धर्मनिरपेक्षता तो भइया, जैसे गरीब की लुगाई हो गई है। अबला पांचाली के तो पांच ही पति थे, लेकिन इस धर्मनिपेक्षता के तो पचीस खसम उसे अपनी अंकशायिनी बनाने के लिए एक-दूसरे की गर्दन उतारने को तैयार हैं। अब धर्मनिरपेक्षता कनफ्यूज हो गई है। बिचारी को समझ ही नहीं आ रहा कि किसे बलात्कारी माने और किसके गले लगे। अभी कुछ महीने पहले तक तो सब ठीक था। उसे समझा दिया गया था कि केवल जो भी हिंदुओं के पक्ष की बात करे, उसे अपनी दुश्मन मान लेना। वह भी खुश थी। केवल एक भाजपा थी, जो उसकी दुश्मन थी। बाकी लालू और मुलायम टाइप के समाजवादी, प्रकाश करात और बुद्धदेव टाइप के वामपंथी, सोनिया और अर्जुन टाइप के कांग्रेसी सब धर्मनिरपेक्ष थे। नीतीश और नवीन टाइप के लोग, वैसे तो धर्मनिरपेक्ष (अल्पसंख्यक हितों के प्रति लगातार निष्ठा जताते रहने के कारण) थे, लेकिन भाजपाइयों के साथ होने के कारण उनके सिर भी धर्मनिरपेक्षता के खून के छींटे थे। तो सीन कुछ साफ था। लेकिन ये एकाएक सब गड़बड़ हो गई है।
एक ओर कांग्रेस ने धर्मनिरपेक्ष गठबंधन की अगुवा होने का दावा ठोंका, तो दूसरी ओर लालू-मुलायम-पासवान की तिकड़ी ने ऐलान कर दिया कि चुनाव के बाद जो धर्मनिरपेक्ष गठबंधन सत्ता बनाएगा, उसमें कांग्रेस शामिल ही नहीं होगी। अब धर्मनिरपेक्षता का तमगा लेने की जब ऐसी होड़ मची हो, तो हिंदू शब्द सुनते ही जिनके पूरे देह में खुजली मच जाती हो, वैसे वामपंथी भला कैसे चुप रहते। तो, हरकिशन सिंह सुरजीत के बाद जोड़तो़ड़ और अवसरवादी राजनीति के नए सरताज बनने को बेताब प्रकाश करात ने भी घोषणा कर दी कि नई धर्मनिरपेक्ष सरकार में कांग्रेस का कोई स्थान नहीं होगा। अभी धर्मनिरपेक्षता बिचारी थोड़ी सांस ले पाती, गणित बैठा पाती और लालू-मुलायम-पासवान के साथ करात की जोड़ी मिला पाती, तब तक करात जी के अनुशासित सिहापी और नंदीग्राम नरसंहार के प्रणेता बुद्धदेव भट्टाचार्य ने कह दिया कि कांग्रेस के बिना तो किसी धर्मनिरपेक्ष सरकार का अस्तित्व ही नहीं हो सकता। लो, फिर वही ढाक के तीन पात। धर्मनिरपेक्षता तो है एक और एक-दूसरे पर तलवार ताने इसके दावेदारों की जमात है कि खत्म होने का नाम ही नहीं लेती।
मुसलमानों पर उठने वाली उंगली के बदले हाथ काटने का ऐलान करने वाले आंध्र प्रदेश के धर्मनिरपेक्ष कांग्रेस अध्यक्ष डी श्रीनिवास, भाजपा के साथ गठबंधन का कलंक धोने के लिए बात-बात में मुस्लिम हितों की सुरक्षा की कसमें खाने वाले धर्मनिरपेक्ष नीतीश कुमार, कंधमाल में स्वामी लक्ष्मणानंद की हत्या के बाद वनवासियों द्वारा चर्च पर किए गए हमलों से आहत धर्मनिरपेक्ष नवीन पटनायक जैसे धर्मनिरपेक्षता के स्वयंभू दावेदार अलग से। आपकी पता नहीं, पर मेरी तो पूरी सहानुभूति है इस धर्मनिरपेक्षता से। आप ही बताएं, क्या करे बिचारी धर्मनिरपेक्षता ?
