रविवार, 18 नवंबर 2007

दो वामपंथी महिलाओं का दर्द



आज सुबह-सुबह दो बड़ी मज़ेदार ख़बरें पढ़ने को मिलीं। दोनों ही ख़बरें देश की दो जानी-मानी महिलाओं से जुड़ी हैं। विचारधारा की दृष्टि से दोनों महिलाएं अब तक एक ही पाले में रही हैं और आज की ख़बर में दोनों ने एक-दूसरे पर ज़बर्दस्त प्रहार किया है। ना-ना, प्रहार मतलब व्यक्तिगत नहीं संस्थागत प्रहार किए हैं दोनों ने। एक दूसरे का नाम नहीं लिया, लेकिन एक-दूसरे के मंच पर ऐसा भीषण आघात किया है, जिसके बारे में महीने भर पहले दोनों ने सपना तक नहीं देखा होगा। पहली महिला हैं वामपंथी प्रतिबद्धता वाली जानी-मानी लेखिका महाश्वेता देवी और और दूसरी महिला हैं मार्क्सवादी कम्युनिस्ट पार्टी के इतिहास में पहली बार पोलित ब्यूरो को सुशोभित करने वाली वृंदा करात।
लौटते हैं ख़बरों की ओर। महाश्वेता देवी ने कहा है कि अब उन्हें सीपीएम के नाम से ही नफरत हो गई है। वहीं वृंदा करात ने पिछले पांच दशकों से साहित्य और इतिहास की पाठ्य पुस्तकों के ज़रिए युवा पीढ़ियों को वामपंथी सिद्धांतों की घुट्टी पिला रहे प्रतिबद्ध वामपंथी बुद्धिजीवियों की बुद्धिजीविता (वैसे मुझे तो ये शब्द ही बहुत अजीब लगता है) पर सवालिया निशान लगाए हैं। वृंदा का दर्द सही भी है। वृंदा की खुन्नस ये है कि मेरे वामपंथी बुद्धिजीवियों, क्या खाक बुद्धिजीवी हो तुमलोग।
क्या खाक मोटी-मोटी किताबें छानीं हैं तुम लोगों ने, जो इतनी सी बात से परेशान हो गए। क्या तुम्हें पता नहीं है कि वामपंथ का लाल रंग ही खून से बना है। बिना खून बहाए तो वामपंथ जीवित ही नहीं रह सकता। इतिहास गवाह है कि दुनिया के किसी भी कोने में वामपंथ ने खून बहाने के पहले उसका सर्वहारा या बुर्जुआ चेहरा नहीं देखा है, देखा है तो केवल ये कि तलवार के आगे खड़ा सिर वामपंथ के आगे झुका है या नहीं। और नंदीग्राम की बात करें तो वहां मारे गए सभी
वामपंथ को चुनौती देने की ज़ुर्रत कर रहे थे। वृंदा चीख-चीख कर इन बुद्धिजीवियों को यही कहना चाह रही हैं कि वामपंथ के समतामूलक समाज में खून बहाने के लिए ग़रीब हो या धनी सब बराबर हैं। अच्छे या बुरे की पहचान तो खून बहाने वाले खंजर के रंग से तय होता है। केसरिया खंजर से निकला खून मानवता पर धब्बा है, लेकिन लाल खंजर का तो अधिकार है खून बहाना।
उधर, जीवन भर सर्वहारा (गरीबों) के प्रति वामपंथी संवेदनशीलता का प्रचार करने वाली महाश्वेता पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में सामने आए सीपीएम के चेहरे को पचा नहीं पा रही हैं। इसलिए नहीं पचा पा रही हैं कि नंदीग्राम उनके लिए वामपंथ के शिकार हुए दूसरे हज़ारों आम लोगों की किताबी कहानियां नहीं है। नंदीग्राम उनके घर का आंगन है जहां फैले हुए खून के छींटे उनके हृदय को बींध रहे हैं। सुमित सरकार जैसे वामपंथी इतिहासकारों तक की भावनाएं हिल गई हैं।
वृंदा करात को क्षोभ हो रहा है कि उनके मित्र वामपंथी बुद्धिजीवियों को पिछले 9 महीनों में नंदीग्राम की सुध क्यों नहीं आई, जब 'वामपंथी समर्थक किसान'(जो आज हत्याएं और बलात्कार कर रहे हैं) घरों से बाहर खदेड़ दिए गए थे और इलाके पर तृणमूल कांग्रेस समर्थित भूमि उच्छेद समिति के लोगों का कब्ज़ा था। उन्होंने दुख के साथ अपने पुराने सहचरों से पूछा है कि क्या वे भी ममता बनर्जी के उस बयान से इत्तेफाक रखते हैं जिसमें उन्होंने 3,500 'वामपंथी समर्थक किसानों' के इलाकाबदर होने को नाटक कहा है। सच में बहुत निर्मम बयान दिया है ममता ने।
लेकिन अगर वृंदा ये भी बता देतीं कि इन 9 महीनों में इलाकाबदर हुए उन बेचारे वामपंथी किसानों ने कौन सा धरना दिया, वापस लौटने की कितनी कोशिशें कीं और उस दौरान उनमें से कितनों की हत्याएं की गईं और कितनी महिलाओं के साथ बलात्कार किया गया, कितनी बार उन्होंने स्थानीय थाने और जिला प्रशासन को शिकायत दर्ज़ कराई और कितनी बार मुख्यमंत्री ने प्रशासन को उनकी शांतिपूर्ण वापसी के लिए निर्देश दिये। अब जब प्रगतिशील मुख्यमंत्री बुद्धदेव भट्टाचार्य का ज़िक्र आया है तो ये याद करना भी प्रासंगिक होगा कि इन्हीं सज्जन ने कहा था कि भूमि उच्छेद समिति से जुड़े किसानों को उन्हीं की भाषा में जवाब दिया गया है। सो, क्यों न यही माना जाए कि उन 'बेचारे वामपंथी समर्थक किसानों' ने इन 9 महीनों का सदुपयोग उस भाषा में जवाब देने की तैयारी में किया।
खैर, अगर खून से सनी नंदीग्राम की ज़मीन वास्तव में महाश्वेता देवी और सुमित सरकार जैसे बुद्धिजीवियों के लिए वामपंथ का आइना साबित हो सके तो यही माना जाएगा कि नंदीग्राम के निर्दोष किसानों का बलिदान व्यर्थ नहीं गया। वैसे मुझे इसमें संदेह है।

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