वित्त वर्ष 2010-11 के लिए पेश बजट प्रस्तावों को 48 घंटे बीत चुके हैं। हर बार की तरह इस बार भी कुछ प्रस्तावों के राजनीतिक महत्व को देखते हुए सड़कों पर प्रदर्शन शुरू हो गए हैं और कुछ प्रस्ताव केवल अर्थवेत्ताओं में ही चर्चा का विषय बन सके हैं। जैसे कोई भी व्यक्ति, विषय या समाज संपूर्ण (परफेक्ट) नहीं होता, उसी तरह यह बजट भी नहीं है। इसीलिए इसे कोई भी एक नाम देकर सर पर चढ़ा लेना या खारिज कर देना बचकानापन होगा।
मेरे विचार से प्रणव मुखर्जी का इस बार का बजट उम्मीदों, उदासीनताओं और उपेक्षाओं का सम्मिलित दस्तावेज है। वेतनभोगी जनता के लिए इसने जहां उम्मीद और उत्साह का पिटारा खोला है, वहीं हर दिन अपनी आजीविका के लिए जूझने वाले करोड़ों गरीबों और मजदूरों के लिए यह बजट उदासीनता का दर्द है। और इसमें उपेक्षा मिली है फिर देश के उस हिस्से को, जिसके लिए जबानी खर्च सबसे ज्यादा किया जाता है, यानी किसानों को। देश की आर्थिक वृद्धि दर दहाई अंक में ले जाने की इस सरकार की प्रतिबद्धता संदेह से परे है। लेकिन, ऐसी स्थिति में कृषि को लेकर सरकार में दृष्टि का अभाव (lack of vision) बहुत अखरता है। जबकि स्वयं सरकार भी यह मानती है कि कृषि क्षेत्र की वृद्धि दर 4 फीसदी तक पहुंचाए बिना देश के जीडीपी को 10 फीसदी की रफ्तार दे पाना संभव नहीं है, तो फिर कृषि उत्पादकता बढ़ाने के लिए महज 400 करोड़ रुपए का आवंटन उदासीनता का दर्दनाक उदाहरण है। वित्त मंत्री फसलों को पानी मिलने के लिए इंद्र देवता से प्रार्थना करने के लिए तो तैयार हैं, लेकिन सिंचाई सुविधाएं बढ़ाने के लिए उनकी झोली में केवल 300 करोड़ रुपए हैं। मेरा साफ मानना है कि कृषि ऋण माफी जैसी योजनाएं सरकारी पैसे का घनघोर दुरुपयोग है और इससे एक ओर तो वास्तविक ज़रूरतमंदों की कीमत पर ग़लत और ग़ैर ज़रूरतमंदों को फायदा पहुंचाया जाता है, वहीं आगे से कर्ज लेकर उसे पचा जाने की प्रवृत्ति को भी बढ़ावा मिलता है। इसके बदले अगर 80,000 करोड़ रुपए की रकम देश की सिंचाई व्यवस्था ठीक करने और कृषि उपज बढ़ाने पर खर्च की जाए तो यह केवल एक साल के लिए किसानों के लिए राहत के दरवाजे नहीं खोलेगा, बल्कि उनकी उत्पादकता और आमदनी बढ़ाकर उन्हें और ज्यादा कर्ज समय पर वापस करने के लिए सक्षम बनाएगा। इस दिशा में कोल्ड स्टोरेज शुरू करने के लिए जरूरी उपकरणों के आयात पर सीमा शुल्क 5 फीसदी कम करने और सेवा कर से पूरी छूट एक स्वागतयोग्य घोषणा है।
वेतनभोगियों के लिए ज़रूर यह बजट एक बोनांजा है, जिन्हें स्लैब में हुए बदलाव से भारी राहत मिलेगी। लेकिन यहां भी, अच्छा होता अगर वित्त मंत्री स्लैब की जगह छूट की दरें बढ़ा देते। ऐसा होने से हर आय वर्ग के लोगों को बराबर फायदा होता, जबकि मौजूदा स्थिति में ज्यादा पैसा कमाने वालों को छूट भी ज्यादा मिलेगी और कम वेतन वालों के हाथ कुछ खास नहीं आएगा। इस तरह का विरोधाभास विडंबना ही है। इंफ्रास्ट्रक्चर बॉन्ड में निवेश को 80 सी के तहत 1 लाख रुपए के ऊपर जोड़ा जाना एक अच्छा कदम है।
