गुरुवार, 29 नवंबर 2007

पाकिस्तान में करवट लेती राजनीति के भारतीय मायने


पाकिस्तान की राजनीति फिर करवट ले रही है। क्योंकि हम चाहकर भी अपना भूगोल नहीं बदल सकते, इसलिए इस नए करवट की सिलवटों को ग़ौर से परखना हमारी मज़बूरी है। पाकिस्तान में भारत के हित दो तरह से हैं। पहला तो सीधे तौर पर पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति है और दूसरा पाकिस्तान में आंतरिक तौर पर मज़बूत होता कट्टरवाद है। पहली नज़र में देखने पर दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू दिखते हैं, लेकिन वास्तव में ऐसा है नहीं।

मेरा सुविचारित मत है कि पाकिस्तान की भारत विरोधी नीति उसके राष्ट्रीय जीवन का आधार है और इसीलिए इस मामले पर मेरे बहुत ही दकियानूसी और पिछड़े विचार ये हैं कि भारत और पाकिस्तान में कभी सौहार्द्र या प्रेम नहीं हो सकता। पाकिस्तान के जन्म का आधार ही भारत से नफरत है, और अगर ये आधार ख़त्म हो जाए तो पाकिस्तान के अलग वजूद का कोई तार्किक आधार ही नहीं बचेगा। तो इसलिए पाकिस्तान की राजनीति किसी भी करवट बैठे, इस मोर्चे पर राहत की उम्मीद मासूम नासमझी ही होगी। वैसे भी हमें ये नहीं भूलना चाहिए कि पाकिस्तान के नए सेनाध्यक्ष जनरल अशफाक़ परवेज़ कयानी 90 के दशक के मध्य से ही भारत के खिलाफ आतंकवाद की नीति के सूत्रधार रहे हैं। संसद पर हुए आतंकवादी हमलों के बाद जब सीमा पर तनाव बढ़ा था, उस समय भी पाकिस्तानी मोर्चे का नेतृत्व जनरल कयानी ही कर रहे थे। जनरल कयानी अक्टूबर 2004 के बाद से ही आईएसआई के मुखिया रहे हैं, इसलिए ये मानने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए कि पिछले तीन साल में भारत में हुआ हर आतंकवादी हमला प्रत्यक्ष या परोक्ष तौर पर कयानी के टेबल पर ही तय हुआ होगा। ऐसे में जनरल कयानी के नए सेनाध्यक्ष बनने से भारत के लिए उम्मीद की कोई किरण नज़र नहीं आती। वैसे भी सेना पिछले छह दशकों से पाकिस्तान की भाग्यनियंता और निर्विवाद शक्ति स्रोत बनी रही है और सेना का राजनीतिक रुतबा कायम रहने के लिए बहुत ज़रूरी है कि भारत के साथ पाकिस्तान के संबंध ज़हरीले बने रहें। इसलिए सेना का कोई भी जनरल भारत के साथ संबंधों में मधुरता आने देने का ख़तरा नहीं उठा सकता।

दूसरा मसला है पाकिस्तान में मज़बूत होते आंतरिक कट्टरवाद का। आतंकवाद के खिलाफ अमेरिका की कथित लड़ाई में बढ़-चढ़ कर उत्साह दिखाने के कारण मुशर्रफ पहले ही तालिबान और अल क़ायदा से प्रेरित कट्टरपंथियों की आंखों के किरकिरी बने हुए हैं। यहां तक कि सेना के कुछ अधिकारी भी मुशर्रफ की अमेरिकापरस्ती के खिलाफ विद्रोह और मुशर्रफ की हत्या की योजना बनाते पकड़े गए थे। ऐसे में अब तक लगातार ये डर बना हुआ था कि यदि किसी दिन मियां मुशर्रफ की हत्या कर कट्टरपंथियों ने परमाणु शक्ति संपन्न पाकिस्तान की सत्ता अपने हाथ में ले ली, तो ये भारत के लिए भयंकर तबाही का सबब बन सकता है। अब जबकि सेना का नियंत्रण जनरल कयानी के हाथ में है तो मुशर्रफ की हत्या होने की स्थिति में भी पाकिस्तान का नियंत्रण कट्टरपंथियों के हाथ में नहीं जाएगा, ये उम्मीद की जा सकती है। जनरल कयानी ने तालिबान के खिलाफ कार्रवाई में जो रफ्तार दिखाई है, उसी कारण अमेरिका भी उनसे प्रसन्न है। कुछ लोगों का तो यहां तक मानना है कि कयानी का चुनाव भी अमेरिका ने ही किया है। तो इस लिहाज से पाकिस्तानी राजनीति का हालिया करवट ज़रूर भारत को कुछ राहत दे सकता है क्योंकि मुशर्रफ या कयानी का नियंत्रण अमेरिका के हाथ में ही सही, कहीं तो है। तालिबान या अल क़ायदा के नियंत्रण वाली पाकिस्तानी सरकार की कल्पना भी हमारे रोंगटे खड़ी कर देती है।

ये अलग बात है कि मुशर्रफ के दिन अब गिने-चुने ही लग रहे हैं। कहा जा रहा है कि जनरल कयानी एक गैर राजनीतिक और पेशेवर सैनिक हैं। लेकिन मुख्य न्यायाधीश इफ्तिख़ार चौधरी के खिलाफ मुशर्रफ के अभियान में जब मिलिट्री इंटेलीजेंस और इंटेलीजेंस ब्यूरो के प्रमुख अपनी वफादारी का प्रदर्शन करते अघा नहीं रहे थे, उसी समय आईएसआई प्रमुख के तौर पर जनरल कयानी ने कोई ख़ास हरकत नहीं दिखाई। मार्च 2007 में भी कयानी एकमात्र इंटेलीजेंस चीफ थे, जिन्होंने इफ्तिखार चौधरी के खिलाफ हलफनामा दाखिल नहीं किया था। साफ है कि मुशर्रफ को कयानी का समर्थन केवल तभी तक मिल सकेगा, जब तक राष्ट्रपति के कार्यकलाप कयानी के हिसाब से पाकिस्तान के अनुकूल हों। फिर कयानी कब तक नीति निर्माण में हस्तक्षेप का लोभ संवरण कर पाएंगे, ये भी देखने वाली बात होगी। ये सही है कि कयानी मुशर्रफ के प्रिय और विश्वासपात्र हैं, लेकिन क्या ये भी सही नहीं है कि मुशर्रफ भी कभी नवाज़ शरीफ़ के प्रिय और विश्वासपात्र हुआ करते थे और नवाज़ ने कुछ सेना अधिकारियों की वरीयता का उल्लंघन करते हुए ही मुशर्रफ को सेनाध्यक्ष का ताज पहनाया था।

बुधवार, 28 नवंबर 2007

न्यायपालिका को जवाबदेह बनाना ज़रूरी तो है, लेकिन....