शनिवार, 25 अप्रैल 2009
शुक्रवार, 24 अप्रैल 2009
नेपाल में बन रही है गृह युद्ध की पृष्ठभूमि
कभी तिब्बत, भारत और चीन के बीच का बफर स्टेट हुआ करता था। नेहरू जी की अदूरदर्शी और आत्म केन्द्रित विदेश नीति के कारण आज वह चीन का हिस्सा बन चुका है। अब निशाने पर नेपाल है। नेपाल भी अब तक भारत और चीन के बीच एक बफर स्टेट का ही काम करता रहा है और 1962 के हमले से अब तक चीन की तमाम शत्रुतापूर्ण कूटनीति के बावजूद कम से कम नेपाल की सीमा पर तो हम बहुत हद तक निश्चिंत ही रहे हैं। लेकिन अब स्थितियां तेजी से बदल रही हैं। हालिया घटना नेपाल के सेना प्रमुख को हटाने की है। भारत ने जहां एक ओर इस घटनाक्रम पर चिंता जताई है, वहीं चीन ने प्रचंड को अपना खुला समर्थन दे दिया है। यह चीन की एक और धूर्त कूटनीति है और साथ ही यह आने वाले कल का एक संकेत भी है।
नेपाल जल्दी ही गृह युद्ध के अगले दौर में प्रवेश करने वाला है। प्रचंड को निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने की सहूलियत और देश में पानी, बिजली, सड़क, रोजगार जैसी व्यवस्थाएं खड़ी करने की कठिनाई समझ में आने लगी है। करीब तीन साल पहले तक जिन राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री बनने में प्रचंड का साथ दिया था, अब वे उनके खिलाफ खड़े होने लगे हैं। वामपंथ और लोकतंत्र कभी एक साथ नहीं चल सकते और पिछले 100 साल की वामपंथी क्रांतियों के इतिहास में शायद ही इसका कोई अपवाद हो। आम जनता (जिन्हें वामपंथियों की शब्दावली में सर्वहारा कहा जाता है) के समर्थन से सत्ता हासिल करने के बाद वामपंथी शासकों ने हर बार पहला काम उसी जनता के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का किया है, लेकिन नेपाल में राजशाही के विरोध में उठी लहर ने इतिहास के इस सबक से आंखें मूंद लीं। इस गलती का परिणाम नेपाल को तो अभी भुगतना ही है, भारत भी उसकी धधक से नहीं बच सकेगा। इसलिए बिना कोई समय गंवाए भारतीय नीति निर्माताओं को इसकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
माओवादियों और नेपाली सेना के टकराव की पृष्ठभूमि समझना जरूरी है। दरअसल यह उन हजारों माओवादियों की रोजी-रोटी की लड़ाई का सवाल है, जिन्होंने प्रचंड के राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होने से पहले 10 सालों तक हिंसा, लूट, अपहरण और अपराध छोड़ कर कुछ किया ही नहीं। अब प्रचंड तो बन गए प्रधानमंत्री, लेकिन ये रंगरूट क्या करें? उनसे यह उम्मीद करना तो बेवकूफी ही होगी न कि वे 10 साल तक अराजक और स्वच्छंद जीवन जीने के बाद अब एकाएक हल पकड़ कर किसान बन जाएं या फिर किराने की दुकान खोल कर आटा और मैदा बेचने लगें। तो फिर वे क्या करेंगे? उनके लिए एक ही काम हो सकता है, और वह है नेपाली सेना में उन्हें शामिल करना। लेकिन जिस नेपाली सेना ने करीब एक दशक तक इन्हीं लुटेरों, हत्यारों के खिलाफ लड़ाई में अपने सैकड़ों जवान शहीद किए हों, उसके लिए इन्हें अपना हिस्सा बनाना एक दुःस्वप्न हो होगा। लेकिन प्रचंड पर अपने पुराने लड़ाकों और कैडर की ओर से भारी दबाव है कि उन्हें सेना में भर्ती किया जाए। इसके अलावा दूसरा पहलू सैनिक निष्ठा का है। नेपाली सेना हमेशा से राजशाही समर्थक मानी जाती रही है। राजशाही नहीं रही, फिर भी उससे माओवादियों के समर्थन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। जबकि देश में अपनी तरह का शासन स्थापित करने के लिए प्रचंड को सेना की बिना शर्त निष्ठा चाहिए और वह उन्हें केवल अपने माओवादी रंगरूटों से ही मिल सकती है।