उद्योग जगत इस बजट से काफी खुश है, जिसकी एक झलक बजट पेश होने के दौरान शेयर बाजार में आई भारी बढ़त से मिली। हालांकि इसमें भी 'कुछ बहुत अच्छा होने' से ज्यादा 'कुछ बहुत बुरा ने होने' की भूमिका ज्यादा थी, जिसका संकेत बीएसई के 30 शेयरों वाले सूचकांक सेंसेक्स के अपने दिन के शीर्ष स्तर से 240 अंक नीचे बंद होने से मिलता है। उत्पादन और सीमा शुल्क में मिली छूट के चरणबद्ध तरीके से वापस होने को लेकर बाजार लगभग तैयार था। वैकल्पिक न्यूनतम कर (मैट) को 15 से बढ़ाकर 18 फीसदी किया जाना जरूर एक नकारात्मक सरप्राइज था, लेकिन कॉरपोरेट टैक्स पर सरचार्ज को 10 से घटाकर 7.5 फीसदी करने के फैसले से बहुत हद तक इसकी भरपाई हो गई। इनके अलावा नए होटलों पर निवेश को डिडक्शन से जुड़े फायदे देने और शोध एवं अनुसंधान पर वेटेड डिडक्शन में बढ़ोतरी से क्रमशः होटल और फ़ार्मा सेक्टर को फायदा होने की उम्मीद है। अति लघु, लघु और मझोले उद्यमों (एमएसएमई) के लिए बजट आवंटन में 30 फीसदी से ज्यादा बढ़ोतरी कर उसे 2,400 करोड़ रुपए कर दिया गया है, जिससे निश्चत तौर पर उभरते हुए उद्योगों के विकास में मदद मिलेगी।
सामाजिक एवं जनकल्याण के लिए वित्त मंत्री ने काफी गंभीरता दिखाई है। कुल 3,73,000 करोड़ रुपए के बजट में से 37 फीसदी सामाजिक क्षेत्र के लिए आवंटित किए गए हैं, जबकि 25 फीसदी ग्रामीण क्षेत्र में आधारभूत ढांचे के विकास के लिए दिया गया है। पेयजल की हालत में सुधार के लिए 1,300 करोड़ रुपए बढ़ाए गए हैं, जबकि सामाजिक और आर्थिक विकास के लिए आवंटन को 2,600 करोड़ रुपए से बढ़ाकर 4,500 करोड़ रुपए कर दिया गया है। इससे सरकार की मंशा तो ज़ाहिर हो जाती है, लेकिन यह पता नहीं चलता कि क्या वास्तव में एक साल बाद देश की जनता को पीने का बेहतर पानी ज्यादा सुलभ हो जाएगा, यह पता नहीं चलता कि क्या 28 फरवरी 2011 को जब भारत के वित्त मंत्री अगला बजट पेश करने के लिए खड़े होंगे, तब क्या हमारे देश में प्राथमिक शिक्षा पाने वाले बच्चों की संख्या अपेक्षित तौर पर बढ़ चुकी होगी, क्या शुरुआती 2-3 वर्षों में स्कूल छोड़ कर मजदूरी में लगने वाले बच्चों की संख्या में अपेक्षित सुधार आएगा, क्या बच्चों को जन्म देते समय मरने वाली मांओं की संख्या इस रकम के अनुपात में ही घटेगी और क्या जीवन की रोशनी देखने से पहले ही मौत की आगोश में समाने वाले नौनिहालों की संख्या में अपेक्षित कमी आएगी। यह सब कुछ इसलिए पता नहीं चलता क्योंकि बजट घोषणाओं को अमली जामा पहना सकने का सरकारी रिकॉर्ड बहुत ख़राब है। स्वयं वित्त मंत्री ने अपने बजट भाषण में स्वीकार किया, 'वास्तव में, आने वाले वर्षों में, यदि कोई कारक हमें एक आधुनिक राष्ट्र के रूप में हमारी क्षमता को साकार करने में बाधक हो सकता है तो वह हमारी सार्वजनिक वितरण प्रणालियों की अड़चन है।'