भारतीय लोकतंत्र के मंदिर यानी संसद में हल्ला-गुल्ला, जूतमपैजार, गाली-गलौच करते जनप्रतिनिधि अब किसी को चौंकाते नहीं। लेकिन यदि अगर किसी एक मुद्दे पर सभी दलों के सांसद एक सुर में बोलना शुरू कर दें, तो मन में किसी अनिष्ट की आशंका घर करने लगती है। क्या विडंबना है न! पता नहीं आप मेरी राय से सहमत होंगे या नहीं, लेकिन जैसे ही किसी एक मुद्दे पर सब में आम सहमति बन जाती है, मुझे लगता है जैसे ज़रूर देश का आम आदमी कुछ और असुरक्षित, कुछ और ग़रीब होने जा रहा है। नया मुद्दा है जजों की ईमानदारी सुनिश्चित करने का। शरद यादव ने सदन में सवाल उठाया है कि अगर राजनेताओं और सरकारी नौकरों पर किसी भी आरोप में तुरंत जांच हो सकती है, तो फिर न्यायाधीशों की जांच क्यों नहीं होनी चाहिए।

मामला पूर्व मुख्य न्यायाधीश वाई के सब्बरवाल को लेकर उठा है। दिल्ली में अवैध निर्माण के खिलाफ छेड़े गए जस्टिस सब्बरवाल के अभियान को कई लोग दबी जुबान में ही सही, लेकिन अपने बिल्डर बेटे को फायदा पहुंचाने की कोशिशों का हिस्सा देखते हैं। हम भूले नहीं हैं कि जस्टिस सब्बरवाल पर इसी तरह के आरोप लगाने वाले मिड-डे के तीन पत्रकारों को अदालत की अवमानना के आरोप में तीन-तीन महीने जेल की सज़ा हुई थी। कहा जा रहा है कि सब्बरवाल के बेटे की संपत्ति कोई 200 करोड़ रुपये है। शरद यादव ने शून्य काल में मुद्दा उठाया और राज्य सभा के उपसभापति ने उन्हे ऐसा करने से रोकने की कोशिश भी की, लेकिन सभी सांसदों ने पार्टी लाइन से हटकर उनका ज़बर्दस्त समर्थन किया। न्यायाधीशों पर लगे आरोपों की जांच के लिए प्रस्तावित जज इंक्वायरी कमेटी के जल्दी गठन की भी मांग की गई।

देश के मुख्य न्यायाधीश पर लगे बेईमानी के आरोप वास्तव में गंभीर हैं। ये तर्क भी सही है कि लोकतंत्र में न्यायाधीश जैसी महत्वपूर्ण कुर्सी पर बैठे व्यक्ति पर कोई अंकुश क्यों नहीं होना चाहिए। शंका होती है तो सिर्फ ये कि शरद यादव या उनके जैसे माननीय सांसद कब से भ्रष्टाचार से आहत होने लगे। कहीं ये न्यायपालिका को नियंत्रित करने की कोई नई कोशिश तो नहीं? हो सकता है, लेकिन फिर भी न्यायपालिका को जवाबदेह बनाने की ज़रूरत अपनी जगह सही है। चुनौती होगी उस जवाबदेही को ईमानदार रखने की। आज की तारीख में देश की हर संस्था आस्था के संकट से गुज़र रही है। चुनाव आयोग जैसी स्वायत्त संस्था को वर्तमान यूपीए सरकार ने किस तरह अपना पालतू बनाने की कोशिश की है, ये पूरा देश देख चुका है। स्वास्थ्य मंत्री रामादौस ने अपने अहंकार की लड़ाई में एम्स जैसी संस्था का जो कबाड़ा किया है, ये भी पूरा देश देख रहा है और किरण बेदी जैसी ईमानदार पुलिस अधिकारी को किस तरह सेवा छोड़ने के लिए मज़बूर कर दिया गया, ये भी पूरा देश देख रहा है। इसलिए ये फैसला वास्तव में कठिन है कि न्यायपालिका को जवाबदेह बनाने की संसद की मंशा का समर्थन किया जाए या विरोध। क्योंकि ये जवाबदेही ज़रूरी तो है, लेकिन क्या जवाबदेही तय करने वाले खुद जनता के प्रति अपनी जवाबदेही पर खरा उतर पाए हैं?

सोमवार, 26 नवंबर 2007

क्या तसलीमा और फिदा हुसैन एक समान हैं

एनडीटीवी के 'वी द पीपुल' कार्यक्रम में बहस चल रही थी तसलीमा नसरीन को पश्चिम बंगाल से बाहर किए जाने और फिर राजस्थान सरकार के उन्हें शरण देने पर। बरखा दत्त वामपंथी सरकार के इस कृत्य से बहुत दुखी थीं। लेकिन केवल वामपंथ या वामपंथियों की आलोचना करना बड़े खतरे का काम है। आपको तुरंत भाजपाई या संघी क़रार दिया जाएगा। इसलिए अगर आपको वामपंथियों की निंदा करनी है और इस बात की भी चिंता है कि कहीं आप पर फासिस्ट (संघ वालों के लिए वामपंथियों का प्रिय विशेषण) या साम्प्रदायिक होने की मुहर न लगा दी जाए,तो पहले दो गालियां भाजपा और संघ को दीजिए और फिर वामपंथियों के बारे में कुछ कहिए। तो बरखा जी ने बुद्धदेव सरकार के तसलीमा नसरीन को राज्य से बाहर किए जाने की निंदा करते हुए कहा कि अब वही भाजपा तसलीमा को शरण देने की बात कर रही है जो मक़बूल फिदा हुसैन का विरोध करती रही है।

बरखा दत्त ने तो अपने और अपने चैनल को साम्प्रदायिक कहे जाने के ख़तरे से बचा लिया, लेकिन मेरे मन में कल से ही उनकी राय पर विचार चल रहा था। क्या सच में मक़बूल फिदा हुसैन और तसलीमा नसरीन एक ही सिक्के के दो पहलू हैं? क्या सच में मक़बूल को भ्रष्ट और सनकी मानने वाले हर व्यक्ति का ये नैतिक कर्तव्य है कि वो तसलीमा के खिलाफ सड़क पर उतर आए? खुद को फासिस्ट कहे जाने का ख़तरा उठाते हुए भी मैं ये सवाल आपके सामने रख रहा हूं।

