मंगलवार, 23 अगस्त 2011

यह इंसान महामूर्ख है या मुसलमानों का शातिर दुश्मन !

किसी एक ग्रुप के भीतर अगर आपको किसी एक व्यक्ति की मिट्टी पलीद करनी हो, तो दो तरीक़े होते हैं। पहला, आप उसके ख़िलाफ़ सही या ग़लत, किसी भी तरह के मसले पर दुष्प्रचार करें और उसे सबके लिए घृणा का पात्र बना दें। लेकिन इस रास्ते के अपने जोखिम हैं। क्योंकि जैसे ही आप किसी के ख़िलाफ़ दुष्प्रचार करना शुरू करते हैं, आपके विरोधी उसके स्वाभाविक मित्र बन जाते हैं और फिर जो तटस्थ होते हैं, वह भी आपके चरित्र का विश्लेषण शुरू कर देते हैं।

तो इस काम के लिए दूसरा तरीक़ा ज़्यादा प्रभावी हो सकता है। आप पहले उस व्यक्ति के मित्र बन जाइए। फिर पूरे ग्रुप को यह भरोसा दिला दीजिए कि आपसे बड़ा उसका कोई शुभचिंतक नहीं है। इसके बाद आप ग्रुप को और उसमें सबसे ज़्यादा सम्मानित व्यक्तियों को अपने 'मित्र' की तरफ से ग़ालियां देना शुरू कर दीजिए और ग्रुप के श्रद्धेय प्रतीकों का अपमान करना शुरू कर दीजिए। कुछ ही दिनों में आपका 'मित्र' पूरे ग्रुप में घृणा का पात्र बन जाएगा।

जामा मस्जिद के शाही इमाम बुखारी ने भारत के मुसलमानों की मिट्टी पलीद करने के लिए यही दूसरा रास्ता अपनाया है। उन्हें मुसलमानों का कितना समर्थन और भरोसा हासिल है, ये तो पता नहीं, लेकिन देश की सबसे प्राचीन और विख्यात मस्जिदों मे से एक के इमाम होने के कारण मीडिया और राजनेताओं के दरबार में इन्हें बहुत महत्व दिया जाता है। इनके पूज्य पिताजी ने एक बार सुप्रीम कोर्ट के उनके खिलाफ़ समन जारी करने को चुनौती देते हुए देश के सबसे बड़े न्यायालय को पागल क़रार दिया था और कोर्ट उनका कुछ नहीं बिगाड़ सका था।

ये मुसलमानों की रहनुमाई का दावा करते हैं और इसी बूते उन्होंने अण्णा के आंदोलन को मुस्लिम विरोधी क़रार देते हुए क़ौम को इससे दूर रहने की सलाह दी है। इनका कहना है कि भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे इस्लाम विरोधी हैं। इनसे कोई पूछे कि आज़ादी की लड़ाई में ये दोनों ही नारे केंद्र में रहे थे। तो क्या भारत की स्वतंत्रता का पूरा आंदोलन भी इस्लाम विरोधी था? बुखारी के इस मूर्खतापूर्ण बयान से क्या मुस्लिम इस देश की मुख्यधारा से कटे हुए नहीं प्रतीत होते हैं? वैसे भी यह कोई मज़हबी आंदोलन तो है नहीं कि इसमें किसी व्यक्ति को पूजा पद्धति के आधार पर अपना रुख तय करने की ज़रूरत हो।

यह आंदोलन विशुद्ध तौर पर एक सामाजिक आंदोलन है। इसलिए कोई भी व्यक्ति जो इसे मुसलमानों, पिछड़ों, दलितों या किसी भी दूसरे वर्ग के आधार पर समर्थन या विरोध का आह्वान कर रहा है, वह उस क़ौम का सबसे बड़ा दुश्मन है। रही भारत माता या वंदे मातरम नारे की बात, तो यह तो निजी विश्वास का मसला है। मैं हिंदू हूं और सनातन काल से यह देश मेरी मां है। यह मुझे मेरी पूजा पद्धति ने नहीं, मेरे खून में हज़ारों साल से बहते मेरे संस्कारों ने सिखाया है। यही खून इस देश के 20 करोड़ मुसलमानों की नसों में भी बह रहा है। चाहे लोभ से या भय से या फिर कुछ अन्य सामाजिक कारणों से, जब इन मुसलमानों के पूर्वजों ने इस्लाम अपनाया, तो उन्होंने अपनी पूजा पद्धति बदली, अपने श्रद्धा केंद्र बदले और प्रेरणा पुरुष बदले, लेकिन उनकी नसों में आज भी अपने हिंदू पूर्वजों का ही खून है। इसलिए यह देश उनकी भी मां ही है।

बुखारी सरीखों का मानना है कि इस्लाम में अल्लाह के अलावा किसी की इबादत करना कुफ्र है, इसलिए भारत माता की जय और वंदे मातरम के नारे इस्लाम विरोधी हैं। पहली बात तो यह कि किसी की जय करना उसकी इबादत करना नहीं होता है और संस्कृत की प्राथमिक जानकारी रखने वाला भी यह बता देगा कि वंदना का अर्थ हमेशा पूजा के तौर पर नहीं होता है। इसके बावजूद अगर इन दोनों नारों से बुखारी को परेशानी है, तो ये नारे लगाना अण्णा के आंदोलन की कोई पूर्व शर्त नहीं हैं। इससे ऐसे तमाम वामपंथी जुड़े हैं, जो जन्म से भले हों, मन से कत्तई हिंदू नहीं हैं। तो बुखारी मुसलमानों के लिए कुछ नए नारे दे सकते थे। लेकिन वह ऐसा करेंगे नहीं।

इसके बजाए वह मुसलमानों को पूरे देश के सामने खलनायक और देशविरोधी साबित करना चाहते हैं। क्योंकि तभी समाज उनके खिलाफ़ प्रतिक्रिया देगा और केवल तभी वह मुसलमानों को बता सकेंगे कि 90 करोड़ हिंदू तुम्हें खाना चाहते हैं और तुम केवल तभी सुरक्षित रह सकोगे, जब मेरी छत्रछाया में रहोगे। क्योंकि अगर देश का मुसलमान अण्णा के साथ खड़ा हो गया और उसने अपनी मज़हबी पहचान की ज़िद छोड़ दी, तो बुखारी की नेतागिरी का क्या होगा। तो अब गेंद मुस्लिम समाज के पाले में है। उसे ही यह तय करना है कि वह देश की मुख्यधारा में बहने को तैयार है या अपने क़ौम के इस शातिर दुश्मन की गोद में खेलने को। इस सवाल का जवाब तय करेगा कि भारत के भविष्य का इतिहास भारतीय मुसलमानों को किस पन्ने पर रखता है।

