गुरुवार, 6 दिसंबर 2007
आज 6 दिसंबर है
आज 6 दिसंबर है। इस दिन के ऐतिहासिक महत्व पर तटस्थ रहना मुश्किल है। और जो कोई भी वास्तव में इस दिन का ऐतिहासिक महत्व समझ सकेगा, उसके लिए इस पर तटस्थ रहना संभव भी नहीं है। हिंदू राष्ट्रवादी इसे सांस्कृतिक राष्ट्रवाद के इतिहास का स्वर्णिम पन्ना मानते हैं, वहीं वामपंथी बुद्धिजीवी इस दिन को भारत की बहुसांस्कृतिक पहचान पर एक काला धब्बा मानते हैं। किसी एक पाले में खड़ा होकर दूसरे को जीभर कर गालियां देना बहुत आसान है, लेकिन क्योंकि दोनों पक्ष अपने लिए दी गई गालियों से पिछले 15 साल में इतना परिचित हो गए हैं कि मेरे लिये ऐसा करना अपना और आपका दोनों का ही समय बरबाद करना होगा, इसलिए मैं ऐसा नहीं करूंगा। आइए आज केवल ये बात करते हैं कि इस दिन को शौर्य दिवस या काला दिवस मानने के पीछे की अलग-अलग वैचारिक पृष्ठभूमि क्या है। फिर आप अपने को जिस पृष्ठभूमि पर खड़ा पाएं, उसे स्वीकार कर लें। क्योंकि मेरी ज़िद है कि ऐसे ऐतिहासिक महत्व के दिन पर आप तटस्थ नहीं रह सकते।
इस देश को, इसके लोगों को, इसकी पहचान को और इसके इतिहास को देखने के दो नज़रिए हैं। पहले बात करते हैं इतिहास की। एक नज़रिया मानता है कि इस देश में आर्य (आधुनिक शब्दावली में हिंदू) बाहर से आए हमलावर थे और उन्होंने यहां के मूल निवासियों (जिन्हें आदिवासी कहा जाता है) को खदेड़ कर जंगलों में भेज दिया और इस देश की मुख्यधारा बन गए। दूसरा नज़रिया है जिसका मानना है कि आर्य इस देश के मूल निवासी हैं। आदिवासी दरअसल वनवासी हैं, जो जंगल में रहने के कारण सभ्यता के विकास से अछूते रह गए। आर्यों को आक्रांता मानने वाला नज़रिया राम के श्रीलंका जाने को आर्यों के दक्षिण भारत पर आक्रमण की कहानी मानता है। दूसरे नज़रिया का कहना है कि दो युवक क्या वास्तव में दक्षिण की सभी अनार्य (कथित द्रविड़) जातियों को हमला कर जीत सकते हैं। फिर रामायण में वर्णित शबरी और केंवट जैसे पात्रों के साथ राम का व्यवहार क्या वास्तव में एक हमलावर का व्यवहार हो सकता है। और बाद में राम की सेना बने वानर क्या किसी भी परिभाषा से हमलावर आर्य हो सकते हैं। वैसे मुझे याद है कि सालों पहले मैंने जनसत्ता में एक ख़बर पढ़ी थी। ख़बर एक पाश्चात्य विद्वान इतिहासकार के जेएनयू में हुए व्याख्यान पर थी, जिसमें उन्होंने आश्चर्य जताया था कि उपलब्ध ऐतिहासिक प्रमाणों के आधार पर जब पूरी दुनिया में ये पढ़ाया जाने लगा है कि आर्य भारत के मूल निवासी थे, तो फिर क्यों भारत में ही अब तक ये झूठ ही पढ़ाया जा रहा है कि आर्य यहां हमलावर के तौर पर आए थे। खैर...