मक़बूल फिदा हुसैन आस्था के लिहाज़ से एक मुसलमान हैं। उन्होंने कुरान पढ़ा होगा, लेकिन क्या वे दावा करते हैं कि रामायण, महाभारत, श्रीमद्भगवद्गगीता पढ़ी है। अगर पढ़ी है या नहीं भी पढ़ी है, तो क्या इन ग्रन्थों और उनके नायकों में उनकी आस्था है? अगर है, तो फिर उन्हें हिंदू होना चाहिए जो वे नहीं हैं। यानी कि उन्होंने ये ग्रंथ पढ़े नहीं हैं या फिर अगर पढ़े हैं तो उनकी आस्था उनमें जमी नहीं है। तो फिर करोड़ों लोगों की श्रद्धा के केन्द्र जिन ग्रंथों या नायकों में उनकी आस्था नहीं है, उनके साथ प्रयोग करने का उन्हें क्या अधिकार है? वे सरस्वती की निर्वस्त्र तस्वीर बनाते हैं, मुहम्मद साहब की तस्वीर क्यों नहीं बनाते? जिस भारत को वे पूजने के लिए मां नहीं मानते, उसे नग्न करने के लिए नारी मानने में उन्हें मज़ा आता है। क्या इससे साबित नहीं होता कि वे मानसिक रूप से बीमार और सामाजिक रूप से ज़हरीले हैं और ऐसे लोगों का जिस भी तरीक़े से हो सके, विरोध किया जाना चाहिए।

अब आइए तसलीमा नसरीन का अपराध देखें। तसलीमा मूल रूप से बंगलादेश की नागरिक हैं। लेकिन उन्हें अपना देश छोड़ना पड़ा। इसलिए नहीं कि उन्होंने इस्लाम का अपमान किया था, बल्कि इसलिए कि उन्होंने 1992 में बाबरी ढांचा ढहाए जाने के बाद बंगलादेश में हिंदुओं पर हुए अत्याचार पर एक क़िताब लिख डाली थी। इसके बाद भी उनकी जितनी किताबों पर हंगामा हुआ, उनमें से किसी में भी उन्होंने इस्लाम पर प्रहार नहीं किया। कठमुल्ले उनके पीछे इसलिए पड़े कि उन्होंने एक मुस्लिम महिला होने के बावजूद अपने यौन जीवन पर खुलकर लिखा। अगर कोई केवल अपनी सनक और स्वार्थ के कारण तसलीमा का विरोध कर रहा है, तो क्यों कुछ कठमुल्लों के विरोध से पूरी सरकार को घुटनों पर आ जाना चाहिए। हां, यदि तसलीमा की जगह मामला सलमान रश्दी को शरण देने का होता, तो ज़रूर भाजपाई उत्साह को दोमुंहापन कहा जा सकता था। लेकिन फिलहाल तो मुझे ये अपनी वैचारिक प्रतिबद्धता और अपने प्रगतिशील तमगे के बीच संतुलन बिठाते एक वामपंथी पत्रकार का दोमुंहापन ही समझ में आ रहा है।

शनिवार, 24 नवंबर 2007

आइए एक नया वोट बैंक बनाएं


लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में हुए बम विस्फोटों में क़रीब 20 लोग मारे गए। भले ही 20 परिवारों की ज़िंदगी में अंधेरा छा गया हो, लेकिन अपन तो खुश हैं। आप भी खुश हो जाइए। हम सुरक्षित हैं, आप सुरक्षित हैं। अगले 3-4 महीनों के लिए हम सब को जीवनदान मिल गया है। क्योंकि आम तौर एक धमाके के बाद 3-4 महीने तो शांति रहती ही है। क्या हुआ जो 3-4 महीने बाद फिर हम करोड़ों लोगों में से 50, 100 या 200 के परिवारों पर कहर टूटेगा। बाकी तो बचे रहेंगे। दरअसल सरकार का गणित यही है। हमारे पास मरने के लिए बहुत लोग हैं। चिंता क्या है। नपुंसक सरकार की प्रजा होने का यह सही दंड है। मुंबई के सीरियल ट्रेन धमाकों से जो कहानी शुरू हुई थी, उसमें एक कड़ी आज के सीरियल धमाकों ने भी जोड़ दिया है। लेकिन जो सबसे आश्चर्यजनक बात है, वो ये कि पिछले साढ़े तीन साल में हुए दसियों आतंकवादी हमलों और बम विस्फोटों में से किसी की भी जांच आज तक पूरी नहीं हुई। हमें नहीं मालूम कि सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले इन विस्फोटों की जांच कहां तक पहुंची है। कितनी फाइलें बंद हो गईं और उनका निष्कर्ष क्या निकला। उनमें किन लोगों की गिरफ्तारियां हुईं और अभी उनके मुकदमे किन चरणों पर हैं। पूरी दुनिया में आतंकवादियों को इससे सुरक्षित ज़मीन कहां मिलेगी। सच मानिए, ये हमले अभी बंद नहीं होंगे और कभी बंद नहीं होंगे। क्योंकि हमारी सरकार आतंकवादियों को राष्ट्रद्रोही अमानवीय तत्व नहीं मानती। हमारी सरकार आतंकवादियों को केवल मुसलमान मानती है और इसलिए आतंकवाद से निपटने की रणनीति भी अपने चुनावी समीकरण के हिसाब से तय करती है।

मत भूलिये कि संसद हमले का आरोपी अफजल अब भी भारतीय करदाताओं के पैसे की रोटियां तोड़ रहा है। आखिर कौन सी मज़बूरी है जो इस बेशर्म सरकार को अफजल की फांसी से रोक रही है। इन निर्लज्जों को तब भी शर्म नहीं आई जब संसद हमले में शहीद हुए पुलिसकर्मियों की विधवाओं ने शहादत के तमगे का झुनझुना नचाकर इनके मुंह पर फेंक दिया। और देखिए कि बेचारे ये पुलिसकर्मी मरे भी इन्हीं बेशर्मों की सुरक्षा करते-करते। क्या विडंबना है। अगर वास्तव में इस सरकार को ये लगता है कि अफजल को जिंदा रखकर वो इस देश के मुसलमानों का वोट पक्का कर रही है, तो दूसरे अर्थों में क्या इस सरकार का ये मानना है कि देश के सारे मुसलमान अफजल और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के समर्थक हैं? क्या ये सरकार इस तरह के राष्ट्रविरोधी तत्वों को प्रश्रय देकर ये साबित करना चाहती है कि इस देश के मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए राष्ट्रदोही होना ज़रूरी है?