सोमवार, 22 अगस्त 2011

मुझे भ्रष्टाचार से कोई प्रॉब्लम नहीं, लेकिन मैं अण्णा के साथ हूं

मेरी उम्र 34 साल है। मेरे पिता बिहार सरकार के तहत ग्रेड-ए अधिकारी थे और एक अत्यंत प्रतिष्ठित और वरिष्ठ पद से सेवानिवृत्त हुए। मैंने जीवन में आर्थिक तौर पर कोई अभाव नहीं देखा। भागलपुर के टीएनबी कॉलेज में पढ़ाई के दौरान एक-दो बार बेटिकट यात्रा भी की, लेकिन कारण ग़रीबी नहीं, छात्र जीवन की स्वाभाविक अराजक वृत्ति रही। फिर भी, यह भरोसा हमेशा रहा कि अगर टीटीई ने पकड़ा तो उसे रिश्वत देने लायक पैसे हैं। पढ़ाई-लिखाई के बाद पत्रकार बना। तो पहले और अब, जब भी किसी सरकारी विभाग से साबका पड़ा, तो या तो रिश्वत देकर या अपने दूसरे पत्रकार मित्रों के संबंधों के बलपर कभी कोई ख़ास परेशानी नहीं हुई। कुल मिलाकर अगर सार-संक्षेप में कहूं तो अपनी अब तक की ज़िंदगी में मुझे भ्रष्टाचार से कभी समस्या नहीं हुई। उल्टे कहूं, तो भ्रष्टाचार ने मुझे थोड़ी-बहुत सहूलियत ही दी है।

यह कहानी केवल मेरी नहीं है। मैं दावे के साथ कह सकता हूं कि किसी भी मध्यवर्गीय व्यक्ति की थोड़ी-बहुत फेरबदल के साथ यही कहानी होती है। यह वर्ग ट्रेन में स्लिपर या एससी थ्री टीयर में चलता है। टिकट न भी हो तो 500 का पत्ता निकाल कर टीटीई साहब को देता है और ऐश से एक बर्थ पर पसर कर चलता है। यह वर्ग लाइसेंस, राशनकार्ड या पासपोर्ट बनवाने जाता है तो एजेंट को एकमुश्त 1000-2000 रुपए थमाता है और उसे सीधे अपने हाथ में पाता है। छोटे-मोटे काम के लिए 100-200 रुपए खर्च करने में उसे कोई परेशानी नहीं होती और यह भ्रष्टाचार कुल मिलाकर उसकी ज़िंदगी थोड़ी आसान कर रहा है।

अब दूसरा वर्ग, जिसे उच्च या इलीट कहा जाता है, उसकी ज़िंदगी पर एक नज़र डालते हैं। इस वर्ग में अमूमन बड़े कारोबारी, सांसद, विधायक और प्रशासनिक एवं पुलिस अधिकारी (आईएएस और आईपीएस) आते हैं। यही वर्ग दरअसल भ्रष्टाचार के बड़े हिस्से का जनक और पोषक होता है। नेताजी को चुनाव लड़ने के लिए करोड़ों रुपए चाहिए होते हैं। बाबू साहब (आईएएस) उन्हें सरकारी तंत्र के छिद्र दिखाते हैं। बाबू साहब और नेताजी मिलकर नीतियों में ऐसी जलेबी छानते हैं जिससे किसी खास कारोबारी घराने या कंपनी के सैकड़ों करोड़ के वारे-न्यारे हो जाते हैं और उसमें से कुछ करोड़ नेताजी और बाबू साहब की झोली में भी आ गिरते हैं। पुलिस का खेल थोड़ा दूसरा है और ये हम सब जानते हैं, इसलिए इसका विस्तार नहीं करूंगा।

अब बचा तीसरा वर्ग, जिसे पिछड़ा, ग़रीब, निम्न मध्य वर्ग आदि-आदि नामों से जाना जाता है। नेताओं के जबानी जमा खर्च में यह वर्ग सबसे प्रीमियम होता है। अपने 15 साल के शासन में सैकड़ों करोड़ के घोटाले करने वाले लालू हों या अपने जन्मदिन पर हीरे के गहनों का भौंडा प्रदर्शन करने वाली बहन जी, इन सबका भाषण ग़रीबों, पिछड़ों और कमज़ोरों से शुरू होकर उन्हीं पर खत्म होता है। यह वर्ग आपको दिल्ली रेलवे स्टेशन पर अक्सर सैकड़ों की संख्या में जनरल बॉगी के आगे लाइन लगाए दिख जाएगा। कभी इनके साथ यात्रा की है आपने जनरल बॉगी में? आप कर ही नहीं पाएंगे, रहने दीजिए। 16-17 घंटों की यात्रा में कई ऐसे होते हैं, जो 1 मिनट के लिए भी बैठ नहीं पाते।

टॉयलेट तक में लोग और सामान ठूंसे होते हैं, इसलिए लोगों के लिए पूरे रास्ते टॉयलेट तक जाना मुहाल होता है। उस पर जब टीटीई आता है, तो उसका व्यवहार लोगों के साथ ऐसा होता है, जैसे वे इंसान हो ही नहीं। उस टीटीई के साथ 1-2 वर्दीधारी सिपाही भी होते हैं। और आपको शायद विश्वास नहीं होगा, ये दोनों-तीनों मिलकर लोगों के बैग की तलाशी तक लेते हैं और क्योंकि इन्हें पता होता है कि सामने वाला अपनी 6-8 महीने की बचत लेकर घर जा रहा होगा, तो उनसे रुपए तक छीन लेते हैं। यह हक़ीकत है और इसमें एक लाइन भी अतिशयोक्ति नहीं है।

यही वर्ग जब लाइसेंस या राशन कार्ड बनवाने पहुंचता है, तो इसे इस टेबल से उस टेबल तक धक्के खिलाया जाता है, क्योंकि उसके पास रिश्वत देने के पैसे नहीं होते। यही वर्ग पुलिस वालों के डंडे भी खाता है और इलाके में कोई वारदात होने पर थानेदार की गालियां और अपमान भी झेलता है।