आइए अब बात करें भारत की पहचान की। तो पहला नज़रिया मानता है कि भारत राष्ट्र का जन्म 15 अगस्त 1947 को हुआ। इससे पहले भारत कभी एक राष्ट्र था ही नहीं। ये तो सैकड़ों रियासतों का एक समूह मात्र था, जिसे अंग्रेजों ने एक राजनीतिक नक्शा दिया। अब क्योंकि भारत राष्ट्र का जन्म ही 60 साल पहले हुआ, तो उससे पहले का कोई राष्ट्रीय विरासत होने का सवाल ही नहीं उठता। इसलिए भारत में सांस्कृतिक राष्ट्रवाद बुर्जुआ समाज के सर्वहारा पर शासन करने के लिए गढ़ा गया एक छलावा है। दूसरा नज़रिया मानता है कि भारत इतिहास के जन्म से पहले से ही राष्ट्र है। वेदों में जिसे 'भारत माता' कहा गया है, उसकी परिभाषा उस भूमि के तौर पर दी गई है जो सिंधु सागर (हिंद महासागर) से हिमालय के बीच फैली हुई है। वेदों की रचना का समय इतिहास के जन्म से बहुत पहले है। इतना पहले जहां तक इतिहास की सोच भी नहीं पहुंच पाती। अब से 1,200 साल पहले शंकराचार्य ने जिस भारत को एक सूत्र में बांधने के लिए उड़ीसा के पुरी, तमिलनाडु के कांचीपुरम, गुजरात के द्वारका और उत्तरांचल के बद्रीनाथ का चुनाव किया था, उसके पीछे अगर राष्ट्रीय भावना नहीं थी, तो क्या था। बेतिया के नीलहे किसान अपनी पीड़ा लेकर गुजरात के गांधी के पास किस अधिकार से गए, बीजिंग या काबुल क्यों नहीं गए? बंग विभाजन के ब्रिटिश साजिश के खिलाफ पंजाब और चेन्नई में लोगों ने लाठियां क्यों खाईं? अगर भारत केवल 60 साल पहले राष्ट्र बना, तो इन सवालों का क्या जवाब है।
तीसरा मुद्दा है लाइफलाइन का। ऐसा कौन सा एक तत्व है, जिसके धूमिल होते ही भारतीय समाज का आधार विलीन हो जाएगा। क्योंकि पहले नज़रिये का मानना है कि भारत 1947 में अस्तित्व में आया, इसलिए ये नज़रिया अब तक इस लाइफलाइन की खोज में है। नेहरू इसी नज़रिये का प्रतिनिधित्व करते थे, जिन्होंने उद्योगों का आधुनिक भारत के मंदिर कहा और पश्चिम के विकास मॉडल पर भारत के विकास की रूपरेखा बनाना चाहा। अब उन्हीं के वंशज देश को उपभोक्तावाद के अंधे कुएं में धकेलने में लगे हैं। अभी हाल ही में कमलनाथ की किताब का लोकार्पण करते हुए प्रधानमंत्री ने कहा कि भारत की प्रगति का मूलमंत्र यही है कि देश को सबसे बड़ा कारोबारी देश (ट्रेडिंग नेशन बनाया दिया जाए)। इसी नज़रिये का एक पोषक वामपंथी बुद्धिजीवी हैं, जिनके लिए चीन का विकास मॉडल आदर्श हैं। चीन की रौशनी से उनकी आंखें इस क़दर चुधियाईं हुई हैं कि 1962 के चीनी आक्रमण को भी उन्होंने भारतीय मज़दूरों को बुर्जुआ शासन से मुक्त कराने का अभियान क़रार दिया था और 2007 में भी उन्होंने अरुणाचल प्रदेश पर चीन के दावे को न्यायोचित ठहराने की कोशिश की है। तो ऐसे देशद्रोहियों से भारत की लाइफलाइन पर कोई नज़रिया रखने की उम्मीद करना भी व्यर्थ है। दूसरा नज़रिया धर्म को भारत की लाइफलाइन मानता है। इस नज़रिये के सबसे मुखर प्रवक्ता महात्मा गांधी थे, जिन्होंने साफ कहा था कि धर्मविहीन राजनीति उनके लिए बेकार है। भारतीय समाज को भारतीय नज़रिये से पढ़ने वाला कोई भी व्यक्ति समझ सकता है कि इस देश में सामाजिक सुधारों को सफल करने के लिए धर्म का आधार कितना ज़रूरी है।
