गुरुवार, 3 जुलाई 2008

मैं एक प्रखर हिंदू हूं, लेकिन मैं आहत नहीं हूं

मेरी पत्नी एक गृहिणी हैं और राजनीति से उनका संबंध उतना ही है, जितना हमारे देश की महिलाओं (चाहे गृहिणी हों या कामकाजी) का आम तौर पर होता है। लेकिन वे अखबार पढ़ती हैं और बड़े ध्यान से पढ़ती हैं। खास बात यह है कि वे उसमें राजनीति की खबरें भी पढ़ती हैं। इस बात का पता मुझे आज सुबह तब चला जब मेरे सोकर उठते ही उन्होंने इस देश में अल्पसंख्यक के विशेषण से विशेष आदर और सम्मान पाने वाले करीब 17-18 फीसदी भारतवासियों के खिलाफ बहुत ही कड़े और उग्र विचार व्यक्त करने शुरू किए। वे विचार इतने उग्र और भड़काउ थे कि यहां उन्हें लिखने का साहस मैं नहीं जुटा पा रहा। मैं इन विचारों को सुनकर घबरा गया और पूछा कि इस तरह के अलोकतांत्रिक और अराष्ट्रीय विचारों का कारण क्या है। पता चला कि वह अमरनाथ श्राइन बोर्ड से ज़मीन वापस लेने के सरकार के फैसले से बहुत आहत थीं। मैंने सोचा कि हो न हो, उन्होंने किसी राजनेता का कोई भड़काउ बयान पढ़ लिया होगा। मैं आश्वस्त था कि उन्हें इस मुद्दे की पूरी जानकारी नहीं होगी, इसलिए मैंने उनके अज्ञान को ही उनके विचारों की काट का हथियार बनाना चाहा। मैंने पूछा कि क्या आपको पता है ये पूरा मुद्दा क्या है। उन्होंने घटना का सटीक ब्योरा भी दे दिया। फिर मैंने उन्हें समझाने के लिए कुछ दूसरी बातों का सहारा लिया, लेकिन मैं बहुत सफल रहा, इसका मुझे भरोसा नहीं है।

दरअसल इस देश में हिंदुओं और मुसलमानों के बीच हो रहे भेदभावपूर्ण रवैये पर साम्प्रदायिक और फासिस्ट करार दिए जाने से डरे बगैर मैंने हमेशा से लिखा है। यह जानने के लिए कोई डॉक्टरेट लेने की जरूरत नहीं है कि इस देश की राजनीति समय-बेसमय हिंदुओं को लतियाने-गलियाने में लेश भी नहीं हिचकती, जबकि मुसलमानों से लात-जूते और गालियां खाने पर भी दांत निपोर कर उन्हें गले लगाने को बेचैन रहती है। लेकिन अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन दिए जाने और फिर लिए जाने का खेल सामान्य राजनीति नहीं है। इस राजनीति से कश्मीर का भविष्य जुड़ा है।

इस खेल को समझने के लिए यह समझना होगा कि किस पार्टी का क्या दांव पर लगा है। कश्मीर में इस खेल के दो मुख्य पक्ष हैं। कांग्रेस और पीडीपी। कांग्रेस से कोई पूछे कि अगर पिछली आधी शताब्दी से सब कुछ ठीक ही चल रहा था, तो एकाएक बोर्ड को ज़मीन देने की जरूरत क्या पड़ गई। दरअसल ऐन चुनाव के वक्त किया गया कांग्रेस का यह खेल शाहबानो केस की याद दिलाता है। पहले मुसलमानों को खुश करने के लिए संविधान संशोधन कर सुप्रीम कोर्ट के फैसले को बदलना, फिर नाराज हिंदुओं को खुश करने के लिए बिना किसी उकसावे के अयोध्या के राम मंदिर के ताले खोलना। इस बार मामला थोड़ा उलटा है। पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देना और फिर मुसलमानों को खुश करने के लिए उसे वापस लेना।

