मंगलवार, 23 फ़रवरी 2010

अंग्रेजी की इस उपेक्षा पर मैं खुश हूं लेकिन...

लेकिन यह एक सैडिस्ट एप्रोच है। कोई हमारा दुश्मन ही सही, उसकी उपेक्षा या दुर्दशा पर खुश होना तो हमारे व्यक्तित्व की एक बड़ी कमी है। फिर भाषा कोई भी हो, हमारी दुश्मन कैसे हो सकती है? अंग्रेजी हो या फ्रेंच, जर्मन हो या हिब्रू- सारी भाषाएं एक समाज विशेष, समय विशेष और विचार विशेष के महल में घुसने का दरवाजा ही तो हैं। फिर भी, भारत में अंग्रेजी केवल एक भाषा नहीं है। यह एक हथियार है, समाज के कमजोर, पिछड़े और गरीब तबके से आने वाली प्रतिभाओं की हत्या करने का। यह एक चोर दरवाजा है, समाज के धनाढ्य और प्रभावशाली वर्ग (वामपंथी मित्रों की शब्दावली में बुर्जुआ वर्ग) के सत्ता के गलियारों में पहुंचने का। इसीलिए इस देश में हिंदी की, तमिल की, गुजराती की, कोंकणी की, मलयालम की, तेलुगू और उड़िया की, असमिया और जनजातीय भाषाओं की, कश्मीरी और पंजाबी की तथा इस देश की मिट्टी से जुड़ी तमाम भाषाओं और उनके साहित्य की उपेक्षा कोई खबर नहीं है, लेकिन अंग्रेजी की उपेक्षा एक खबर है।

राष्ट्रपति ने अपना अभिभाषण हिंदी में पढ़ा। इसमें कोई खबर नहीं। अपनी जनसभाओं में सोनिया और लालकिले से मनमोहन भी अपना भाषण हिंदी में ही पढ़ते हैं। खबर यह है कि राष्ट्रपति के भाषण का अंग्रेजी अनुवाद नहीं हुआ था। जी हां, यही खबर है। क्योंकि इस देश में अंग्रेजी में कुछ अनुवाद नहीं होता (कुछ नहीं मतलब, लगभग कुछ नहीं)। रचनात्मकता और चिंतन की भाषा अंग्रेजी है और अनुवाद की भाषा हिंदी एवं दूसरी भारतीय भाषाएं हैं। दस जनपथ और पीएमओ की एक चिड़िया से भी मेरा परिचय नहीं होने के बावजूद मैं दावा कर सकता हूं कि सोनिया की जनसभाओं और मनमोहन के लालकिले के भाषण अंग्रेजी में लिखे जाते होंगे, फिर उनका हिंदी अनुवाद होता होगा और फिर उन्हें रोमन में लिखा जाता होगा। संसद के हर विधेयक, हर प्रस्ताव, तमाम मंत्रालयों के गजट और विचार पत्र- सभी मूलरूप से अंग्रेजी में लिखे जाते हैं और हिंदी के प्रति सरकार की निष्ठा ज़ाहिर करने के लिए उन्हें उसमें अनुवाद किया जाता है। राजस्थान जैसे राज्य से आने के बावजूद ज्यादातर समय मैंने राष्ट्रपति को अंग्रेजी में ही संवाद करते सुना है। ऐसे में यह मेरे लिए बहुत बड़ी खबर है कि राष्ट्रपति का अभिभाषण हिंदी में ही सोचा गया और लिखा गया।

मुझे हमेशा इस बात पर आश्चर्य होता रहा है कि देश की तमाम क्षेत्रीय भाषाओं के राजनेताओं और कर्णधारों के लिए हिंदी दुश्मन क्यों होती है, जबकि सभी भाषाओं को अंग्रेजी के कारण अपमान और उन्मूलन का ख़तरा झेलना पड़ रहा है। जितनी समझदारी अब तक बनी है मेरी, उसके मुताबिक तो यही लगता है कि इसके पीछे सबसे बड़ा कारण ख़ुद सरकारी रवैया है। अब यही उदाहरण देखिए। राष्ट्रपति के अभिभाषण का अंग्रेजी अनुवाद किया ही नहीं गया। स्वाभाविक है कि जिन प्रांतों के नेता, सांसद, मंत्री हिंदी (देवनागरी में) पढ़ना नहीं जानते, उनके मन में आक्रोश का एक बीज और डल गया। उन्हें यह अहसास करा दिया गया कि हिंदी के बढ़ने का मतलब उनकी लाचारी और बेचारापन है। लेकिन इसका यह निष्कर्ष कतई नहीं है कि अंग्रेजी हमारे देश की अपरिहार्य मजबूरी है।

