शनिवार, 25 दिसंबर 2010

हम सब माओवादी हैं, लेकिन...

बिनायक सेन को उम्रक़ैद की सज़ा सुनने के बाद उनकी पत्नी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अवसाद भरा दिन है। यह प्रतिक्रिया थोड़ी अजीब है। माओवाद और चाहे जिस भी तरह की समाजसेवा कर रहे हों, कम से कम देश में लोकतंत्र की जड़ें तो मज़बूत नहीं ही कर रहे हैं। अगर बिनायक सेन की पत्नी को लोकतंत्र की चिंता है, तो इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि शायद एक ग़ैर सरकारी संगठन चला रहे सेन छत्तीसगढ़ सरकार के माओवाद विरोधी उत्साह का मिथ्या शिकार बन रहे हों। आख़िर अपने देश में पुलिस महकमे की सबसे बड़ी विशेषताओं में किसी को कहीं भी और किसी भी अपराध के लिए जेल में डाल देना और फिर उसका अपराध साबित करना भी शामिल है ही। लेकिन फिर सेन के समर्थन में खड़े होने वालों और धरना-प्रदर्शन करने वालों की लिस्ट पर नज़र जाते ही, उनके निर्दोष होने की कहानी का पोपलापन सामने आने लगता है। सेन के मित्र वही लोग हैं, जो माओवादियों के मारे जाने पर मानवाधिकार की दुहाई देने लगते हैं और माओवादी हिंसा को वंचितों और अन्याय के शिकार हुए लोगों की क्रांति कह कर जश्न मनाते हैं। तो दाल में कुछ काला लगना स्वाभाविक है।

फर्ज़ कीजिए की आपके बुज़ुर्ग पिताजी अपने पेंशन का चेक लेने जाएं और वहां क्लर्क 20 मिनट तक केवल इसलिए उन्हें लाइन में खड़ा रखे क्योंकि तेंदुलकर का शतक पूरा होने वाला था और वह क्रिकेट का दीवाना है, तो आप क्या करेंगे। क्या आपका खून नहीं खौलेगा और आपका मन नहीं होगा कि उस क्लर्क के मुंह में कालिख पोतकर, उसका सर मुंडा कर उसे पूरे शहर में घुमा देना चाहिए। अगर आप किसी मंत्री के बेटे या बेटी नहीं है, आपका कोई नज़दीकी संबंधी कहीं का सांसद, विधायक, डीएम, एसपी कोई अन्य प्रशासनिक अधिकारी नहीं है, तो मेरा दावा है कि आपने कम से कम एक दर्ज़न बार तो अपने किसी दोस्त या परिवार में यह प्रतिक्रिया ज़रूर दी होगी कि अमुक अधिकारी या क्लर्क या ड्राइवर या दुकानदार या डॉक्टर या इंजीनियर को चौराहे पर फांसी दे देनी चाहिए। आम लोगों की यह सबसे आम प्रतिक्रिया है, जो व्यवस्था के प्रति उनका गुस्सा व्यक्त करने के काम आता है। माओवादी आम आदमी के इसी गुस्से को अंजाम तक पहुंचाते हैं। बहुत अच्छा काम करते हैं।

माओवादियों के तमाम समर्थक यहीं तक आकर रुक जाते हैं। लेकिन कहानी यहां से आगे बढ़ती है। माओवादी संगठन बनाते हैं और संगठन चलाने के लिए पैसा चाहिए होता है। पैसा ग़रीब किसान और मज़दूर नहीं दे सकते। तो उसके लिए कारोबारियों, ठेकेदारों और वेतनभोगियों की ज़रूरत होती है। अब कोई भी कारोबारी, ठेकेदार या वेतनभोगी अपनी मेहनत की कमाई में से माओवादियों को टैक्स तो दे नहीं सकता। तो, फिर वह अपने-अपने धंधों में बेइमानी करता है। और एक बार फिर कारोबारी, ठेकेदार, इंजीनियर या डॉक्टर की बेइमानी का अंतिम शिकार वहीं ग़रीब किसान और मज़दूर होते हैं, जिन्हें न्याय दिलाने के लिए माओवादियों ने इस सारी कहानी की शुरुआत की थी। तो, यहीं आकर मेरे अंदर का माओवादी भी मर जाता है। क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति जहां मुझे अपील करती है, वहीं संगठन बनाकर राज्य को चुनौती देने का सैद्धांतिक आवरण मुझे डराता है।

इसमें दोष माओवादियों का ही नहीं है, यह तो संगठन का विज्ञान है। चाहे कथित खालिस्तान आंदोलन के नेता हों या कश्मीरी आतंकवाद के अगुवा या फिर उल्फा के अलंबरदार- सब ने करोड़ों की व्यक्तिगत संपत्तियां खड़ी की हैं और यह कोई गुप्त सूचना नहीं है। माओवादियों के प्रेरणा पुरुष नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड से पूछिए। सरकार को हर शोषण एवं अन्याय का मूल कारण बताकर और पूंजीवाद के जुमले गढ़ कर बिना जवाबदेही के अपहरण, हत्याएं और दूसरी आपराधिक गतिविधियां करना तो बहुत आसान है, लेकिन जब ख़ुद उन्हें ही देश का शीर्ष पद दे दिया गया तो वह निरर्थक विवाद पैदा करने और चीन के तलवे चाटने के अलावा कुछ नहीं कर सके। आजकल वह फिर आतंकवादी रास्तों पर लौटने की भूमिका तैयार कर रहे हैं।

मेरा यह सुविचारित मत है कि जंगल में घूमने वाले माओवादियों से ख़तरनाक क़ौम शहरों में रहने वाले कथित बुद्धिजीवी माओवादी हैं। बिनायक सेन की सज़ा पर एमनेस्टी इंटरनेशनल के लंदन कार्यालय से जताई गई चिंता की भाषा और तेवर देखिए। आपको समझ में आ जाएगा कि इन मानवाधिकार की आड़ में माओवाद बेच रहे ये कथित बुद्धिजीवी कितने ख़तरनाक हैं। गिलानी के साथ गलबहियां कर कश्मीर में भारतीय शासन को दुनिया का सबसे क्रूर और दमनकारी शासन बताने वाली अरुंधति राय इसी ख़तरनाक क़ौम का एक सिरा हैं। इसलिए जंगल को माओवादियों के सफाए से पहले इन शहरी माओवादियों को नकेल डालना बहुत ज़रूरी है, या कहें कि माओवाद पर विजय की पूर्व शर्त है। सवाल यह है कि रमन सिंह की सरकार की तरह क्या मनमोहन सिंह की सरकार भी इस पूर्व शर्त को पूरा करने का हिम्मत और इच्छा शक्ति रखती है।

शुक्रवार, 15 अक्तूबर 2010

ये हिंदू उदारता के वेस्ट बाईप्रोडक्ट्स हैं, इन्हें झेलते रहिए

इमाम अब्दुल्ला बुखारी ने पत्रकारों से भरे प्रेस कांफ्रेंस में एक पत्रकार को खुद भी पीटा और अपने गुंडों से भी पिटवाया। एक उर्दु अखबार के उस पत्रकार का दोष यह था कि उसने एक ऐसा सवाल पूछ लिया था, जो बुखारी को पसंद नहीं आया। सवाल था कि 1528 में अयोध्या के राम जन्मभूमि का खेसरा राजा दशरथ के नाम था। तो राजा रामचंद्र ही उसके स्वाभाविक उत्तराधिकारी होंगे। यह बात उच्च न्यायालय ने भी स्वीकार की है और सुन्नी वक्फ बोर्ड के वकील जिलानी को भी इसकी जानकारी है। तो आपसी भाईचारे के लिए मुसलमान भाई क्यों नहीं राम जन्मभूमि हिंदुओं को सौंप देते। सवाल सुनने भर की देरी थी कि एक प्रसिद्ध ऐतिहासिक मुस्लिम पूजा स्थल के मुख्य पुजारी ने गुंडों की भाषा में चिल्लाते हुए पत्रकार अब्दुल वहीद चिश्ती को गंदी और भद्दी गालियां दीं, उन्हें कौम का दुश्मन करार दिया और उनका सर कलम करने का आदेश दिया।

कल्पना कीजिए कि इस घटना में बुखारी की जगह विश्व हिंदू परिषद या बजरंग दल का कोई नेता होता या किसी प्रतिष्ठित मंदिर के पुजारी होते, तो क्या होता। एनडीटीवी जैसे सेकुलर चैनल की अगुवाई में तमाम फेसबुकिए सेकुलरों ने हंगामा खड़ा कर दिया होता। देश के गृहमंत्री ने तो पहले ही आतंकवाद पर भगवा रंग पोत दिया है, अब हिंदू संगठन और पुजारियों के लिए भी नए-नए विशेषण गढ़े जा रहे होते। लेकिन देखिए सेकुलरिज्म का चमत्कार। सेकुलरों के मुंह पर ताला जड़ा है। बुखारी की गुंडागर्दी का यह पहला उदाहरण नहीं है। अभी कुछ साल पहले इसने जी न्यूज के एक पत्रकार (इत्तेफाक से वह भी मुस्लिम थे) पर भी हमला करवाया था। इसके बावजूद मुझे याद नहीं आता कि बात-बात में हिंदू प्रतीकों, संगठनों और परंपराओं पर नाक-मुंह बिचकाने वाले सेकुलरों ने कभी औपचारिकता के लिए भी इसके खिलाफ अपने जीमेल स्टेटस में या फेसबुक लेबल में विरोध दर्ज कराया हो।

यही है भारत में सेकुलरिज्म का असली चरित्र। क्योंकि खुद को हिंदू विरोधी नहीं कह सकते, तो सेकुलर कहा जाता है। इन्हें मुसलमानों से भी प्रेम नहीं है। इन्हें बुखारियों, मदनियों और गिलानियों से प्रेम है। कोई मुसलमान इन लोगों के खिलाफ खड़ा होकर तो देखे, समर्थन तो दूर की बात ये सेकुलर उन्हें सहानुभूति देने तक नहीं आएंगे। अफसोस की बात यह है कि इसमें आप और हम तो क्या कहें, खुद ये सेकुलर भी कुछ नहीं कर सकते। इनकी मानसिक रचना ही कुछ ऐसी है, जन्मगत संस्कार ही कुछ ऐसे हैं। हिंदू संस्कृति और गौरव से जुड़ी हर बात का विरोध करने में इन्हें असीम आनंद का अनुभव होता है और उसी से उन्हें ऊर्जा भी मिलती है। इसलिए इनमें सुधार की उम्मीद व्यर्थ है। ये हिंदू परंपरा की उदारता के वेस्ट बाईप्रोडक्ट्स (कचरे) हैं, इन्हें झेलते रहिए।

गुरुवार, 2 सितंबर 2010

चिदंबरम साहब, मैंने आपको ग़लत समझा, मुझे माफ़ कर दीजिए

चिदंबरम साहब ने आतंकवाद को भगवा रंग दे दिया। बड़ा बवाल हुआ। भाजपा वाले हंगामा करने लगे और संघी आंखें चौड़ी तरेरने लगे। एक हिंदू होने और भारतीय इतिहास एवं संस्कृति में भगवा रंग का महत्व समझने के कारण मेरे मन में भी काफी उग्र प्रतिक्रिया हुई। एक-दो मित्रों के साथ चर्चा में मैंने चिदंबरम साहब को भला-बुरा भी कहा। लेकिन आज मुझे अपनी ग़लती का एहसास हो गया है। मैं चिदंबरम साहब से माफी मांगना चाहता हूं।

आज टीवी चैनलों पर मैंने सचमुच भगवा आतंकवाद का एक चेहरा देखा। भगवा चोले और भगवा पगड़ी में खड़ा वह आतंकवादी बड़ी निर्लज्जता से बिहार में नक्सलियों द्वारा चार पुलिसवालों के अपहरण को उचित ठहरा रहा था। वह कह रहा था कि क्योंकि बहुत से नक्सलियों को मामूली आरोपों के कारण जेल में बंद रखा गया है, इसलिए उन्हें छुड़ाने के लिए नक्सलियों का यह कृत्य सौ फीसदी सही है। वह सरकार को नसीहत (या शायद नक्सलियों की ओर से धमकी) दे रहा था कि वह नक्सलियों को प्रोवोक न करे।

मुझे तुरंत लगा कि मैंने चिदंबरम साहब को समझने में भूल कर दी। भगवा के पीछे छुपा अग्निवेश नाम का यह आतंकवादी सचमुच देश के लिए बहुत बड़ा खतरा है। किसी भी नक्सली से ज्यादा ख़तरनाक। क्योंकि यह आपके और हमारे बीच रहता है, मंचों पर शांति और मानवता की बातें करता है। ख़ास बात यह है कि वह ख़ुद चिदंबरम साहब और उनकी पार्टी की तरह सेकुलर है। चिदंबरम साहब की ही तरह उसका भी मानना है कि इस्लाम के नाम पर होने वाले हज़ारों विस्फोटों और लाखों क़त्लों के बावजूद इस्लामिक आतंकवाद शब्द ग़लत होगा।