किसी देश के संदर्भ में विदेश नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश में सरकार हमारे लिए कितनी अनुकूल है। यह दरअसल विदेश नीति का ऐसा पहलू है, जो अब तक हमारी रणनीति में या तो शामिल नहीं रहा है या फिर अदृश्य रहा है। इसीलिए हम जब नेपाल में भारत के दोस्त महाराज वीरेन्द्र विक्रम शाह की पूरे परिवार के साथ हत्या हो गई, तो हम उसे नेपाल का आंतिरक मामला बताकर तमाशा देखते रहे। उसी के बाद से नेपाल में आईएसआई और चीन की पैठ बढ़ती गई और भले ही माओवादियों के नेतृत्व में हुए राजशाही विरोधी आंदोलन को जनता का भारी समर्थन देखा गया, लेकिन इसके पीछे चीन की भूमिका पर शायद ही कोई अध्ययन किया गया हो। अफ्रीका तक पर दबाव डाल कर दलाई लामा का वीजा अस्वीकार करवाने वाले चीन के बारे में कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है कि वह माओवादी आंदोलन के बारे में तटस्थ रहा हो। खास कर तब, जब विदेश नीति का ककहरा जानने वाला भी यह समझ सकता था कि माओवादियों के सत्ता में आने के बाद नेपाल चीन की गोद में बैठ जाएगा और भारत के लिए एक स्थाई सिरदर्द हो जाएगा।
प्रचंड की राह में नेपाली सेना और न्यायपालिका ही सबसे बड़ी बाधा हैं। न्यायपालिका ने पहले पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारी और अब सेना प्रमुख को अपदस्थ करने की प्रचंड की कोशिशों को तो असफल तक दिया है, लेकिन इससे प्रचंड की बढ़ती झुंझलाहट का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। अगले साल तक मौजूदा माओवादी सरकार को नया संविधान लागू करना है, लेकिन प्रचंड के रूख से ऐसा लग रहा है कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं। जिस तरह नेपाल में माओवादी शासन अपना जनसमर्थन खोता जा रहा है, उसमें इस बात की महती संभावना बन रही है कि आने वाले महीनों में प्रचंड पर सत्ता छोड़ने का दबाव बनने लगे और अगर ऐसा हुआ तो प्रचंड के पास अपने पुराने तौर-तरीकों का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा, क्योंकि सत्ता तो वह अब छोड़ने से रहे। ऐसे में उसके लिए चीन का बढ़ता समर्थन हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश की क्या गत बनाएगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। सवाल यह है कि क्या हम एक बार फिर इस समूचे घटनाक्रम के तमाशबीन बने रहेंगे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक और चिरस्थाई सरदर्द छोड़ जाएंगे, या अभी से कोई ठोस रणनीति बनाकर ऐसी पहल करेंगे कि आने वाला समय नेपाल और भारत, दोनों के लिए अमन और विकास की पृष्ठभूमि तैयार करे।
नेपाल जल्दी ही गृह युद्ध के अगले दौर में प्रवेश करने वाला है। प्रचंड को निर्दोष लोगों पर अंधाधुंध गोलियां चलाने की सहूलियत और देश में पानी, बिजली, सड़क, रोजगार जैसी व्यवस्थाएं खड़ी करने की कठिनाई समझ में आने लगी है। करीब तीन साल पहले तक जिन राजनीतिक दलों ने प्रधानमंत्री बनने में प्रचंड का साथ दिया था, अब वे उनके खिलाफ खड़े होने लगे हैं। वामपंथ और लोकतंत्र कभी एक साथ नहीं चल सकते और पिछले 100 साल की वामपंथी क्रांतियों के इतिहास में शायद ही इसका कोई अपवाद हो। आम जनता (जिन्हें वामपंथियों की शब्दावली में सर्वहारा कहा जाता है) के समर्थन से सत्ता हासिल करने के बाद वामपंथी शासकों ने हर बार पहला काम उसी जनता के अधिकारों पर प्रतिबंध लगाने का किया है, लेकिन नेपाल में राजशाही के विरोध में उठी लहर ने इतिहास के इस सबक से आंखें मूंद लीं। इस गलती का परिणाम नेपाल को तो अभी भुगतना ही है, भारत भी उसकी धधक से नहीं बच सकेगा। इसलिए बिना कोई समय गंवाए भारतीय नीति निर्माताओं को इसकी तैयारी शुरू कर देनी चाहिए।