चौथा मुद्दा है संस्कृति का। पहला नज़रिया मानता है कि भारत की अपनी कोई संस्कृति है ही नहीं। ये दरअसल कई संस्कृतियों का मिश्रण है। इसी नज़रिये ने पाकिस्तान बनने का वैचारिक आधार तैयार किया था। दूसरा नज़रिया मानता है कि भारत की एक ही संस्कृति है, जिसे हिंदू संस्कृति कहा जा सकता है। बाकी सभी उप संस्कृतियां है जो हिंदू संस्कृति को पूर्ण बनाती हैं। इसे ठीक से समझने के लिए इंडोनेशिया जैसे मुस्लिम बहुल देश (85% जनसंख्या) का उदाहरण दिया जा सकता है, जहां रामलीला एक राष्ट्रीय आयोजन है, जहां के सरकारी विमान सेवा का नाम गरुड़ है और जहां की एक पूर्व मुस्लिम राष्ट्रपति का नाम मेगावती सुकर्णोपुत्री है। साफ है कि हिंदू संस्कृति कभी किसी जातीय या मजहबी पहचान और पूजा पद्धति की विरोधी नहीं हो सकती। ये तो सबको अपने आप में समेट लेने वाली संस्कृति है।
ऐसे और कई छोटे-बड़े मुद्दे हैं जिनमें से सभी पर दोनों नज़रियों की चर्चा की जा सकती है। आप खुद सोचें। 6 दिसंबर की घटना को सही या ग़लत मानने के लिए दोनों पक्षों के अपने-अपने तर्क हैं जिन्हें पिछले 15 सालों में आपने पता नहीं कितनी बार सुना होगा। इसलिए उन्हें एक बार फिर यहां दुहराना बेकार है। इन दोनों में से पहला नज़रिया इसे काला दिवस मानता है तो दूसरा शौर्य दिवस। आप ख़ुद को किस नज़रिए के धरातल पर खड़ा देखते हैं, इसी से 6 दिसंबर के प्रति आपका नज़रिया भी तय होगा।
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1 टिप्पणी:
बहुत ही सुंदर सोंच ! ख़राब मानसिकता पालते हुए भी एक आध घंटे अच्छी मानसिकता आती ही है . ऐसा रोज
होता है . नशे मे भी होता है . दोनों पक्ष मे बोलबाला संकीर्ण विचार का ही है . हम आधे घंटे की अच्छी मानसिकता को १२ घंटे का बना नही पा रहे तो समाधान होने से रहा . शौर्य दिवस , और काला दिवस को स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस की तरह हर साल मनाया जाता रहेगा तो समाधान मुश्किल है .
मन्दिर के पास मैं किसी को खड़ा नही देखता . मस्जिद के पास देश विदेश के मुसलमान के साथ असंख्य हिंदू
जो वोट की खातिर ही सही जमा हुए हैं. अगर समाधान नही होना है तो मुझे मन्दिर चाहिए ही चाहिए ऐसा इसलिए नही की राम मेरा है बल्कि ऐसा इसलिए की न्याय है , लुटा गया वापस लौटाया जाना होगा .
वामपंथी भगवन राम को शैतान, बाबर के साथ बिल्कुल बाप -बेटे जैसे दिखायी देता है . स्वस्थ मानसिकता
वाले मुस्लिम भी हैं जो मन्दिर की चाह रखते हैं . भाजपा न्याय मांगने चली तो वोट बैंक बन गया .अब न्याय
मिलने न मिलने मे कोई रूचि नही केवल बैंक बैलेंस का संतुलन बनाने मे लगी है .
सही विषय वस्तु सामने आती नही आगे आ भी जाती तो उसे तुरंत ग़लत सिद्ध करने मे कोताही नही की जाती .
हम आक्रमण कारी कभी नही रहे हाँ आक्रमण पर आक्रमण सहते हुए एक ऐसी प्रतिक्रिया उत्पादित करते आए
है जो जब तब विश्व का कान खड़ा कर देता है . विश्व कब स्वीकार करेगा कि प्रत्येक क्रिया के बराबर विपरीत प्रतिक्रिया होती है .
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