और मुझे पूरा भरोसा है कि जब चिदंबरम साहब ने भगवा आतंकवाद को देश के लिए उभरता हुआ ख़तरा बताया था, तो ख़ुद भगवा में लिपटे रहने के बावजूद वह बहुत खुश हुआ होगा, क्योंकि इससे पूरे हिंदू समाज और हिंदू इतिहास पर कलंक के छीटें उड़ते हैं। लेकिन अब बात साफ हो गई है। चिदंबरम साहब का वैचारिक मित्र है यह आतंकवादी, इसलिए गृहमंत्री जी की राजनीतिक मज़बूरी भी समझनी चाहिए। सीधे अग्निवेश सरीखे आतंकवादियों के ख़तरे को बताने के बजाए उन्होंने उसे भगवा आतंकवादी क़रार दिया। कांग्रेसी हैं न बेचारे, तो उन्हें न हिंदू होने का मतलब पता है, न भगवा का। सो थोड़ी सी ग़लती कर गए। लेकिन अब मैं समझ गया हूं, इसलिए देश से प्रार्थना है कि वह चिदंबरम साहब को माफ़ कर दे और ख़ुद चिदंबरम साहब से प्रार्थना करता हूं कि वह मुझे माफ़ कर दें।

शनिवार, 21 अगस्त 2010

इंडिया इंक के डायरेक्टरों का वेतन 1 करोड़ सालाना तो होना ही चाहिए

सांसदों का वेतन तीन गुना होने पर पूरा देश गुस्से और घृणा से भरा हुआ है। मैं इस पूरे मसले के उठने के दिन से ही सोच रहा हूं कि ऐसा क्यों है? मुकेश अंबानी, रतन टाटा, नंदन नीलेकणी और ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका मासिक वेतन भी कुछ करोड़ रुपयों में है, लेकिन उनके प्रति तो कभी हमें गुस्सा नहीं आता। एक इंजीनियर, प्रोफेसर या टेलीविजन पत्रकार का औसत वेतन भी 30-40 हज़ार रुपए हो चुका है, तो फिर सांसदों का वेतन 16 हज़ार रुपए क्यों होना चाहिए? इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि 10-15 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले, हर महीने सैकड़ों लोगों की मेजबानी करने वाले और हर हफ्ते किसी ने किसी के निजी कार्यक्रम में शामिल होने और गिफ्ट देने वाले सांसदों का वेतन बढ़ना चाहिए। फिर यह गुस्सा और घृणा क्यों?

मुझे लगता है कि यह गुस्सा और घृणा सासंदों पर नहीं बल्कि उनके सांसदपने पर है? हमारे देश के छह दशकों के महान लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी कमाई है कि हमारे यहां राजनेता गुंडागर्दी, अपराध, भ्रष्टाचार और हर तरह की सामाजिक बुराई का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुके हैं। एक राजनेता सांसद चुने जाने के लिए 10-10 करोड़ रुपए तक खर्च करता है। बढ़े हुए वेतन के साथ भी उसका पांच साल का वेतन होगा करीब 2.5 करोड़। तो क्या इसी के लिए वह 10 करोड़ रुपए खर्च करता है?

सांसदों पर इस देश की सुरक्षा से लेकर कृषि और शिक्षा से लेकर कारोबार तक के लिए नीतियां और कानून बनाने की ज़िम्मेदारी है। हमारे सांसद अपनी इस ज़िम्मेदारी को कितनी अच्छी तरह निभाते हैं, हम सबको पता है। कई बार तो कोरम पूरा नहीं होने के कारण संसद में किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा तक टालनी पड़ती है। और तो और, संसद के अंदर सवाल पूछने जैसे अपने मूल कर्तव्य के पालन के लिए भी सांसदों द्वारा घूस लिए जाने की घटना सामने आ चुकी है। हर सांसद को उसके 5 साल के कार्यकाल में सीधे उसके माध्यम से खर्च करने के लिए 10 करोड़ की रकम मिलती है। इसके अलावा दसियों सरकारी योजनाओं के लिए मिलने वाली करोड़ों रुपए की अन्य रकम भी सांसदों के ज़रिए खर्च होती है। इनमें वास्तव में कितना कल्याण योजनाओं पर खर्च होता है और कितना जनप्रतिनिधियों की अगुवाई में सरकारी अधिकारियों के बंदरबांट में निकल जाता है, इसका अनुमान हर भारतीय को है।

तो अब जब लालू जी के नेतृत्व में तमाम सांसदों ने (वामपंथियों को छोड़कर) जब अपने को ग़रीबी का पुतला बना कर वेतन बढ़ाने के लिए अभियान छेड़ ही दिया है, तो यह देश के लिए एक अच्छा मौक़ा है। तमाम सांसदों को देश रूपी कंपनी के बोर्ड का डायरेक्टर मानते हुए 1-1 करोड़ रुपए सालाना वेतन दे दिया जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही उन्हें मिलने वाली अनगिनत अन्य सुविधाएं वापस ली जानी चाहिए। वे और उनकी पत्नियों के लिए ट्रेन में प्रथम श्रेणी की आजीवन यात्रा सुविधा के अलावा विमान में मुफ्त टिकट, लुटियंस ज़ोन में मुफ़्त बंगले आदि की सुविधाएं वापस लेना चाहिए। बोर्ड की यानी संसद की बैठकों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य करनी चाहिए। उनके लिए सीएल, पीएल, मेडिकल और सिक लीव तय होनी चाहिए और उससे ज्यादा छुट्टी लेने पर उन्हें विदाउट सैलेरी करना चाहिए। जो फंड उन्हें जनता के लिए दिया जाए, उसके एक-एक पैसे का हिसाब उसी तरह होना चाहिए जैसे किसी कंपनी के डायरेक्टरों के हस्ताक्षर से खर्च होने वाली रक़म का होता है। साथ ही भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में पकड़े जाने पर उन्हें बोर्ड से बाहर किया जाना चाहिए।

लालू जी को प्रधानमंत्री बनने का बड़ा शौक़ है। सो एक दिन के लिए ही सही, एक छद्म संसद बनाकर वह प्रधानमंत्री तो बन ही गए। और इत्तेफाक़ तो देखिए, वह छद्म प्रधानमंत्री बने भी तो उसी काम के लिए, जिसके लिए वह वास्तव में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं- और ज्यादा पैसे बनाने के लिए। तो ये जिस योजना का ब्लूप्रिंट मैं यहां रख रहा हूं, वह निश्चित तौर पर ऐसे सांसदों के बूते की नहीं है जो लालू जैसे नेता को केवल अपना वेतन बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री मानने को तैयार हैं। तो फिर... । इस यूटोपिया को पाने के लिए किसी और नेता की ज़रूरत है, जो कम से कम अभी तो दृष्टिपटल पर नहीं। तो, तब तक हर मंच पर इसके लिए आवाज़ उठाते हुए उस नेतृत्व का इंतज़ार करते हैं।

शुक्रवार, 20 अगस्त 2010

सोनिया जी, आप महान हो, आपको शत-शत प्रणाम

सोनिया जी, आज सभी अखबारों में आपका बयान पढ़ा। आपने बहुत ही सख़्त चेतावनी दी है राष्ट्रमंडल के घोटालेबाजों को। आपने कहा है कि खेल आयोजन ख़त्म होने के बाद किसी भी दोषी को छोड़ा नहीं जाएगा। वाह, इसे कहते हैं टाइमिंग। जिस सरकार और जिस पार्टी में आपकी मर्ज़ी के बिना पत्ता तक नहीं हिलता है, वहां अगर कहीं किसी को पहले आपके इस रुख़ का अहसास हो गया होता, तो सब गड़बड़ हो जाती। हज़ारों करोड़ की लूट नहीं हो पाती और देश की प्रतिष्ठा मटियामेट नहीं हो पाती।

जो खेल सालों पहले से तय थे, जिसकी निगरानी के लिए आपके लाडले के विराट व्यक्तित्व की छत्रछाया में 2005 में ही समिति का गठन हो चुका था, जिसके आयोजन क्षेत्र यानी दिल्ली में आपके दरबार में शीर्षासन करने वालों की सरकार 12 साल से है, जिन खेलों का सूत्रधार आपकी पार्टी का एक सांसद है, उन खेलों के आयोजन में हो रहा घोटाला महीनों से मीडिया की सुर्खियां बना रहा। लेकिन आपने पूरी तरह यह सुनिश्चित किया कि आपकी चेतावनी खेल शुरू होने से केवल 45 दिन पहले ही सामने आए। जब पहले ही 650 करोड़ रुपए के बजट पर 35,000 करोड़ रुपए की लूट हो चुकी है।

आखिर इस देश के प्रधानमंत्री को भी तो केवल 59 दिन पहले ही इन खेलों पर पहली बार ध्यान देने की ज़रूरत महसूस हुई। ईमानदारी और सुराज के प्रति आपकी निष्ठा... वाकई बेजोड़ है। लेकिन ये देश में जो कैग और सीवीसी जैसे कुछ बदमाश संगठन हैं न, आपको परेशान करने पर तुले रहते हैं। दोनों ने टेलीकॉम मंत्री राजा के खिलाफ जांच शुरू कर दी है। दोनों कह रहे हैं कि राजा जी ने टेलीकॉम लाइसेंस देने में 26,000 करोड़ रुपए का घोटाला कर दिया। अब इतनी बड़ी बात कहने से पहले इन्हें आपसे भी तो सलाह ले लेनी चाहिए थी। लेकिन कोई बात नहीं।

आपने दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय देते हुए कानून मंत्रालय को राजा जी की सुरक्षा में उतार दिया है। आपके कानून मंत्रालय ने कैग और सीवीसी की औकात बताते हुए कह दिया है कि उन्हें न तो इस तरह घोटाले उजागर करने का अधिकार है और न ही उन्हें इसके लिए जिम्मेदारी दी गई है। अब अगर इतने से ही काम हो गया, तो ठीक है, लेकिन अगर ज्यादा हल्ला-हंगामा होगा, तो आप फिर एक बयान दे ही देंगी कि कानून को अपना काम करने दिया जाएगा। आपका बयान सारे अखबारों के पहले पन्ने की सुर्खी बन जाएगा और आपकी सरकार एक बार फिर सार्वजनिक जीवन में शुचिता का प्रतीक बन जाएंगी। आपकी यह रणनीति अचूक है।

मैं इसीलिए आपका फैन हूं। आपको प्रधानमंत्री बनने से रोककर कुछ मूर्खों को ऐसा लगा कि वह उन्होंने आपके प्रभाव की सर्वव्यापी चादर पर कैंची चला दी। लेकिन अगले कुछ वर्षों के भीतर हरकिशन सिंह सुरजीत से लेकर लालू, मुलायम, अमर सिंह जैसे नेताओं को अपने दरबार में नाक रगड़वा कर आपने यह साबित कर दिया कि उन मूर्खों को आपके महान व्यक्तित्व का ज़रा भी आभास नहीं था। आपको राजनीति का नवसिखुआ मानने वालों से बड़ा बुद्धू कौन है? देखिए न, आपका गृहमंत्री नक्सलवाद के खिलाफ पूरी ताकत झोंक दे रहा है और आपके राहुल बाबा के ड्रीम प्रोजेक्ट उत्तर प्रदेश का पार्टी प्रभारी आए दिन उसी गृहमंत्री के खिलाफ अखबारों में लेख लिख रहा है और बयान दे रहा है। बीच-बीच में आपके दरबारी रिपोर्टर अखबारों में यह ख़बर भी देते रहते हैं कि पार्टी हाईकमान ने दिग्विजय जी को गै़रज़िम्मेदाराना बयान न देने की ताक़ीद कर दी है। अब बताइए न, वास्तव में जिस दिन आप दिग्विज जी को एक बार यह चेतावनी दे देंगी, उसके बाद उनकी जबान तालू से न चिपक जाएगी। लेकिन, राजनीति का यह गुर दशकों तक चप्पल घिस कर थोड़े ही सीखा जाता है, जो भाजपाई और वामपंथी समझ जाएंगे। यह तो आपको दैवी वरदान है।

देश के होने वाले प्रधानमंत्री और आपके सुपुत्र ग़रीब जनता के साथ मिट्टी की टोकरी कंधे पर उठाकर तस्वीरें खिंचवाते हैं और सामाजिक-आर्थिक रूप से सबसे ज़्यादा पिछड़े वर्गों के घरों में रात बिताते हैं। यह ज़रूर आप ही की समझदारी होगी। नहीं तो आपकी सरकार ने जिस तरह ग़रीबों का आटा गीला किया है और जीवन की मूलभूत सुविधाओं को भी लग्ज़री बना दिया है, उसके बाद भी आप की पार्टी ग़रीबों की सबसे हमदर्द होने का दावा करे, यह कमाल कैसे हो सकता था। आपकी प्रतिभा का लोहा तो देश को उसी दिन मान लेना चाहिए था, जब आपने एक मिट्टी के माधो को अपने परिवार की सवा सौ करोड़ लोगों की प्रजा का भाग्यनियंता तय कर दिया। क्या शानदार चुनाव था आपका। जैसे नरसिंह राव ने देश की हर समस्या का समाधान चुप्पी में ढूंढ लिया था, वैसे ही डॉ मनमोहन सिंह के लिए हर बीमारी का रामबाण इलाज मंत्रियों का समूह है, जिसे जीओएम कहते हैं।