लेकिन आश्चर्यजनक तौर पर मीडिया में एक बहस को परवान चढ़ाया जा रहा है कि भ्रष्टाचार विरोधी अण्णा का आंदोलन दलित और पिछड़ा विरोधी है। साफ तौर पर ऊपर जिन वर्गों की बात है, उनका आधार जाति न होकर, पूरी तरह से आर्थक स्थिति है। लेकिन दलित और पिछड़े हितों के पैरोकार होने वालों का ऐसा दावा है कि यह पूरा आंदोलन केवल मेरे जैसे मध्यवर्गीय लोगों को शोशा है और इसमें पिछड़े और दलितों की कोई रुचि नहीं है। और कयोंकि यही लोग हैं, जो यह मानते हैं कि हर पिछड़ा और दलित ग़रीब और बेचारा है, तो हम भी यह मान लेते हैं कि जो तीसरा वर्ग है उसमें ज्यादातर हिस्सेदारी इन्हीं पिछड़े और दलित वर्गों की है।

तो अगर यह देश भ्रष्टाचार मुक्त हो जाए (हालांकि यह एक यूटोपिया है), तो इसका सबसे बड़ा फायदा क्या इसी तीसरे वर्ग को नहीं होगा? अब यह मेरी समझ से तो पूरी तरह बाहर है कि ऐसी बातें कर और माहौल बनाकर दलितवादी स्वार्थी तत्व क्या हासिल करना चाहते हैं। अलबत्ता इतना ज़रूर है कि इनमें कुछ तो ऐसे हैं जो ख़ुद ही आकंठ भ्रष्टाचार में डूबे हैं और दलितवाद की मलाई चाभ रहे हैं और कुछ दूसरे चंगू या मंगू हैं, जो फेसबुक और ट्विटर जैसे माध्यमों का इस्तेमाल कर दलितवादी राजनीति की मलाई में अपने लिए हिस्सेदारी ढूंढ रहे हैं।

अण्णा के आंदोलन में विसंगतियां हो सकती हैं। उनकी कुछ या कई मांगें भी अव्यावहारिक हो सकती हैं। लेकिन उनकी सदिच्छा पर इस देश को भरोसा है और यही इस आंदोलन का सार है। देश अगर भ्रष्टाचार मुक्त हो सके या कम से कम यह बीमारी न्यूनतम स्तर पर आ सके, तो इसका सबसे ज़्यादा फ़ायदा उन्हीं को होगा, जिन्हें सदियों से उनके स्वाभाविक अधिकारों से वंचित रखा गया है। जिनके पास भ्रष्टाचार के राक्षस को भेंट करने के लिए चढ़ावा नहीं है और जो अपने न्यायोचित मांगों के लिए सबसे ज़्यादा अपमानित और प्रताड़ित होते हैं।

मध्य वर्ग और उच्च वर्ग के लिए तो यह आंदोलन देशभक्ति और समाजनिष्ठा का प्रतीक है, लेकिन ग़रीबों एवं कमज़ोरों के लिए यह उनके स्वाभिमान की लड़ाई है, अधिकारों की लड़ाई है और रोज़गार की लड़ाई है। जो भी लोग इसे पिछड़ो और दलितों का विरोधी बता रहे हैं, उनसे बड़ा उनका कोई दुश्मन नहीं है।

शुक्रवार, 12 अगस्त 2011

गुजराती आईपीएस अधिकारियों की क्रांति का राज़ क्या है?

गुजरात में 2002 के गोधरा बाद के दंगों ने चाहे मानवता को कभी न मिटने वाले घाव दिए हों, लेकिन इन्होंने देश पर एक बड़ा उपकार भी किया है। देश हर्ष मंदर, संजीव भट्ट, राहुल शर्मा, कुलदीप शर्मा, सतीश वर्मा, आर बी श्रीकुमार, रजनीश राय जैसे प्रशासनिक और पुलिस अधिकारियों की एक पूरी फौज से रू-ब-रू हुआ, जो जनहित के लिए पूरी सरकार से टकराने और अपना करियर दांव पर लगाने की हिम्मत रखती है। लेकिन सवाल यह है कि ऐसे अधिकारियों की पीढ़ी केवल गुजरात में ही क्यों पैदा हो रही है?

उत्तर प्रदेश में जीतेंद्र सिंह बबलू, धनंजय सिंह, स्वामी प्रसाद मौर्य, डी पी यादव, कदीर राना और योगेंद्र सागर जैसे जानेमाने जनसेवकों के खिलाफ चल रहे हत्या, बलात्कार जैसे मामलों के सारे मुकदमें पिछले 4 वर्षों में धीरे-धीरे उठा लिए गए हैं (इंडियन एक्सप्रेस पेज 1, 12 अगस्त)। माया सरकार के इन लाडलों के खिलाफ ये केस बनाने के लिए न जाने कितने ईमानदार अधिकारियों और कर्मचारियों ने अपनी ज़िंदगी दांव पर लगाई होगी और न जाने कितनों ने अपनी जानें गंवाई होंगी। लेकिन इन 4 वर्षों में एक भी आईपीएस या आईएएस अधिकारी की अंतरात्मा नहीं जागी।

पुणे में पुलिसिया गुंडई के दृश्य तीन दिनों से लगातार हम अपने टीवी स्क्रीनों पर देख रहे हैं। वहां एक पुलिस अफसर निशाने लगा-लगा कर खरगोशों की तरह किसानों का शिकार कर रहा था। कुछ टुच्चे पुलिसिए कारों और मोटरसाइकिलों पर गली के गुंडों की तरह डंडे और लात बरसा रहे थे। यह सब बिना राजनीतिक प्रश्रय और संकेत के तो हो नहीं रहा होगा? एक किसान को तो बाक़ायदा पुलिस हिरासत में लेकर गोली मार दी गई- यानी फ़र्ज़ी मुठभेड़। लेकिन किसी आईएएस और आईपीएस अधिकारी का ज़मीर नहीं जाग रहा। इसकी तुलना गुजरात से कीजिए। सोहराबुद्दीन, इशरत जहां और तुलसीराम प्रजापति- पुलिस के हाथों मारे गए ये तीन, सुप्रीम कोर्ट से लेकर कई आईपीएस अधिकारियों के लिए फर्ज़ और अन्याय के खिलाफ लड़ाई का प्रतीक बन गए हैं। इनमें सोहराबुद्दीन और तुलसीराम प्रजापति तो घोषित इनामी अपराधी थे। और इशरत जहां के आतंकवादियों से संबंध भी साबित हो चुके हैं।

