाद अपना, अपने परिवार का, अपने दोस्त का या दोस्त के परिवार का एक बार भी विचार किया होता, तो इस भयानक योजना को कभी क्रियान्वित नहीं करता।

ये असफलता उस बच्चे की नहीं, उसके पिता, उसकी माता और उसके परिवार की है। और क्योंकि वो परिवार इस समाज का हिस्सा है, तो ये असफलता इस समाज की है। हम अपने बच्चों को ये तो बताते हैं कि पढ़-लिख कर समाज के शक्तिशाली, सत्तारूढ़ वर्ग का हिस्सा बनना है, लेकिन ये नहीं बताते कि उसके बाद क्या करना है। हम अपने बच्चों को ये तो सिखाते हैं कि रुपये में बहुत ताक़त है और समाज में प्रतिष्ठा पाने के लिए ढेर सारे रुपये जोड़ने हैं, लेकिन ये नहीं बताते कि रुपये की ताक़त का इस्तेमाल किस तरह करना है। नतीजा ये होता है कि सत्ताबल और धनबल के शिखर पर पहुंचने के बाद इंसान को लगता है कि खुद के लिए इसका ज़्यादा से ज़्यादा उपभोग कर लेना ही जीवन का उद्देश्य है।

विकास के मॉडल पर बहस होते अब छह दशक बीत चुके हैं। हमने ये स्वीकार कर लिया है कि विकास का एकमात्र रास्ता अमेरिकी डॉलर से होकर ही गुजरता है। लेकिन इस विकास के दुष्परिणाम भी सामने आने लगे हैं। समाज के विभिन्न वर्गों के बीच बढ़ती आर्थिक खाई से भ्रष्टाचार बढ़ रहा है और आपसी गलाकाट प्रतियोगिता से एक-दूसरे के प्रति अविश्वास भी बढ़ रहा है। ऐसे में गुड़गांव के स्कूल की ये घटना अपने आप में बहुत सारे सवाल तो उठाती ही है, बहुत सारे जवाब भी दे जाती है। अरबों डॉलर के कारोबार वाली अंतरराष्ट्रीय स्तर की कंपनियों ने जिस तरह पिछले एक दशक में गुड़गांव को मैनहट्टन के फ्रेम में उतारने की कोशिश की है, उसके माथे कई परिवारों को करोड़पति बनाने का श्रेय है, लेकिन सवाल तो ये है कि घर के तेरह साल के बच्चे के जीवन पर हत्यारे की मुहर लगाने का कलंक किसके माथे होना चाहिए। इस सवाल के जवाब को स्वीकार करने की हमारी हिम्मत ही हमारे बच्चों का भविष्य तय करेगी।

शनिवार, 8 दिसंबर 2007

प्लीज, मुझे भी तो सेकुलर बनने दो

आप बहुत अच्छे आदमी हैं। बड़े दयालु, बड़े विनम्र, बड़े सज्जन। लेकिन बस मैं कभी-कभी आपके पिताजी को दो-चार गालियां दे देता हूं, आपकी मां पर कुछ फिकरे कस देता हूं और आपकी बहन पर कुछ जुमले उछाल देता हूं। लेकिन उससे क्या? आपको फिर भी मेरे साथ खड़ा होना चाहिए, नहीं तो मैं आपको उद्दंड और संकीर्ण क़रार दूंगा। आप क्या कहेंगे? मेरे ख्याल में आप कहेंगे कि भांड़ में जाओ, तुम मुझे उद्दंड कहो या संकीर्ण या कुछ और, मेरी मां, मेरी बहन, मेरे पिता का अपमान किया तो तुम्हारी गर्दन मरोड़ दूंगा। अगर आप ऐसा कहेंगे और करेंगे, तो ही आप समाज में इज़्जत के हक़दार हैं। नहीं तो आप गंदे कीड़े के समान हैं, जिसे कोई भी अपने पैर के नीचे कुचल कर चला जाता है।