भारतीय भाषाओं को आपस में प्रेम करने के लिए अंग्रेजी का बंधन नहीं चाहिए। यह जिम्मेदारी देश के सबसे ज्यादा लोगों में बोली और उससे भी ज्यादा लोगों में समझी जाने वाली हिंदी की है। हिंदी के विकास के नाम पर जारी होने वाले करोड़ों के फंड से आधे की कटौती कीजिए और उसमें बाकी दूसरी भारतीय भाषाओं को हिस्सा दीजिए। हिमालय सी मशीनरी वाली भारत सरकार के लिए एक अभिभाषण को ही नहीं, तमाम जरूरी सरकारी कागजों को आठवीं अनुसूची की सभी भारतीय भाषाओं में अनुवाद करना नामुमकिन नहीं है। थोड़ा कठिन जरूर है, लेकिन ठान लेने पर अगर सरकार देश के दूरदराज के गांवों, रेलवे स्टेशनों, झुग्गियों और शहरों में मौजूद करोड़ों शिशुओं को पोलियो ड्रॉप पिला सकती है, तो यह बहुत छोटा काम है। और देश की सच्ची प्रतिभाओं को उभरने के लिए बराबरी का मौका देने और सामाजिक न्याय को सच्चे रूप से स्थापित करने में इस कदम की जितनी महान भूमिका हो सकती है, उसे देखते हुए इस पर होने वाला कोई भी खर्च और परिश्रम कम ही होगा।

8 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

सही कहा भुवन भास्कर जी. आज आक्रामक हिंदी नहीं, आश्वस्त करने वाली हिंदी चाहिए. मैंने अभी आपके अन्य लेख भी पढे. आपने हमेशा एक अलग, लेकिन तार्किक कोण से मुद्दे को देखा है. यही नज़र बनाए रखें और ऐसे ही लिखते रहें. शुभकामनाएं.
Vicky G

Amitraghat ने कहा…

"बहुत शानदार लेख भुवन अपना विरोध अंग्रेज़ी से नही है बल्कि उन लोगों से है जो गलत-सलत अंग्रेज़ी बोलकर खुद को सर्वश्रेष्ठ मानते हैं...
प्रणव सक्सैना amitraghat.blogspot.com

Dr.Rakesh ने कहा…

विचारपूर्ण लेख है । अगर मैं कहूं कि हिंदी गरीब-अल्पशिक्षितो की RTI है तो क्या गलत होगा । नीचे से ऊपर पहुंचने पर बड़े बड़े हिंदी प्रेमियों की हिंदी का भी लोप होने लग जाता है । अंग्रेजियत और अंग्रेजी के बीज़ बहुत पहले बड़ी गहराई में गाडे़ गए थे सो अब बड़ा विशाल और हरा भरा ब्रतानी का विपट उगा है और इसके नीचे सारी भारतीय भाषाएं बिना धूप-पानी के दम तोड़ रही है ।

हिंदी वृक्ष के जड़ों में मट्ठा डाल कर पत्तियों को बिसलेरी से सीचने की नीति रही है सरकार की...

शुभकामनाएं

http://rakeshindi.blogspot.com/

अनुनाद सिंह ने कहा…

जो सांसद अंग्रेजी के लिये इतने आंसू बहा रहे हैं, जरा अपने-अपने क्षेत्र में अपनी जनसभाओं में अंग्रेजी में भाषण देकर देखें।

aarkay ने कहा…

सभी भाषाओँ को पनपने का समान अवसर दिया जाना चाहिए. वैसे भी अंग्रेजी भाषा से अधिक अंग्रेजी मानसिकता या अंग्रेजियत अधिक हानि कारक है.

Suraj ने कहा…

बहुत ही बढ़िया भास्कर बाबु. हम आपसे बिलकुल सहमत हैं

अंकुर गुप्ता ने कहा…

भुवन भैया हमारी आपकी भी एक ही सोच है.

संजय भास्‍कर ने कहा…

"बहुत शानदार लेख ,,,,,,,,,,