शुक्रवार, 11 अप्रैल 2008

मुझे राज ठाकरे पर गुस्सा क्यों नहीं आता?

राज ठाकरे चाहते हैं कि सभी उत्तर भारतीय, ख़ास तौर पर बिहारी और यूपी वाले महाराष्ट्र और मुंबई छोड़ कर चले जाएं। इसके लिए उन्होंने अपने चाचा जी से सीखे तमाम राजनीतिक पैंतरे आजमाए हैं। अपने गुंडों से कहकर उत्तर भारतीयों पर हमले करवाए हैं, बयानबाजियां की हैं और सबसे ताजा घटनाक्रम में निजी क्षेत्र की कंपनियों को धमकियां दी हैं। लेकिन इन सबके बावजूद मेरे मन में राज ठाकरे को लेकर कोई गुस्सा, कोई कटुता नहीं है। मैं पिछले महीने भर से समझने की कोशिश कर रहा हूं कि ऐसा क्यों है? मैं भी एक बिहारी हूं और अगर राज ठाकरे विशुद्ध क्षेत्रीय आधार पर बिहारियों को सरे बाज़ार दौड़ा रहे हैं, पीट रहे हैं, तो मेरा मन भी राज ठाकरे के खिलाफ ज़हर से भरा होना चाहिए। लेकिन ऐसा क्यों नहीं हो रहा है? मैं परेशान हूं। फिर सोचता हूं कि शायद इसलिए गुस्सा नहीं आता, क्योंकि मैं एक बिहारी हूं। अगर मैं एक तमिल होता, नगा होता या गुजराती होता, तो मैं राज ठाकरे के इस कृत्य की तुलना राष्ट्रद्रोह से करता (जैसा कि बाबा रामदेव ने किया है), लेकिन एक बिहारी के तौर पर जब मैं इस पूरे प्रकरण पर सोचता हूं तो राज ठाकरे का अस्तित्व मुझे नजर ही नहीं आता। मुझे चलते-फिरते रोज ऐसे पचासों ठाकरे दिखते हैं और इसलिए इन्हें देखने का मेरा नजरिया थोड़ा अलग हो गया है। मुझे इन ठाकरेओं में नजर आती है एक मानसिकता। यह मानसिकता जो और ज्यादा, और ज्यादा पाना चाहती है, जो किसी चीज में बंटवारा पसंद नहीं करती, जो अपनी अयोग्यता को लेकर हमेशा असुरक्षित है।

आज पूरे देश में बिहारी एक गाली, एक अपमानजनक शब्द के तौर पर क्यों प्रचलित है? क्या वास्तव में इसके लिए राज ठाकरे दोषी हैं? आपको एक कहानी सुनाता हूं। एक दिन मैं और मेरे दो मित्र (तीनों बिहारी) कहीं बस का इंतजार कर रहे थे और आपस में कुछ चर्चा कर रहे थे। बगल में 70 साल के करीब के एक पंजाबी बुजुर्ग बैठे थे, जो सुंदरकांड का एक गुटखा पढ़ रहे थे। एकाएक उन्होंने कहा कि आप सब तो बिहार के ही हैं, अपने रेल मंत्री को क्यों नहीं कहते कि पास के स्टेशन पर ट्रेनों का स्टॉपेज बनवा दें। हमें कुछ समझ में ही नहीं आया कि एकाएक ये बात कहां से आ गई। फिर उन्होंने कुछ और बातें कहीं और फिर कहा, आप सब बेचारे जो यहां आकर धक्का खाते रहते हैं, आप लोगों के लिए वहीं कुछ क्यों नहीं कर दिया जाता है? और यह कहते ही वे उठे और वहां से चल दिए। हमने भी कुछ कहने की कोशश की, लेकिन वे सुनने को तैयार न थे। अपनी भड़ास निकाल कर वह तुरंत वहां से चले गए। मेरी भड़ास मेरे मन में रह गई। मेरे मन में कुछ सवाल थे, जो मैं उनसे पूछ नहीं पाया। मैं पूछना चाहता था कि आज से 60 साल पहले जब वे अपने बहू-बेटियों की इज्जत गवां कर और अपने भाइयों-भतीजों की लाशें लांघ कर दिल्ली पहुंचे थे, तब अगर बाकी के देश ने भी उनसे इसी भाषा में बात की होती तो वह क्या कहते? मैं उनसे पूछना चाहता था कि अगर देश के सबसे बड़े अखबारों में से एक में एक वरिष्ठ पदनाम के साथ काम कर रहा मैं अगर धक्के खा रहा हूं, तो हैदराबाद, बंगलुरु और अमेरिका में काम कर रहे हजारों-लाखों आईटी प्रोफेशनल्स को भी क्यों नहीं खुद को धक्का खाता हुए मानकर अपने-अपने घर लौट जाना चाहिए? मैं उनसे और बहुत कुछ पूछना चाहता था, लेकिन उन्होंने मौका ही नहीं दिया। बहरहाल, इस प्रकरण का एक अच्छा नतीजा यह निकला कि मुझे पता चल गया कि मुझे राज ठाकरे पर गुस्सा क्यों नहीं आता।