वाल्मीकि ने राम को मर्यादा पुरुषोत्तम माना है और तुलसीदास ने उन्हें भगवान माना। आप उन्हें जो मानना है मानें। उनके चरित्र की विवेचना करें, उनके जीवन की समीक्षा करें। लेकिन याद रखें कि मैं उन्हें अपना पूर्वज मानता हूं। मेरी धमनियों में उन्हीं के रक्त का हिस्सा बह रहा है। इसलिए अगर कोई करुणानिधि या कोई बुद्धदेव उन्हें कुछ नहीं मानता और उनके जीवन के बारे में अनर्गल बकवास करता है, तो मुझे क्यों नहीं उसका गर्दन मरोड़ देना चाहिए। लेकिन क्योंकि करुणानिधि या बुद्धदेव सत्ता के पहाड़ पर खड़े हैं और मैं उनका कुछ बिगाड़ नहीं सकता, तो मेरे पास एक ही उपाय बचता है कि मैं लोकतांत्रिक पद्धति से इन ग़ैर भारतीयों को भारतवर्ष की सत्ता से च्युत करने के लिए हर संभव प्रयास करुं। लेकिन अगर मैं ऐसा करता हूं, तो मुझे साम्प्रदायिक क़रार दिया जाएगा। तो मुझे क्या करना चाहिए। क्या मुझे ये नहीं कहना चाहिए कि भांड़ में जाओ, मुझे तुम्हारे प्रमाणपत्र की कोई ज़रूरत नहीं है। अगर अपने श्रद्धा पुरुषों और पूर्वजों के सम्मान को बचाने के बदले मुझे साम्प्रदायिक कहलाना पड़े तो सौ बार कहलाना पसंद करुंगा।

लेकिन मैं अक्सर सोचता हूं कि राम को सरेआम गालियां देने वालों, राम के अस्तित्व को नकारने वालों, वेदों को जलाने की बात कहने वालों, भारतीय संस्कृति को गलियाने वालों को कैसे इस देश के करोड़ों आस्थावान लोगों का समर्थन मिल जाता है। है न आश्चर्य की बात, बाप की गाली सुनकर जिगरी दोस्त का कॉलर पकड़ लेने वाला आदमी क्यों राम का अपमान सुनकर उदार बन जाता है। मां की गाली सुनकर उबल पड़ने वाला आदमी क्यों भारत माता का अपमान सुनकर दार्शनिक बन जाता है। इसलिए कि वो आदमी राम के आगे घंटी तो ज़रूर टनटनाता है, लेकिन कभी उसने राम को अपना माना ही नहीं। 'भारत माता' की जय ज़रूर बोलता है, लेकिन इस मिट्टी की ममता को कभी महसूस ही नहीं किया। इसीलिये अपने घर की चहारदिवारी की एक ईंट निकालने वाले की तो खाल खींचने के लिए तैयार रहता है, लेकिन कश्मीर और अरुणाचल पर विदेशियों के दावे पर उसका खून नहीं खौलता। 1950 के दशक में
जब चीनी सेना लद्दाख के इलाकों पर कब्ज़ा कर रही थी, तब नेहरू पूरे देश को धोखा देकर 'हिंदी-चीनी भाई-भाई' का मीठा ज़हर पिला रहे थे, लेकिन जब आखिरकार चीन ने लद्दाख में सड़क बनाने की घोषणा कर दी, तब उन्होंने चीनी कब्ज़े को नज़रअंदाज करने का कुतर्क देते हुए बेशर्मी से संसद में कहा कि चीन ने जिस ज़मीन पर कब्ज़ा किया है, वहां तो घास का एक तिनका भी नहीं उगता। ये है इस तरह के लोगों की मानस रचना।

मैं अक्सर सोचता हूं कि मैं भी सेकुलर बनूं। जिस देश की सर्वोच्च सत्ता एक विदेशी महिला की इच्छा से चलती हो, वहां सेकुलर होना ही सर्वोत्तम नीति है। इस देश में आगे बढ़ना है तो धर्मनिरपेक्ष बनिए, देशनिरपेक्ष बनिए, संस्कृतिनिरपेक्ष बनिए, पितानिरपेक्ष, मातानिरपेक्ष और आत्मसम्मान निरपेक्ष बनिए। मैं भी यही सब बनना चाहता हूं। लेकिन फिर मैं सुनता हूं कि मेरे प्रधानमंत्री कहते हैं कि इस देश के संसाधनों पर पहला हक़ अल्पसंख्यकों का है यानी राम, कृष्ण में आस्था रखने वाले यहां दूसरे दर्ज़े के नागरिक हैं। रिज़र्व बैंक कहता है कि सभी बैंक 15% लोन केवल मुसलमानों को दें। शहीदों के परिवारों को 150-200 रुपये पेंशन देने वाली मेरी सरकार केवल मुसलमान छात्रों की छात्रवृत्ति के लिए 1,500 करोड़ रुपये देती है। मेरे देश की सरकार (और उत्तर प्रदेश सरकार भी) एक सर्वेक्षण के द्वारा मुस्लिम बहुल ज़िलों की पहचान कर उन्हें इंफ्रास्ट्रक्चर के विकास में प्राथमिकता देने की नीति बना रही हैं।