माओवादियों और नेपाली सेना के टकराव की पृष्ठभूमि समझना जरूरी है। दरअसल यह उन हजारों माओवादियों की रोजी-रोटी की लड़ाई का सवाल है, जिन्होंने प्रचंड के राजनीति की मुख्य धारा में शामिल होने से पहले 10 सालों तक हिंसा, लूट, अपहरण और अपराध छोड़ कर कुछ किया ही नहीं। अब प्रचंड तो बन गए प्रधानमंत्री, लेकिन ये रंगरूट क्या करें? उनसे यह उम्मीद करना तो बेवकूफी ही होगी न कि वे 10 साल तक अराजक और स्वच्छंद जीवन जीने के बाद अब एकाएक हल पकड़ कर किसान बन जाएं या फिर किराने की दुकान खोल कर आटा और मैदा बेचने लगें। तो फिर वे क्या करेंगे? उनके लिए एक ही काम हो सकता है, और वह है नेपाली सेना में उन्हें शामिल करना। लेकिन जिस नेपाली सेना ने करीब एक दशक तक इन्हीं लुटेरों, हत्यारों के खिलाफ लड़ाई में अपने सैकड़ों जवान शहीद किए हों, उसके लिए इन्हें अपना हिस्सा बनाना एक दुःस्वप्न हो होगा। लेकिन प्रचंड पर अपने पुराने लड़ाकों और कैडर की ओर से भारी दबाव है कि उन्हें सेना में भर्ती किया जाए। इसके अलावा दूसरा पहलू सैनिक निष्ठा का है। नेपाली सेना हमेशा से राजशाही समर्थक मानी जाती रही है। राजशाही नहीं रही, फिर भी उससे माओवादियों के समर्थन की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। जबकि देश में अपनी तरह का शासन स्थापित करने के लिए प्रचंड को सेना की बिना शर्त निष्ठा चाहिए और वह उन्हें केवल अपने माओवादी रंगरूटों से ही मिल सकती है।
किसी देश के संदर्भ में विदेश नीति की सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि उस देश में सरकार हमारे लिए कितनी अनुकूल है। यह दरअसल विदेश नीति का ऐसा पहलू है, जो अब तक हमारी रणनीति में या तो शामिल नहीं रहा है या फिर अदृश्य रहा है। इसीलिए हम जब नेपाल में भारत के दोस्त महाराज वीरेन्द्र विक्रम शाह की पूरे परिवार के साथ हत्या हो गई, तो हम उसे नेपाल का आंतिरक मामला बताकर तमाशा देखते रहे। उसी के बाद से नेपाल में आईएसआई और चीन की पैठ बढ़ती गई और भले ही माओवादियों के नेतृत्व में हुए राजशाही विरोधी आंदोलन को जनता का भारी समर्थन देखा गया, लेकिन इसके पीछे चीन की भूमिका पर शायद ही कोई अध्ययन किया गया हो। अफ्रीका तक पर दबाव डाल कर दलाई लामा का वीजा अस्वीकार करवाने वाले चीन के बारे में कोई बेवकूफ ही ऐसा सोच सकता है कि वह माओवादी आंदोलन के बारे में तटस्थ रहा हो। खास कर तब, जब विदेश नीति का ककहरा जानने वाला भी यह समझ सकता था कि माओवादियों के सत्ता में आने के बाद नेपाल चीन की गोद में बैठ जाएगा और भारत के लिए एक स्थाई सिरदर्द हो जाएगा।