आपको याद होगा कि हमारे अति बुद्धिजीवी और अमेरिका के प्रिय प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को उस पूरी रात नींद नहीं आईथी, जब ऑस्ट्रेलियाई पुलिस ने एक मुस्लिम युवक को आतंकवादियों का साथ देने के आरोप में हिरासत में ले लिया। 'मुस्लिम'लिखने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि अगर वो युवक मुस्लिम नहीं होता तो प्रधानमंत्री को अपनेवातानुकूलित कमरे में बहुत अच्छी नींद आती। ये विश्वास क्यों है, इसका कारण भी बता देता हूं। अगर आपको याद हो तो 17 मार्च2004 को स्पेन के मैड्रिड में एक भयानक बम विस्फोट हुआ था, जिसमें ढाई सौ से ज़्यादा लोग मारे गए थे। उसके बाद जांच केलिए स्पेन पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया था, उनमें स्पेन में रहने वाले दो प्रवासी भारतीय भी थे। ये दोनों एक मोबाइलदुकान चलाते थे और जांच के दौरान पुलिस ने पाया कि आतंकवादियों ने जिस सिम का इस्तेमाल किया था, वो इनकी दुकान से हीख़रीदी गई थी। इत्तेफाक से ये दोनों हिंदू थे। मैं दावा कर रहा हूं कि आपमें से किसी ने भी किसी भारतीय मीडिया में ये ख़बर नहीं सुनीहोगी। किसी हिंदू संगठन ने इसे पूरे हिंदू समाज का अपमान बताते हुए कोई फतवा जारी नहीं किया और न ही सरकार ने इसे अपनीविदेश नीति के लिए कसौटी बनाया। अब बात करते हैं ऑस्ट्रेलिया में पकड़े गए डॉक्टर मोहम्मद हनीफ के मामले की। ब्रिटेन केग्लास्गो हवाईअड्डे पर हुए आत्मघाती हमले का हमलावर जिस मोबाइल का इस्तेमाल कर रहा था, उसमें हनीफ की सिम लगी थी।हनीफ दूर के रिश्ते में उस हमलावर का भाई था। बहुत संभव है कि हनीफ निर्दोष हो। आखिर हम अपने सभी संबंधियों की सारीगतिविधियों की गारंटी नहीं ले सकते। लेकिन क्या ये मामला जांच का नहीं बनता। और इसी जांच के क्रम में जब हनीफ को हिरासत मेंलिया गया तो भारत में तूफान मच गया। सरकार ने आधिकारिक तौर पर ऑस्ट्रेलिया की नाक में दम कर दिया। हनीफ की बेगम काग़मग़ीन चेहरा देखकर हमारे कोमल ह्रदय प्रधानमंत्री रात भर सो नहीं पाए। क्या अंतर था ऑस्ट्रेलिया के हनीफ और स्पेन के दो गुमनामप्रवासी भारतीयों में उस एक अंतर को छोड़ कर। आप को कुछ और समझ में आता हो तो मुझे बताइए। जब हनीफ भारत लौटा तो पूरीमीडिया और सरकारी अमला इस तरह उसके स्वागत में पहुंचा मानो उसने भारतवर्ष का नाम दुनिया के आसमान पर लिख दिया हो।और फिर कर्नाटक सरकार ने सारी हदें पार कर उसे सरकारी नौकरी देने की घोषणा की। मानो एक आतंकवादी का चचेरा, ममेरा भाईहोना और एक आतंकवादी हमले की जांच के दौरान विदेश में गिरफ्तार होना कोई राष्ट्रीय गौरव की बात हो।

और सबसे अफसोस की बात तो ये है कि हनीफ प्रकरण के कुछ ही दिन बाद जब हैदराबाद में हुए बम विस्फोटों ने कई बीवियों, मांओंऔर बेटिओं का जीवन हमेशा के लिए अंधेरे से भर दिया, तब प्रधानमंत्री की नींद में कोई खलल नहीं हुई। आप कल्पना कर सकते हैं110 करोड़ लोगों का भाग्यनियंता, देश का सबसे शक्तिशाली (कम से कम पद के मुताबिक) व्यक्ति कायरों की तरह ये कहता हैकि आतंकवाद पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए एक स्थायी कोष बना देना चाहिए। हर आतंकवादी हमले के बाद टेलीविजन चैनलों परदिखने वाला गृहमंत्री का निरीह, बेचारा चेहरा फिर प्रकट हुआ। शिवराज पाटिल ने कहा कि उन्हे इस आतंकवादी हमले की जानकारीपहले से थी। धन्य हो!

लेकिन इन सब बातों की चर्चा करने का मतलब ये भी नहीं कि आतंकवाद की सभी घटनाओं के लिए केवल मनमोहन सिंह की सरकार ही दोषी है। मेरा तो मानना है कि सच्चा दोषी समाज है, हम खुद हैं। क्योंकि हम खुद ही इन हमलों और मौतों के प्रति इतनी असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें ये ज़्यादा समय तक विचलित नहीं करतीं। सरकारें सच पूछिए तो जनता का ही अक्श होती हैं जो सत्ताके आइने में जनता का असली चेहरा दिखाती हैं। भारत की जनता ही इतनी स्वकेन्द्रित हो गई है कि सरकार कोई भी आए ऐसी ही होगी। हम भारतीय इतिहास का वो सबसे शर्मनाक हादसा नहीं भूल सकते जब स्वयं को राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि बताने वाली एक सरकारका विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर कंधार गया था। इस निर्लज्ज तर्क के साथ कि सरकार का दायित्व अपहरण कर लिए गए एक हवाईजहाज में बैठे लोगों को बचाना था। तो क्या उसी सरकार के विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री और स्वयं को लौहपुरुष कहलवाने के शौकीन गृहमंत्री उन हर हत्याओं की ज़िम्मेदारी लेंगे, जो उन तीन छोड़े गए आतंकवादियों के संगठनों द्वारा की जा रही है। हम आज भी नहीं भूल सकते वो तस्वीर जिसमें बंगलादेश की सीमा पर तैनात बीएसएफ के एक जवान को मार कर बकरी की तरह उलटा लटका दिया गया था। ये जवान उन 16 बीएसएफ जवानों में से एक था, जिन्हें बंगलादेश के सैनिकों ने वहां की जनता के साथ मिलकर मार दिया था। उस समय बंगलादेश में भारत समर्थक मानी जाने वाली शेख हसीना की सरकार थी और चुनाव होने वाले थे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली नपुंसक सरकार ने घिघियाते हुए भारत की जनता को समझाया कि दरअसल वो खालिदा जिया के समर्थक सैनिक थे जो भारत को उकसाना चाहते थे, ताकि चुनावों में हसीना हार जाएं। वाह री राष्ट्रवादी सरकार, धिक्कार है। और फिर यही सरकार थी जिसके हाथों में पाकिस्तान ने उन 6 जवानों की लाशें सौंपी थी, जो गश्त के दौरान भटक कर गलती से पाकिस्तान चले गए थे। उन सैनिकों के नाखून उखड़े हुए थे, गुप्तांग कटे हुए थे और उन्हें बिजली का करंट देकर मारा गया था। आप सोचिए, अगर पाकिस्तान ने ऐसा कर भी दिया, तो उसे हिम्मत कैसे हुई कि वो इन्हें इसी हाल में भारत को सौंप दे। क्योंकि उन्हें पता था कि 2020 तक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे इस देश की हुकूमत चंद कायर और सत्तालोलुप नपुंसक कर रहे हैं।