कुछ सौ हुड़दंगी कट्टरपंथियों के दंगे से डरकर तसलीमा नसरीन को राज्य से बाहर निकाल देने वाले बुद्धदेव सीना तान कर राम को कवि की कल्पना बताते हैं। हत्या के आरोप में एक शंकराचार्य को गिरफ्तार करने वाली मेरे देश की पुलिस जब बम विस्फोट की जांच के लिए जामा मस्जिद के अंदर जाती है तो वहां के इमाम के गुंडे उसे खदेड़ देते हैं और फिर मेरा राजनीतिक नेतृत्व इमाम के आगे घुटने टेक कर माफी की गुहार करने लगता है। कोयम्बटूर बम विस्फोट के आरोप में तमिलनाडु की जेल में बंद अब्दुल नासिर मदनी (अब बरी) को जेल में केरल की आयुर्वेदिक मालिश उपलब्ध कराने वाले करुणानिधि राम का अपमान करने में तनिक संकोच नहीं करते। बाबरी ढांचा के गिरने पर 15 साल से मातम कर रही मेरे देश की राजनीतिक पार्टियां रामसेतु को तोड़ने के षडयंत्र पर चूं नहीं करते। उच्चतम न्यायालय के बार-बार अवैध ठहराने के बावजूद आंध्र प्रदेश की सरकार मुसलमानों को 5% आरक्षण देने का प्रपंच करने से बाज नहीं आती। असम में बंगलादेशी घुसपैठियों को बसाने के लिए वहां की सरकार नया कानून लाती है (उच्चतम न्यायालय ने उसे अवैध क़रार दिया)। मैं देखता हूं कि हर दिन मेरे देश की सत्ता मेरे धर्म को, मेरे पूर्वजों को, मेरी संस्कृति को, मेरे देश को अपमानित कर रही है। फिर भी मैं चाहता हूं कि मैं सेकुलर बनूं। लेकिन क्या करूं। जब भी इन बुद्धदेवों और करुणानिधियों की गति देखता हूं तो मन विद्रोह कर कहता है, भांड़ में जाओ। नहीं बनना सेकुलर। अगर मेरे देश के आत्मसम्मान की कीमत मुझे साम्प्रदायिक और फासिस्ट कहलाकर चुकानी है, तो मैं चुकाउंगा। ओह! हे बुद्धदेवों, हे करुणानिधिओं, तुम सुधर क्यों नहीं जाते। प्लीज़, मुझे भी तो सेकुलर बनने दो।

गुरुवार, 6 दिसंबर 2007

आज 6 दिसंबर है



आज 6 दिसंबर है। इस दिन के ऐतिहासिक महत्व पर तटस्थ रहना मुश्किल है। और जो कोई भी वास्तव में इस दिन का ऐतिहासिक महत्व समझ सकेगा, उसके लिए इस पर तटस्थ रहना संभव भी नहीं है। हिंदू राष्ट्रवादी इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इतिहास का स्वर्णिम पन्ना मानते हैं, वहीं वामपंथी बुद्धिजीवी इस दिन को भारत की बहुसांस्कृतिक पहचान पर एक काला धब्बा मानते हैं। किसी एक पाले में खड़ा होकर दूसरे को जीभर कर गालियां देना बहुत आसान है, लेकिन क्योंकि दोनों पक्ष अपने लिए दी गई गालियों से पिछले 15 साल में इतना परिचित हो गए हैं कि मेरे लिये ऐसा करना अपना और आपका दोनों का ही समय बरबाद करना होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं करूंगा। आइए आज केवल ये बात करते हैं कि इस दिन को शौर्य दिवस या काला दिवस मानने के पीछे की अलग-अलग वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है। फिर आप अपने को जिस पृष्ठभूमि पर खड़ा पाएं, उसे स्वीकार कर लें। क्योंकि मेरी ज़िद है कि ऐसे ऐतिहासिक महत्व के दिन पर आप तटस्थ नहीं रह सकते।