यहां तक कि सरकार के ही दो विभागों की आपसी लड़ाई में भी प्रधानमंत्री मामला जीओएम को ही सौंप देते हैं। इसीलिए तो राष्ट्रमंडल जैसे राष्ट्रीय महत्व के विषय को उन्होंने शीला दीक्षित और कलमाडी की बिटिया की शादी का आयोजन सरीखा बनवा दिया। वैसे ही, कश्मीर जैसे अहम राष्ट्रीय मसले पर वह कानों में तेल डाले सोए रहे और जब घाटी में आम लोगों का नक़ाब पहने अलगाववादियों के प्रदर्शन में 50 से ज़्यादा जानें चली गईं और पूरी जनता भारत विरोधी नारे लगाने लगी, तब उनकी ओर से पहला बयान आया। बयान भी क्या? अलगाववादियों के एजेंडे यानी स्वायत्तता और सुरक्षा बलों के विशेष अधिकार वाले कानून पर विचार करने का बयान। मानना पड़ेगा सोनिया जी आपकी पारखी नज़रों को। दस साल पहले आपने अपने एजेंडे को पूरा करने वाला एक ऐसा व्यक्ति तलाश लिया, जो शैक्षणिक डिग्रियों और करियर प्रोफाइल में तो इस देश की व्यवस्था का मज़बूत स्तंभ लगे, लेकिन 7, रेसकोर्स में बैठकर आपके एजेंडे पर मुहर लगाए।

जैसे हरि अनंत, हरि कथा अनंता, उसी तरह आपकी भी महिमा अपरंपार है। पूरी धरती को कागज़ और सातों समुंदरों को स्याही बनाकर भी उसका गान नहीं किया जा सकता। उम्मीद है मेरी इस छोटी सी कोशिश में आपके जो बहुत सारे दूसरे चमत्कारों की चर्चा नहीं हो पाई है, उसके लिए आप मुझे माफ करेंगी। आप महान हैं, आपको शत-शत नमन।

शनिवार, 7 अगस्त 2010

कश्मीर को बचाना है तो यही एक रास्ता है

आज ज़ी न्यूज के क्राइम रिपोर्टर कार्यक्रम में तीन घटनाएं दिखाई गईं। पहली घटना में, हरिद्वार में बलात्कार के आरोपी दो वीडियो डायरेक्टरों को दारोगा जी थाने के बाहर खुलेआम पीट रहे थे। बाकी पुलिस वाले गंडों की तरह उन्हें घेर कर खड़े थे और सरगना अपनी गुंडागर्दी दिखा रहा था। दूसरी में, दिल्ली पुलिस ने एक पटरी कारोबारी को अतिक्रमण हटाने का विरोध करने के आरोप में हिरासत में लिया और दो घंटे बाद कारोबारी के घर वालों को उसकी लाश मिल गई। और तीसरी घटना, बेंगलुरु में एक पार्टी में हंगामा करने के आरोप में 16 छात्रों को थाने में लाने के बाद दारोगा ने उनकी पिटाई की और छोड़ने के लिए घूस मांगा। 15 हज़ार रुपए से शुरू की गई मांग आख़िरकार 300 रुपए प्रति छात्र पर आकर टिकी और वसूली के बाद छात्रों को छोड़ा गया। किसी एक छात्र ने मोबाइल फोन से इस घटना की वीडियो फ़िल्म बना ली और स्क्रीन पर नोट गिनता दारोगा साफ दिख रहा था। घटना का विश्लेषण कैसे किया जाएगा? पुलिस की दरिंदगी, ख़ाकी का रौब, पुलिसिया गुंडागर्दी, पुलिस की ब्रिटिश ज़माने की कार्यपद्धति इत्यादि-इत्यादि।

अब एक प्रयोग कीजिए। घटनाएं वही रहने देते हैं, जगह बदल देते हैं। पहली घटना हरिद्वार की जगह कश्मीर के पुलवामा की है, दूसरी श्रीनगर की और तीसरी नौशेरा की। अब देखिए, विश्लेषण के विशेषण बदल जाएंगे। भारतीय पुलिस और अर्द्धसैनिक बलों की दरिंदगी, भारतीय ख़ाकी का रौब, भारत की गुंडागर्दी, भारतीय बलों की कार्यपद्धति इत्यादि-इत्यादि। जिस कश्मीर में चंद वर्षों पहले आतंकवादियों की धमकियों के बावजूद लाखों की संख्या में सड़कों पर निकल कर लोगों ने लोकतांत्रिक ढंग से सरकार चुनने के लिए वोट दिया, उसी कश्मीर में आज सड़कों पर खुले-आम आज़ादी के नारे लग रहे हैं। जो खबरें आ रही हैं, उनसे तो यही लग रहा है कि इन नारों को पाकिस्तानी भोंपू की आवाज़ कह कर ख़ारिज कर देना सही नहीं होगा। इन नारों में बच्चों की, औरतों की और बूढ़े-बुज़ुर्गों की आवाज़ें भी शामिल हैं। यह अलग बात है कि ये सारी खबरें बचपन से पाकिस्तानी प्रोपेगेंडे और आतंकवाद समर्थक मस्जिदों से आने वाले भारत विरोधी फतवों के बीच पले-बढ़े कश्मीरी रिपोर्टरों द्वारा फाइल की जा रही हैं, लेकिन फिर भी, बिना किसी विकल्प के मैं इन्हें सही मान लेता हूं। तो कुल मिलाकर तस्वीर यह बन रही है कि कश्मीर आज़ाद होना चाहता है। भारत एक औपनिवेशिक ताक़त है, जिसने कश्मीर पर कब्ज़ा कर रखा है और जिसके 7 लाख सैनिक चंगेज खां के सैनिकों की तरह हर कश्मीरी बच्चे को बंदूकों के संगीनों पर उछाल रहे हैं और हर कश्मीरी महिला की आबरू लूट रहे हैं। विश्वास मानिए, अपने देश में (कश्मीर के अलावा) इस तस्वीर को सच मानने वालों की एक पूरी जमात है। लेकिन जो लोग ऐसा मानते हैं, उनके लिए मैं अपना लेख यह कहते हुए यहीं समाप्त करता हूं कि उन्हें एक बार कम से कम हफ्ते भर के लिए श्रीनगर, और हो सके तो, कश्मीर के कस्बों में घूम आएं।

जिन लोगों को लगता है कि कश्मीर भारत का उसी तरह हिस्सा है, जैसा कि उनके अपने धड़ पर जमा सिर, वे मेरे साथ आगे चल सकते हैं। वहां वर्षों से हम देख रहे हैं, सुन रहे हैं कि कश्मीर में होने वाले हर भू-स्खलन, आने वाली हर बाढ़ और होने वाले हर हिमपात में देश के कोने-कोने से वहां पोस्टेड सैनिक कश्मीरियों की मदद करते हैं। हर वक्त किसी भी दिशा से होने वाले संभावित हमले का जोखिम झेलते हुए चौबीसों घंटे गश्त लगाते हैं। और जनता के प्रति दोस्ती के सैकड़ों व्यवहार करने के बाद भी जब हजारों की संख्या में लोग उनपर पत्थर फेंकते हैं, तो उन्हें संयम रखना होता है। इसके विपरीत आतंकवादियों को चाहे भय से या लालच से, वहां के घरों के पनाह मिलती है। वे घरों में रुकते हैं, रात को खाना खाते हैं, घर की लड़कियों का बलात्कार करते हैं और सुबह चले जाते हैं। उनके खिलाफ़ कोई चूं नहीं करता। किसी भी किसी एक पुलिस वाले की निजी वहशियत और लालच, पूरी भारत सरकार की साज़िश क़रार दी जाती है।

पहले मुझे भी लगता था कि कश्मीर की समस्या का समाधान वहां की जनता के दिलों को जीत कर किया जा सकता है। लेकिन पिछले कुछ समय की घटनाओं ने इस तस्वीर का एक बिलकुल नया ही आयाम सामने आया है। पिछले साल अमरनाथ के यात्रियों के लिए वहां की सरकार ने कुछ सुविधाएं घोषित की थी। लेकिन जिस तरह वहां की जनता ने व्यापक पैमाने पर उन सुविधाओं का विरोध किया, उससे राज्य के अलगाववादियों का एजेंडा साफ हो गया। वैसे तो पाकिस्तान के रोडमैप पर चलने वाले आतंकवादियों का एजेंडा काफी सालों पहले उसी समय साफ हो गया था, जब चुन-चुन कर कश्मीरी हिंदुओं को घाटी के बाहर खदेड़ दिया गया था।

लेकिन उसके बाद से कांग्रेसियों, फारूक़ अब्दुल्ला सरीखे नेताओं और यासीन मलिक जैसे कथित उदारवादी अलगाववादियों के कश्मीरी पंडितों की घर वापसी के समर्थन में दिए गए भ्रामक बयानों से यह ग़लतफ़हमी बनी रही कि यह एजेंडा कश्मीरी मुसलमानों का नहीं, मुट्ठी भर आतंकवादियों का है। पर, अमरनाथ यात्रियों को दी गई सुविधाओं के खिलाफ उठे आंदोलन ने यह ग़लतफ़हमी दूर कर दी। यह दरअसल उसी सत्य का प्रतिस्थापन था कि मुसलमान तभी तक सेकुलर रहता है, जब तक वह अल्पसंख्यक होता है।

जिस देश में हज पर जाने वाले हर मुसलमान को 40 हजार रुपए की सब्सिडी (2009-10 में हज सब्सिडी के लिए सरकारी खजाने से 941 करोड़ रुपए खर्च किए गए) दी जाती है, वहां देश के हिस्से में तीर्थ जाने वाले हिंदुओं को सुविधा देने की सरकारी कोशिश स्थानीय मुसलमानों को इतनी नागवार क्यों गुजरनी चाहिए? वह भी तब जब अमरनाथ की यात्रा पर जाने वाले हर हिंदू को इसके लिए अतिरिक्त टैक्स देना होता है। अमरनाथ जाने वाले यात्रियों के लिए सरकार ने केवल 99 एकड़ (0.4 वर्ग किलोमीटर) ज़मीन अधिगृहित की थी। वो भी इस शर्त के साथ कि उस पर केवल यात्रा के सीजन में अस्थाई निर्माण किए जाएंगे।

लेकिन कश्मीर के मुसलमानों को यह बर्दाश्त नहीं हुआ। इसके विरोध में 5 लाख मुसलमानों का जुलूस निकला, जो कश्मीर के इतिहास में किसी एक दिन में हुआ अब तक का सबसे बड़ा प्रदर्शन है। यह है कश्मीरी मुसलमानों का सेकुलरिज़्म। अक्सर कहा जाता है कि अमरनाथ के लिए दी जाने वाली खच्चर या पालकी सेवा तो मुसलमान ही देते हैं या कि अमरनाथ के शिवलिंग की व्यवस्था एक मुसलमान परिवार करता है। यानी जब कमाई और चढ़ावे से फायदा लेने की बात आती है तो कश्मीरी मुसलमान सेकुलर हो जाता है, लेकिन जैसे ही श्रद्धालुओं को चंद सुविधाएं देने की बात आती है, तो वे सड़कों पर उतर आते हैं। वाह रे सेकुलरिज़्म।

कश्मीरी मुसलमानों ने साबित कर दिया है कि भारत उनके लिए केवल सुविधाएं और धन लूटने का ज़रिया भर है। आतंकवाद एक ऐसा कमाऊ पूत है, जिसका भय दिखा-दिखा कर कश्मीर के कई सियासी परिवार करोड़पति हो चुके हैं। कश्मीर में केवल सेना पर हर साल सैकड़ों करोड़ रुपए खर्च हो रहे हैं और लाखों सैनिक अपने परिवारों से दूर हर समय जानलेवा हमले के साए में नारकीय जीवन जी रहे हैं। कश्मीर को भारत से जोड़े रखने के लिए पहली ग़लतफ़हमी तो यह ख़त्म करनी होगी कि कश्मीर, कश्मीरियों का है। इसलिए कि कश्मीरी की परिभाषा क्या है? क्या लाखों की संख्या में कश्मीरी से खदेड़े गए हिंदू कश्मीरी नहीं हैं? अगर हैं, तो दशकों से वे कश्मीर से बाहर क्यों हैं?

