लखनऊ, फैजाबाद और बनारस में हुए बम विस्फोटों में क़रीब 20 लोग मारे गए। भले ही 20 परिवारों की ज़िंदगी में अंधेरा छा गया हो, लेकिन अपन तो खुश हैं। आप भी खुश हो जाइए। हम सुरक्षित हैं, आप सुरक्षित हैं। अगले 3-4 महीनों के लिए हम सब को जीवनदान मिल गया है। क्योंकि आम तौर एक धमाके के बाद 3-4 महीने तो शांति रहती ही है। क्या हुआ जो 3-4 महीने बाद फिर हम करोड़ों लोगों में से 50, 100 या 200 के परिवारों पर कहर टूटेगा। बाकी तो बचे रहेंगे। दरअसल सरकार का गणित यही है। हमारे पास मरने के लिए बहुत लोग हैं। चिंता क्या है। नपुंसक सरकार की प्रजा होने का यह सही दंड है। मुंबई के सीरियल ट्रेन धमाकों से जो कहानी शुरू हुई थी, उसमें एक कड़ी आज के सीरियल धमाकों ने भी जोड़ दिया है। लेकिन जो सबसे आश्चर्यजनक बात है, वो ये कि पिछले साढ़े तीन साल में हुए दसियों आतंकवादी हमलों और बम विस्फोटों में से किसी की भी जांच आज तक पूरी नहीं हुई। हमें नहीं मालूम कि सैकड़ों लोगों की जान लेने वाले इन विस्फोटों की जांच कहां तक पहुंची है। कितनी फाइलें बंद हो गईं और उनका निष्कर्ष क्या निकला। उनमें किन लोगों की गिरफ्तारियां हुईं और अभी उनके मुकदमे किन चरणों पर हैं। पूरी दुनिया में आतंकवादियों को इससे सुरक्षित ज़मीन कहां मिलेगी। सच मानिए, ये हमले अभी बंद नहीं होंगे और कभी बंद नहीं होंगे। क्योंकि हमारी सरकार आतंकवादियों को राष्ट्रद्रोही अमानवीय तत्व नहीं मानती। हमारी सरकार आतंकवादियों को केवल मुसलमान मानती है और इसलिए आतंकवाद से निपटने की रणनीति भी अपने चुनावी समीकरण के हिसाब से तय करती है।
मत भूलिये कि संसद हमले का आरोपी अफजल अब भी भारतीय करदाताओं के पैसे की रोटियां तोड़ रहा है। आखिर कौन सी मज़बूरी है जो इस बेशर्म सरकार को अफजल की फांसी से रोक रही है। इन निर्लज्जों को तब भी शर्म नहीं आई जब संसद हमले में शहीद हुए पुलिसकर्मियों की विधवाओं ने शहादत के तमगे का झुनझुना नचाकर इनके मुंह पर फेंक दिया। और देखिए कि बेचारे ये पुलिसकर्मी मरे भी इन्हीं बेशर्मों की सुरक्षा करते-करते। क्या विडंबना है। अगर वास्तव में इस सरकार को ये लगता है कि अफजल को जिंदा रखकर वो इस देश के मुसलमानों का वोट पक्का कर रही है, तो दूसरे अर्थों में क्या इस सरकार का ये मानना है कि देश के सारे मुसलमान अफजल और पाकिस्तान प्रायोजित आतंकवाद के समर्थक हैं? क्या ये सरकार इस तरह के राष्ट्रविरोधी तत्वों को प्रश्रय देकर ये साबित करना चाहती है कि इस देश के मुसलमानों का समर्थन पाने के लिए राष्ट्रदोही होना ज़रूरी है?