इस देश को, इसके लोगों को, इसकी पहचान को और इसके इतिहास को देखने के दो नज़रिए हैं। पहले बात करते हैं इतिहास की। एक नज़रिया मानता है कि इस देश में आर्य (आधुनिक शब्दावली में हिंदू) बाहर से आए हमलावर थे और उन्होंने यहां के मूल निवासियों (जिन्हें आदिवासी कहा जाता है) को खदेड़ कर जंगलों में भेज दिया और इस देश की मुख्यधारा बन गए। दूसरा नज़रिया है जिसका मानना है कि आर्य इस देश के मूल निवासी हैं। आदिवासी दरअसल वनवासी हैं, जो जंगल में रहने के कारण सभ्यता के विकास से अछूते रह गए। आर्यों को आक्रांता मानने वाला नज़रिया राम के श्रीलंका जाने को आर्यों के दक्षिण भारत पर आक्रमण की कहानी मानता है। दूसरे नज़रिया का कहना है कि दो युवक क्या वास्तव में दक्षिण की सभी अनार्य (कथित द्रविड़) जातियों को हमला कर जीत सकते हैं। फिर रामायण में वर्णित शबरी और केंवट जैसे पात्रों के साथ राम का व्यवहार क्या वास्तव में एक हमलावर का व्यवहार हो सकता है। और बाद में राम की सेना बने वानर क्या किसी भी परिभाषा से हमलावर आर्य हो सकते हैं। वैसे मुझे याद है कि सालों पहले मैंने जनसत्ता में एक ख़बर पढ़ी थी। ख़बर एक पाश्चात्य विद्वान इतिहासकार के जेएनयू में हुए व्याख्यान पर थी, जिसमें उन्होंने आश्चर्य जताया था कि उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर जब पूरी दुनिया में ये पढ़ाया जाने लगा है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे, तो फिर क्यों भारत में ही अब तक ये झूठ ही पढ़ाया जा रहा है कि आर्य यहां हमलावर के तौर पर आए थे। खैर...

आइए अब बात करें भारत की पहचान की। तो पहला नज़रिया मानता है कि भारत राष्ट्र का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ। इससे पहले भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं। ये तो सैकड़ों रियासतों का एक समूह मात्र था, जिसे अंग्रेजों ने एक राजनीतिक नक्शा दिया। अब क्योंकि भारत राष्ट्र का जन्म ही 60 साल पहले हुआ, तो उससे पहले का कोई राष्ट्रीय विरासत होने का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बुर्जुआ समाज के सर्वहारा पर शासन करने के लिए गढ़ा गया एक छलावा है। दूसरा नज़रिया मानता है कि भारत इतिहास के जन्म से पहले से ही राष्ट्र है। वेदों में जिसे 'भारत माता' कहा गया है, उसकी परिभाषा उस भूमि के तौर पर दी गई है जो सिंधु सागर (हिंद महासागर) से हिमालय के बीच फैली हुई है। वेदों की रचना का समय इतिहास के जन्म से बहुत पहले है। इतना पहले जहां तक इतिहास की सोच भी नहीं पहुंच पाती। अब से 1,200 साल पहले शंकराचार्य ने जिस भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए उड़ीसा के पुरी, तमिलनाडु के कांचीपुरम, गुजरात के द्वारका और उत्तरांचल के बद्रीनाथ का चुनाव किया था, उसके पीछे अगर राष्ट्रीय भावना नहीं थी, तो क्या था। बेतिया के नीलहे किसान अपनी पीड़ा लेकर गुजरात के गांधी के पास किस अधिकार से गए, बीजिंग या काबुल क्यों नहीं गए? बंग विभाजन के ब्रिटिश साजिश के खिलाफ पंजाब और चेन्नई में लोगों ने लाठियां क्यों खाईं? अगर भारत केवल 60 साल पहले राष्ट्र बना, तो इन सवालों का क्या जवाब है।