प्रचंड की राह में नेपाली सेना और न्यायपालिका ही सबसे बड़ी बाधा हैं। न्यायपालिका ने पहले पशुपतिनाथ मंदिर के पुजारी और अब सेना प्रमुख को अपदस्थ करने की प्रचंड की कोशिशों को तो असफल तक दिया है, लेकिन इससे प्रचंड की बढ़ती झुंझलाहट का अंदाजा भी लगाया जा सकता है। अगले साल तक मौजूदा माओवादी सरकार को नया संविधान लागू करना है, लेकिन प्रचंड के रूख से ऐसा लग रहा है कि उनकी प्राथमिकताएं कुछ और हैं। जिस तरह नेपाल में माओवादी शासन अपना जनसमर्थन खोता जा रहा है, उसमें इस बात की महती संभावना बन रही है कि आने वाले महीनों में प्रचंड पर सत्ता छोड़ने का दबाव बनने लगे और अगर ऐसा हुआ तो प्रचंड के पास अपने पुराने तौर-तरीकों का सहारा लेने के अलावा कोई चारा नहीं रहेगा, क्योंकि सत्ता तो वह अब छोड़ने से रहे। ऐसे में उसके लिए चीन का बढ़ता समर्थन हिमालय की गोद में बसे इस खूबसूरत देश की क्या गत बनाएगा, इसकी कल्पना ही की जा सकती है। सवाल यह है कि क्या हम एक बार फिर इस समूचे घटनाक्रम के तमाशबीन बने रहेंगे और आने वाली पीढ़ियों के लिए एक और चिरस्थाई सरदर्द छोड़ जाएंगे, या अभी से कोई ठोस रणनीति बनाकर ऐसी पहल करेंगे कि आने वाला समय नेपाल और भारत, दोनों के लिए अमन और विकास की पृष्ठभूमि तैयार करे।
गुरुवार, 23 अप्रैल 2009
फिर तैयार हो रही है एक असफल विदेश नीति की भूमिका
मेरे एक तमिल मित्र से जब मैंने यह पूछा कि श्रीलंका में चल रहे संघर्ष पर तमिलनाडु की आम जनता क्या सोचती है, तो मैंने यह सोचा था कि जवाब एक बड़े सैद्धांतिक आवरण के साथ डिप्लोमैटिक किस्म का होगा। लेकिन मेरे मित्र ने बहुत साफ कहा कि भले ही प्रभाकरन आतंकवादी हो या चाहे जो कुछ हो, लेकिन इस बात में कोई दो राय नहीं हो सकती कि वह तमिल हितों के लिए लड़ रहा है। इसके बाद उसने जिस रूप में अपनी बात का विस्तार किया, वह काफी गंभीर था और उससे एक ओर तो श्रीलंका को लेकर भारतीय विदेशी नीति की द्वंद्वात्मक स्थिति समझ में आ जाती है, वहीं दूसरी ओर एक राष्ट्र के रूप में भारतीयता के सूत्र की स्थापना पर भी कुछ असहज सवाल उठते हैं।
मेरे तमिल मित्र ने कहा कि आखिर इंदिरा गांधी के समय भारत ने भी तो प्रभाकरण की मदद की ही थी, फिर बाद में उसके बारे में भारतीय नीति क्यों बदली। इस सवाल का जवाब खुद ही देते हुए उसने कहा कि कश्मीर में आतंकवाद के बढ़ने से भारत ने मजबूरन तमिल हितों के लिए अपने समर्थन को तिलांजलि दे दी। कश्मीर तो वैसे भी अपने पास है नहीं, थोड़ा सा हिस्सा बचा है, उसके लिए तमिल हितों के प्रति भारत अपनी जिम्मेदारी से कैसे पीछे हट सकता है। इस दलील में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा झकझोरा, वह था एक ऐसा स्वर, जो कहीं न कहीं कश्मीर को भारत से जोड़े रखने की अहमियत के लिए केवल इसलिए पूरी तरह उदासीन था, क्योंकि उसे लगता है कि यह उसके अपने जातीय भाइयों के हितों के आड़े आ रहा है।
तुलसीदास ने लिखा है, "बहुत कठिन जाति अपमाना।'' करुणानिधि जब प्रभाकरण को अपना दोस्त बताते हैं और वाइको जब प्रभाकरण के समर्थन के लिए जेल जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो जातीय अपमान के प्रति इसी असहनीयता का बोध होता है। तमिलनाडु की जनता के प्रभाकरण और लिट्टे से इसी भावनात्मक जुड़ाव ने श्रीलंका जैसे रणनीतिक तौर पर भारी महत्वपूर्ण देश के प्रति भारतीय विदेश नीति को अपंग बना दिया है। भारत के प्रति घोर शत्रुता का भाव रखने वाले दोनों पड़ोसी देश, पाकिस्तान और चीन इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं। पाकिस्तान से पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका के सामरिक संबंध काफी बढ़े हैं और पाकिस्तानी सेना लिट्टे से लड़ने के लिए श्रीलंका को हथियारों की सीधी आपूर्ति करने लगी है। इधर चीन ने भी सीधे तौर पर लिट्टे के खिलाफ कार्रवाई में राजपक्षे सरकार का पूरा समर्थन कर दिया है।