लेकिन आए दिन इन कथित फर्ज़ी मुठभेड़ों को लेकर सुप्रीम कोर्ट अपनी सक्रियता दिखाता रहता है। कई अति वरिष्ठ पुलिस अधिकारी जेल में है। अखबारों में सोहराबुद्दीन की एक तस्वीर छपती है, जिसमें वह एक अति पारिवारिक आम शहरी की तरह अपनी पत्नी के साथ ताजमहल के आगे बैठा दिखाया जाता है। दूसरी ओर अपनी पैशाचिक हंसी से न्याय व्यवस्था की हंसी उड़ाने वाला हरियाणा का पूर्व डीजीपी राठौड़ एक किशोरी को आत्महत्या के लिए मज़बूर करने और उसके भाई की ज़िंदगी तबाह करने के बावजूद ज़मानत पाकर मज़े लूट रहा है। किन्हीं माननीय न्यायाधीश की, किसी आईएएस या आईपीएस अफसर की आत्मा नहीं जागती।

राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग के आंकड़ों के मुताबिक 1993 से 2009 के बीच 2,318 लोग पुलिसिया अत्याचार नहीं झेल पाने के कारण हिरासत में मारे गए। हम सब जानते हैं कि पुलिस हिरासत में हुई मौतें कैसे होती हैं। अपनी खाल बचाने के लिए या नियमित सत्कार करते रहने वाले किसी गुंडे या अपने किसी राजनीतिक आका को खुश करने के लिए किसी अपराध के लिए कोई ग़रीब पकड़ लिया जाता है। फिर हवालात में उसे उलटा लटकाया जाता है, उसके हलक में और कभी-कभी तो मलद्वार में भी डंडे डाले जाते हैं, बिजली के झटके लगाए जाते हैं, लातों-जूतों से पिटाई की जाती है और उससे अपराध कबूल करवाया जाता है। इसी पुलिसिया पराक्रम के दौरान कई बार पकड़ा गया आदमी मर जाता है। पूरा पुलिस महकमा, एसपी, एसएसपी, डीजीपी, डीआईजी, आईजी, डीएम और कानून-व्यवस्था से जुड़े सेक्रेटरी (आईएएस) सभी इन घटनाओं से अवगत होते हैं। माननीय न्यायालय को भी सब पता होता है।

लेकिन किसी आईएएस या आईपीएस अफसर की आत्मा नहीं जागती। ख़ास बात यह है कि इन 2,318 लोगों में से 190 मौतें गुजरात में भी हुईं। लेकिन सोहराबुद्दीन, प्रजापति और इशरत की मौतों के लिए रात भर करवटें बदलने वाले गुजरात के कर्तव्यनिष्ठ आईएएस और आईपीएस अधिकारियों को पुलिस हिरासत में मरते इन ग़रीबों पर कोई दया क्यों नहीं आती?

कारण चाहे जो भी हो, कम से कम दो ऐसे दयावंत, दयालु मानवाधिकारवादियों की कहानी तो हम सब को पता है। एक हैं गुजरात दंगों के समय वहां आईएएस रहे हर्ष मंदर, जो अब देश भर के वामपंथियों और हिंदू विरोधियों के भगवान हो गए हैं। इन्हें नरेंद्र मोदी के खिलाफ अभियान छेड़ने के एवज़ में देश की सबसे ताकतवर गैर सरकारी संस्था राष्ट्रीय सलाहकार परिषद यानी एनएसी में सदस्यता का तोहफा दिया गया है।

दूसरी मानवाधिकारवादी कार्यकर्ता तीस्ता सीतलवाड़ हैं। यह बात साबित हो चुकी है कि उन्होंने पैसे देकर बेस्ट बेकरी कांड की मुख्य गवाह को मोदी सरकार के खिलाफ किस तरह इस्तेमाल किया। मोदी के खिलाफ अपने इस अभियान में उन्होंने अपने दुष्प्रचार का प्रोपगेंडा कुछ इस तरह चलाया कि सुप्रीम कोर्ट ने बेस्ट बेकरी की सुनवाई गुजरात से बाहर करवाने के निर्देश दिए। लेकिन अब उनकी करतूतों का काला चिट्‌ठा सामने आने के बावजूद वह कानून की गिरफ्त से बाहर हैं। उनके एनजीओ को विदेश से मिलने वाले करोड़ों रुपए से उनकी हिंदू विरोधी कारस्तानियां बदस्तूर जारी हैं।

पुणे के किसानों को मारने वाला पुलिसकर्मी हफ्ते भर बाद मीडिया से गायब हो जाएगा, मऊ के दंगों में खुली जीप पर घूमघूम कर कत्लेआम करवाने वाले मुख्तार अंसारी को हर कोई भूल चुका है, थानों में चीखचिल्ला कर दम तोड़ने वाले ग़रीबों की किसी को हवा भी नहीं लगती। लेकिन मोदी का भूत ज़िंदा रहना चाहिए। योंकि इसके बड़े फायदे हैं। इससे सोनिया का वरदहस्त भी मिल सकता है और करोड़ों रुपए का डोनेशन पाने वाले समाजसेवक होने का तमगा भी। तो क्या इसीलिए सारे क्रांतिकारी पुलिस अफसर गुजरात में ही पैदा हो रहे हैं?

मंगलवार, 2 अगस्त 2011

भाजपा के लिए कहीं दक्षिण का वाटर लू न बन जाए कर्नाटक?

कर्नाटक दक्षिण भारत में भाजपा का वाटर लू तो साबित नहीं होने जा रहा। अगर हो जाए, तो किसी को आश्चर्य नहीं होना चाहिए और अगर न हो तो, यही मानना चाहिए कि भाजपा को सचमुच राम का सहारा है। कर्नाटक को दक्षिण भारत का गेटवे मानकर खुश होने वाले भाजपाइयों के लिए तीन सालों का वहां का शासन किसी दुःस्वप्न से कम नहीं रहा है। एक राष्ट्रीय और कैडर आधारित पार्टी के लिए इससे ज्यादा शर्म की बात क्या हो सकती है कि भ्रष्टाचार के आरोपों में कंठ तक डूबा उसका एक मुख्यमंत्री पिछले करीब साल भर से उसे ब्लैकमेल कर रहा है और वह बेबस, लाचार नजर आ रही है।