आज से सवा सौ साल पहले भी एक बिहारी को मुंबई में चलती ट्रेन से सारे सामान के साथ इसलिए नीचे फेंक दिया गया था, क्योंकि उसने पहले दर्जे में चढ़ने की हिमाकत की थी। उस समय उस बिहारी की पहचान एक भारतीय के रूप में थी, उसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था और मुंबई दक्षिण अफ्रीका में हुआ करती थी। उस समय दक्षिण अफ्रीका में जाने वाला हर भारतीय पिछड़ा, गरीब और अशिक्षित हुआ करता था भले ही वह ब्रिटेन में अंग्रेजी पढ़ा एक वकील ही क्यों न हो। वैसे ही आज की तारीख में देश के हर हिस्से में रहने वाला बिहारी गरीब, अशिक्षित और असभ्य ही हुआ करता है चाहे वो कितना भी पढ़ा-लिखा, प्रतिष्ठित और अच्छा नागरिक क्यों न हो। यह एक मानसिकता है। राज ठाकरे इसी मानसिकता का नाम है और यह तब तक नहीं बदलेगी, जब तक हम सब्जी बेचने, रिक्शा चलाने और ठेले खींचने के लिए दूसरे राज्यों की मिट्टी फांकते रहेंगे। टाटा किस राज्य के रहने वाले हैं, बिड़ला का जन्म कहां हुआ, अंबानी कहां की पैदाइश हैं? देखिए सभी मुख्यमंत्री और उद्योग मंत्री कैसे बिछे रहते हैं उनके आगे। यही अर्थ तंत्र है। जब हम महाराष्ट्र के किसी जिले में फैक्ट्री में मजदूरी करने जाएंगे तो राज ठाकरे की ठोकरें हमारे स्वागत करेंगी, लेकिन जब हम उसी जिले में वही फैक्ट्री खोलने जाएंगे, तो यही राज ठाकरे हमारे तलवे चाटते भी नजर आएंगे। अगर हम बिहारी देश भर में बिखरी ऐसी मानसिकताओं से निपटना चाहते हैं, तो हमें बिहार के अंदर एक गौरवशाली बिहार का निर्माण करना होगा। जब तक ऐसा नहीं होगा तब तक राज ठाकरे हमारे लिए या तो क्रूर आततायी बना रहेगा या फिर दयालु आश्रयदाता।

5 टिप्‍पणियां:

इष्ट देव सांकृत्यायन ने कहा…

चुप रहिए जी. ऐसा कुछ नहीं होने वाला है. ऐसा हो इसके लिए वोट देना पड़ेगा और वह भी एक बोतल दारू पीकर या एक एक कम्बल की भीख लेकर नहीं, मुफ्त में. और नहीं तो गोली भी खानी पड़ सकती है. बताइए छुट्टी लेके जाएंगे बिहार वोट देने? और जाएं भी तो देंगे तो बिरादर को ही न!