पाकिस्तान और चीन के इरादे किसी से छिपे नहीं हैं। नेपाल और बंगलादेश में अपना आधार बनाने के बाद आईएसआई को श्रीलंका में भी अपनी उपस्थिति मजबूत करनी है ताकि भारत को घेरा जा सके। दूसरी ओर चीन ने हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है और इस समुद्री सीमा के दूसरे महत्वपूर्ण देशों, जैसे मॉरीशस और सिशली से पहले ही पींगे बढ़ा रहा है। ऐसे में लिट्ट के खिलाफ चल रही कार्रवाई पर भारत की 'दो कदम आगे, एक कदम पीछे' नीति भले ही मानवीय आधार और तमिल जनता की भावनाओं के लिहाज से व्यावहारिक हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज से यह खतरनाक साबित हो सकती है।
सवाल यह है कि भारत के पास विकल्प क्या हैं? भारत दो तरह की रणनीति पर विचार कर सकता है। पहला, राष्ट्रीय स्तर पर एक ताकतवर अभियान चला कर देश की जनता, खास तौर पर पर तमिलनाडु की जनता के दिलोदिमाग में यह बैठाना जरूरी है कि सभी श्रीलंकाई तमिल लिट्टे के सदस्य नहीं हैं और क्योंकि श्रीलंका में एक स्वतंत्र तमिल राष्ट्र की स्थापना व्यावहारिक नहीं है, इसलिए हिंसात्मक अभियान तमिल समाज को न केवल कमजोर करेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रगति और विकास के रास्ते बंद करेगा। दूसरा, राजपक्षे सरकार पर दबाव डाल कर भारत अपनी मशीनरी के बूते श्रीलंका के भीतर बड़े पैमाने पर राहत कार्य चला सकता है और गृह युद्ध में तबाह हुए तमिलों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था अपने कंधों पर ले सकता है। अगर भारत ऐसा कर सका, तो हम तमिल जनभावना का सम्मान करते हुए लिट्टे के खिलाफ सरकारी लड़ाई में पूरी तरह मददगार बन सकते हैं।
श्रीलंका सरकार अभी अपने राष्ट्रीय जीवन की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रही है और इस समय उसका बिना शर्त समर्थन कर पाकिस्तान और चीन उसके लिए वही महत्व प्राप्त कर सकते हैं, जो कभी दुर्योधन का कर्ण के जीवन में हो गया था। कर्ण के जीवन में आए ऐसे ही संकट के समय उसका समर्थन कर दुर्योधन ने उसके जीवन में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जहां कर्ण ने न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित की सारी सीमाएं छोड़ कर दुर्योधन के समर्थन को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसलिए ऐसे मौके पर श्रीलंका को ऐसा संकेत देना, कि हम उसके राष्ट्रीय संकट में उससे मोलभाव कर रहे हैं, हमारी विदेश नीति के लिए घातक साबित हो सकता है।
मेरे तमिल मित्र ने कहा कि आखिर इंदिरा गांधी के समय भारत ने भी तो प्रभाकरण की मदद की ही थी, फिर बाद में उसके बारे में भारतीय नीति क्यों बदली। इस सवाल का जवाब खुद ही देते हुए उसने कहा कि कश्मीर में आतंकवाद के बढ़ने से भारत ने मजबूरन तमिल हितों के लिए अपने समर्थन को तिलांजलि दे दी। कश्मीर तो वैसे भी अपने पास है नहीं, थोड़ा सा हिस्सा बचा है, उसके लिए तमिल हितों के प्रति भारत अपनी जिम्मेदारी से कैसे पीछे हट सकता है। इस दलील में जिस बात ने मुझे सबसे ज्यादा झकझोरा, वह था एक ऐसा स्वर, जो कहीं न कहीं कश्मीर को भारत से जोड़े रखने की अहमियत के लिए केवल इसलिए पूरी तरह उदासीन था, क्योंकि उसे लगता है कि यह उसके अपने जातीय भाइयों के हितों के आड़े आ रहा है।