लेकिन इसके लिए जिम्मेदार कौन है? भारतीय दर्शन में लक्ष्य की प्राप्ति के लिए मार्ग की शुचिता को बहुत महत्व दिया गया है। यह सही है कि आधुनिक भारतीय राजनीति में इस शुचिता की भी अपनी एक सीमा है। लेकिन अगर लक्ष्य केवल सत्ता हासिल करना न हो और आप एक विचारधारा के साथ राजनीति करने का दंभ भरते हों, तो उस सीमा तक की शुचिता तो आपको रखनी ही चाहिए। अगर आप नहीं रखेंगे, तो आपका हश्र वही होगा, जो कर्नाटक में भारतीय जनता पार्टी का हुआ है। साल 2008 के विधानसभा चुनावों से ठीक पहले कर्नाटक में सत्ता के मुहाने पर बैठी भाजपा के धैर्य का बांध टूट गया और उसने घोषित तस्करों, रेड्‌डी बंधुओं को अपनी गोद में बिठा लिया। ये रेड्‌डी बंधु, जिनका किसी राजनीतिक दल या विचारधारा से किसी तरह का कोई सरोकार नहीं था और जो पूर्ववर्ती सरकारों में मंत्री बन कर राज्य में लूट का तंत्र चला रहे थे, एकाएक भाजपा के प्रिय हो गए। बेल्लारी उनका चारागाह था और सुषमा स्वराज ने वहां से सोनिया गांधी के खिलाफ चुनाव भी लड़ा था। अब सुषमा जी को रेड्‌डी बंधुओं की कौन सी सेवाएं मिली थीं, यह तो वही जानें, लेकिन जिन भ्रष्ट स्मगलरों की कारस्तानी कर्नाटक के बच्चे-बच्चे को पता थी, उन्हें सार्वजनिक तौर पर अपना भाई और प्रिय बताकर सुषमा जी ने भाजपा की वैचारिक प्रतिबद्धता की जड़ों में मट्‌ठा डाल दिया।

यह बहुत ही रोचक घटनाक्रञ्म है। करीब साल भर पहले इन्हीं रेड्‌डी बंधुओं ने येद्दयुरप्पा को खून के आंसू रुलाए। येद्दयुरप्पा ने रेड्‌डी बंधुओं की लूट पर अंकुश लगाई और उन तीनों भाइयों ने अकूत संपत्ति के बल पर खरीदे विधायकों के बूते मुख्यमंत्री को इस्तीफे के लिएम जबूर कर दिया। पार्टी हाईकमान आंखों पर पट्‌टी डाल कर सोया रहा। सुषमा जी ने अपने मुख्यमंत्री की जगह स्मगलर भाइयों को गले लगाया। फिर येद्दयुरप्पा भागे-भागे दिल्ली आए। दिल्ली में बैठे भाजपा नेताओं ने साफ कर दिया कि रेड्‌डी बंधु नाम के कैंसर से छुटकारा पाने का उनका कोई इरादा नहीं है। अत्यंत अपमानजनक परिस्थितियों में येद्दयुरप्पा को रेड्‌डी बंधुओं से समझौता करना पड़ा।

उनके लोगों को, जिन्हें मंत्रिमंडल से निकाला गया था, फिर से शामिल करना पड़ा। क्या उसी समय भाजपा को रेड्‌डी बंधुओं को पार्टी से चिपकाने की अपनी गलती का सुधार नहीं करना चाहिए था? सरकारें आती-जाती रहती हैं, लेकिन लंबी अवधि की राजनीति करने वाली एक राष्ट्रीय पार्टी एक सरकार के लिए अपनी मूलभूत जमीन कमजोर करने का जोखिम कैसे ले सकती है? लेकिन भाजपा ने यह जोखिम लिया। येद्दयुरप्पा को राजनीति का समीकरण समझ में आ गया। उसके बाद साल भर में उन्होंने अपने विधायकों को क्या घुट्‌टी पिलाई, किस तरह के फायदे दिए, किस तरह की छूट दी कि पूरा मामला पलट गया। आज कर्नाटक के 60 विधायक उनके साथ आंसू बहाने को तैयार हैं। यह ठीक है कि ये सभी उनके लिंगायत समुदाय से ही हैं। लेकिन ये लोग साल भर पहले भी तो लिंगायत ही थे।

अब एक नजर येद्दयुरप्पा के इतिहास पर भी डालिए। साल 2004 विधानसभा चुनाव में भाजपा को 79 सीटें मिलीं और वह विधानसभा में सबसे बड़ी पार्टी के तौर पर उभरी। लेकिन कांग्रेस ने जेडीएस के साथ मिलकर सरकार बनाया। मुख्यमंत्री बनने के सपने देख रहे येद्दयुरप्पा इतने मायूस और हतोत्साहित हुए कि उन्होंने भाजपा छोड़ने का फैसला कर डाला। जेडीएस के एच डी देवेगौड़ा और उनके बेटे कुमारस्वामी के आगे मत्था टेकने पहुंच गए। हालांकि बाद में भाजपा ने उन्हें रोकने में सफलता पा ली, लेकिन 2008 के चुनावों में ऐसे नेता को मुख्यमंत्री का उम्मीदवार घोषित करना क्या वैचारिक दिवालियापन नहीं था। जब येद्दयुरप्पा का असली चरित्र सामने आ चुका था, तो क्यों नहीं पार्टी ने अगले चार साल में एक नया नेता तैयार किया जिसकी अगुवाई में चुनाव लड़ा जा सके?

ये वो सवाल हैं, जिन पर भाजपा को विचार करना होगा और इनके जवाब खोजने होंगे। कर्नाटक की घटनाओं का राज्य और देश में भाजपा की राजनीति पर चाहे जो असर हो, लेकिन देश के लोगों के मन में इन घटनाओं को जो असर हो चुका है, उसे धुलने में वर्षों लग जाएंगे। यह कीमत निश्चित तौर पर पांच साल तक कर्नाटक की सरकार चलाने के फायदों के मुकाबले बहुत ज्यादा है।

शुक्रवार, 29 जुलाई 2011

देश को आज सबसे ज़्यादा ख़तरा किससे है- बालकृष्ण से?

रामदेव के शिष्य बालकृष्ण आज की तारीख में देश के सामने कानून-व्यवस्था की सबसे बड़ी समस्या बने हुए हैं। उत्तर प्रदेश में तीन-तीन मेडिकल अफसरों की हत्या, विदेशी बैंकों में पड़े हजारों या लाखों करोड़ रुपए की काली रकम, मुंबई में हुआ ताजातरीन आतंकवादी हमला- सब पृष्ठभूमि में चले गए हैं। रोज बालकृष्ण के बारे में नई-नई खबरें आ रही हैं। उन्होंने नकली पासपोर्ट बनवाया, रिवॉल्वर खरीदा, पिस्तौल खरीदा और पता नहीं क्या-क्या। लेकिन बालकृष्ण के बारे में ये सारी सच्चाइयां सरकार के खिलाफ रामदेव के मोर्चा खोलने के बाद ही क्यों सामने आईं?