रवीन्द्र प्रभात ने कहा…

क्या ऐसा संभव है ? मुझे तो लगता है , राज ठाकरे अत्यन्त चालाक और अत्यन्त वेवकूफ़ के वीच का व्यक्ति है , जो न तो समाज का भला कर सकता है और न निर्माण ही , पता नही ये महाराष्ट्र का नव निर्माण कैसे करेंगे ?

ab inconvenienti ने कहा…

इतना तो दूर की बात है, अगर कुछ लोग सिर्फ़ बिहारियों को बड़े स्तर पर प्राथमिक शिक्षा उपलब्ध कराने की बात ही करेंगे तो, बाहुबलियों द्वारा मौत के घाट उतार दिए जायेंगे. भूल गए स्वर्णिम चतुर्भुज योजना के बिहारी ठेकेदारों के गड़बड़ घोटाले की सिर्फ़ शिकायत करने पर इंजिनियर दुबे को क्या ईनाम मिला था? सिवान के लोग जितने भी मिले वो सब शाहबुद्दीन को रोबिन हुड और मसीहा मानते हैं, बाहर उच्च शिक्षा पाने आये छात्र भी, पर हाँ, लौटना कोई नहीं चाहता, सब आउट ऑफ़ बिहार सेटल होना चाहते हैं. वो सब दूसरो की नफरत सह लेंगे, पर एक कभी नही होंगे, पांडे, यादव,सिन्हा, मुसलमान, पासी,दलित,आदिवासी ये सब अपने अपने खेमों मे बंटे हैं. और एक सत्य घटना: लालू से हार्वर्ड में एक भारतीय छात्र ने पूछा की, आपका मेनेजमेंट गुरु वाला माइंड तब कहाँ था जब आप 15 साल सी एम थे? लालू का जवाब था: बिहार का तो भगवान भी कुछ नहीं कर सकता, तो मैं क्या हूँ. यही लालू प्रधान मंत्री पद के दावेदार हैं, बाकि भारत को भी बर्बाद करेंगे.

Ashish Pandey ने कहा…

सवा सौ साल पहले भी एक बिहारी को मुंबई में चलती ट्रेन से सारे सामान के साथ इसलिए नीचे फेंक दिया गया था, क्योंकि उसने पहले दर्जे में चढ़ने की हिमाकत की थी। उस समय उस बिहारी की पहचान एक भारतीय के रूप में थी, उसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी


Yaar I think Gandhi was Gujrati, not Bihari

भुवन भास्कर ने कहा…

@ashishi pandey ji
जी, आपने बिलकुल ठीक कहा पांडेय जी। दरअसल मैंने रूपक अलंकार के जरिए अपनी बात कहने की कोशिश की थी, क्षमा चाहता हूं आपको समझने में कठिनाई हुई।
जिस तरह आज एक पिछड़ा, अशिक्षित, असभ्य देश के हर हिस्से में 'बिहारी' ही होता है, वैसे ही तब अफ्रीका में हर भारतीय पिछड़ा, गरीब, गंवार और असभ्य ही हुआ करता था- यही मेरा तात्पर्य है। इसीलिए मैंने लिखा, "उस समय उस बिहारी की पहचान एक भारतीय के रूप में थी, उसका नाम मोहनदास करमचंद गांधी था और मुंबई दक्षिण अफ्रीका में हुआ करती थी। उस समय दक्षिण अफ्रीका में जाने वाला हर भारतीय पिछड़ा, गरीब और अशिक्षित हुआ करता था भले ही वह ब्रिटेन में अंग्रेजी पढ़ा एक वकील ही क्यों न हो। वैसे ही आज की तारीख में देश के हर हिस्से में रहने वाला बिहारी गरीब, अशिक्षित और असभ्य ही हुआ करता है चाहे वो कितना भी पढ़ा-लिखा, प्रतिष्ठित और अच्छा नागरिक क्यों न हो।"