इसाइयों पर हो रहे हमले से संबंधित मेरे लेख पर अनिल जी की टिप्पणी मुझे कुछ लिखने को प्रेरित कर ही रही थी कि उस पर संजय भाई की प्रति टिप्पणी भी आ गई। अनिल जी ने नक्सली समस्या से जुड़ी दो टिप्पणियां की हैं, जो दरअसल अपने आप में ही विरोधाभासी हैं। नक्सली समस्या वास्तव में मुझे हमेशा से मथती रही है और जब अनिल जी ने विषय छेड़ ही दिया है तो सोचता हूं, इस पर थोड़ी चर्चा हो जाए। मैं अनिल जी की इस राय से तो बिल्कुल सहमत हूं कि नक्सली समस्या का मूल नागर समाज का आदिवासी समाज के प्रति असंवेदनशील नज़रिया और इन क्षेत्रों के प्रति सरकार और प्रशासन का बर्बर रवैया है, लेकिन इस बात से बिलकुल असहमत हूं कि नक्सली उन्हें उनके असली हक़ से परिचित करा रहे हैं। नक्सली समस्या की जटिलता ही है कि अनिल जी जैसे अनुभवी और सुलझे हुए पत्रकार भी इस मसले पर एक वैचारिक द्वंद्व से गुज़र रहे हैं। तभी तो आप भी स्वीकार कर रहे हैं कि "नक्सली भी उन्हें (आदिवासियों को) अपनी तोप के बारूद के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं।"
हो सकता है कि नक्सलियों की लड़ाई आदिवासी समाज के हक़ के नाम पर शुरू होती हो, लेकिन उनका तौर-तरीक़ा क्या वास्तव में किसी को न्याय दिला सकता है। क्या खालिस्तान और कश्मीर के आतंकवाद भी जनांदोलनों की तरह शुरू नहीं हुए थे। क्या हमें पता नहीं कि पंजाब में सिख और कश्मीर में मुसलमान ही इन कथित जनांदलोनों का चारा बने हैं और बन रहे हैं। 'आजादी के लड़ाके' अपने ही 'हमवतनों' के घर रात का खाना खाते हैं, घर की बेटियों का बलात्कार करते हैं, रात भर आराम करते हैं और फिर सुबह आज़ादी के नारे लगाते हुए चले जाते हैं। नक्सली आतंकवाद भी नारों से आगे बढ़कर जब ज़मीन पर उतरता है तो उसे ईंधन के तौर पर उन्हीं आदिवासियों का खून चाहिए होता है, जिनके हक़ की लड़ाई लड़ने का वो दावा कर रहे होते हैं।
इस बात पर बहस लगातार होती रहती है कि नक्सली समस्या का चरित्र सामाजिक है या कानून व्यवस्था से जुड़ा हुआ। सर्वहारा और प्रगतिशील वर्गों के स्वघोषित प्रतिनिधि नक्सलियों को ग़रीबों का रॉबिन हुड प्रमाणित कर इसे सामाजिक समस्या बताते हैं और पुलिस के आधुनिकीकरण और बल प्रयोग को नाजायज़ ठहराते हैं। लेकिन उनके पास इस बात का जवाब नहीं है कि अगर हथियारों से लैस नक्सलियों को अपने हिसाब से सही और ग़लत का फैसला कर जन अदालतों में लोगों के कान काटने, बेंत से मारने या हत्या करने का अधिकार है तो फिर देश में सरकार और प्रशासन की ज़रूरत ही क्या है। क्या हम सब पढ़े-लिखे और ख़ुद को समाज का सबसे जागरुक हिस्सा मानने वाले लोग कभी न कभी पुलिस और सरकारी तंत्र की ज़्यादती और भ्रष्टाचार का शिकार नहीं हुए हैं। तो क्या हम सबको ये अधिकार है कि ट्रेन में बर्थ देने के लिए घूस मांगने वाले टीटीई को या एफ़आईआर दर्ज़ करने में आनाकानी कर रहे हवलदार को या फिर कॉलेज में अपनी जन्मतिथि में हुई गड़बड़ी को ठीक कराने के लिए 15 दिनों से यहां-वहां दौड़ाने वाले क्लर्क के हाथ काट लें, जूतों से उसकी मरम्मत कर दें या फिर उसे गोली मार दें।
चोरी, डकैती और हत्या जैसे अपराध भी अपने मूल रूप में तो सामाजिक समस्या ही होते हैं। लेकिन यही अपराध हो जाने के बाद कानून-व्यवस्था का मसला बन जाते हैं। इसे इस तरह से समझा जा सकता है कि कोई भी अपराध एक कीड़े की तरह है, जो समाज की गंदी नाली से निकलता है, लेकिन जब एक बार ये कीड़ा निकल जाता है तो फिर इसे मारने के लिए कीटनाशक का ही इस्तेमाल करना पड़ता है न। अब अगर आप शहर के नालों में गंदगी का अंबार लगाते जाएं तो उससे निकलने वाले कीड़ों की संख्या भी बढ़ती जाएगी और इन बढ़ते हुए कीड़ों को मारने के लिए अगर हम कीटनाशकों का इस्तेमाल बढ़ाते जाएंगे तो एक समय ऐसा भी आएगा, जब कीटनाशकों का ज़हर हमारी भी बलि लेने लगेगा। मेरे विचार से नक्सल समस्या का समाधान भी कुछ इसी तरह ढूंढना पड़ेगा। एक ओर तो तंत्र की उस असंवेदनशीलता और भ्रष्टाचार को मिटाना होगा जहां से नक्सलियों को ऑक्सीजन मिलता है, दूसरी ओर गंदगी से पहले ही पैदा हो चुके कीड़ों को कुचलने के लिए पुलिस बल को अत्याधुनिक बनाना होगा और ज़रूरत पड़ी तो कुछ नए कानून बनाने होंगे। यहां एक बात ये भी समझने की है कि भले ही नक्सलियों की भीड़ हज़ारों में हो, लेकिन कुचले जाने लायक कीड़े चंद मुट्ठी भर ही हैं। उनकी सही पहचान ज़रूरी है। आर्थिक या सामाजिक कारणों से उस भीड़ में शामिल भोले-भाले आदिवासियों और किसानों को सम्मानपूर्वक वापसी का मौका दिया जाना चाहिए, लेकिन उनके उन नेताओं को सख्ती से कुचलना होगा जो ग़रीबों-मज़लूमों के हक़ के नाम पर आईएसआई और दूसरी विदेशी ताक़तों के हाथों में खेल रहे हैं और पशुपति से तिरुपति तक एक लाल पट्टी बनाकर देश के टुकड़े करने के सपने देख रहे हैं।
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