सरकार चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की हो या मनमोहन सिंह की, आतंकवाद हमारी नियति है। ये तो केवल भूमिका बन रही है, हम पर और बड़ी विपत्तियां आने वाली हैं। सरकारें नाकारा हैं, सिस्टम बेकार है। तो दोष किसका है और उपाय क्या है। इन दोनों सवालों का एक ही जवाब है- हम। बीमार भी हम है और दवा भी हम हैं। तो क्या हम आधुनिक बमों, एक-47 और एके-56 राइफलों और आतंकवादियों के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क से मुकाबला कर सकते हैं। बेशक नहीं, इसी के लिए तो हम सरकार चुनते हैं। पर सरकार तो नाकारा है। जी हां, क्योंकि हम नाकारे हैं। सरकार में ये डर नहीं कि देश विरोधी काम करने वालों को बढ़ावा देने के बावजूद हम उसका कुछ बिगाड़ लेंगे। हमें बस यही डर पैदा करना है सरकार में। हम जब तक नपुंसक बने रहेंगे, हमें ऐसी ही घिघियाती, मिमियाती सरकारें मिलती रहेंगी। अफजल जैसे सांपों को दूध पिलाने वाले भ्रष्ट सत्तालोलुपों में हमें डर पैदा करना होगा- सत्ता खोने का डर। आइए एक नया वोट बैंक बनाएं- भारतवासियों का वोट बैंक, राष्ट्रवादियों का वोटबैंक।

सोमवार, 19 नवंबर 2007

ग़रीबी की बीमारी लाइलाज नहीं, लेकिन डॉक्टर की भूमिका हमें लेनी होगी


मेरे मित्र हैं हर्षवर्धन त्रिपाठी। बड़ा ही लोकप्रिय ब्लॉग चलाते हैं बतंगड़ और सच पूछें तो मुझे भी अपना ब्लॉग लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली। उनके ब्लॉग पर एक लेख पढ़ा भारत में भूखों, ग़रीबों की विकराल होती समस्या पर। मन हुआ टिप्पणी लिखूं। लेकिन जब लिखने लगा तो वो लेख बना गया और इसलिए सोचा कि अपने ब्लॉग पर ही डाल दूं।
हर्ष का लेख है दुनिया के देशों में भूखे लोगों की दृष्टि से भारत की शर्मनाक स्थिति पर। मुझे इस बात से पूरा इत्तेफाक है कि ग़रीबी हमारा अभिशाप है और हमें इस पर शर्मिंदा होना चाहिए। लेकिन एक बार फिर मैं वहीं कहूंगा जो मैंने अपने परसों के लेख में कहा था। हम समस्याओं की जड़ में नहीं जाते। मुझे लगता है कि अगर ग़रीबी हमारे लिए एक राष्ट्रीय समस्या है, तो हमने अब तक इसपर सही नज़रिए से विचार ही नहीं किया है। ग़रीब या ग़रीबी कोई absolute term नहीं हैं। देश (अभी मैं ग्लोबल नहीं हो पाया हूं) के सभी ग़रीबों को एक बैनर के तले खड़ा नहीं किया जा सकता। गांव के किसानों की ग़रीबी और शहरी झुग्गियों में रहने वालों की ग़रीबी में अंतर है। आप दिल्ली की रेडलाइट्स (मेरा मतलब लाल बत्तियों से है) पर हर शनिवार को शनिदेव के नाम पर भीख मांगते किसी 'ग़रीब' को कोई काम ऑफर कर देखिए। आपको गालियां देते हुए वहां से चला जाएगा। मैं ये कत्तई नहीं कह रहा कि सभी ग़रीब इसीलिए ग़रीब हैं क्योंकि वे कामचोर हैं। लेकिन मैं ये कहने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूं कि शहरी ग़रीबों के एक बड़े तबके की ग़रीबी का मूल कारण एक ख़ास मानसिकता है। वो मानसिकता शिक्षा और आत्म सम्मान बोध के अभाव के कारण है। शहरी ग़रीबों का बड़ा तबका अपनी कमाई का 60% से ज़्यादा नशे और जुए में उड़ा देता है। उसे लाख रुपये भी दे दीजिए। वो उसे भी उड़ा देगा। क्योंकि वो उस स्थिति से निकलना ही नहीं चाहता। अपनी इस स्थिति के लिए वो ही पूरी तरह ज़िम्मेदार नहीं है। हम सब यानी पूरा समाज इसके लिए ज़िम्मेदार है। क्योंकि जिस आदमी ने जीवन में कभी रसगुल्ला नहीं खाया हो, उसे आप कैसे बताएंगे कि उसका स्वाद कैसा लगता है। मीठा होता है! तो वो तो गुड़, चीनी या पेड़ा भी होता है। फिर रसगुल्ला?
आपको एक छोटी सी पौराणिक कहानी सुनाता हूं। विष्णु के 10 अवतारों के बारे में तो आपने सुना ही होगा। उनमें एक था वराह अवतार। वराह यानी सूअर। दरअसल हुआ यूं कि हिरण्यकश्यपु के भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी का अपहरण कर उसे मल और कीचड़ के कुंड में डुबा दिया था। अब सुंदर, सुकुमार राजकुमार राम बनकर या रास रचइया, छलिया कन्हैया बनकर तो उस कुंड में कूदा नहीं जा सकता था। सो विष्णु को लेना पड़ा सूअर का अवतार। फिर क्या था, पाखाने में खुशबू आने लगी, कीचड़ रेशम सा कोमल लगने लगा। घुसे कुंड में और हिरण्याक्ष को पहुंचा दिया परलोक। लेकिन संकट यहां शुरू हुआ। सूअर के रूप में विष्णु को उस मल कुंड में ऐसा मज़ा आने लगा कि वहीं मस्त हो गए। लक्ष्मी जी परेशान। सब देवताओं की हवा टाइट हो गई। अब विष्णु जी को क्या करें। पहुंचे सब नारद के पास। नारद जी, कुछ करो। नारद जी लग गए मौके की ताक में। सूअर शरीरधारी विष्णु जी जब आराम से कुंड में नहाकर धूप में लोटपोट कर रहे थे, तभी पहुंच गए वहां। कहा, प्रभु। हिरण्याक्ष तो मर गया। अब तो चलो। क्षीरसागर में शेषनाग की शैया आपका इंतज़ार कर रही है। आपका हाल देखकर लक्ष्मी जी का रोते-रोते हाल बेहाल हो गया है। विष्णु लोक की सुवासित-सुगंधित हवाएं आपकी राह देख रही हैं, मखमल की सेज़ आपकी याद में सूख रही है। आप चलें। सूअर फटी आंखों से नारद को देख रहा था। बोला- नारद, तुम कभी नहीं समझ पाओगे कि यहां कितना आनंद है। अरे, इस मलकुंड की सुगंध और कोमलता के सामने सब फेल है। मैं तो कहता हूं, तुम भी आ जाओ। नारद जी ने सर पकड़ लिया। घंटों याद दिलाया कि आप जगतपालक हैं, परम सुंदर, परम सलोने, करोड़ों कामदेवों के स्वामी हैं। सभी देवताओं ने, लक्ष्मी जी ने मिन्नतें की। तब जाकर कहीं बड़ी मुश्किल से विष्णु ने वापस अपने शरीर में आना स्वीकार किया और क्षीर सागर की राह ली।
शहरी ग़रीबों के एक बड़े तबके की हालत भी विष्णु के वराह अवतार की तरह हो गई है। उन्हें 15 रुपये के देसी दारू, चरस की कश और दारू में मज़ा आने लगा है। उन्हें लगता है कि ये जो समाज के दूसरे पढ़े-लिखे सम्मानित लोग हैं, वो पैदा ही वैसे हुए हैं और वैसा होना केवल उन्हीं लोगों का अधिकार है। इन शहरी ग़रीबों का जन्म फुटपाथ पर हुआ, बचपन से अपनी मां को पुलिस वालों की गालियां खाते सुना, बाद में खुद के लिए सब की नज़रों में जलालत और नफरत देखी। पढ़ाई-लिखाई का ख्वाब भी नहीं देखा। किसी ने बाल पकड़ कर उठा लिया, तो खड़े हो गए, किसी ने ढकेल दिया तो बैठ गए। किसी ने कुछ फेंक दिया तो खा लिया। बचपने से अपने नाम का तो पता नहीं, गालियों से ही पहचान बनी। तो ऐसे किसी आदमी से एक संवेदनशील और अच्छा नागरिक बनने की उम्मीद उसके साथ ज़्यादती नहीं होगी। तो ऐसे वराहों को बहुत से नारदों की ज़रूरत है। इनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती, जबतक एक बड़ा सामाजिक सुधार आंदोलन नहीं चलता। उनमें आत्म सम्मान की भावना नहीं पैदा की जाती। केवल तभी इन शहरी ग़रीबों की आर्थिक हालत भी सुधर पाएगी, अपराध भी खत्म होंगे और भ्रष्टाचार भी कम होगा।
अब बात करते हैं दूसरे तरह के ग़रीबों की। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले ग़रीब। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केन्द्र है किसान। ग्रामीण क्षेत्र में किसानों के अलावा दूसरे सभी व्यवसायों से जुड़े लोगों की अर्थव्यवस्था किसानों की माली हालत पर ही निर्भर करती है। और किसानों की माली हालत निर्भर करती है खेती की स्थिति पर। किसान भी दो तरह के होते हैं, वे किसान जो अपना खेत जोतते हैं और दूसरे जो दूसरों का खेत जोतते हैं। जो दूसरों का खेत जोतते हैं, उन्हें उनका ठीक हक़ मिले और जो अपना खेत जोतते हैं, उन्हें फसल का ठीक दाम मिले। यहां भूमिका आती है सरकार की। यही है वो ग़रीब हैं जिनकी ग़रीबी राजनीति की भट्ठी का ईंधन बनती है। बिचौलिये ज़्यादातर मुनाफ़ा पी जाते हैं। बढ़ती महंगाई हलक में अटक जाती है। बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा नहीं है, बीमारों के लिए अच्छे अस्पताल नहीं हैं। सिंचाई के लिए नहरें नहीं हैं, सो इन्द्र देव की कृपा ही किस्मत का आधार बन जाती है। इस ग़रीबी को दूर करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार है।
सारांश, समाज और सरकार दोनों के ईमानदार सम्मिलित प्रयासों से ही ग़रीबी के राक्षस को हराया जा सकता है। ग़रीबी किसी की व्यक्तिगत समस्या नहीं है। ये तो एक भयंकर सामाजिक समस्या है जो कई और सामाजिक-राष्ट्रीय समस्याओं की जड़ है। जिस तेज़ी से उपभोक्तावाद अपने पैर पसार रहा है और समाज के दो हिस्सों के बीच आर्थक खाई बढ़ती जा रही है, अगर हम आज नहीं जगे तो फिर वक्त शायद हमें मौका ही न दे।