पीडीपी की राजनीति में उलझाव नहीं है। उसे कश्मीरी मुसलमानों का वोट चाहिए (वैसे भी घाटी में अब शायद ही कोई हिंदू बचा है)। इसके साथ ही उसकी जमीनी मजबूरियां हैं कि वह अलगाववादी और आतंकवादी ताकतों के सीधे निशाने पर नहीं आना चाहेगी। जिस कांग्रेस सरकार ने बोर्ड को ज़मीन दी, पीडीपी उसका हिस्सा थी और उसके उप मुख्यमंत्री ने संबंधित दस्तावेज पर हस्ताक्षर किए थे। ऐसे में चुनाव के ठीक पहले पीडीपी के इस नाटक को समझने के लिए राजनीति का पंडित होने की जरूरत नहीं है।

अब एक तीसरा पक्ष भी है, जो वैसे तो इस घटनाक्रम में पक्ष नहीं है, लेकिन भारतीय राजनीति में हिंदू हितों के एकमात्र पैरोकार के तौर पर उसका पक्ष बनना लाजिमी है। यह तीसरा पक्ष है भाजपा और विहिप का, जिन्होंने बोर्ड से ज़मीन वापस लिए जाने के विरोध में आज भारत बंद रखा है। भाजपा और विहिप आहत हैं हिंदू हितों पर हुए आघात से।

लेकिन एक प्रखर और मुखर हिंदू होने के बावजूद मैं इस भारत बंद से अलग हूं। मैं आहत नहीं हूं, क्योंकि मैं समझ सकता हूं घात और प्रतिघात की यह राजनीति। जिस तरह पीडीपी ने क्षुद्र राजनीतिक स्वार्थ के लिए कश्मीरी मुसलमानों के मन में भारत के प्रति जहर भरा है, कुछ वही काम भाजपा और विहिप देश के मन में कश्मीरी मुसलमानों के प्रति जहर भर के कर रहे हैं।

पाकिस्तान न तो कश्मीरियों का हामी है, न उसे कश्मीर से कोई मतलब है। उसका एकमात्र उद्देश्य भारत को तोड़ना और कमजोर करना है। इस बात के पूरे संकेत हैं कि घाटी में हुआ बवाल पाकिस्तान के इशारे पर हुआ। बोर्ड को ज़मीन देने का मुद्दा अलगाववादियों और आतंकवादियों के लिए कश्मीरी जनता के बीच फिर से अपनी पकड़ बनाने का एक बेहतरीन मौका लेकर आया था। इसलिए मेरे विचार से बोर्ड से ज़मीन वापस लेकर आजाद सरकार ने एक सही कदम उठाया है। कश्मीरी जनता बोर्ड को ज़मीन देने का विरोध नहीं कर रही थी, दरअसल वह इस अफवाह के कारण सड़क पर उतरी थी कि यह जमीन स्थाई निर्माण और बाहर से लोगों को वहां बसाने के लिए दिया गया है। इस पर अड़ने का अर्थ कश्मीर अवाम में फिर यह सोच मजबूत करना होता कि बाकी देश को उसकी भावनाओं से कोई मतलब नहीं है।

यहां प्रकारांत से एक और मुद्दा भी उठा है। यह है धारा 370 का। मेरा सुविचारित मत है कि इस धारा को हटना चाहिए और कश्मीर में बाहरी लोगों के बसने का रास्ता खुलना चाहिए। लेकिन यह जोर-जबर्दस्ती से नहीं हो सकता। इसके लिए पहले कश्मीर की जनता को तैयार करना होगा। पूरी कश्मीरी जनता को खिलाफ कर हम कश्मीर को अपने साथ नहीं रख पाएंगे। वैसे भी जब राज ठाकरे जैसा देशद्रोही महाराष्ट्र से गैर मराठियों को बाहर करने का अभियान छेड़ कर जननेता कहला सकता है, तो कश्मीरियों को इसी मांग के लिए देशद्रोही कहने का हमें क्या अधिकार है?