हालिया पत्थरबाज़ी और प्रदर्शनों में भी सोपोर में दो कश्मीरी हिंदुओं के घरों को जलाने की घटना सामने आई। अगर कश्मीर, कश्मीरियों का है तो सोपोर में हिंदुओं के घर क्यों जलाए गए। इसलिए, कि चाहे कम्युनिस्ट यह न मानें और कांग्रेसियों को यह मानने में जबान हलक में अटकती हो, लेकिन यही सच्चाई है कि कश्मीर में मौजूद हर हिंदू को वहां भारत की उपस्थिति का सूचक माना जाता है। अगर भारत कश्मीर को बचाना चाहता है, तो इस संकेत से इसकी दवा ढूंढनी होगी। कश्मीर, कश्मीरियों का नहीं भारत का है। जिसे भारत में नहीं रहना, वह यहां से जा सकता है।

कश्मीर को बचाना है तो एकमात्र उपाय है वहां का जनसंख्या संतुलन बदलना। मीडिया को वहां से बाहर निकालिए, दुनिया को चिल्लाने दीजिए। श्रीलंका ने दुनिया को दिखा दिया है कि अपनी घरेलू समस्याओं को सुलझाने के लिए केवल इच्छाशक्ति की ज़रूरत होती है, अमेरिका या यूरोप के समर्थन की नहीं। दो चरणों में कार्यक्रम बनाइए। पहले चरण में बड़े-बड़े शहर बसाइए और वहां घरों से निकाले गए कश्मीरी हिंदुओं को ससम्मान स्थापित कीजिए। दूसरे चरण में सेवानिवृत्त सैनिकों और अर्धसैनिक बलों की बस्तियां बसाइए। बस्तियां सुनते ही इजरायली बू आती है। लेकिन दोनों मामलों में कोई समानता नहीं है, इसलिए इस पर रक्षात्मक होने की कोई ज़रूरत नहीं है। जब तक कश्मीर में जनसंख्या का अनुपात 60 मुसलमानों पर कम से कम 40 हिंदुओं का न हो जाए, कश्मीर को भारत से जोड़े रखने के लिए इसी तरह बेहिसाब मेहनत, धन और जानें खर्च होती रहेंगीं।

गुरुवार, 1 जुलाई 2010

कश्मीर का हर रिपोर्टर कश्मीरी ही क्यों होना चाहिए?

एक सवाल है- गुजरात के दंगों की रिपोर्टिंग करने के लिए लगभग सभी चैनलों और अखबारों ने दिल्ली से अपने रिपोर्टर भेजे थे। कश्मीर की रिपोर्टिंग के लिए हमेशा कश्मीरियों को ही क्यों सबसे उपयुक्त माना जाता है? गुजरात के ज़्यादातर स्थानीय अखबारों और चैनलों ने गुजरात दंगों के दौरान मोदी सरकार की भूमिका की सराहना की, लेकिन उन्हें मोदी समर्थक और साम्प्रदायिक मानकर ख़ारिज कर दिया गया। कश्मीर की स्थानीय मीडिया की अलगाववादियों से सहानुभूति रखते हुए की जाने वाली रिपोर्टिंग पर सवाल क्यों नहीं उठाए जाते?

मेरे मन में ये सवाल इसलिए आ रहे हैं, क्योंकि मैंने पिछले 4 दिनों में दसियों अखबारों और चैनलों की कश्मीर रिपोर्टिंग देखी है। मुझे एक भी रिपोर्टर ग़ैर कश्मीरी नहीं दिखा। तमामचैनलों के रिपोर्टरों की रिपोर्टिंग सुनी मैंने। सब पहले से आखिरी लाइन तक केवल यही बता रहे हैं कि सुरक्षा बलों की गोलियों से मारे गए बच्चों की उम्र 10 साल, 13 साल, 17 साल और ब्ला-ब्ला... थी। न एंकर ने यह पूछने की जहमत उठाई कि मारे गए इन बच्चों को क्या घर से उठा कर लाया गया था, न रिपोर्टर ने यह बताना उचित समझा कि ये बच्चे उन दंगाइयों में शामिल थे, जो सुरक्षा बलों पर पथराव कर रहे थे।

फ़र्ज कीजिए, आपके शहर में धारा 144 लागू है। आपके घर के बाहर पुलिस की गोलियों की आवाज़ सुनाई दे रही है और लोग पुलिस वालों पर हमले कर रहे हैं। आप 9 साल के अपने छोटे भाई के साथ बाहर निकलते हैं और अपने भाई को एक पत्थर थमाते हुए कहते हैं कि सीधे पुलिस वाले के सर पर मारना। छोटा बच्चा है, आपने ख़ुद तो दीवार की ओट ले ली और बच्चा बेचारा सड़क के बीच मे आकर पत्थर चलाने लगा। पुलिस की रबर की गोली उसकी छाती में लगी और आपके नन्हे से भाई ने वहीं दम तोड़ दिया। आपके भाई का हत्यारा कौन है?

यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा है कि अगर पथराव करने वालों में 30 साल, 32 साल, 40 साल, 28 साल, 37 साल और इसी तरह बड़ी उम्र वाले शामिल हैं, तो मरने वाले केवल बच्चे ही क्यों हैं? क्या इसका मतलब यह नहीं कि कश्मीर के पत्थरबाज छोटे बच्चों को ह्युमन शील्ड के तौर पर इस्तेमाल कर रहे हैं? कश्मीर में पत्थरबाजी की कहानी अब राज़ नहीं रह गई है। सबको पता है कि वहां पत्थरबाजी एक धंधा बन गया है। बेरोजगार युवकों को इसके लिए बाक़ायदा रुपए दिए जाते हैं। इसके लिए शहर के बाहर से पत्थर आयात किए जाते हैं और सुरक्षा बलों पर उन्हें फेंकने के लिए ज़खीरा तैयार किया जाता है। पत्थर फेंकने वाले गुस्से से भरे आंदोलनकारी नहीं होते, बल्कि पेशेवर और भावशून्य बेरोजगार युवक होते हैं, जिन्हें इसके बदले रुपए दिए जाते हैं।

तो फिर कश्मीर पर रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकार इन बातों को क्यों नहीं उभारते? इसका जवाब आप ख़ुद सोचिए, क्योंकि कुछ सच्चाइयां ऐसी होती हैं, जिन्हें बोलना या सुनना बहुत कड़वा लगता है। जहां पूरे समाज में ही दिन-रात भारत के खिलाफ विष घोला जाता हो, जहां भारतीय दूरदर्शन से ज्यादा पाकिस्तानी टीवी का प्रोपेगेंडा असर करता हो, जहां शासन के आदेश से ज्यादा मस्जिद की घोषणाओं को तवज़्जो़ दी जाती हो, जहां हर भारतीय सैनिक की छवि हत्यारे और बलात्कारी के तौर पर स्थापित की जाती हो, उस माहौल में पले-बढ़े रिपोर्टर से कैसी रिपोर्टिंग की उम्मीद करेंगे आप? गुजरात की अदालतों तक को निष्पक्ष न मानने वाले हम भारतीय अगर कश्मीर की हर आवाज़ को सच मान रहे हैं, तो हमारी सोच के साथ कुछ गड़बड़ तो है।

शुक्रवार, 25 जून 2010

लॉन्ग लिव हेगड़े, येद्दुरप्पा इज डेड

'पार्टी विद ए डिफरेंस' के भारतीय जनता पार्टी के दावे की हवा तो बहुत पहले निकल चुकी थी, अब कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े के इस्तीफे के बाद उसे अगर 'पार्टी विद एग ऑन इट्स फेस' (कालिख पुते चेहरे वाली पार्टी) कहा जाए, तो शायद ही कोई अतिशयोक्ति होगी। पब में लड़कियों को बाल पकड़ कर घसीटते हुए गुंडों का संरक्षण करने वाली कर्नाटक की भाजपा सरकार ने इस बार ईमानदारी को अपना निशाना बनाया है।

पिछले साल जब कच्चे लोहे के तस्कर और राज्य के मंत्री रेड्डी भाइयों की ओर से सरकार गिराने की धमकियों के बाद टेलीविजन चैनलों पर येद्दुरप्पा का आंसू बहाता चेहरा हमने देखा था, तो लगा था कि एक ईमानदार, शरीफ राजनेता रेड्डी भाइयों की राजनीति का शिकार हो रहा है। मुझे उस समय भी आश्चर्य हो रहा था कि क्यों भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सरकार में मंत्री बनाए गए तीन तस्करों के आगे घुटने टेक रहा है। हो सकता है कि यही सरकार बचाने की कीमत रही हो, लेकिन अगर किसी भी कीमत पर सरकार बचाना ही राजनीति है, तो इस पार्टी के किसी भी नेता के मुंह से 'नैतिकता' और 'मूल्य' जैसे शब्द निकलते ही चार जूते लगाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश और लोकायुक्त हेगड़े ने इस्तीफा देते हुए जिन बातों का खुलासा किया है उसके बाद मुझे समझ में आ रहा है कि येद्दुरप्पा के आंसू दरअसल उनकी शराफत के नहीं, बल्कि उनकी नपुंसकता के आंसू थे। वे आंसू थे, जिंदगी भर के सपने यानी मुख्यमंत्री का पद छिनने के डर के। हेगड़े देश से विलुप्त होती उस दुर्लभ प्रजाति का हिस्सा हैं, जो ईमानदारी को अपना सर्वोच्च धर्म मानती है। उन्होंने रेड्डी भाइयों की तस्करी पर लगाम कस दिया था। कई भ्रष्ट वरिष्ठ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने उनके डर से इस्तीफे दे दिए थे। उन्होंने जिन निष्ठावान और ईमानदार अधिकारियों की अपनी टीम बनाई थी, उनका कहना है कि तीन वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने कभी किसी जांच में हस्तक्षेप नहीं किया और कभी अपनी ज़िम्मेदारी को दूषित नहीं होने दिया।

जिस शासन में जनप्रतिनिधि और पुलिस वाले अपना घर भरने में लगे हों, वहां हेगड़े ग़रीब और बेसहारा लोगों के लिए भगवान की तरह थे, जो अस्पताल से खदेड़ दी गई एक ग़रीब औरत के रात दो बजे किए गए फोन पर प्रतिक्रिया देते हुए अस्पताल फोन करते थे और उसके आठ महीने के बच्चे की भरती सुनिश्चत करवाते थे (हेगड़े के बारे में कर्नाटक में प्रचलित कई कहानियों में से एक)। ऐसे हेगड़े जब इस दर्द के साथ इस्तीफा देते हैं कि पूरी भाजपा सरकार भ्रष्टाचार का पोषण कर रही है, तो निर्लज्ज येद्दुरप्पा एक शातिर राजनेता की तरह यह बयान देते हैं कि उन्हें इस घटना से बहुत सदमा लगा है, लेकिन हेगड़े साहब का शर्मिंदा न करने के लिए वह उनसे इस्तीफा वापस लेने को नहीं कहेंगे। ठीक ही है। येद्दुरप्पा, रेड्डी और गडकरी से शर्मिंदा होने की तो उम्मीद की नहीं जा सकती, हेगड़े ही शर्मिंदा होने के लिए रह गए हैं अब।

सिद्धांत गढ़ने और लच्छेदार ज़ुमले उछालने में भाजपा नेताओं का कोई सानी नहीं है। भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करने वाली यह पार्टी है, जिसके शासन वाले राज्यों में गुजरात को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा हो, जिसके मुखिया पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप न हों। ज्यादा भयंकर बात यह है कि इन आरोपों पर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को कोई शर्म नहीं आती, उसके कानों पर जूं नहीं रेंगती। अगर उसका मुख्यमंत्री शातिर है, राज्य को लूट का अड्डा बना कर भ्रष्ट विधायकों को अपने काबू में रख रहा हो, तो इससे शीर्ष नेतृत्व को कोई परेशानी नहीं है।

यह मरती हुई पार्टी के सांसों से उठती दुर्गंध है। मेरी चिंता यह है कि स्वामी विवेकानंद, शिवाजी महाराज, मदनमोहन मालवीय, डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, बाल गंगाधर तिलक और ऐसे ही सैकड़ों खालिस चरित्रवान और देशभक्त महापुरुषों के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देकर चुनाव जीतने वाली भाजपा का यह घिनौना चेहरा देश की जनता का भरोसा पूरे सिद्धांत से कमजोर कर देगा क्योंकि आखिरकार किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके नेता के भाषण से नहीं, बल्कि उसके कृत्य से बनता है।

गुरुवार, 24 जून 2010

जसवंत की बाइज़्ज़त वापसी के साथ ही बेआबरू हुई भाजपा

भारतीय जनता पार्टी में जसवंत सिंह की वापसी हो गई है। जसवंत का पार्टी से निकाला जाना और उनकी पार्टी में वापसी, दोनों का भाजपा के इतिहास में खास महत्व रहेगा। मज़ेदार बात यह है कि भले ही ये दोनों घटनाएं आपस में एक दूसरे की पूरक दिख रही हों, मुझे लगता है कि ये दोनों ही पार्टी में आ रही ज़बर्दस्त गिरावट और उसके पतन की राह में दो महत्वपूर्ण मील के पत्थर है। जसवंत सिंह को निकालने के पीछे वजह बहुत ही साफ और तार्किक थी, लेकिन तरीक़ा बिलकुल अलोकतांत्रिक और ग़ैर-राजनीतिक था। खबरें ऐसी भी आई थीं कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और राजस्थान की भाजपा नेता वसुंधरा राजे की व्यक्तिगत राजनीति के कारण जसवंत की बलि ली गई। एक एंगल संघ का भी था।