तीसरा मुद्दा है लाइफलाइन का। ऐसा कौन सा एक तत्व है, जिसके धूमिल होते ही भारतीय समाज का आधार विलीन हो जाएगा। क्योंकि पहले नज़रिये का मानना है कि भारत 1947 में अस्तित्व में आया, इसलिए ये नज़रिया अब तक इस लाइफलाइन की खोज में है। नेहरू इसी नज़रिये का प्रतिनिधित्व करते थे, जिन्होंने उद्योगों का आधुनिक भारत के मंदिर कहा और पश्चिम के विकास मॉडल पर भारत के विकास की रूपरेखा बनाना चाहा। अब उन्हीं के वंशज देश को उपभोक्तावाद के अंधे कुएं में धकेलने में लगे हैं। अभी हाल ही में कमलनाथ की किताब का लोकार्पण करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत की प्रगति का मूलमंत्र यही है कि देश को सबसे बड़ा कारोबारी देश (ट्रेडिंग नेशन बनाया दिया जाए)। इसी नज़रिये का एक पोषक वामपंथी बुद्धिजीवी हैं, जिनके लिए चीन का विकास मॉडल आदर्श हैं। चीन की रौशनी से उनकी आंखें इस क़दर चुधियाईं हुई हैं कि 1962 के चीनी आक्रमण को भी उन्होंने भारतीय मज़दूरों को बुर्जुआ शासन से मुक्त कराने का अभियान क़रार दिया था और 2007 में भी उन्होंने अरुणाचल प्रदेश पर चीन के दावे को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की है। तो ऐसे देशद्रोहियों से भारत की लाइफलाइन पर कोई नज़रिया रखने की उम्मीद करना भी व्यर्थ है। दूसरा नज़रिया धर्म को भारत की लाइफलाइन मानता है। इस नज़रिये के सबसे मुखर प्रवक्ता महात्मा गांधी थे, जिन्होंने साफ कहा था कि धर्मविहीन राजनीति उनके लिए बेकार है। भारतीय समाज को भारतीय नज़रिये से पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि इस देश में सामाजिक सुधारों को सफल करने के लिए धर्म का आधार कितना ज़रूरी है।

चौथा मुद्दा है संस्कृति का। पहला नज़रिया मानता है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति है ही नहीं। ये दरअसल कई संस्कृतियों का मिश्रण है। इसी नज़रिये ने पाकिस्तान बनने का वैचारिक आधार तैयार किया था। दूसरा नज़रिया मानता है कि भारत की एक ही संस्कृति है, जिसे हिंदू संस्कृति कहा जा सकता है। बाकी सभी उप संस्कृतियां है जो हिंदू संस्कृति को पूर्ण बनाती हैं। इसे ठीक से समझने के लिए इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम बहुल देश (85% जनसंख्या) का उदाहरण दिया जा सकता है, जहां रामलीला एक राष्ट्रीय आयोजन है, जहां के सरकारी विमान सेवा का नाम गरुड़ है और जहां की एक पूर्व मुस्लिम राष्ट्रपति का नाम मेगावती सुकर्णोपुत्री है। साफ है कि हिंदू संस्कृति कभी किसी जातीय या मजहबी पहचान और पूजा पद्धति की विरोधी नहीं हो सकती। ये तो सबको अपने आप में समेट लेने वाली संस्कृति है।

ऐसे और कई छोटे-बड़े मुद्दे हैं जिनमें से सभी पर दोनों नज़रियों की चर्चा की जा सकती है। आप खुद सोचें। 6 दिसंबर की घटना को सही या ग़लत मानने के लिए दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं जिन्हें पिछले 15 सालों में आपने पता नहीं कितनी बार सुना होगा। इसलिए उन्हें एक बार फिर यहां दुहराना बेकार है। इन दोनों में से पहला नज़रिया इसे काला दिवस मानता है तो दूसरा शौर्य दिवस। आप ख़ुद को किस नज़रिए के धरातल पर खड़ा देखते हैं, इसी से 6 दिसंबर के प्रति आपका नज़रिया भी तय होगा।