11 टिप्‍पणियां:

महेन ने कहा…

बंधु। आप बात सटीक तरीके से और बेबाकी से कहते हैं, बगैर किसी लाग लपेट के।
आपका कोई भी प्वाइंट ऐसा नही है जिससे असहमति जता सकूँ।
शुभम।

धोबी ने कहा…

वाह क्या खूब लिखा है!
अच्छा है कि आहत नहीं हो अगर आहत होते भी तो क्या उखाड़ लेते? किसको परवाह है? यहां इतने सारे लोग आहत हुये तो किसका क्या उखाड़ लिया?

एकदम सही बोला है कि जब आधि शताब्दी तक जरूरत नहीं थी तो अब क्या पढ़ गयी? नूरे नज़र, जब कोई हज हाउस बने तब यही बात बोलना।

राजठाकरे को देशद्रोही फटाक से बोल देते हो और काश्मिरियों को देशद्रोही कहने के अधिकार पर सवाल उठाते हो? इस सादगी पे कौन न मर जाय ये खुदा।

वैसे कुछ लोग कभी भी आहत नहीं होते। जब हिन्दुस्तान पर चीन ने हमला किया था तब भी ढेर सारे लोग आहत नहीं होते। कुछ आहत न होने वाले लोगों ने हिन्दुस्तान के ऊपर ही उंगली उठायी थी. आहत न होने की लम्बी परम्परा है हमारे यहां। कुछ लोग तो तब तक आहत नहीं होते जब तक सिर्फ उनके गिरेबान पर हाथ न डाले।

शुक्र है कि तुम्हारे घर में कोई आहत हुआ और मुझे उनकी संवेदनाओं पर विश्वास है। जिसके दिल होगा उसे ही तो दरद होगा।

बात मामूली नहीं है। जब बात घर में बैठी महिलाओं के दिल पर जा चुभे तो कतई मामूली नहीं है।

संजय शर्मा ने कहा…

"इस तरह निगाहें मत फेरो ऐसा न हो धड़कन रुक जाए !"

nadeem ने कहा…

भुवन आपकी बात से मैं काफी हद तक सहमत हूँ. काश आपकी बात अधिकतर देशवासी पढ़ पाते, हाँ मगर कितने लोग इसको समझते इसमें मुझे शक है. क्यूंकि धर्मं एक ऐसा मसला है जो आवश्यकता से अधिक भावनात्मक है और इसके आते ही लोग सोचना बंद कर देते है, उन्हें बस यही लगता है कि हर कोई उनके धर्म पर हमला कर रहा है. और रही बात राजनीतिक दलों और इनके पैरोकारों की तो ये कभी भाषा के नाम पर लड़वायेंगे, कभी राज्य के नाम पर, कभी जाती के और कभी धर्मं के नाम पर और हाँ हम भी लड़ते ही रहेंगे क्यूंकि हमने अपनी अक्ल ऐसे लोगों के जूतों में रख जो छोड़ी है.

संजय बेंगाणी ने कहा…

भगवान जाने किसने अपनी अक्ल किसी के जूतो में रख छोड़ी है.

सोनाली सिंह ने कहा…

यह देश का दुर्भाग्य है कि राजनीति की वजह से जन्नत (कश्मीर) बिगड़कर दोजख बनने पर मजबूर है ..... सहमत हूँ !

बेनामी ने कहा…

"पहले हिंदुओं को खुश करने के लिए अमरनाथ श्राइन बोर्ड को ज़मीन देना और फिर मुसलमानों को खुश करने के लिए उसे वापस लेना।"

आपके लाजिक में इत्ता बड़ा छेद है। हिन्दुओं से ज़मीन वापस ले ली तो हिन्दू क्योंकर खुश हुये? मुस्लिम ही खुश हुये। यह कहिये न कि यह सारा खेल मुसलमानों को यह दिखाने का था कि लो जी, आपके लिये तो हम सबको ठेंगे पे रखते हैं।

शाहबानों के केस में फैसला कहां वापस हुआ था? ताले-वाले क्या खुले, हमारे तो देश के ही किस्मत के ताले लग गये। तब से अब तक साम्प्रादियकता झेला रहे हैं।

वैसे आप आहत नहीं हुये। ठीक है, आप मोटी चमड़धारी हैं। हमें तो बुरा लगा, जबकि हम अमरनाथ जाने के भी नहीं है।