कारण जो भी रहा हो, जिस तरीके से यह पूरी कार्रवाई की गई, उससे साफ था कि यह पार्टी की अंदरूनी राजनीति का हिस्सा था। लेकिन इसके पीछे की वजह बिलकुल उचित थी। पार्टी के शीर्ष पर बैठा नेता अगर पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में ही यक़ीन नहीं रखता, तो उसके पार्टी में रहने का कोई कारण नहीं है। हालांकि जिस तरह शिमला की बैठक के लिए पहुंचने के बाद बिना स्पष्टीकरण मांगे राजनाथ ने उन्हें होटल में ही फोन कर के हटाए जाने की सूचना दी, वह पार्टी के व्यक्तिवादी और पतनशील होते जाने का एक लाजवाब उदाहरण था। मेरा स्पष्ट मत है कि यह विकल्प जसवंत को देना चाहिए था कि या तो वह अपनी लिखी क़िताब के उस हिस्से को एक्सपंज करें यानी वापस लें, जिसमें उन्होंने लिखा है कि जिन्ना विभाजन के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं या फिर स्वयं पार्टी छोड़ दें। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और उन्हें आनन-फानन में पार्टी से निकाल दिया गया।

अब उस घटना के क़रीब 10 महीने बाद पार्टी को यह लग रहा है कि बीती बातों को भुला देना चाहिए। 'बीती बातें' !!! राष्ट्रीय जीवन के सार्वभौम सिद्धांत क्या कभी पुराने पड़ सकते हैं? ख़ास बात यह है कि जसवंत ने इस दौरान एक बार भी जिन्ना या सरदार पटेल पर अपने विचारों में बदलाव का संकेत तक देना ज़रूरी नहीं समझा। यानी जसवंत ने अपनी निजी साख पर तो धूल का एक कण तक नहीं लगने दिया, लेकिन पार्टी के कर्णधारों ने पार्टी की साख को पूरे कालिख में ही रंग दिया। वाह री कैडर आधारित पार्टी की सैद्धांतिक निष्ठा।

अब मामला बातों और मुद्दों का तो है ही नहीं, अब मामला ताकतवर शख़्सियतों की व्यक्तिगत इच्छाओं का है। आपकी शक़्ल मुझे अच्छी लगती है, आप रोज़ सुबह-शाम मेरे को हाज़िरी देते हैं, आप मेरी हर हां में हां मिलाते हैं, पार्टी में आपका रहना मेरी व्यक्तिगत ताक़त को बढ़ाता है, तो आप पार्टी के लिए अपरिहार्य हैं। और फिर जिन्ना तो आडवाणी की भी कमज़ोर नस हैं। जसवंत की वापसी एक तरह से आडवाणी के पाकिस्तान में दिए बयान पर पार्टी की मुहर है। साथ ही यह इस बात का भी सबूत है कि भाजपा पर से संघ का नियंत्रण पूरी तरह ख़त्म हो गया है। यह इस बात का भी सबूत है कि भारतीय जनता पार्टी में सामूहिक नेतृत्व अब केवल भाषणबाजी का विषय रह गया है और सिद्धांत की राजनीति केवल अगरबत्ती दिखाने की धार्मिक कवायद रह गई है।

मंगलवार, 22 जून 2010

हर दिन लग रहा है कांग्रेस का आपातकाल

आडवाणी का कहना है कि एंडरसन को भारत से भगाना आपातकाल जैसी घटना थी। उन्होंने इस सूची में एक तीसरी घटना को भी शामिल किया है- इंदिरा गांधी की हत्या के बाद दिल्ली में हुआ सिक्खों का सामूहिक नरसंहार। सूची पूरी हो गई। लेकिन क्या सचमुच पूरी हो गई? आपातकाल में बुराई क्या थी? मेरी जैसी जिस पीढ़ी ने उन ढाई सालों को महसूस नहीं किया है, झेला नहीं है, उसके लिए यह समझना बहुत मुश्किल है। इसलिए कि हम कहीं आपातकाल का इतिहास नहीं पढ़ते। आज़ादी के दौरान हुए अत्याचारों को तो हम फिर भी जानते हैं, लेकिन आपातकाल के दौरान क्या हुआ, हमें नहीं पता। अगर ग़ैर कांग्रेसी नेताओं के भाषणों और कुलदीप नैयर जैसे कुछ पत्रकारों को छोड़ दें, तो कभी कोई आपातकाल की विभीषिका के बारे में नहीं बताता। लगता है जैसे, देश को आपातकाल से कोई परेशानी नहीं थी, कोई नुकसान नहीं था। क्या यही सच है? उलटे हमारी पीढ़ी के लोगों को तो बहुत बार यही बताया जाता है कि उस समय ट्रेनें बिलकुल समय पर चलती थीं और भ्रष्टाचार लगभग ख़त्म हो चुका था। तो क्या सचमुच आपातकाल देश का एक ऐसा स्वर्णकाल था, जिसमें नेताओं और पत्रकारों को छोड़ कर किसी को कोई तकलीफ नहीं थी।

मुझे लगता है इसका जवाब 'हां' में होना चाहिए। भारत में आम जनता बिलकुल ही आम है। उसका सिद्धांत वाक्य है- कोउ नृप होए हमें का हानि। डॉक्टर को अपनी क्लिनिक चलने से मतलब है, इंजीनियर को अच्छी सैलेरी वाली नौकरी से मतलब है, दुकानदार को अपनी दुकान चलने से मतलब है और अब तो पत्रकार को भी खूब चमक-दमक वाले और ऊंचे वेतन के करियर से ही मतलब रह गया है। यही कारण है कि समाज का आम इंसान आपातकाल को किसी डरावने सपने की तरह याद नहीं करता। लेकिन मेरी व्यक्तिगत समझदारी यह है कि आपातकाल ने आम लोगों को जितना नुकसान पहुंचाया, उतना किसी को नहीं। आपातकाल ने इस पूरे देश की नसों में एचआईवी के ऐसे कीटाणु छोड़े, जो सालों निष्क्रिय रहने के बाद अपना असर दिखा रहे हैं। आपातकाल भले ही ढाई साल में खत्म हो गया हो, लेकिन आपातकाल के संस्कार देश अब तक झेल रहा है। यह संस्कार दरअसल कांग्रेस के खून में है और क्योंकि कांग्रेस इस देश की सबसे स्वाभाविक शासक है और इसलिए आपातकालीन एचआईवी भी पूरे देश के खून में समा चुका है।

आपातकाल क्यों बुरा था? दरअसल देश में राजनेताओं का अहंकार और उनकी महत्वाकांक्षा आजादी के तुरंत बाद से ही अपना रंग दिखाने लगी थी। इसके बावजूद जवाहरलाल नेहरू का राजनीतिक कद इतना बड़ा था कि तमाम संस्थाएं उनके सामने बौनी नज़र आती थीं। इस कारण सत्ता के कर्णधारों और शासन की संस्थाओं के बीच कभी टकराव नहीं हुआ। नेहरू के बाद शास्त्री जी आए, जो नेता के लिबास में संत के समान थे। और इसलिए उनके छोटे से शासनकाल में भी देश की संस्थाओं की निष्ठा और पवित्रता बहुत हद तक अक्षुण्ण रही। लेकिन इंदिरा गांधी के समय से चीजें बदलने लगीं। इंदिरा गांधी को सिंडिकेट ने गूंगी गुड़िया क़रार दिया था और कोई यह मानने को तैयार नहीं था कि उनकी सत्ता को चुनौती नहीं दी जा सकती। क्योंकि देश की संस्थाएं देश के संविधान के प्रति जवाबदेह होती हैं, इसलिए अगर सत्ता और संस्था में से कोई भी एक भ्रष्ट हो जाए, तो दोनों में टकराव निश्चित है।

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने इंदिरा गांधी का निर्वाचन अवैध ठहराया और आपातकाल लागू हो गया। इंदिरा के नेतृत्व वाली कांग्रेस को यह समझ में आ गया देश पर लंबे समय तक निर्बाध शासन करने के लिए यहां की संस्थाओं को भ्रष्ट करना आवश्यक है। आपातकाल से यह काम शुरू हो गया। कांग्रेस ने देश की संवैधानिक जड़ों में मट्ठा डालना शुरू किया। संविधान की शपथ लेने वाले आईएएस और आईपीएस अधिकारियों की सेवानिवृत्ति के बाद राजदूत, राज्यपाल और ऐसे पदों पर नियुक्ति शुरू हो गई ताकि सारे वरिष्ठतम अधिकारी यह समझ लें कि सरकार का साथ देने में क्या फायदे हैं। उच्च और उच्चतम न्यायालय के सेवानिवृत्त न्यायाधीशों को मानवाधिकार आयोग जैसे शक्तिशाली और सुविधायुक्त पदों पर बैठाया जाने लगा, जिससे उनके सामने हमेशा सरकार से पंगा न लेने का लोभ बना रहे। तमाम समितियों, आयोगों और ऐसे दूसरे वैधानिक पदों पर नियुक्तियों के लिए कोई तय मानदंड न बनाकर भ्रष्टाचार के रास्ते साफ रखे गए। इन सारी प्रक्रियाओं का सारांश इंदिरा के समय देश का प्रथम नागरिक, संविधान का केयरटेकर और तीनों सेनाओं का प्रमुख यानी राष्ट्रपति बनने वाले एक व्यक्ति का वह बयान है, जिसमें उसने कहा था कि वह इंदिरा गांधी के घर झाड़ू तक लगाने के लिए तैयार है। इंदिरा जी गईं, आपातकाल गया, लेकिन कांग्रेस ने संस्थाओं को भ्रष्ट करने का संस्कार आत्मसात कर लिया। चुनाव आयोग में नवीन चावल की नियुक्ति और प्रोन्नति इसका सबसे प्रकट उदाहरण है।

और इसी कड़ी में सबसे ताजा उदाहरण है यूलिप पर सेबी और इरडा में हुई लड़ाई पर सरकार का फैसला। सेबी और इरडा के बीच यूलिप (शेयर बाजार में निवेश के साथ बीमा सुविधा देने वाला उत्पाद) पर अधिकार को लेकर झगड़ा चल रहा था। सेबी के प्रमुख सी बी भावे और इरडा के जे हरिनारायण को सरकार की ओर से निर्देश मिले कि वे हाईकोर्ट में एक संयुक्त याचिका दाखिल करें। लेकिन भावे ने अपनी पहल पर मामले को सुप्रीम कोर्ट में ले जाने का फैसला किया। फिर क्या था, सरकार को गुस्सा आ गया। सरकार की ओर से हरिनारायण को संपर्क किया गया और कहा गया कि एक मसौदा तैयार करें ताकि यूलिप पर इरडा का नियंत्रण हो सके। यानी एक अभिभावक ने दो बच्चों की लड़ाई में फैसला लिखने का अधिकार इसलिए एक के हाथ में दे दिया, क्योंकि दूसरे ने उसकी बात मानने से इंकार कर दिया। क्या सरकारें ऐसे काम करती हैं? यूलिप में आम लोगों के लाखों करोड़ रुपए लगे हैं, इस भरोसे पर कि सरकार उनके हितों की निगहबान है। लेकिन सरकार केवल अपने अहंकार को तुष्ट करने के लिए किसी एक रेगुलेटर को इसकी कमान थमाने का फैसला कर रही है। अब सोचिए प्रणव मुखर्जी के एहसानों से दबे जे हरिनारायण इरडा प्रमुख के हैसियत से निवेशकों के हितों की सुरक्षा करेंगे या सरकार और कांग्रेस पार्टी के हितों की।

यही कांग्रेस की कार्यसंस्कृति है, जो उसे इंदिरा गांधी और आपातकाल से विरासत में मिली है। संस्थाओं को भ्रष्ट करने की कार्यसंस्कृति। संवैधानिक पदों को भ्रष्ट करने की कार्यसंस्कृति। यह केवल एंडरसन को भगाने में नहीं है, बल्कि यह कांग्रेस सरकारों के हर दिन के कामकाज का अभिन्न हिस्सा है।

रविवार, 20 जून 2010

क्या यह सचमुच गुजरात को बिहार का स्वाभिमानी जवाब है?

बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने आखिरकार गुजरात को 5 करोड़ रुपए लौटा ही दिए। बहुत ही अजीब सी घटना है। जैसे, स्कूल के एक बच्चे ने किसी दिन चार दोस्तों के बीच मजाक में इस बात का जिक्र कर दिया हो कि उसने अपने फलां दोस्त को अपनी टिफिन में से एक परांठा खिलाया था और परांठा खाने वाले बच्चे को बात इतनी बुरी लगी हो कि अगले दिन वह मां से जबरन परांठा बनवा कर लाया हो और पूरे स्कूल के सामने अपने दोस्त के सामने परांठा फेंक कर हेठी से कहा हो, 'ले! उस दिन खाई थी, आज वापस कर दी।'

नीतीश कुमार ने कुछ ऐसी ही बचकानी हरकत की है कोसी आपदा फंड से पैसे लौटा कर। मैंने जब से खबर सुनी, सोच ही रहा था कि इसका विश्लेषण कैसे करना चाहिए? पहले मुझे लगा, यह उभरते हुए बिहार का आत्मसम्मान है। कुछ ऐसा ही आत्मसम्मान लाल बहादुर शास्त्री ने भी तो अमेरिका को दिखाया था, जब उन्होंने वहां जानवरों को खिलाए जाने वाले पीएल-80 किस्म की गेहूं का आयात बंद कर हरित क्रांति का नारा दिया था। लेकिन क्या वास्तव में गुजरात सरकार का विज्ञापन बिहार का अपमान करने की मंशा से दिया गया था? नीतीश के पैसा लौटाने की घोषणा के अगले दिन पटना के गांधी मैदान में भाषण देते हुए नरेंद्र मोदी ने जो कहा, कम से कम उससे तो ऐसा लगता नहीं। मोदी ने बिहार को लातूर भूकंप के समय मदद देने के लिए धन्यवाद दिया। उन्होंने यहां तक कहा कि वह गुजरात में रहने वाले लाखों बिहारियों के प्रतिनिधि के तौर पर उनका कुशल क्षेम देने उनके घर आए हैं और उन्होंने गुजरात के विकास में बिहारियों के योगदान के लिए भी बिहार को धन्यवाद दिया। फिर यह मानने का कोई कारण नहीं है कि नीतीश की प्रतिक्रिया उभरते बिहार के आत्मसम्मान पर लगे चोट का जवाब है। तो यह क्या है?