यह समझना मुश्किल नहीं है। हां, यह समझना मुश्किल जरूर है कि लोकतांत्रिक ढंग से निर्वाचित कोई सरकार इस हद तक निर्लज्ज कैसे हो सकती है। इस पूरे प्रकरण से कोई एक बात सबसे साफ तौर पर साबित हुई है, तो वह यही है कि देश की सर्वोच्च जांच एजेंसी सीबीआई की कोई संवैधानिक निष्ठा नहीं है और वह बस सरकार के दरवाजे पर बैठा एक पालतू कुत्ता है, जिसका काम केवल सरकार के इशारे पर दुम हिलाना, भौंकना और समय पड़ने पर काटना है।

चार साल पहले ठीक इसी तरह का एक और मामला सामने आया था। असम के तेजपुर से कांग्रेस सांसद एम के सुब्बा पर आरोप लगे कि वह नेपाल के नागरिक हैं और फर्जी तरीकों से उन्होंने भारत की नागरिकता हासिल की। सीबीआई जांच करती रही और सुब्बा भारतीय संसद की शोभा बढ़ाते रहे। चार साल की जांच के बाद जनवरी 2011 में जाकर आखिरकार सीबीआई ने आरोप पत्र दाखिल किया जब सुब्बा पहले ही पांच साल तक सांसद होने की सारी शक्तियों, अधिकारों और फायदों का लाभ उठा चुके थे। आरोप पत्र में सुब्बा के नेपाली नागरिक होने की पुष्टि कर दी गई। लेकिन इसके बावजूद सुब्बा आज भी भारतीय नागरिकता के मजे लूट रहे हैं।

इसकी तुलना बालकृष्ण के मामले से कीजिए। मई की शुरुआत में रामदेव की सरकार से भिड़ंत हुई। और तीन महीने बीतते-बीतते बालकृष्ण की गिरफ्तारी के लिए सीबीआई ने पैर पटकने शुरू कर दिए। उससे पहले तक बालकृष्ण की लिखी चिट्‌ठी दिखाते सरकार के वरिष्ठ मंत्रियों से कोई पूछे कि पिछले कई सालों से, जब बालकृष्ण सार्वजनिक सभाओं में और टीवी चैनलों पर अपने आयुर्वेद ज्ञान का प्रदर्शन कर रहे थे, तब सरकारी मशीनरी को क्यों इस बात का इल्म नहीं हो सका कि बालकृष्ण राष्ट्रीय सुरक्षा के लिए सबसे बड़े खतरे हैं?

लेकिन इस सरकार से किसी तरह के जवाब की उमीद करना ही व्यर्थ है। बिना चेहरे, बिना जवाबदेही और बिना दिशा वाली इस सरकार की कमान एक ऐसी महिला के हाथ में है, जिसे चारणों और चाटुकारों से घिरे रहने की आदत हो, जिसने खुद कभी किसी सरकारी फैसले के लिए कोई जवाबदेही न ली हो, जो रिमोट कंट्रोल से शासन करने में विश्वास रखती हो और दिग्विजय सिंह जैसे निम्नस्तरीय नेता जिसके सबसे बड़े औज़ार हों, उससे आप क्या उमीद-कर सकते हैं। मत भूलिए कि इटली की इसी अंडर ग्रेजुएट के पीएम इन वेटिंग लाडले को आरएसएस जैसे संगठन लश्करे तोएबा से ज्यादा ख़तरनाक लगते हैं। तो अगर बालकृष्ण अगर आज इस देश की सबसे बड़ी समस्या हैं, तो इसमें आश्चर्य क्या है।

बुधवार, 1 जून 2011

बाबा रामदेव को शीर्षासन की ज़रूरत है

बाबा जी का कहना है कि क्योंकि प्रधानमंत्री 121 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि होता है, इसलिए उसे एक अफसरशाह (यानी लोकपाल) के प्रति जवाबदेह नहीं बनाया जा सकता है। मेरे मन में बाबा जी की भलमनसाहत पर दो सवाल उठ रहे हैं। पहला, क्या सचमुच अपने देश में प्रधानमंत्री पूरी जनसंख्या का प्रतिनिधि होता है? क्या गुजराल, देवेगौड़ा और जवाहरलाल नेहरू के बाद लगातार सबसे ज्यादा समय तक प्रधानमंत्री बने रहने का रिकॉर्ड अपने नाम करने जा रहे मौजूदा प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह को जनता ने अपना प्रधानमंत्री चुना है?

निश्चित तौर पर नहीं चुना है, बल्कि मनमोहन सिंह को तो किसी संसदीय क्षेत्र की जनता तक ने नहीं चुना है। लेकिन इस तर्क के तमाम विरोधी हो सकते हैं, जो यह साबित कर देंगे कि यहां तक कि नेहरू, इंदिरा गांधी, वी पी सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी (जिनकी पार्टियों को वोट देने वाले वस्तुत: उन्हें ही प्रधानमंत्री बनाने के लिए वोट करते थे) जैसे प्रधानमंत्री भी देश की जनता के कुल मत का 50 फीसदी तक नहीं पा सके थे। इसलिए इस सवाल को फिलहाल बहस के लिए ठंडे बस्ते में डाल देते हैं कि भारत का प्रधानमंत्री वास्तव में देश की जनता का कितना प्रतिनिधि होता है या नहीं।

अब दूसरा सवाल, क्या किसी को केवल इसीलिए लोकपाल के प्रति जवाबदेह नहीं होना चाहिए कि उसे जनता ने चुना है। तब तो एक थाना प्रभारी की उस क्षेत्र के सांसद या विधायक के सामने कानूनी तौर पर कोई हैसियत नहीं होना चाहिए। उसी तरह राज्य के लोकायुक्त को मुख्यमंत्री का चपरासी होना चाहिए और देश के मुख्य न्यायाधीश को प्रधानमंत्री का चारण होना चाहिए। प्रस्तावित लोकपाल को एक अफसरशाह बताना मूर्खता की हद है। इस लिहाज से तो मुख्य चुनाव आयुक्त भी एक अफसरशाह हैं और सेबी के प्रमुख और भारतीय रिज़र्व बैक के गवर्नर भी अफसरशाह हैं।