आपको याद होगा कि हमारे अति बुद्धिजीवी और अमेरिका के प्रिय प्रधानमंत्री डॉक्टर मनमोहन सिंह को उस पूरी रात नींद नहीं आईथी, जब ऑस्ट्रेलियाई पुलिस ने एक मुस्लिम युवक को आतंकवादियों का साथ देने के आरोप में हिरासत में ले लिया। 'मुस्लिम'लिखने के लिए माफी चाहता हूं, लेकिन मेरा पूरा विश्वास है कि अगर वो युवक मुस्लिम नहीं होता तो प्रधानमंत्री को अपनेवातानुकूलित कमरे में बहुत अच्छी नींद आती। ये विश्वास क्यों है, इसका कारण भी बता देता हूं। अगर आपको याद हो तो 17 मार्च2004 को स्पेन के मैड्रिड में एक भयानक बम विस्फोट हुआ था, जिसमें ढाई सौ से ज़्यादा लोग मारे गए थे। उसके बाद जांच केलिए स्पेन पुलिस ने जिन लोगों को गिरफ्तार किया था, उनमें स्पेन में रहने वाले दो प्रवासी भारतीय भी थे। ये दोनों एक मोबाइलदुकान चलाते थे और जांच के दौरान पुलिस ने पाया कि आतंकवादियों ने जिस सिम का इस्तेमाल किया था, वो इनकी दुकान से हीख़रीदी गई थी। इत्तेफाक से ये दोनों हिंदू थे। मैं दावा कर रहा हूं कि आपमें से किसी ने भी किसी भारतीय मीडिया में ये ख़बर नहीं सुनीहोगी। किसी हिंदू संगठन ने इसे पूरे हिंदू समाज का अपमान बताते हुए कोई फतवा जारी नहीं किया और न ही सरकार ने इसे अपनीविदेश नीति के लिए कसौटी बनाया। अब बात करते हैं ऑस्ट्रेलिया में पकड़े गए डॉक्टर मोहम्मद हनीफ के मामले की। ब्रिटेन केग्लास्गो हवाईअड्डे पर हुए आत्मघाती हमले का हमलावर जिस मोबाइल का इस्तेमाल कर रहा था, उसमें हनीफ की सिम लगी थी।हनीफ दूर के रिश्ते में उस हमलावर का भाई था। बहुत संभव है कि हनीफ निर्दोष हो। आखिर हम अपने सभी संबंधियों की सारीगतिविधियों की गारंटी नहीं ले सकते। लेकिन क्या ये मामला जांच का नहीं बनता। और इसी जांच के क्रम में जब हनीफ को हिरासत मेंलिया गया तो भारत में तूफान मच गया। सरकार ने आधिकारिक तौर पर ऑस्ट्रेलिया की नाक में दम कर दिया। हनीफ की बेगम काग़मग़ीन चेहरा देखकर हमारे कोमल ह्रदय प्रधानमंत्री रात भर सो नहीं पाए। क्या अंतर था ऑस्ट्रेलिया के हनीफ और स्पेन के दो गुमनामप्रवासी भारतीयों में उस एक अंतर को छोड़ कर। आप को कुछ और समझ में आता हो तो मुझे बताइए। जब हनीफ भारत लौटा तो पूरीमीडिया और सरकारी अमला इस तरह उसके स्वागत में पहुंचा मानो उसने भारतवर्ष का नाम दुनिया के आसमान पर लिख दिया हो।और फिर कर्नाटक सरकार ने सारी हदें पार कर उसे सरकारी नौकरी देने की घोषणा की। मानो एक आतंकवादी का चचेरा, ममेरा भाईहोना और एक आतंकवादी हमले की जांच के दौरान विदेश में गिरफ्तार होना कोई राष्ट्रीय गौरव की बात हो।
और सबसे अफसोस की बात तो ये है कि हनीफ प्रकरण के कुछ ही दिन बाद जब हैदराबाद में हुए बम विस्फोटों ने कई बीवियों, मांओंऔर बेटिओं का जीवन हमेशा के लिए अंधेरे से भर दिया, तब प्रधानमंत्री की नींद में कोई खलल नहीं हुई। आप कल्पना कर सकते हैं110 करोड़ लोगों का भाग्यनियंता, देश का सबसे शक्तिशाली (कम से कम पद के मुताबिक) व्यक्ति कायरों की तरह ये कहता हैकि आतंकवाद पीड़ितों को मुआवजा देने के लिए एक स्थायी कोष बना देना चाहिए। हर आतंकवादी हमले के बाद टेलीविजन चैनलों परदिखने वाला गृहमंत्री का निरीह, बेचारा चेहरा फिर प्रकट हुआ। शिवराज पाटिल ने कहा कि उन्हे इस आतंकवादी हमले की जानकारीपहले से थी। धन्य हो!