सरकारी विज्ञापन देने की प्रक्रिया हम सब को पता है। वह मुख्यमंत्री, प्रधानमंत्री या रेल मंत्री तय नहीं करते। अभी हाल में क्या हमने भारत सरकार के एक विज्ञापन में पाकिस्तानी सेनाधिकारी की तस्वीर नहीं देखी थी? क्या हाल ही में रेल मंत्रालय के एक विज्ञापन में दिल्ली को पाकिस्तान का हिस्सा नहीं दिखाया गया था? मीडिया में कुछ हो-हंगामे के अलावा विपक्ष तक ने उन विज्ञापनों को तूल नहीं देकर समझदारी का ही परिचय दिया। लेकिन नीतीश में यह समझदारी नहीं है। क्या सच में नीतीश में समझदारी नहीं है? पिछले चार साल का जद (यू)- भाजपा गठबंधन का शासनकाल दरअसल नीतीश का वन मैन शो ही है। नतीश की कार्यप्रणाली कुछ-कुछ कांग्रेस के गांधी परिवार सी है। शासन की सारी शक्ति नीतीश से निकलती है और वहीं समाप्त होती है। इन चार सालों ने नीतीश को नेता से प्रशासक बना दिया है। अंग्रेजी में बात ज्यादा साफ होगी- नीतीश अब लीड नहीं करते, एडमिनिस्टर करते हैं। उनका अहंकार संगठन और शासन दोनों से बड़ा हो गया है और इसलिए उन्हें ऐसी कोई बात बर्दाश्त नहीं, जो उनके अहंकार को चुनौती देती हो।

बिहार में पिछले चार साल के शासनकाल में मुस्लिम तुष्टीकरण का जो नंगा खेल खेला जा रहा है, वह अद्भुत है। क्योंकि भाजपा सरकार का हिस्सा है, इसलिए मुस्लिमपरस्ती के ऐसे दसियों मसले हैं, जो न मीडिया में आ रहे हैं और न ही लोगों की जानकारी में। लेकिन नीतीश कुमार का लक्ष्य बहुत साफ है। उन्हें न तो बिहार के आत्मसम्मान की चिंता है, न बिहारियों की अपेक्षाओं की। उन्हें मुसलमानों का वोट चाहिए। किसी भी कीमत पर। क्योंकि तभी वह भाजपा को दुलत्ती मार कर अपने बूते सरकार में आ सकते हैं।

यह स्थिति बहुत करीब भी है। क्योंकि मुसलमान, महादलित (नीतीश की नई परिभाषा में) और कुर्मी एवं कोइरी उनके साथ हैं। यादव, ओबीसी की कई जातियां और मुसलमानों का एक वर्ग लालू के साथ है। अगड़ी जातियां कुछ तो जद (यू) के बागी नेताओं के साथ टूटेंगी और बाकी कांग्रेस के हलका सा भी मजबूत होते ही, उसकी झोली में जा गिरेंगी। भारतीय जनता पार्टी अपनी भ्रमित राजनीति और सुशील मोदी जैसे स्वार्थी तथा पदलोलुप नेताओं के कारण मटियामेट होने ही जा रही है। ऐसे में नीतीश के सामने वह विज्ञापन एक धारदार हथियार के तौर पर हाथ आया, जिसे भुनाने के लिए उन्होंने तुरंत वार कर दिया।

कुल मिलाकर इस घटना से तीन बातें बहुत साफ तौर पर सामने आई हैं। एक, नीतीश की प्रतिक्रिया केवल एक शातिर और अहंकारी राजनेता की राजनीतिक चाल है। दूसरी, नरेंद्र मोदी की प्रतिक्रिया ने एक बार फिर उन्हें राष्ट्रीय स्तर पर नेतृत्व का मजबूत उम्मीदवार बना कर पेश किया है। और तीसरी बात यह, कि भारतीय राजनीति में मुसलमानों को खुश करने के लिए कोई दल या नेता किसी भी स्तर तक जा सकता है।

शुक्रवार, 18 जून 2010

अभी और होंगे बहुत से भोपाल

मैक्सिको की खाड़ी में ब्रिटिश पेट्रोलियम की तरफ से हुई तबाही और उस पर सख़्त अमेरिकी रुख़ के बाद कंपनी द्वारा चुस्ती से कार्रवाई करते हुए 20 अरब डॉलर का मुआवज़ा दिए जाने की घटना से भारतीयों के मन में क्षोभ है, गुस्सा है। अमेरिकी भेदभाव का गुस्सा। यूनियन कार्बाइड और डाओ केमिकल की उदासीनता का गुस्सा। यह गुस्सा इस बात का प्रमाण है कि अभी और भी बहुत से यूनियन कार्बाइड होने बाकी हैं। यह गुस्सा इस बात का प्रमाण है कि भारत अब भी ग़ुलाम मानसिकता के साथ जी रहा है। आंखों में महाशक्ति बनने के सपने के बावजूद हृदय की गहराइयों में हम ग़ुलाम हैं।

कोई हमारे देश में आकर हमारी ही धरती पर क़त्ल-ए-आम करके चला जाता है और उसे न केवल क़त्ल करने के बाद निकलने में, बल्कि क़त्ल करने में भी वे लोग सहयोग देते हैं, जिनके लिए हम जय-जयकार के नारे लगाते हैं। फिर भी, हमारा गुस्सा ओबामा और बीपी पर निकलता है। चुरहट लॉटरी में करोड़ों की रकम डकारने वाले (जिसमें यूनियन कार्बाइड ने भी कुछ करोड़ रुपए का 'अनुदान' दिया था) अर्जुन सिंह तिल-तिल मरने वाले उस समाज में आज भी सुरक्षित घूम रहे हैं। उनके घर में अब भी आग नहीं लगाई गई है।

एंडरसन को देश से निकालने में सूत्रधार की भूमिका निभाने वाले राजीव गांधी की बेवा आज भी चुपचाप मूर्ख, जाहिल और तलवे चाटने वाले कांग्रेसियों की भगवान बनी हुई है, 6 साल के अपने केंद्रीय शासनकाल और 10 वर्षों से ज्यादा से अपने राज्य शासन के दौरान चुपचाप भोपाल को मरते देखने वाली और वोट मांग कर सत्ता का जश्न मनाने वाली भारतीय जनता पार्टी के निर्लज्ज नेता अब भी अपने एयरकंडीशन मीडिया रूम में बैठकर प्रेस कॉन्फ्रेंस कर रहे हैं। उनके घर और कार्यालय अब भी मटियामेट नहीं हुए। तो ओबामा और बीपी की न्यायप्रियता पर सवाल उठाना क्या केवल हमारी नपुंसक ग़ुलाम मानसिकता का परिचायक नहीं है।

तुलसीदास 500 साल पहले ही कह गए थे- समरथ को नहीं दोष गोसाईं। जनसंहार के हथियारों की काल्पनिक कहानी बनाकर इराक को नेस्तोनाबूद कर देने की कहानी दरअसल अमेरिका के सामर्थ्य की ही कहानी है। दूसरी तरफ महाशक्ति बनने की गाल बजाने वाला भारतीय नेतृत्व है, जो पाकिस्तान की ज़मीन में तमाम आतंकवादियों की जड़े होने के पुख्ता प्रमाण के बावजूद वर्षों से अमेरिका से अनुरोध ही करता जा रहा है कि वह पाकिस्तान को रोके। भीख में केवल रोटी के टुकड़े मिलते हैं, आत्मसम्मान और जीने का अधिकार नहीं। यह बात पता नहीं भारत की जनता कब समझेगी। अपनी बहन और बेटी की इज़्जत बचाने के लिए अगर हम गांव के ज़मींदार का दरवाजा खटखटाएंगे, तो बदले में वह उसी बहन और बेटी का एक रात का नजराना तो मांगेगा ही। अपने बुजुर्ग पिता के सम्मान के लिए अगर हम अपने पड़ोसी के आगे गिड़गिड़ाएंगे, तो अपनी महफिल में पानी पिलाने के लिए हमारे पिताजी की सेवाएं तो वह मांगेगा ही।

माओवादियों के प्रति सहानुभूति रखने वाले मेरे एक मित्र हैं, जिन्होंने एक दिन कहा कि भोपाल गैस पीड़ितों ने सैकड़ों की संख्या में वर्षों तक जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन किया और बदले में उन्हें क्या मिला? धोखा, अन्याय और मौत। यही लोग अगर हाथ में हथियार लेकर सड़कों पर उतर जाएंगे, तो उन्हें माओवादी कहकर उनके खिलाफ सेना उतार दी जाएगी। नैतिकता, अध्यात्म और राष्ट्रवाद के तर्क की कसौटी पर इसके खिलाफ बहुत कुछ कहा जा सकता है, लेकिन भावुकता के मोर्चे पर क्या वास्तव में यह लाजवाब नहीं है? जिसके घर दिन-रात मौत का तांडव हो रहा हो, जिसके देखते-देखते जिसकी पीढ़ियां अपंगता और लाचारी के अंधकूप में समा गई हों, वह नैतिकता, अध्यात्म और राष्ट्रवाद के तर्क समझेगा या नक्सलवाद के करारे जवाब का तर्क। यहां मजेदार बात यह है कि अर्जुन सिंह का बचाव करने वाले मध्य प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री दिग्विजय सिंह नक्सवादियों के ज़बर्दस्त पैरोकार भी रहे हैं।

भोपाल पर चल रहे हंगामें में रोज नए खुलासे हो रहे हैं। लेकिन इन खुलासों से जितने जवाब मिल रहे हैं, उनसे कहीं ज्यादा सवाल खड़े हो रहे हैं। इन तमाम सवालों के बीच एक जवाब तो मुझे साफ समझ आ रहा है कि पिछले हजार सालों में हम भारतीयों की ग़ुलाम मानसिकता और परमुखापेक्षी स्वभाव में कुछ भी बदलाव नहीं आया है। जब तक हम अपने घर की सुरक्षा के लिए अमेरिका, चीन और पाकिस्तान से भीख मांगते रहेंगे, तब तक कई यूनियन कार्बाइड कई भोपाल बनाते रहेंगे और हमारी कई पीढ़ियां मानसिक और शारीरिक तौर पर विकलांग पैदा होती रहेंगी।

गुरुवार, 20 मई 2010

शहरों में पलते ज़हरीले नक्सलियों से निपटना भी ज़रूरी

नक्सलबाड़ी से पैदा हुआ आंदोलन बहुत पहले जनता से कट कर आतंकवाद की श्रेणी में पहुंच चुका है, लेकिन मेट्रो शहरों में रहने वाले अधिसंख्य वामपंथी इसे अब भी नक्सली आंदोलन कहने में ही फ़ख़्र महसूस करते हैं। मज़ेदार बात यह है कि ग़रीबों, मज़दूरों और किसानों की लड़ाई लड़ने वाले इन वामपंथियों में से शायद ही किसी का जन्म खेतों में, कारखानों में या झुग्गियों में जारी शोषण और अन्याय के बीच हुआ हो।

इन वामपंथियों का जन्म हुआ है जेएनयू में, बीएचयू में और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में। मार्क्स, लेनिन, हीगल, स्तालिन, माओ, चे गुएरा और फिदेल कास्त्रो की किताबों ने इनका उपनयन संस्कार किया है और सिगरेट के धुएं और दुनिया में मौजूद हर व्यवस्था को ग़ालियां देने की अराजक मानसिकता के बीच इनकी दीक्षा हुई है। शोषण और अन्याय इनके लिए केवल बौद्धिक जुगाली का ज़रिया हैं।

यही कारण है कि ये ख़ुद तो यूपीएससी की परीक्षाओं में बैठकर बुर्ज़ुआ व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचने के सपने पालते हैं, दिन-रात अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने और नया फ्लैट खरीदने के लिए ईएमआई का इंतज़ाम करने के जुगाड़ में लगे रहते हैं, महंगी गाड़ियों के नए-नए मॉडलों को ललचाई नज़रों से सिर घुमा-घुमा कर देखते हैं और नक्सलियों की हत्याओं को पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण से मुक्त करने के लिए छेड़ा गया ज़ेहाद क़रार देते हैं।