यह बजट जिस एक मोर्चे पर सबसे ज्यादा नाकाम हुआ है, वह है महंगाई का। अपनी जेब बचाने के लिए त्राहि-त्राहि करती जनता के प्रति वित्त मंत्री की उपेक्षा भयानक है। उत्पाद शुल्क में बढ़ोतरी से जहां सीमेंट और स्टील जैसी कमोडिटी की कीमतें बढ़नी तय है, वहीं पेट्रोल-डीजल पर शुल्क बढ़ाने का प्रस्ताव कर मुखर्जी ने एक तरह से आम जनता के ज़ख़्मों पर नमक मल दिया है। हो सकता है कि राजनीतिक दबाव में यह प्रस्ताव वापस लेना पड़े, लेकिन इसने यह तो बता ही दिया है कि इस सरकार की प्राथमिकता सूची में आम आदमी का दुख और उसकी पीड़ा कहीं नहीं है। अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में 74 रुपए प्रति बैरल (160 लीटर) के हिसाब से कच्चे तेल की कीमत इस समय करीब 21.46 रुपए प्रति लीटर पड़ता है। अब रिफाइनिंग और परिवहन चार्ज लगाने के बाद भी किसी तरह यह 44 रुपए प्रति लीटर नहीं हो सकता। पेट्रोल पर हम जो हर रुपया देते हैं, उसमें से 51.36 पैसे सरकार की जेब में जाते हैं। इस पर भी अगर सरकार रोना रोती है, तो यह केवल उसकी लूट वृत्ति ही दर्शाता है।
राजकोषीय घाटे को लेकर सरकार बहुत चिंतित रही है। इस संदर्भ में जिस तरह अगले दो वर्षों में इसके कम होकर जीडीपी का केवल 4.1 फीसदी रह जाने की उम्मीद जताई गई है, उसमें मुझे खुश होने की कोई वजह नजर नहीं आती। सरकार सार्वजनिक क्षेत्र की कंपिनयों में हिस्सा बेचकर 40,000 करोड़ रुपए और 3जी स्पेक्ट्रम की बिक्री से 35,000 करोड़ रुपए जुटाने की योजना बना रही है और इसी के भरोसे राजकोषीय घाटा कम करने की उम्मीद कर रही है। यह कुछ इसी तरह है जैसे आप अपने मित्रों और रिश्तेदारों से लिया कर्ज़ उतारने के लिए अपने घर के सामान और पत्नी के ज़ेवर बेचने का जुगाड़ कर रहे हों। बेहतर हो सरकार अपना भुगतान संतुलन (बीओपी) ठीक करने के लिए निर्यात बढ़ाए, उत्पादन बढ़ाए और लोगों की प्रति व्यक्ति आय बढ़ाए। विनिवेश और स्पेक्ट्रम की बिक्री जैसे उपायों से होने वाली आमदनी को सड़क, पानी और बिजली जैसी मूलभूत सुविधाओं के विकास में लगाया जाए ताकि रोजगार बढ़े और जीडीपी की वृद्धि दर भी।
कुल मिला कर यही कहा जा सकता है कि यह बजट शेयर बाज़ार और उद्योग जगत के लिए तो अच्छा है, लेकिन आम लोगों के लिए पूरी तरह उदासीन है। अब विचारणीय यह है कि किसी भी बाजार या उद्योग की आमदनी का आखिरी स्रोत तो आम जन ही है, ऐसे में आम जनता की जेब और मन पर कुठाराघात करने वाला कोई भी बजट या प्रस्ताव लंबी अवधि में उद्योग या बाजार का भी भला नहीं कर सकता।
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2 टिप्पणियां:
कांग्रेस का हाथ आम आदमी के गाल और जेब में है, भाई!
सटीक विश्लेषण |
संक्षेप में कहें : आप और हमारे जैसे आम जन ये मान बैठे हैं की आर्थिक प्रगति का पैमाना आम जन-गरीबों-किशानों की खुशाली और बेहतर जीवन स्तर है जबकि अपनी सरकार शेयर बाजार के उतार - चढ़ाव, बड़े-बड़े मॉल .... को ही प्रगति का पैमाना मानती है |
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