मंगलवार, 4 दिसंबर 2007

'गेट वेल सून' मिस्टर रामादौस


एम्स के डायरेक्टर पी वेणुगोपाल को आखिरकार स्वास्थ्य मंत्री अंबुमणि रामादौस ने धोबीपाट दे ही दिया। लेकिन क्या सच में ये रामादौस या उनकी यूपीए सरकार के लिए जश्न लायक जीत है। कौन जाने, शायद इस सरकार को ऐसा लगता भी हो, लेकिन मुझे तो लगता है कि ये इस सरकार के लिए शर्म है। 110 करोड़ लोगों की सरकार और उसका सर्वशक्तिमान स्वास्थ्य मंत्री- पिछले साल भर से एक अस्पताल के डायरेक्टर को निपटाने में लगे थे। जैसे रामादौस ने इस देश की करोड़ों जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने के लिए नहीं बल्कि एम्स को एक नया डायरेक्टर देने के लिए ही स्वास्थ्य मंत्रालय की कमान संभाली हो।

5 सांसदों की पार्टी के इस मंत्री से उच्चतम न्यायालय ने जो सवाल पूछा है, दरअसल वो पूरे देश (उन लोगों को छोड़कर, जिन्होंने अपनी निष्ठा किसी एक पार्टी के पास गिरवी रख दी है) का सवाल है। क्या डॉक्टर वेणुगोपाल जैसे वरिष्ठ और सम्माननीय व्यक्ति के साथ ऐसा ही व्यवहार किया जाना चाहिए? एमबीबीएस की डिग्री का तमगा लगाकर स्वास्थ्य मंत्री बने रामादौस को अगर योग्यता और अनुभव की कसौटी पर कसा जाए तो वे डॉ. वेणुगोपाल के सामने दो कौड़ी के भी नहीं ठहरेंगे। लेकिन जिस तरह का निर्लज्ज व्यवहार उन्होंने और उनकी धृतराष्ट्र सरकार ने डॉ. वेणुगोपाल के साथ किया है, वो योग्यता और प्रतिभा के प्रति इस सरकार की मनोवृत्ति की सही तस्वीर पेश करता है। एम्स के डॉक्टरों ने डॉ. वेणुगोपाल के प्रति जो समर्थन दिखाया, वो केवल अपने किसी वरिष्ठ अधिकारी की चापलूसी नहीं हो सकता। खासतौर पर तब जबकि नए डायरेक्टर के पद संभालने के बाद भी डॉक्टरों का ये विरोध प्रदर्शन जारी रहा। डॉक्टर वेणुगोपाल ने खुद डॉक्टरों से काम पर लौटने की अपील की, तब जाकर एम्स का कामकाज सामान्य हुआ। इस बीच जो एक घटना कहीं ख़बरों में नहीं आई, वो थी पिछले रविवार को एम्स में ओपीडी का कामकाज होना। मैं सोमवार को एम्स गया था और मैंने जगह-जगह पोस्टर चिपका देखा जिसमें कहा गया था कि डॉक्टर वेणुगोपाल को हटाने के खिलाफ विरोध स्वरूप डॉक्टर रिवर्स स्ट्राइक करेंगे और इसलिए रविवार को ओपीडी का कामकाज आम दिनों की तरह किया जाएगा। साफ है कि पूर्व डायरेक्टर के प्रति एम्स के डॉक्टरों का प्रेम और समर्थन, डॉक्टर वेणुगोपाल के ईमानदार और योग्य प्रशासन की ही एक बानगी है।

मुंबई में एक अन्य मामले में रामादौस के फैसले का विरोध कर रहे डॉक्टरों ने उनकी तस्वीर के आगे फूल रखकर उन्हें 'गेट वेल सून' का संदेश भेजा। वो मामला भले ही एमबीबीएस का कोर्स 6 साल करने के विरोध का हो, लेकिन वेणुगोपाल मामले में अपनी करनी से रामादौस ने साबित कर दिया है कि वो वास्तव में मानसिक तौर पर बीमार हैं और पूरे देश की जनता को अपने स्वास्थ्य मंत्री के लिए यही प्रार्थना करने की ज़रूरत है कि मिस्टर रामादौस 'गेट वेल सून'।