यह उसी तरह का ज़ेहाद है, जिसका रूप इस्लामी आतंकवाद के रूप में पूरी दुनिया में दिख रहा है। तालिबान की तरह ही नक्सलियों की दुनिया में मतभेद या असहमति की कोई जगह नहीं है। हज़ारों करोड़ का बजट रखने वाले सर्वहारा नक्सलियों के इलाकों में विकास की व्यथा-कथा और उसमें नक्सलियों की भूमिका पर काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है।

आश्चर्य तो यह है कि हर बात में विदेशी लेखकों और विदेशी नेताओं के सिद्धांतों का उद्धरण देने वाले पढ़ाकू वामपंथियों को दिन के उजाले की तरह साफ ये तथ्य नहीं दिखते। आश्चर्य यह है कि 75 जवानों की हत्या को दो पक्षों की लड़ाई का स्वाभाविक परिणाम मानने वाले इन बुद्धिजीवियों की जान इस बात से सूखने लगती है कि कहीं सरकार सेना या वायु सेना का इस्तेमाल न शुरू कर दे। यानी नक्सली मारें तो युद्ध और जब मरें तो सामंती शासन का शोषण।

ये वामपंथी बुद्धिजीवी भी नक्सली हत्यारों से कम नहीं हैं क्योंकि ये उन कुकृत्यों को बौद्धिक आधार देते हैं। ये नक्सल आतंकवाद के प्रवक्ता हैं, तो ये हत्यारे क्यों नहीं? दरअसल सरकार को जंगल के नक्सली हत्यारों और शहरों में एयरकंडीशन में बैठने वाले बुद्धिजीवी हत्यारों, दोनों से एक ही तरह निपटने की जरूरत है। अखबारों, विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में बैठे ये वामपंथी बुद्धिजीवी देश के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा हैं, क्योंकि ये दरअसल वह विचार हैं जो हत्यारे पैदा करते हैं।

नक्सलियों के सफाए के बाद भी अगर ये बचे रहे, तो वामपंथी आतंकवाद किसी-न-किसी और रूप में समाज को निगलने के लिए सामने आएगा। पूरी दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि सर्वहारा की मदद से सत्ता में पहुंचने के बाद वामपंथ ने सबसे पहले उसी सर्वहारा की व्यक्तिगत स्वतंत्रता खत्म की है और फिर उसकी हर मांग का जवाब गोलियों और फांसियों से दिया है।

गुरुवार, 13 मई 2010

जब ग़रीबी और पिछड़ापन स्टेटस सिंबल बन जाए...

कल्पना कीजिए, निठारी की दर्दनाक हत्याओं के एक आरोपी कोली की मौत की सज़ा पर सबसे सर्द और मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया क्या हो सकती है? मेरे ऑफिस के एक सहयोगी की प्रतिक्रिया से मुझे इस सवाल का जवाब मिला। उन्होंने कहा, 'ग़रीब था, इसलिए मौत की सज़ा मिल गई।' उनकी इस प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि में पंढेर को यही सज़ा न मिलना था।

पंढेर को सज़ा न मिलना, इस देश की उसी भ्रष्ट और नाकार न्याय प्रक्रिया का नतीजा तो हो सकता है, जिस पर हमने सैकड़ों फिल्में भी बनाई हैं और हजारों लेख भी लिखे हैं, लेकिन कोली की सज़ा को 'एक ग़रीब की सज़ा' कहने की मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया इस तथ्य को पूरी तरह नज़रअंदाज करती है कि जिन मासूम लड़कियों का क़त्ल किया गया (और कोली ने तो उन मृत नाबालिग शरीरों का मांस तक खाया), वे किसी करोड़पति की बेटियां नहीं थीं। वैसे यह घटिया तर्क भी मैं उस मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया के जवाब में ही दे रहा हूं, क्योंकि अगर वे करोड़पति की बेटियां होतीं, तो क्या कोली और पंढेर के वे कुकर्म उचित ठहराए जा सकते थे?

ख़ैर, कोली की सज़ा-ए-मौत पर आने वाली यह तो एक प्रतिक्रिया है, लेकिन दरअसल देखा जाए तो यह प्रतिक्रिया इस देश में पिछले दो दशकों से चल रही राजनीति के कारण तैयार हुए हमारे मानस की स्वाभाविक आवाज़ है। इस देश की राजनीति ने हमें हर उस बात से प्रेम करना सिखा दिया है, जिसे घोर सामाजिक-आर्थिक विकृति मानते हुए हमें घृणा करना चाहिए। लालू ने ख़ुद को चपरासी का बेटा बताया और पूरे बिहार के चपरासियों को उनमें अपना बेटा नज़र आने लगा। यह अलग बात है कि लालू अपने रोते हुए बेटे को चुप कराने के लिए सरकारी हेलीकॉप्टर में बनारस तक की सैर कराते रहे और राज्य भर के चपरासी अपने साहबों को पानी ही पिलाते रहे।

मुलायम ने अपने को ग़रीब का बेटा बताया। देश का रक्षा मंत्री बनने के बाद उन्होंने गर्व से घोषणा की कि उनके पूरे खानदान में कोई हवलदार तक नहीं बन सका और वह देश की रक्षा सेनाओं के मुखिया बन गए। यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश के तमाम ग़रीब अब भी हवलदारों के डंडे और गालियां खाने को मज़बूर हैं और मुलायम के विदेश शिक्षित बेटे अपने ग़रीब पिता की विरासत संभालने के लिए तैयार हैं। मायावती सत्ता में आईं तो उन्होंने ख़ुद को दलित की बेटी बताया। यह अलग बात है कि अपनी मूर्तियां लगाने में 250 करोड़ रुपए खर्च करने वाली इस दलित की बेटी के पास दंतेवाड़ा में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों को देने के लिए पैसे नहीं थे।

करोड़ों लोगों का दीवानगी के हद तक समर्थन पाने वाले इन नेताओं ने भारतीय जनमानस के मनोविज्ञान में एक मौलिक बदलाव किया है। ग़रीब होना, पिछड़ा होना, अछूत होना, अनपढ़ होना अब किसी के मन में आक्रोश पैदा नहीं करता। ये दरअसल सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के अलग-अलग रास्ते बन गए हैं। अछूत समाज से आने वाला युवक अब अंबेडकर की तरह इस सामाजिक कुरीति को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ाई नहीं करता। अब तो वह रिक्शे पर लाउडस्पीकर से यह घोषणा करने में ज्यादा फायदा देखता है कि वह अछूत है।

ग़रीब के घर पैदा होना किस तरह किसी की महानता का हिस्सा हो सकता है, मुझे समझ नहीं आता। ग़रीबी भी दो तरह की होती है- एक, अकर्मण्यता से पैदा होती है और दूसरी, वैराग्य से पैदा होती है। गांधी की ग़रीबी वैराग्य से पैदा हुई थी, लेकिन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास चरस के एक कश के लिए 2-2 रुपए के कबाड़ की चोरी करने वाले की ग़रीबी अकर्मण्यता से पैदा हुई है। लेकिन लालू और मायावती छाप राजनीति ने हमारी मानसिकता ऐसी बना दी है कि हम ग़रीब चरसी की ग़ुरबत को भी उसका गुण ही मानने लगे हैं।

मेरे एक बहुत ही समझदार और अध्ययनशील मित्र हैं। उनसे एक दिन किसी ने मज़ाक में पूछा कि सीआरपीएफ के दो जवानों ने दो माओवादियों को रक्तदान किया है। आपकी प्रतिक्रिया? उन्होंने कहा, 'एक ग़रीब ने दूसरे ग़रीब को खून दिया है।' आश्चर्य है कि जिस दिन खून लेने वाले ग़रीबों ने खून देने वाले ग़रीबों को दंतेवाड़ा में गोलियों से छलनी किया था, उस दिन उनकी प्रतिक्रिया थी कि मारने वाले कोई खाना बांटने तो जा नहीं रहे थे।

जानमाने पत्रकार पी साईंनाथ ने एक किताब लिखी है- 'हू लव्स ड्राउट'। यह किताब देश के प्रशासन और अधिकारी तंत्र पर केंद्रित है। यह बात समझ में भी आती है, क्योंकि हर बाढ़, हर सूखे, हर भूकंप और हर आपदा में कई विधायक, मंत्री, अफसरशाह और बाबू करोड़पति बन जाते हैं। तो स्वाभाविक है कि उन्हें इन आपदाओं से प्यार भी होगा, इनका इंतजार भी होगा। लेकिन जो बात समझ में नहीं आती है, वह ये है कि 'हाउ कैन ए पर्सन लव द ट्रैजेडी, व्हिच लव्स हिम ऐज इट्स फॉडर'। ये आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। ग़रीबी, जातिवाद, अशिक्षा जिन लोगों को अपना चारा बना रही है, वही इनसे प्यार करने लगे हैं।

यह भारतीय राजनीति का चमत्कार है। और यह उन समझदार लोगों की उस उदासीनता का भी जवाब है जिसमें वे कंधे उचका कर कहते हैं, 'कोउ नृप होए, हमें का हानी'। राजनीति की दिशा एक पूरे राष्ट्र को नपुंसक बना सकती है, यथास्थितिवादी बना सकती है या फिर पौरुष और तेज से भर सकती है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि राजनीति का संबंध राष्ट्र से हो। जब तक राजनीति का संबंध सत्ता से बना रहेगा, हम अपने समाज के मनोविज्ञान में ऐसा ही ज़हर घोलते रहेंगे। यह सुनने में कुछ-कुछ यूटोपिया सा लगता है, लेकिन कुछ बनाने के लिए पहले उसकी कल्पना तो करनी ही होती है।

रविवार, 28 फ़रवरी 2010

आम जनता की उम्मीदों से उदासीन 'आम आदमी का बजट'

वित्त वर्ष 2010-11 के लिए पेश बजट प्रस्तावों को 48 घंटे बीत चुके हैं। हर बार की तरह इस बार भी कुछ प्रस्तावों के राजनीतिक महत्व को देखते हुए सड़कों पर प्रदर्शन शुरू हो गए हैं और कुछ प्रस्ताव केवल अर्थवेत्ताओं में ही चर्चा का विषय बन सके हैं। जैसे कोई भी व्यक्ति, विषय या समाज संपूर्ण (परफेक्ट) नहीं होता, उसी तरह यह बजट भी नहीं है। इसीलिए इसे कोई भी एक नाम देकर सर पर चढ़ा लेना या खारिज कर देना बचकानापन होगा।

मेरे विचार से प्रणव मुखर्जी का इस बार का बजट उम्मीदों, उदासीनताओं और उपेक्षाओं का सम्मिलित दस्तावेज है। वेतनभोगी जनता के लिए इसने जहां उम्मीद और उत्साह का पिटारा खोला है, वहीं हर दिन अपनी आजीविका के लिए जूझने वाले करोड़ों गरीबों और मजदूरों के लिए यह बजट उदासीनता का दर्द है। और इसमें उपेक्षा मिली है फिर देश के उस हिस्से को, जिसके लिए जबानी खर्च सबसे ज्यादा किया जाता है, यानी किसानों को। देश की आर्थिक वृद्धि दर दहाई अंक में ले जाने की इस सरकार की प्रतिबद्धता संदेह से परे है। लेकिन, ऐसी स्थिति में कृषि को लेकर सरकार में दृष्टि का अभाव (lack of vision) बहुत अखरता है। जबकि स्वयं सरकार भी यह मानती है कि कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 4 फीसदी तक पहुंचाए बिना देश के जीडीपी को 10 फीसदी की रफ्तार दे पाना संभव नहीं है, तो फिर कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए महज 400 करोड़ रुपए का आवंटन उदासीनता का दर्दनाक उदाहरण है। वित्त मंत्री फसलों को पानी मिलने के लिए इंद्र देवता से प्रार्थना करने के लिए तो तैयार हैं, लेकिन सिंचाई सुविधाएं बढ़ाने के लिए उनकी झोली में केवल 300 करोड़ रुपए हैं। मेरा साफ मानना है कि कृषि ऋण माफी जैसी योजनाएं सरकारी पैसे का घनघोर दुरुपयोग है और इससे एक ओर तो वास्तविक ज़रूरतमंदों की कीमत पर ग़लत और ग़ैर ज़रूरतमंदों को फायदा पहुंचाया जाता है, वहीं आगे से कर्ज लेकर उसे पचा जाने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिलता है। इसके बदले अगर 80,000 करोड़ रुपए की रकम देश की सिंचाई व्यवस्था ठीक करने और कृषि उपज बढ़ाने पर खर्च की जाए तो यह केवल एक साल के लिए किसानों के लिए राहत के दरवाजे नहीं खोलेगा, बल्कि उनकी उत्पादकता और आमदनी बढ़ाकर उन्हें और ज्यादा कर्ज समय पर वापस करने के लिए सक्षम बनाएगा। इस दिशा में कोल्ड स्टोरेज शुरू करने के लिए जरूरी उपकरणों के आयात पर सीमा शुल्क 5 फीसदी कम करने और सेवा कर से पूरी छूट एक स्वागतयोग्य घोषणा है।