रविवार, 18 नवंबर 2007

दो वामपंथी महिलाओं का दर्द



आज सुबह-सुबह दो बड़ी मज़ेदार ख़बरें पढ़ने को मिलीं। दोनों ही ख़बरें देश की दो जानी-मानी महिलाओं से जुड़ी हैं। विचारधारा की दृष्टि से दोनों महिलाएं अब तक एक ही पाले में रही हैं और आज की ख़बर में दोनों ने एक-दूसरे पर ज़बर्दस्त प्रहार किया है। ना-ना, प्रहार मतलब व्यक्तिगत नहीं संस्थागत प्रहार किए हैं दोनों ने। एक दूसरे का नाम नहीं लिया, लेकिन एक-दूसरे के मंच पर ऐसा भीषण आघात किया है, जिसके बारे में महीने भर पहले दोनों ने सपना तक नहीं देखा होगा। पहली महिला हैं वामपंथी प्रतिबद्धता वाली जानी-मानी लेखिका महाश्वेता देवी और और दूसरी महिला हैं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास में पहली बार पोलित ब्यूरो को सुशोभित करने वाली वृंदा करात।
लौटते हैं ख़बरों की ओर। महाश्वेता देवी ने कहा है कि अब उन्हें सीपीएम के नाम से ही नफरत हो गई है। वहीं वृंदा करात ने पिछले पांच दशकों से साहित्य और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के ज़रिए युवा पीढ़ियों को वामपंथी सिद्धांतों की घुट्टी पिला रहे प्रतिबद्ध वामपंथी बुद्धिजीवियों की बुद्धिजीविता (वैसे मुझे तो ये शब्द ही बहुत अजीब लगता है) पर सवालिया निशान लगाए हैं। वृंदा का दर्द सही भी है। वृंदा की खुन्नस ये है कि मेरे वामपंथी बुद्धिजीवियों, क्या खाक बुद्धिजीवी हो तुमलोग।
क्या खाक मोटी-मोटी किताबें छानीं हैं तुम लोगों ने, जो इतनी सी बात से परेशान हो गए। क्या तुम्हें पता नहीं है कि वामपंथ का लाल रंग ही खून से बना है। बिना खून बहाए तो वामपंथ जीवित ही नहीं रह सकता। इतिहास गवाह है कि दुनिया के किसी भी कोने में वामपंथ ने खून बहाने के पहले उसका सर्वहारा या बुर्जुआ चेहरा नहीं देखा है, देखा है तो केवल ये कि तलवार के आगे खड़ा सिर वामपंथ के आगे झुका है या नहीं। और नंदीग्राम की बात करें तो वहां मारे गए सभी
वामपंथ को चुनौती देने की ज़ुर्रत कर रहे थे। वृंदा चीख-चीख कर इन बुद्धिजीवियों को यही कहना चाह रही हैं कि वामपंथ के समतामूलक समाज में खून बहाने के लिए ग़रीब हो या धनी सब बराबर हैं। अच्छे या बुरे की पहचान तो खून बहाने वाले खंजर के रंग से तय होता है। केसरिया खंजर से निकला खून मानवता पर धब्बा है, लेकिन लाल खंजर का तो अधिकार है खून बहाना।
उधर, जीवन भर सर्वहारा (गरीबों) के प्रति वामपंथी संवेदनशीलता का प्रचार करने वाली महाश्वेता पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सामने आए सीपीएम के चेहरे को पचा नहीं पा रही हैं। इसलिए नहीं पचा पा रही हैं कि नंदीग्राम उनके लिए वामपंथ के शिकार हुए दूसरे हज़ारों आम लोगों की किताबी कहानियां नहीं है। नंदीग्राम उनके घर का आंगन है जहां फैले हुए खून के छींटे उनके हृदय को बींध रहे हैं। सुमित सरकार जैसे वामपंथी इतिहासकारों तक की भावनाएं हिल गई हैं।
वृंदा करात को क्षोभ हो रहा है कि उनके मित्र वामपंथी बुद्धिजीवियों को पिछले 9 महीनों में नंदीग्राम की सुध क्यों नहीं आई, जब 'वामपंथी समर्थक किसान'(जो आज हत्याएं और बलात्कार कर रहे हैं) घरों से बाहर खदेड़ दिए गए थे और इलाके पर तृणमूल कांग्रेस समर्थित भूमि उच्छेद समिति के लोगों का कब्ज़ा था। उन्होंने दुख के साथ अपने पुराने सहचरों से पूछा है कि क्या वे भी ममता बनर्जी के उस बयान से इत्तेफाक रखते हैं जिसमें उन्होंने 3,500 'वामपंथी समर्थक किसानों' के इलाकाबदर होने को नाटक कहा है। सच में बहुत निर्मम बयान दिया है ममता ने।
लेकिन अगर वृंदा ये भी बता देतीं कि इन 9 महीनों में इलाकाबदर हुए उन बेचारे वामपंथी किसानों ने कौन सा धरना दिया, वापस लौटने की कितनी कोशिशें कीं और उस दौरान उनमें से कितनों की हत्याएं की गईं और कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, कितनी बार उन्होंने स्थानीय थाने और जिला प्रशासन को शिकायत दर्ज़ कराई और कितनी बार मुख्यमंत्री ने प्रशासन को उनकी शांतिपूर्ण वापसी के लिए निर्देश दिये। अब जब प्रगतिशील मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का ज़िक्र आया है तो ये याद करना भी प्रासंगिक होगा कि इन्हीं सज्जन ने कहा था कि भूमि उच्छेद समिति से जुड़े किसानों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया गया है। सो, क्यों न यही माना जाए कि उन 'बेचारे वामपंथी समर्थक किसानों' ने इन 9 महीनों का सदुपयोग उस भाषा में जवाब देने की तैयारी में किया।
खैर, अगर खून से सनी नंदीग्राम की ज़मीन वास्तव में महाश्वेता देवी और सुमित सरकार जैसे बुद्धिजीवियों के लिए वामपंथ का आइना साबित हो सके तो यही माना जाएगा कि नंदीग्राम के निर्दोष किसानों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वैसे मुझे इसमें संदेह है।