शनिवार, 1 दिसंबर 2007

मलेशियाई हिंदुओं के तीन विकल्प

मलेशिया में लगभग 150 सालों से रह रहा हिंदू समाज आज अपने अस्तित्व की लड़ाई लड़ रहा है और इस लड़ाई में बड़ी उम्मीदों से अपनी पितृभूमि की ओर देख रहा है। मलेशिया की 2.8 करोड़ जनसंख्या में क़रीब 8% यानी 17 लाख हिंदू रहते हैं, जिन्हें लगभग डेढ़ शताब्दी पहले अंग्रेज ग़ुलाम बना कर ले गए थे। इस आबादी का 80% तमिल हिंदू हैं। इसलिए स्वाभाविक तौर पर तमिलनाडु के मुख्यमंत्री एम करुणानिधि ने प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह से इस मामले में हस्तक्षेप की गुज़ारिश की है। लेकिन एम करुणानिधि की चिंता पर मलेशिया के मंत्री नजरी आजिज ने जो प्रतिक्रिया दी वह अपने आप में स्थिति की विकरालता दिखाता है। आजिज ने कहा,'यह मलेशिया है, तमिलनाडु नहीं। यहां के मसलों से उनका कोई लेना-देना नहीं है। वह अपने काम से काम रखें।'

मलेशिया में हिंदुओं के हक़ की लड़ाई लड़ रहे हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स का आरोप है कि पिछले कुछ महीनों में वहां लगभग 10,000 मंदिरों को ज़मींदोज कर दिया गया है। सरकार का कहना है कि वे मंदिर सरकारी ज़मीन पर बने हुए थे और इसलिए अवैध थे। लेकिन मलेशियाई सरकार के अकेले हिंदू मंत्री दातुक सेरी सम्य वेल्लु का कहना है कि क्योंकि वहां हिंदुओं को ज़मीन के अधिकार ही नहीं हैं, इसीलिए मंदिर सरकारी ज़मीन पर बने हैं। लेकिन सवाल केवल मंदिर का नहीं है। मलेशिया में हिंदुओं के लिए स्थिति दिनोंदिन ख़तरनाक होती जा रही है। कुछ संवाददाताओं ने जब मलेशिया की राजधानी कुआलालम्पुर में बसे हिंदुओं से उनकी हालत के बारे में बात करने की कोशिश की, तो खौफ का आलम ये था कि कोई अपना नाम तक नहीं बताना चाहता था। मलेशियाई हिंदुओं के हीरो और एवरेस्ट फतह करने वाले पहले मलेशियाई मण्यम मूर्ति को सरकारी दस्तावेजों में इस्लाम अपनाया हुआ दिखाया गया और 20 दिसंबर 2005 को जब उनकी मौत हुई तो उनकी पत्नी के विरोध के बावजूद उन्हें दफना दिया गया। ये एक उदाहरण है कि मलेशियाई हिंदुओं की संस्कृति और पहचान पर किस हद तक ख़तरा गहरा गया है। तुर्रा ये कि अपने धर्म और संस्कृति पर हमला करने वालों के खिलाफ आवाज़ उठाने वाले हिंदुओं को सरकार के मंत्री और अधिकारी सीधे तौर पर कह रहे हैं कि अगर यहां परेशानी है, तो भारत जाओ।

हिंदू राइट्स एक्शन फोर्स ने लंदन की अदालत में एक मुकदमा दायर कर हिंदुओं की दुर्दशा के लिए ब्रिटेन को दोषी ठहराया है और इसके लिए 40 खरब डॉलर के मुआवजे का दावा किया है। 25 दिसंबर को जब इसी मुद्दे पर हिंदुओं ने शांतिपूर्ण प्रदर्शन की घोषणा की तो मलेशियाई सरकार ने उसे अवैध क़रार दिया और प्रधानमंत्री अहमद बदावी ने हिंदुओं के खिलाफ राष्ट्रीय सुरक्षा कानून लागू करने की धमकी दी। प्रदर्शन के शांतिपूर्ण चरित्र पर ज़ोर देने के लिए प्रदर्शनकारियों ने गांधी जी की तस्वीरें ले रखी थीं लेकिन वहां भीड़ पर आंसू गैस छोड़े गए और लाठियां भांजी गईं। लगभग 500 लोगों को गिरफ्तार किया गया, जिनमें से 300 लोगों का आज तक पता नहीं है।