तुलसीदास ने लिखा है, "बहुत कठिन जाति अपमाना।'' करुणानिधि जब प्रभाकरण को अपना दोस्त बताते हैं और वाइको जब प्रभाकरण के समर्थन के लिए जेल जाने के लिए तैयार हो जाते हैं, तो जातीय अपमान के प्रति इसी असहनीयता का बोध होता है। तमिलनाडु की जनता के प्रभाकरण और लिट्टे से इसी भावनात्मक जुड़ाव ने श्रीलंका जैसे रणनीतिक तौर पर भारी महत्वपूर्ण देश के प्रति भारतीय विदेश नीति को अपंग बना दिया है। भारत के प्रति घोर शत्रुता का भाव रखने वाले दोनों पड़ोसी देश, पाकिस्तान और चीन इसका भरपूर फायदा उठा रहे हैं। पाकिस्तान से पिछले कुछ वर्षों में श्रीलंका के सामरिक संबंध काफी बढ़े हैं और पाकिस्तानी सेना लिट्टे से लड़ने के लिए श्रीलंका को हथियारों की सीधी आपूर्ति करने लगी है। इधर चीन ने भी सीधे तौर पर लिट्टे के खिलाफ कार्रवाई में राजपक्षे सरकार का पूरा समर्थन कर दिया है।
पाकिस्तान और चीन के इरादे किसी से छिपे नहीं हैं। नेपाल और बंगलादेश में अपना आधार बनाने के बाद आईएसआई को श्रीलंका में भी अपनी उपस्थिति मजबूत करनी है ताकि भारत को घेरा जा सके। दूसरी ओर चीन ने हिंद महासागर में अपनी उपस्थिति मजबूत करने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगा रखा है और इस समुद्री सीमा के दूसरे महत्वपूर्ण देशों, जैसे मॉरीशस और सिशली से पहले ही पींगे बढ़ा रहा है। ऐसे में लिट्ट के खिलाफ चल रही कार्रवाई पर भारत की 'दो कदम आगे, एक कदम पीछे' नीति भले ही मानवीय आधार और तमिल जनता की भावनाओं के लिहाज से व्यावहारिक हो, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कूटनीति के लिहाज से यह खतरनाक साबित हो सकती है।
सवाल यह है कि भारत के पास विकल्प क्या हैं? भारत दो तरह की रणनीति पर विचार कर सकता है। पहला, राष्ट्रीय स्तर पर एक ताकतवर अभियान चला कर देश की जनता, खास तौर पर पर तमिलनाडु की जनता के दिलोदिमाग में यह बैठाना जरूरी है कि सभी श्रीलंकाई तमिल लिट्टे के सदस्य नहीं हैं और क्योंकि श्रीलंका में एक स्वतंत्र तमिल राष्ट्र की स्थापना व्यावहारिक नहीं है, इसलिए हिंसात्मक अभियान तमिल समाज को न केवल कमजोर करेगा, बल्कि आने वाली पीढ़ियों के लिए भी प्रगति और विकास के रास्ते बंद करेगा। दूसरा, राजपक्षे सरकार पर दबाव डाल कर भारत अपनी मशीनरी के बूते श्रीलंका के भीतर बड़े पैमाने पर राहत कार्य चला सकता है और गृह युद्ध में तबाह हुए तमिलों के पुनर्वास की पूरी व्यवस्था अपने कंधों पर ले सकता है। अगर भारत ऐसा कर सका, तो हम तमिल जनभावना का सम्मान करते हुए लिट्टे के खिलाफ सरकारी लड़ाई में पूरी तरह मददगार बन सकते हैं।
श्रीलंका सरकार अभी अपने राष्ट्रीय जीवन की सबसे महत्वपूर्ण लड़ाई लड़ रही है और इस समय उसका बिना शर्त समर्थन कर पाकिस्तान और चीन उसके लिए वही महत्व प्राप्त कर सकते हैं, जो कभी दुर्योधन का कर्ण के जीवन में हो गया था। कर्ण के जीवन में आए ऐसे ही संकट के समय उसका समर्थन कर दुर्योधन ने उसके जीवन में वह स्थान प्राप्त कर लिया, जहां कर्ण ने न्याय-अन्याय, उचित-अनुचित की सारी सीमाएं छोड़ कर दुर्योधन के समर्थन को ही अपने जीवन का लक्ष्य बना लिया। इसलिए ऐसे मौके पर श्रीलंका को ऐसा संकेत देना, कि हम उसके राष्ट्रीय संकट में उससे मोलभाव कर रहे हैं, हमारी विदेश नीति के लिए घातक साबित हो सकता है।
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