शनिवार, 17 नवंबर 2007

हम समस्याओं की जड़ में देखना कब सीखेंगे


छठ पूजा खत्म हुई। तमाम इलेक्ट्रॉनिक चैनलों ने इसकी भरपूर रिपोर्टिंग की और रामलीला, कृष्ण जन्माष्टमी और किसी दूसरे धार्मिक आयोजन की तरह इस बार भी पूजा के पंडालों में अर्द्ध नग्न युवतियों के भौंडे और अश्लील नाच के दृश्य दिखाए गए। फिर अगली बार जब कोई धार्मिक आयोजन होगा, तो उसकी रिपोर्टिंग में भी यही ख़बर दिखाई जाएगी और उसके बाद के आयोजनों में भी हम यूं ही बढ़ती अश्लीलता को कोसते रहेंगे। ठीक उसी तरह जैसे 1947 के भीषण दंगों से लेकर 2002 के गोधरा और उसके बाद के दंगों तक हम साम्प्रदायिकता को कोसते रहे हैं, ठीक उसी तरह जैसे 1947 की भूखमरी और ग़रीबी से लेकर इक्कीसवीं सदी के पहले दशक तक हम कालाहांडी के जीवित नरकंकालों पर अफसोस जताते रहे हैं और ठीक उसी तरह जैसे बीसवीं सदी के शुरुआती दशकों में प्रेमचंद की कहानियों में सिसकती किसानों की आत्मा इक्कीसवीं सदी के किसानों की आत्महत्या तक उसी तरह कराह रही है।
कहने का मतलब यह है कि हम युगों-युगों तक एक ही समस्या के लिए रोने और अफसोस करने के आदी हो गए हैं। कारण सिर्फ ये है कि हम अपने सामाजिक सरोकारों की अभिव्यक्ति के एहसास से इस कदर दबे हुए हैं कि जैसे ही कोई समस्या सामने आती है, उस पर रोकर खुद को ये संतोष देने की कोशिश करते हैं कि हम सामाजिक तौर पर अब भी मृत नहीं हैं। लेकिन रोने की जल्दी और फिर आंसू पोंछ कर अपने दैनिक कार्यों में जुटने की हड़बड़ी हमें कभी ये सोचने का वक्त नहीं देती कि आखिर इस समस्या की जड़ कहां है और क्या इसका समूल नाश नहीं किया जा सकता। पेड़ों के पत्तों को पानी से नहलाने का कोई फायदा नहीं है। केवल जड़ में पानी डालिए और पूरा पेड़ लहलहा जाएगा। चाणक्य के जीवन की वो कहानी भी हम सबने सुनी है कि कहीं जाते समय उनके पैर में एक कांटा चुभ गया। चाणक्य ने फिर अगली बार कांटा चुभने की नौबत आने से पहले उनकी जड़ों में थोड़ा गुड़ लाकर डाल दिया। बाकी काम चींटियों ने कर दिया और वे कांटे फिर कभी किसी को नहीं रुला पाए।
यह रहस्य ही है कि महाराष्ट्र के गृहमंत्री आर आर पाटिल को एकाएक मुंबई की बार बालाएं तमाम सामाजिक समस्याओं की जड़ क्यों लगने लगीं। मुंबई में बार बालाओं पर लगी रोक सरकार के कामकाज करने के तरीके का एक क्लासिक उदाहरण है। हज़ारों बार बालाओं की रोजी-रोटी बिना कोई वैकल्पिक साधन सोचे एकाएक बंद कर दी गई। उनके पास क्या रास्ता बचा? सोचिए, मैं एक पत्रकार हूं और मुझे लिखने के अलावा कुछ नहीं आता। एकाएक मेरी नौकरी चली जाए, तो मैं क्या करूंगा। अखबारों के संपादकों के चक्कर लगाउंगा और उनसे एक-दो लेख छपवाने की गुज़ारिश करूंगा। बाद में जो करूं, शुरुआती प्रबंध तो यही करना होगा न। तो उन बार बालाओं को आधे कपड़े पहनकर, अपनी लटें झटकते हुए नाचने के अलावा कुछ आता नहीं था। सो, उन्होंने अपने ग्राहक ढूंढने शुरू किए। अब लाज-शर्म का चक्कर तो था नहीं, सो यूपी और बिहार में कद्रदान भी मिल गए। ऐसा भी नहीं कि यूपी, बिहार को आर आर पाटिल ने बिगाड़ दिया। वहां भी तो बेचारे छुटभैये नेताओं और ग़रीब की रैलियां करने वाले स्वनामधन्य किसान, चपरासियों के बेटों को भीड़ जुटाने में मुश्किलें हो रही थीं। पब्लिक लौंडों का नाच देखकर ऊब गई थी, और कोई स्थानीय लड़की छलियों के बीच लाइव नाच करने की हिम्मत जुटा नहीं पाती थी। सो, जौहरियों को हीरे और हीरों को जौहरी मिल गए। अब केवल अश्लीलता का रोना रोने से क्या होगा? जो आज रामलीलाओं में बार बालाओं का नाच देखने आ रहे हैं, ऐसा नहीं कि वो कल के रामभक्त हैं और आज भ्रष्ट हो गए हैं। और ऐसा भी नहीं कि ये नाच आज ही शुरू हुए हैं। मैंने अपने गांव में देखा है। पिछले कई सालों से। शाम सात बजे के बाद से किसी कोने में अड्डा बनाकर पाउच (देसी शराब) पीने वालों की टोली हमेशा से छठ पूजा के मौके पर वीडियो और जेनरेटर की व्यवस्था में सबसे आगे रहती है और रात भर जग कर तमाम भोलेभाले बच्चों और बिगड़ैल बूढ़ों की टोली के साथ फिल्में देखती है।