लेकिन इन सब बातों की चर्चा करने का मतलब ये भी नहीं कि आतंकवाद की सभी घटनाओं के लिए केवल मनमोहन सिंह की सरकार ही दोषी है। मेरा तो मानना है कि सच्चा दोषी समाज है, हम खुद हैं। क्योंकि हम खुद ही इन हमलों और मौतों के प्रति इतनी असंवेदनशील हो गए हैं कि हमें ये ज़्यादा समय तक विचलित नहीं करतीं। सरकारें सच पूछिए तो जनता का ही अक्श होती हैं जो सत्ताके आइने में जनता का असली चेहरा दिखाती हैं। भारत की जनता ही इतनी स्वकेन्द्रित हो गई है कि सरकार कोई भी आए ऐसी ही होगी। हम भारतीय इतिहास का वो सबसे शर्मनाक हादसा नहीं भूल सकते जब स्वयं को राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि बताने वाली एक सरकारका विदेश मंत्री तीन आतंकवादियों को लेकर कंधार गया था। इस निर्लज्ज तर्क के साथ कि सरकार का दायित्व अपहरण कर लिए गए एक हवाईजहाज में बैठे लोगों को बचाना था। तो क्या उसी सरकार के विदेश मंत्री, प्रधानमंत्री और स्वयं को लौहपुरुष कहलवाने के शौकीन गृहमंत्री उन हर हत्याओं की ज़िम्मेदारी लेंगे, जो उन तीन छोड़े गए आतंकवादियों के संगठनों द्वारा की जा रही है। हम आज भी नहीं भूल सकते वो तस्वीर जिसमें बंगलादेश की सीमा पर तैनात बीएसएफ के एक जवान को मार कर बकरी की तरह उलटा लटका दिया गया था। ये जवान उन 16 बीएसएफ जवानों में से एक था, जिन्हें बंगलादेश के सैनिकों ने वहां की जनता के साथ मिलकर मार दिया था। उस समय बंगलादेश में भारत समर्थक मानी जाने वाली शेख हसीना की सरकार थी और चुनाव होने वाले थे। अटल बिहारी वाजपेयी के नेतृत्व वाली नपुंसक सरकार ने घिघियाते हुए भारत की जनता को समझाया कि दरअसल वो खालिदा जिया के समर्थक सैनिक थे जो भारत को उकसाना चाहते थे, ताकि चुनावों में हसीना हार जाएं। वाह री राष्ट्रवादी सरकार, धिक्कार है। और फिर यही सरकार थी जिसके हाथों में पाकिस्तान ने उन 6 जवानों की लाशें सौंपी थी, जो गश्त के दौरान भटक कर गलती से पाकिस्तान चले गए थे। उन सैनिकों के नाखून उखड़े हुए थे, गुप्तांग कटे हुए थे और उन्हें बिजली का करंट देकर मारा गया था। आप सोचिए, अगर पाकिस्तान ने ऐसा कर भी दिया, तो उसे हिम्मत कैसे हुई कि वो इन्हें इसी हाल में भारत को सौंप दे। क्योंकि उन्हें पता था कि 2020 तक महाशक्ति बनने का सपना देख रहे इस देश की हुकूमत चंद कायर और सत्तालोलुप नपुंसक कर रहे हैं।
सरकार चाहे अटल बिहारी वाजपेयी की हो या मनमोहन सिंह की, आतंकवाद हमारी नियति है। ये तो केवल भूमिका बन रही है, हम पर और बड़ी विपत्तियां आने वाली हैं। सरकारें नाकारा हैं, सिस्टम बेकार है। तो दोष किसका है और उपाय क्या है। इन दोनों सवालों का एक ही जवाब है- हम। बीमार भी हम है और दवा भी हम हैं। तो क्या हम आधुनिक बमों, एक-47 और एके-56 राइफलों और आतंकवादियों के अंतरराष्ट्रीय नेटवर्क से मुकाबला कर सकते हैं। बेशक नहीं, इसी के लिए तो हम सरकार चुनते हैं। पर सरकार तो नाकारा है। जी हां, क्योंकि हम नाकारे हैं। सरकार में ये डर नहीं कि देश विरोधी काम करने वालों को बढ़ावा देने के बावजूद हम उसका कुछ बिगाड़ लेंगे। हमें बस यही डर पैदा करना है सरकार में। हम जब तक नपुंसक बने रहेंगे, हमें ऐसी ही घिघियाती, मिमियाती सरकारें मिलती रहेंगी। अफजल जैसे सांपों को दूध पिलाने वाले भ्रष्ट सत्तालोलुपों में हमें डर पैदा करना होगा- सत्ता खोने का डर। आइए एक नया वोट बैंक बनाएं- भारतवासियों का वोट बैंक, राष्ट्रवादियों का वोटबैंक।