क्या बाबा रामदेव भूल गए कि अभी कुछ ही महीने पहले एक भ्रष्ट आरोपी को किस निर्लज्जता के साथ मुख्य सतर्कता आयुक्त की कुर्सी पर बैठाने के लिए हर संभव कोशिश की गई थी। और वह कोशिश और किसी ने नहीं, 121 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि, घनघोर इमानदार डॉ. मनमोहन सिंह ने अपने सिपहसालार पी चिदंबरम के साथ मिलकर की थी। हद तो यह कि पकड़े जाने पर सुप्रीम कोर्ट में उन्होंने सफेद झूठ यह कहा कि उन्हें थॉमस पर लंबित आरोपों की जानकारी ही नहीं थी, जबकि थॉमस के चयन के लिए हुई तीन सदस्यीय पैनल की बैठक में विपक्ष की नेता सुषमा स्वराज ने साफ तौर पर इस मुद्दे को उठाया था।

ख़ैर, लौटते हैं बाबा रामदेव के उसी तर्क की ओर। तो अगर 121 करोड़ लोगों का प्रतिनिधि इमानदारी का पुतला होता है, तो 20 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि रहे मुलायम यादव और मायावती चोर कैसे हो सकते हैं। तो उनके खिलाफ चलने वाले आय से ज्यादा संपत्ति बटोरने और ताज कॉरिडोर घोटाले का मामला भी तुरंत वापस लिया जाना चाहिए। 15 करोड़ लोगों के प्रतिनिधि रहे लालू पशुओं का चारा नहीं खा सकते और तमिलनाडु के कुछ करोड़ लोगों के प्रतिनिधि करुणानिधि का कुनबा 2जी की नीलामी में सैकड़ों करोड़ नहीं डकार सकता। फिर तो इस तर्क से हर सांसद, हर विधायक, हर पार्षद और वार्ड सदस्य और हर निर्वाचित प्रतिनिधि कानून के दायरे से बाहर होना चाहिए। क्या बेवकूफ़ी भरा तर्क है?

यहां मामला निर्वाचित प्रतिनिधियों के किसी एक अफरसशाह के प्रति जवाबदेह होने का नहीं हैं। मामला है उस निर्वाचित प्रतिनिधि के देश और संविधान के प्रति जवाबदेह होने का। चाहे वह लोकपाल हो, कोई न्यायाधीश हो या कोई भी नियामक- वह कोई व्यक्ति नहीं होता, बल्कि वह एक संस्था होता है, जिसमें संविधान की शक्तियां निहित होती हैं। रामदेव का यह तर्क ठीक है कि भ्रष्ट तो लोकपाल भी हो सकता है। तो उसके लिए ज़रूरी उपाय किए जाने चाहिए। संविधान निर्माताओं ने चेक्स एंड बैलेंसेज के जिस सिद्धांत पर जवाबदेहियों का निर्धारण किया था, उसमें किसी व्यक्ति और संस्था को अवध्य नहीं माना गया। इसीलिए कार्यपालिका, न्यायपालिका और विधायिका सबको एक-दूसरे पर अंकुश रखने के कुछ अधिकार दिए गए।

अब आज़ादी के छह दशकों बाद वे चेक्स एंड बैलेंसेज नाकाफी साबित हो रहे हैं। भ्रष्टाचार का ज़हरीला पानी नाक के ऊपर से बह रहा है और इसके लिए तत्काल कुछ किए जाने की ज़रूरत है। लोकपाल का प्रयोग कितना सफल होगा, यह तो समय ही बताएगा, लेकिन इसके अधिकारों को लेकर सरकार की ओर से जो चालबाजियां की जा रही हैं, वह अपने आप में इसके प्रभावी हो सकने का संकेत है।

यह समझने के लिए कोई वैज्ञानिक होना ज़रूरी नहीं है कि भ्रष्टाचार का मूल सत्ता और ताक़त है। जहां अधिकार और शक्तियां हैं, वहीं से भ्रष्टाचार का जन्म होता है। इसलिए इस पर सबसे क़रारा प्रहार भी सत्ता के शीर्ष से ही होना चाहिए। भूखों, नंगों और ज़िंदगी की जद्दोज़हद में पानी-पानी हो रहे लोगों पर तो कानून का डंडा चलाइए और विधायकों, सांसदों, मंत्रियों और सबके मुखिया प्रधानमंत्री को आरती दिखाइए। और फिर सपना देखिए एक भ्रष्टाचार मुक्त प्रशासन का। ऐसे सपने देखने वालों को अपनी सोच की दिशा सीधी करने के लिए सिर के बल खड़ा होने की ज़रूरत है, चाहे वह योग गुरू बाबा रामदेव ही क्यों न हों।

सोमवार, 17 जनवरी 2011

जंगपुरा और पुष्प विहार में अंतर के नतीजों से डरिए

12 जनवरी, दिन बुधवार। दिल्ली के दो अलग-अलग हिस्सों में दो अवैध पूजा स्थलों को ढहाया गया। जंगपुरा में एक मस्जिद ज़मींदोज की गई और पुष्प विहार में एक मंदिर गिराया गया। लेकिन हमारे समाज और राजनीति पर इन दोनों घटनाओं के असर में फ़र्क था। आइए, इसके बाद हुई घटनाओं की कड़ी से इस अंतर को देखा जाए।

अगले दिन यानी 13 जनवरी को राजधानी के लगभग तमाम अखबारों में मस्जिद गिराए जाने की ख़बर पहले पेज पर थी। होना लाज़िमी भी था। सुबह 6 से 9.30 बजे तक मस्जिद गिरी और 11.30 बजे जामा मस्जिद के शाही इमाम वहां पहुंच गए। हज़ार से ज़्यादा की संख्या में मुस्लिम वहां इकट्ठे हो गए। स्थानीय विधायक (जो कि एक ग़ैर मुस्लिम हैं) अपने सैकड़ों समर्थकों के साथ मुसलमानों के ख़िलाफ हुए इस अत्याचार पर आवाज़ बुलंद करने वहां पहुंच गए। दो और विधायक, मटिया महल के शोएब इक़बाल और ओखला के आसिफ़ मोहम्मद ख़ान वहां आ गए। ज़ाहिर है, वह जनप्रतिनिधि होने के नाते नहीं, बल्कि मुसलमान होने के नाते अपना फर्ज़ अदा करने पहुंचे थे। बात यहीं नहीं थमी।

मस्जिद ढहने के बाद की पहली नमाज पास के थाने में पढ़ी गई। बाद के नमाज के लिए हज़ारों मुसलमान गिराई गई मस्जिद की जगह की ज़िद करने लगे, जो कि उन्हें बाद में दे दी गई। उत्तर प्रदेश के पूर्व मुख्यमंत्री और अपने नाम के आगे मुल्ला जुड़वाने के शौक़ीन मुलायम सिंह यादव ने उसी दिन घटनास्थल पर पहुंच कर घोषणा की कि यह मुसलमानों पर ज़ुल्म है। दिल्ली की मुख्यमंत्री कैसे पीछे रहतीं? वह भी भागी-भागी पहुंची। अल्पसंख्यकों के साथ हुए इस अत्याचार पर आंसू बहाया। फिर अगले दिन शाही इमाम के दरवाज़े पर मत्था टेकने जामा मस्जिद पहुंचीं। आधे घंटे की बैठक के बाद शाही इमान ने सच्चे देशभक्त की तरह मुसलमानों से शांति बरतने की अपील की और उन्हें बताया कि मस्जिद फिर वहीं बनेगी।