अगर हम सब वास्तव में बढ़ती सार्वजनिक अश्लीलता से चिंतित हैं, तो हमें इसकी जड़ों में जाना होगा। एक ओर संस्कारों और संस्कृति को पिछड़ापन और पोंगापंथ बताती हमारी शिक्षा पद्धति, पश्चिमी सभ्यता की ओर हमारा बढ़ता मोह, अंग्रेजी भाषा और सोच के प्रति हमारा लरजता दिल, बढ़ता राजनीतिक और आर्थिक भ्रष्टाचार और तिसपर अश्लीलता के सर्वसुलभ संसाधन। ऐसे में विश्वामित्र का संयम भी डिग जाए, फिर रास्ते से गुजरती हर लड़की को स्कैन करने के लिए बेचैन आंखों से कितने संयम की उम्मीद कर रहे हैं आप।
शहर में दस हज़ार ज़हरीले सांप छोड़ दीजिए और फिर सर्पदंश से हो रही मौतों को हेडलाइंस बनाते रहिए। हेडलाइंस तो बन जाएंगी, लेकिन मौतें नहीं रुक सकतीं।

पश्चिम बंगाल का तालिबान राज


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नंदीग्राम में वामपंथी नरपिशाचों की कारस्तानियों पर बहुत कुछ कहा और लिखा जा चुका है। लगता है कि क्या इस पर अब भी कुछ कहने को बाकी है। तथ्यों की दृष्टि से शायद नहीं। लेकिन भावनाओं की दृष्टि से बहुत कुछ। मन होता है चीखूं। गला फाड़ कर रोउं और दीवार पर सिर दे मारूं। नंदीग्राम की बलत्कृत माओं, बहनों और बेटिओं के फटते ह्रदय की पीड़ा और सैकड़ों किसानों के जले हुए घरों और मिट्टी हो चुकी जिंदगी भर की उनकी कमाई का विलाप। तिस पर पूरी दुनिया के गरीबों, मजलूमों, बेसहारों और मेहनतकशों की रहनुमाई करने का दावा करने वाले वामपंथियों की सरकार के मुखिया का निर्लज्ज अट्टहास। सुना आपने क्या कहा है, पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य ने।
मुख्यमंत्री के मुताबिक अपनी ज़मीन बचाने के लिए पिछले साल भर से संघर्ष कर रहे नंदीग्राम के किसानों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया गया है। यानी क्योंकि वामपंथी गुंडों को मलेशिया के सलीम ग्रुप के स्पेशल इकोनॉमिक ज़ोन के खिलाफ चल रहे आंदोलन के कारण गांव छोड़ना पड़ा था, तो अब उन गुंडों का ये पवित्र राजनीतिक कर्तव्य है कि वे राज्य सरकार की मदद से उन सभी किसानों के घर जला दें, उनपर पुलिस की वर्दी में गोलियां चलाएं, उनकी बहनों, बेटियों का बलात्कार करें और उन्हें गांव से बाहर कर दें।
आज के इंडियन एक्सप्रेस में सतेनगाबरी-रानीचौक सीपीएम लोकल कमेटी के एक गुंडे (सचिव) ब्रजमोहन मंडल का ज़िक्र है, जो सीना तान के कह रहा है कि तृणमूल कॉन्ग्रेस के सभी उजड़ चुके गांववालों का स्वागत है, लेकिन भूमि उच्छेद समिति के 12 लोगों की लिस्ट जारी किए गए हैं, जिन्हें जिंदगी भर गांव में नहीं आने दिया जाएगा। जैसे कि पश्चिम बंगाल की ज़मीन उसके बाप की हो।
बुद्धदेव समेत तमाम वामपंथियों का कहना है कि नंदीग्राम पर अपना कब्ज़ा वापस पाने के लिए ही उन्होंने वहां हैवानियत का नंगा नाच किया है। जी हां, यही है कम्युनिस्टों का असली चेहरा। तालिबान का नास्तिक संस्करण हैं ये। नहीं तो लोकतांत्रिक भारत में किसी गांव, ज़िले या राज्य पर कब्ज़े का क्या मतलब? क्या पश्चिम बंगाल अफ़गानिस्तान, इराक या पाकिस्तान के उत्तर-पश्चिम सीमावर्ती प्रांत का कोई कबीला है, जिस पर कब्ज़े के लिए इन नरपिशाचों ने एक अबला की योनी पर गोली मारी, दूसरी एक औरत का बलात्कार कर उसकी योनी में छड़ घुसेड़ दिया और एक अन्य तापसी मलिक के साथ सामूहिक बलात्कार कर उसे जलती भट्ठी में झोंक दिया। पुलिस की वर्दी पहने वामपंथी गुंड़ों के निहत्थे किसानों पर गोलियां चलाने की बात तो सीबीआई ने भी कही है।
दरअसल नंदीग्राम ने पश्चिम बंगाल में पिछले 30 सालों से चल रहे तालिबान राज की पोल खोल दी है। कभी तृणमूल कॉन्ग्रेस के समर्थक रहे मानिक मैती का कहना है, "अगर मैंने उनका झंडा उठाने से इंकार किया और उनकी रैली में नहीं गया, तो मैं और मैरा पूरा परिवार एक ही रात में खत्म हो जाएंगे।"(Indian Express, 15-11-07)
यही राज है पश्चिम बंगाल में तीन दशकों से चल रहे वामपंथियों के अखंड राज का।