वेतनभोगियों के लिए ज़रूर यह बजट एक बोनांजा है, जिन्हें स्लैब में हुए बदलाव से भारी राहत मिलेगी। लेकिन यहां भी, अच्छा होता अगर वित्त मंत्री स्लैब की जगह छूट की दरें बढ़ा देते। ऐसा होने से हर आय वर्ग के लोगों को बराबर फायदा होता, जबकि मौजूदा स्थिति में ज्यादा पैसा कमाने वालों को छूट भी ज्यादा मिलेगी और कम वेतन वालों के हाथ कुछ खास नहीं आएगा। इस तरह का विरोधाभास विडंबना ही है। इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड में निवेश को 80 सी के तहत 1 लाख रुपए के ऊपर जोड़ा जाना एक अच्छा कदम है।

उद्योग जगत इस बजट से काफी खुश है, जिसकी एक झलक बजट पेश होने के दौरान शेयर बाजार में आई भारी बढ़त से मिली। हालांकि इसमें भी 'कुछ बहुत अच्छा होने' से ज्यादा 'कुछ बहुत बुरा ने होने' की भूमिका ज्यादा थी, जिसका संकेत बीएसई के 30 शेयरों वाले सूचकांक सेंसेक्स के अपने दिन के शीर्ष स्तर से 240 अंक नीचे बंद होने से मिलता है। उत्पादन और सीमा शुल्क में मिली छूट के चरणबद्ध तरीके से वापस होने को लेकर बाजार लगभग तैयार था। वैकल्पिक न्यूनतम कर (मैट) को 15 से बढ़ाकर 18 फीसदी किया जाना जरूर एक नकारात्मक सरप्राइज था, लेकिन कॉरपोरेट टैक्स पर सरचार्ज को 10 से घटाकर 7.5 फीसदी करने के फैसले से बहुत हद तक इसकी भरपाई हो गई। इनके अलावा नए होटलों पर निवेश को डिडक्शन से जुड़े फायदे देने और शोध एवं अनुसंधान पर वेटेड डिडक्शन में बढ़ोतरी से क्रमशः होटल और फ़ार्मा सेक्टर को फायदा होने की उम्मीद है। अति लघु, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के लिए बजट आवंटन में 30 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी कर उसे 2,400 करोड़ रुपए कर दिया गया है, जिससे निश्चत तौर पर उभरते हुए उद्योगों के विकास में मदद मिलेगी।

सामाजिक एवं जनकल्याण के लिए वित्त मंत्री ने काफी गंभीरता दिखाई है। कुल 3,73,000 करोड़ रुपए के बजट में से 37 फीसदी सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटित किए गए हैं, जबकि 25 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत ढांचे के विकास के लिए दिया गया है। पेयजल की हालत में सुधार के लिए 1,300 करोड़ रुपए बढ़ाए गए हैं, जबकि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए आवंटन को 2,600 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 4,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इससे सरकार की मंशा तो ज़ाहिर हो जाती है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि क्या वास्तव में एक साल बाद देश की जनता को पीने का बेहतर पानी ज्यादा सुलभ हो जाएगा, यह पता नहीं चलता कि क्या 28 फरवरी 2011 को जब भारत के वित्त मंत्री अगला बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे, तब क्या हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा पाने वाले बच्चों की संख्या अपेक्षित तौर पर बढ़ चुकी होगी, क्या शुरुआती 2-3 वर्षों में स्कूल छोड़ कर मजदूरी में लगने वाले बच्चों की संख्या में अपेक्षित सुधार आएगा, क्या बच्चों को जन्म देते समय मरने वाली मांओं की संख्या इस रकम के अनुपात में ही घटेगी और क्या जीवन की रोशनी देखने से पहले ही मौत की आगोश में समाने वाले नौनिहालों की संख्या में अपेक्षित कमी आएगी। यह सब कुछ इसलिए पता नहीं चलता क्योंकि बजट घोषणाओं को अमली जामा पहना सकने का सरकारी रिकॉर्ड बहुत ख़राब है। स्वयं वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में स्वीकार किया, 'वास्तव में, आने वाले वर्षों में, यदि कोई कारक हमें एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में हमारी क्षमता को साकार करने में बाधक हो सकता है तो वह हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणालियों की अड़चन है।'

यह बजट जिस एक मोर्चे पर सबसे ज्यादा नाकाम हुआ है, वह है महंगाई का। अपनी जेब बचाने के लिए त्राहि-त्राहि करती जनता के प्रति वित्त मंत्री की उपेक्षा भयानक है। उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी से जहां सीमेंट और स्टील जैसी कमोडिटी की कीमतें बढ़नी तय है, वहीं पेट्रोल-डीजल पर शुल्क बढ़ाने का प्रस्ताव कर मुखर्जी ने एक तरह से आम जनता के ज़ख़्मों पर नमक मल दिया है। हो सकता है कि राजनीतिक दबाव में यह प्रस्ताव वापस लेना पड़े, लेकिन इसने यह तो बता ही दिया है कि इस सरकार की प्राथमिकता सूची में आम आदमी का दुख और उसकी पीड़ा कहीं नहीं है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में 74 रुपए प्रति बैरल (160 लीटर) के हिसाब से कच्चे तेल की कीमत इस समय करीब 21.46 रुपए प्रति लीटर पड़ता है। अब रिफाइनिंग और परिवहन चार्ज लगाने के बाद भी किसी तरह यह 44 रुपए प्रति लीटर नहीं हो सकता। पेट्रोल पर हम जो हर रुपया देते हैं, उसमें से 51.36 पैसे सरकार की जेब में जाते हैं। इस पर भी अगर सरकार रोना रोती है, तो यह केवल उसकी लूट वृत्ति ही दर्शाता है।

राजकोषीय घाटे को लेकर सरकार बहुत चिंतित रही है। इस संदर्भ में जिस तरह अगले दो वर्षों में इसके कम होकर जीडीपी का केवल 4.1 फीसदी रह जाने की उम्मीद जताई गई है, उसमें मुझे खुश होने की कोई वजह नजर नहीं आती। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपिनयों में हिस्सा बेचकर 40,000 करोड़ रुपए और 3जी स्पेक्ट्रम की बिक्री से 35,000 करोड़ रुपए जुटाने की योजना बना रही है और इसी के भरोसे राजकोषीय घाटा कम करने की उम्मीद कर रही है। यह कुछ इसी तरह है जैसे आप अपने मित्रों और रिश्तेदारों से लिया कर्ज़ उतारने के लिए अपने घर के सामान और पत्नी के ज़ेवर बेचने का जुगाड़ कर रहे हों। बेहतर हो सरकार अपना भुगतान संतुलन (बीओपी) ठीक करने के लिए निर्यात बढ़ाए, उत्पादन बढ़ाए और लोगों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ाए। विनिवेश और स्पेक्ट्रम की बिक्री जैसे उपायों से होने वाली आमदनी को सड़क, पानी और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं के विकास में लगाया जाए ताकि रोजगार बढ़े और जीडीपी की वृद्धि दर भी।

कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि यह बजट शेयर बाज़ार और उद्योग जगत के लिए तो अच्छा है, लेकिन आम लोगों के लिए पूरी तरह उदासीन है। अब विचारणीय यह है कि किसी भी बाजार या उद्योग की आमदनी का आखिरी स्रोत तो आम जन ही है, ऐसे में आम जनता की जेब और मन पर कुठाराघात करने वाला कोई भी बजट या प्रस्ताव लंबी अवधि में उद्योग या बाजार का भी भला नहीं कर सकता।

मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

अंग्रेजी की इस उपेक्षा पर मैं खुश हूं लेकिन...

लेकिन यह एक सैडिस्ट एप्रोच है। कोई हमारा दुश्मन ही सही, उसकी उपेक्षा या दुर्दशा पर खुश होना तो हमारे व्यक्तित्व की एक बड़ी कमी है। फिर भाषा कोई भी हो, हमारी दुश्मन कैसे हो सकती है? अंग्रेजी हो या फ्रेंच, जर्मन हो या हिब्रू- सारी भाषाएं एक समाज विशेष, समय विशेष और विचार विशेष के महल में घुसने का दरवाजा ही तो हैं। फिर भी, भारत में अंग्रेजी केवल एक भाषा नहीं है। यह एक हथियार है, समाज के कमजोर, पिछड़े और गरीब तबके से आने वाली प्रतिभाओं की हत्या करने का। यह एक चोर दरवाजा है, समाज के धनाढ्य और प्रभावशाली वर्ग (वामपंथी मित्रों की शब्दावली में बुर्जुआ वर्ग) के सत्ता के गलियारों में पहुंचने का। इसीलिए इस देश में हिंदी की, तमिल की, गुजराती की, कोंकणी की, मलयालम की, तेलुगू और उड़िया की, असमिया और जनजातीय भाषाओं की, कश्मीरी और पंजाबी की तथा इस देश की मिट्टी से जुड़ी तमाम भाषाओं और उनके साहित्य की उपेक्षा कोई खबर नहीं है, लेकिन अंग्रेजी की उपेक्षा एक खबर है।

राष्ट्रपति ने अपना अभिभाषण हिंदी में पढ़ा। इसमें कोई खबर नहीं। अपनी जनसभाओं में सोनिया और लालकिले से मनमोहन भी अपना भाषण हिंदी में ही पढ़ते हैं। खबर यह है कि राष्ट्रपति के भाषण का अंग्रेजी अनुवाद नहीं हुआ था। जी हां, यही खबर है। क्योंकि इस देश में अंग्रेजी में कुछ अनुवाद नहीं होता (कुछ नहीं मतलब, लगभग कुछ नहीं)। रचनात्मकता और चिंतन की भाषा अंग्रेजी है और अनुवाद की भाषा हिंदी एवं दूसरी भारतीय भाषाएं हैं। दस जनपथ और पीएमओ की एक चिड़िया से भी मेरा परिचय नहीं होने के बावजूद मैं दावा कर सकता हूं कि सोनिया की जनसभाओं और मनमोहन के लालकिले के भाषण अंग्रेजी में लिखे जाते होंगे, फिर उनका हिंदी अनुवाद होता होगा और फिर उन्हें रोमन में लिखा जाता होगा। संसद के हर विधेयक, हर प्रस्ताव, तमाम मंत्रालयों के गजट और विचार पत्र- सभी मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे जाते हैं और हिंदी के प्रति सरकार की निष्ठा ज़ाहिर करने के लिए उन्हें उसमें अनुवाद किया जाता है। राजस्थान जैसे राज्य से आने के बावजूद ज्यादातर समय मैंने राष्ट्रपति को अंग्रेजी में ही संवाद करते सुना है। ऐसे में यह मेरे लिए बहुत बड़ी खबर है कि राष्ट्रपति का अभिभाषण हिंदी में ही सोचा गया और लिखा गया।

मुझे हमेशा इस बात पर आश्चर्य होता रहा है कि देश की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के राजनेताओं और कर्णधारों के लिए हिंदी दुश्मन क्यों होती है, जबकि सभी भाषाओं को अंग्रेजी के कारण अपमान और उन्मूलन का ख़तरा झेलना पड़ रहा है। जितनी समझदारी अब तक बनी है मेरी, उसके मुताबिक तो यही लगता है कि इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ख़ुद सरकारी रवैया है। अब यही उदाहरण देखिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण का अंग्रेजी अनुवाद किया ही नहीं गया। स्वाभाविक है कि जिन प्रांतों के नेता, सांसद, मंत्री हिंदी (देवनागरी में) पढ़ना नहीं जानते, उनके मन में आक्रोश का एक बीज और डल गया। उन्हें यह अहसास करा दिया गया कि हिंदी के बढ़ने का मतलब उनकी लाचारी और बेचारापन है। लेकिन इसका यह निष्कर्ष कतई नहीं है कि अंग्रेजी हमारे देश की अपरिहार्य मजबूरी है।

भारतीय भाषाओं को आपस में प्रेम करने के लिए अंग्रेजी का बंधन नहीं चाहिए। यह जिम्मेदारी देश के सबसे ज्यादा लोगों में बोली और उससे भी ज्यादा लोगों में समझी जाने वाली हिंदी की है। हिंदी के विकास के नाम पर जारी होने वाले करोड़ों के फंड से आधे की कटौती कीजिए और उसमें बाकी दूसरी भारतीय भाषाओं को हिस्सा दीजिए। हिमालय सी मशीनरी वाली भारत सरकार के लिए एक अभिभाषण को ही नहीं, तमाम जरूरी सरकारी कागजों को आठवीं अनुसूची की सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना नामुमकिन नहीं है। थोड़ा कठिन जरूर है, लेकिन ठान लेने पर अगर सरकार देश के दूरदराज के गांवों, रेलवे स्टेशनों, झुग्गियों और शहरों में मौजूद करोड़ों शिशुओं को पोलियो ड्रॉप पिला सकती है, तो यह बहुत छोटा काम है। और देश की सच्ची प्रतिभाओं को उभरने के लिए बराबरी का मौका देने और सामाजिक न्याय को सच्चे रूप से स्थापित करने में इस कदम की जितनी महान भूमिका हो सकती है, उसे देखते हुए इस पर होने वाला कोई भी खर्च और परिश्रम कम ही होगा।