शीला जी ने उनसे वादा किया है कि पहले जिस ज़मीन पर अवैध कब्ज़ा कर मस्जिद बनाई गई थी, उसे अब सरकार अपने खर्चे से (मतलब आम लोगों के खर्चे से) ख़रीद कर वक्फ़ बोर्ड को सौंपेगी। नतीजा- घटनास्थल पर मौजूद मुस्लिम श्रद्धालुओं ने डीडीए द्वारा बनाई गई चहारदिवारी ढाह दी और घटनास्थल पर एक अस्थाई मस्जिद बना दी गई। 12 जनवरी को मस्जिद तोड़े जाने के बाद से अब तक वहां हज़ारों मुसलमान मौजूद हैं और हर समय की नमाज मिलकर अदा कर रहे हैं।

अब दूसरी घटना। पुष्प विहार का मंदिर गिराए जाने के बाद न कोई पत्ता हिला, न कंकड़ गिरा। एक अवैध इमारत को ढहाने की घटना को वहां के पूरे हिंदू समाज ने सहर्ष स्वीकार किया। नतीजतन, अखबार और टीवी के लिहाज से कोई ख़बर ही नहीं बनी। लेकिन जंगपुरा में हो रहा खेल जब अखबारों की सुर्खियां बन रहा हो, तो स्वाभाविक तौर पर राहुल गांधी के शब्दों में लश्कर-ए-तोएबा से भी ख़तरनाक कट्टर हिंदुओं पर कुछ करने का दबाव तो बना ही होगा। तो फिर शनिवार को पुष्प विहार में सड़कों पर जाम लगा। बीआरटी भी जाम की गई।

रविवार को इंडियन एक्सप्रेस ने पांचवें पन्ने पर दो कॉलम में यह ख़बर लगाई, तो मुझे भी पहली बार पता चला कि पुष्प विहार में चार दिन पहले कोई मंदिर भी तोड़ा गया था। लेकिन इस खबर में एक ख़ास बात थी। जंगपुरा में इकट्ठा होने वाले, विरोध करने वाले और नारे लगाने वाले मुसलमान थे। पुष्प विहार मंदिर के लिए जमा होने वाले भाजपाई थे, विश्व हिंदू परिषद और आरएसएस वाले थे। वहां कोई हिंदू नहीं था। जंगपुरा की जंग मुसलमानों की जंग है, लेकिन पुष्प विहार का विरोध भाजपाइयों और संघियों का पार्टी कार्यक्रम है।

हिंदुओं का न कोई सेकुलर शाही इमाम है, न कोई स्थानीय विधायक, न शोएब इक़बाल हैं, न आसिफ़ मोहम्मद ख़ान। न ही बगल के राज्य से भागा-भागा आने वाला कोई मुल्ला मुलायम है और न ही राज्य की मुख्यमंत्री शीला दीक्षित। हिंदुओं के लिए खड़े होने वाले केवल वही मुट्ठी भर लोग हैं, जो चिदंबरम जी और दिग्विजय सिंह की नज़र में हिंदू आतंकवादी हैं और राहुल गांधी की नज़र में पाकिस्तान की सेना से संचालित होने वाले लश्कर से भी ख़तरनाक हैं।

क्योकि इस देश के कम्युनिस्टों की आंखों पर तो हिंदू विरोध का पट्टी पड़ी है, इसलिए उनसे जागने की उम्मीद व्यर्थ है। लेकिन इन मुट्ठी भर बौद्धिक विकलांगों के अलावा जो देश की 98 फीसदी से ज्यादा आबादी है, उससे ज़रूर इस तरह की घटनाओं के निहितार्थ समझने की उम्मीद की जा सकती है। इस देश का मुसलमान देशभक्त है और मुख्यधारा के साथ चलना चाहता है, लेकिन इमाम, इक़बाल, ख़ान, मुलायम और शीला जैसों की दुकानदारी चलते रहने के लिए ज़रूरी है कि वह कूपमंडुक बना रहे और पूरे देश में उसकी छवि कट्टरपंथी और कानून के दुश्मन की बने। क्योंकि अगर ऐसा होगा, तभी बहुसंख्यक हिंदुओं के भीतर उसकी प्रतिक्रिया होगी, सुनील जोशी और असीमानंद जैसे नाम पैदा होंगे (यह मानते हुए कि वह दोषी हैं) और जब ऐसा होगा, तभी फिर उन्हें हिंदुओं का भय दिखा कर अपनी दावत चलती रहेगी।

अगर किसी को इस सिद्धांत में कोई अतिशयोक्ति दिखती हो, तो वह अपने दो बच्चों या घर के दो सदस्यों के बीच यही प्रयोग(जंगपुरा और पुष्प विहार के अंतर का) दुहरा कर देख ले। वे तमाम हिंदू, जिन्हें बम विस्फोटों के मामलों में आरोपी बनाया गया है, एक ही गुट के हैं। मतलब अगर ये सारे आरोप सही भी हैं, तो ये हिंदू समाज के स्वभाव में आ रहे किसी बदलाव का संकेत नहीं करते। लेकिन कल्पना कीजिए, अगर वास्तव में चिदंबरम, दिग्विजय और राहुल गांधी की राजनीतिक बयानबाजी सच साबित हो जाए, तो भारत को पाकिस्तान बनने में कितना समय लगेगा, जहां अल्पसंख्यकों के खिलाफ एक कानून का विरोध करने वाले (न कि उन्हें विशेष सुविधाएं देने की मांग करने वाले) गवर्नर की हत्या करने वाले पर फूल बरसाने वालों में पुलिसवाले और वकील तक शामिल थे।

इसलिए अगर आप इस देश के मुसलमानों के हितचिंतक हैं, तो जंगपुरा और पुष्प विहार का अंतर ख़त्म किए जाने के लिए आवाज़ उठाइए। लेकिन अगर आपको केवल राजनीति करनी है, तो कीजिए, लेकिन फिर इस ग़लतफ़हमी में मत रहिए कि इस आग की लपटों से आपका घर और आपके बच्चे बच जाएंगे।