मलेशिया में 60% जनसंख्या मुसलमानों की है और 24% चीन मूल के लोग हैं। भारतीयों की संख्या 8% है और उनकी स्थिति तीसरे दर्जे के नागरिक की हो गई है। सरकार दिखाने भर को भी सही, हिंदुओं के संरक्षण की बात नहीं कह रही। यानी साफ है कि हिंदुओं के पास केवल तीन विकल्प हैं, या तो वे पीढ़ियों से अपने पुरखों की जमी-जमाई जड़ छोड़ कर भारत में शरणार्थी हो जाएं, या मलेशियाई बहुसंख्यक मुसलमानों के जाल में फंस कर इस्लाम ग्रहण कर लें या फिर श्रीलंका के तमिलों की तरह सशस्त्र आतंकवाद का रास्ता अपनाएं। मलेशियाई हिंदू चाहे जो भी रास्ता अपनाएं, भारत उनके प्रति अपनी नैतिक और सांस्कृतिक ज़िम्मेदारी से मुंह नहीं मोड़ सकता।

लाशों की ढेर पर नंबर वन का तमगा

बधाई हो। जनसंख्या के मामले में तो हम चीन को पीछे छोड़ने जा ही रहे हैं, अब एक और मोर्चे पर हमने चीन को पीट दिया है। जी हां, पिछले साल यानी 2006 में हम सड़क दुर्घटनाओं में मरने वाले लोगों की संख्या के हिसाब से पहले नंबर पर पहुंचने जा रहे हैं। हमने चीन को दूसरे स्थान पर धकेल दिया है।

सड़क दुर्घटनाओं की बात उठते ही सबसे पहले ध्यान आता है विकास। 'समाजवादी' आर्थिक विकास ने हमारे यहां निजी गाड़ियों की संख्या जो बढ़ा दी है। तो दुर्घटनाएं भी होंगी। लेकिन ठहरिए। 2005 के मुकाबले चीन में सड़क दुर्घटनाएं भले ही 9.4% गिरी हों, लेकिन वहां निजी गाड़ियों की संख्या में 18.8% का इज़ाफा हुआ है। 2005 में चीन में सड़क पर मरने वालों की संख्या 98,738 थी, जबकि हम 96 हज़ार से ज़्यादा लाशों के साथ दूसरे नंबर पर थे। भारत के 2006 के आंकड़े अभी आए नहीं है। चीन में ये संख्या 9.4% गिरकर 89,455 रह गई है, जबकि अनुमान है कि हमारी सड़कों पर 2006 में मरने वालों की संख्या 1 लाख का आंकड़ा पार कर गई है।

दरअसल हम और हमारी सरकार, सबने सड़क दुर्घटनाओं को व्यक्तिगत समस्या मान लिया है। सड़क पर हुई हर मौत की समीक्षा ड्राइवरों की लापरवाही या ज़्यादा से ज़्यादा गाड़ियों की तकनीकी गड़बड़ी की चर्चा तक ही सीमित रह जाती है। लेकिन चीन या दुनिया के दूसरे विकसित देशों में सड़क दुर्घटनाओं को कम करने पर लगातार शोध हो रहे हैं। नई-नई तकनीकें विकसित की जा रही हैं और उन्हें सड़कों पर उतारा जा रहा है। जबकि हमारे यहां...जहाजरानी, सड़क परिवहन और हाइवे मंत्रालय ने सड़क दुर्घटनाओं पर आखिरी बार शोध 1995 में करवाया था। तब से सड़क दुर्घटनाओं की संख्या दोगुनी हो चुकी है।

पिछले कुछ महीनों में दिल्ली में ब्लू लाइन बसों की चपेट आकर मरने वालों की संख्या 100 से ज़्यादा होने और पूरे मामले पर मीडिया के अभियान छेड़ने के बावजूद इस मसले पर सरकार का जो रुख़ हमने देखा है, वो एक बार फिर केवल और केवल यही दिखाता है कि आम आदमी की जान हमारी सरकारों के लिए कितनी सस्ती है। फरवरी 2007 में सुंदर कमेटी ने रोड सेफ्टी पर अपनी रिपोर्ट पेश की थी, लेकिन उसके बाद के 10 महीनों में रिपोर्ट पर बैठकों के अलावा कुछ नहीं किया गया।

यानी सरकार के लिए सड़कों पर हो रही मौतें प्राथमिकता सूची में सबसे आखिरी में है, या शायद है ही नहीं। फिर तो एक ही रास्ता बचता है कि हम इस सरकार की पीठ ठोंके और कहें,"बधाई हो, चीन को पीछे छोड़ कर हम नंबर वन हो गए हैं, क्या हुआ जो ये तमगा लाशों की ढेर पर मिला हो।"