लेकिन ये साला बन्द हमें और भी बुरा लगा।

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

सोनाली जी से सहमत।

बेनामी ने कहा…

भुवनजी बात इतनी ही नही है,एन डी टी वी २४/७ पर परिचर्चा मॆ भाग लेते हुए आल हुर्यित कान्फ्रेंस के सदर मौलाना मीर वायज नॆ एक झट्के में एक बात कही "हम वहां गाजा पट्टी नहीं बनने दे सकते" .इतना सुनते ही बर्खादत्त ने उनको स्विच आंफ किया हॊले से मुस्करायीं और रविशंकर प्रसाद से सवाल पूंछ्ने लगी. भुवनजी अर्थ साफ है कश्मीर वॆली में हिन्दू नाम की चीज नही बची है,भारत से कश्मीर के विभाजन की भूमि तैयार है पाकिस्तान के राजनीतिक हालात ऎसे नही है कि वह खुले आम हुर्यित की कर पाए,समय की प्रतीक्षा की जा रही है. हमारे कायर और भ्रष्ट राजनेता और उससे भी ज्यादा भ्रष्ट मीडिया सेक्युलरिज्म के नाम पर देश तोडनें की साजिश में जिस प्रकार जानॆ अनजानें लगी हुई है यह अत्यंन्त ही दुख की बात है. सुमन्त

भुवन भास्कर ने कहा…

@anonymous (सुमन्त)
मीर वाइज और बरखा दत्त, दोनों की ही प्रतिबद्धताएं पूरी तरह जगजाहिर हैं। इसलिए जब हम, अमरनाथ जैसे मुद्दों पर विचार करने बैठें, तो इनकी प्रतिक्रिया हमारी प्रेरणा नहीं होनी चाहिए। क्या मीर वाइज खुश नहीं होंगे अगर इस देश में दंगे हों। तो फिर कश्मीर को गाजा बनाने की उनकी चाह को हम एक आम कश्मीरी की चाह नहीं मान सकते। इन्हीं मीर वाइज, महबूबा मुफ्ती और फारुख अब्दुल्ला ने जिस तरह हमारे मन में कश्मीरियों के प्रति एक घृणा का माहौल बनाया है, वैसा ही कश्मीरियों के मन में हमारे प्रति बनाया है। तो अविश्वास की इस दीवार को गिराने के लिए पहले हमें उनके प्रति अपने मन से नफरत निकालना होगा और यह मानना होगा कि वह भी हमारे ही देश के भाई हैं। हम खुद तो उन्हें पाकिस्तानी मानते हैं और उनके ऐसा मानने पर उन्हें देशद्रोही कहते हैं। यह हिपोक्रेसी नहीं चलेगी। और अगर कश्मीर और कश्मीरियों को दिल से प्यार नहीं कर सके, तो यकीन मानिए, कश्मीर को नहीं बचा सकेंगे। क्योंकि आज बात-बात में खून बहाने की बात करने वाले देश का विभाजन नहीं रोक पाए, तीन बीघा का बंगलादेश जाना नहीं रोक पाए, चीन द्वारा कश्मीर में लाखों एकड़ जमीन हड़पना नहीं रोक पाए, तो कश्मीर कैसे रोक लेंगे। कश्मीर को केवल प्यार और विश्वास रोक सकता है।

Batangad ने कहा…

मैं कश्मीर होकर आया हूं। और, ये अच्छे से जानता हूं कि वहां के लोगों के मन में भारत के लिए बहुत गलत बातें भी भरी हैं। मुझे वहां अजीब सी कहानी बोट वाले ने सुनाई कि हिमाचल के माफिया इसलिए यहां अराजकता फैलाते हैं जिससे यहां टूरिस्ट न आ पाएं और इसमें भारतीय सेना की मिलीभगत है। लेकिन, इस पर भी मेरे मन में संदेह नहीं है कि कश्मीर इस देश के साथ तभी रह पाएगा जब हम भारतीय कश्मीरियों को भारतीय ही मानें। ये बेवजह के कुतर्क रचकर नेताओं की तरह उन्हें और हमारे में मत बांटिए।