गुरुवार, 20 मई 2010

शहरों में पलते ज़हरीले नक्सलियों से निपटना भी ज़रूरी

नक्सलबाड़ी से पैदा हुआ आंदोलन बहुत पहले जनता से कट कर आतंकवाद की श्रेणी में पहुंच चुका है, लेकिन मेट्रो शहरों में रहने वाले अधिसंख्य वामपंथी इसे अब भी नक्सली आंदोलन कहने में ही फ़ख़्र महसूस करते हैं। मज़ेदार बात यह है कि ग़रीबों, मज़दूरों और किसानों की लड़ाई लड़ने वाले इन वामपंथियों में से शायद ही किसी का जन्म खेतों में, कारखानों में या झुग्गियों में जारी शोषण और अन्याय के बीच हुआ हो।

इन वामपंथियों का जन्म हुआ है जेएनयू में, बीएचयू में और इलाहाबाद यूनिवर्सिटी में। मार्क्स, लेनिन, हीगल, स्तालिन, माओ, चे गुएरा और फिदेल कास्त्रो की किताबों ने इनका उपनयन संस्कार किया है और सिगरेट के धुएं और दुनिया में मौजूद हर व्यवस्था को ग़ालियां देने की अराजक मानसिकता के बीच इनकी दीक्षा हुई है। शोषण और अन्याय इनके लिए केवल बौद्धिक जुगाली का ज़रिया हैं।

यही कारण है कि ये ख़ुद तो यूपीएससी की परीक्षाओं में बैठकर बुर्ज़ुआ व्यवस्था के शीर्ष पर पहुंचने के सपने पालते हैं, दिन-रात अपना बैंक बैलेंस बढ़ाने और नया फ्लैट खरीदने के लिए ईएमआई का इंतज़ाम करने के जुगाड़ में लगे रहते हैं, महंगी गाड़ियों के नए-नए मॉडलों को ललचाई नज़रों से सिर घुमा-घुमा कर देखते हैं और नक्सलियों की हत्याओं को पूंजीवादी व्यवस्था के शोषण से मुक्त करने के लिए छेड़ा गया ज़ेहाद क़रार देते हैं।

यह उसी तरह का ज़ेहाद है, जिसका रूप इस्लामी आतंकवाद के रूप में पूरी दुनिया में दिख रहा है। तालिबान की तरह ही नक्सलियों की दुनिया में मतभेद या असहमति की कोई जगह नहीं है। हज़ारों करोड़ का बजट रखने वाले सर्वहारा नक्सलियों के इलाकों में विकास की व्यथा-कथा और उसमें नक्सलियों की भूमिका पर काफी कुछ कहा और लिखा जा चुका है।

आश्चर्य तो यह है कि हर बात में विदेशी लेखकों और विदेशी नेताओं के सिद्धांतों का उद्धरण देने वाले पढ़ाकू वामपंथियों को दिन के उजाले की तरह साफ ये तथ्य नहीं दिखते। आश्चर्य यह है कि 75 जवानों की हत्या को दो पक्षों की लड़ाई का स्वाभाविक परिणाम मानने वाले इन बुद्धिजीवियों की जान इस बात से सूखने लगती है कि कहीं सरकार सेना या वायु सेना का इस्तेमाल न शुरू कर दे। यानी नक्सली मारें तो युद्ध और जब मरें तो सामंती शासन का शोषण।

ये वामपंथी बुद्धिजीवी भी नक्सली हत्यारों से कम नहीं हैं क्योंकि ये उन कुकृत्यों को बौद्धिक आधार देते हैं। ये नक्सल आतंकवाद के प्रवक्ता हैं, तो ये हत्यारे क्यों नहीं? दरअसल सरकार को जंगल के नक्सली हत्यारों और शहरों में एयरकंडीशन में बैठने वाले बुद्धिजीवी हत्यारों, दोनों से एक ही तरह निपटने की जरूरत है। अखबारों, विश्वविद्यालयों और अन्य शैक्षणिक संस्थानों में बैठे ये वामपंथी बुद्धिजीवी देश के लिए ज़्यादा बड़ा खतरा हैं, क्योंकि ये दरअसल वह विचार हैं जो हत्यारे पैदा करते हैं।

नक्सलियों के सफाए के बाद भी अगर ये बचे रहे, तो वामपंथी आतंकवाद किसी-न-किसी और रूप में समाज को निगलने के लिए सामने आएगा। पूरी दुनिया का इतिहास इस बात का गवाह है कि सर्वहारा की मदद से सत्ता में पहुंचने के बाद वामपंथ ने सबसे पहले उसी सर्वहारा की व्यक्तिगत स्वतंत्रता खत्म की है और फिर उसकी हर मांग का जवाब गोलियों और फांसियों से दिया है।

11 टिप्‍पणियां:

Mithilesh dubey ने कहा…

अब ये समस्या बहुत विकराल रुप ले चुकी है , इससे अब निपटना ही पड़ेगा अन्यथा परिणाम बहुत बुरा होने वाला है । बढ़िया लगा आपको पढ़ना

संजय शर्मा ने कहा…

तभी मैं कहूँ कि ये हर कांग्रेसी सरकार को बाहर से समर्थन क्यों देता है
लेकिन इस सौदेवाजी में अपने के बदले, देश का गर्दन क्यों देता है .

संजय बेंगाणी ने कहा…

एक नंगा सच: सर्वहारा की मदद से सत्ता में पहुंचने के बाद वामपंथ ने सबसे पहले उसी सर्वहारा की व्यक्तिगत स्वतंत्रता खत्म की है और फिर उसकी हर मांग का जवाब गोलियों और फांसियों से दिया है.

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

इन बौद्धिक वामपंथियों का जन्म और शायद सबसे बड़ा गढ़ जेएनयू से इनका सफाया किये बिना वामपंथ आतंकवाद से छुटकारा संभव नहीं |

धारदार पोस्ट !

ऋषभ कृष्ण सक्सेना ने कहा…

सीधी बात नो बकवास! इन साले बौद्धिक नक्सलियों को गोली से उड़ा दो, बन्दूक वाले नक्सली खुद ही ख़त्म हो जायेंगे.

दिवाकर मणि ने कहा…

बहुत ही तथ्यपरक बात कही है आपने!! भारत में नक्सली आतंकवाद को बौद्धिक खुराक देने का सबसे बड़ा गढ़ जे.एन.यू. है। यह बात मैं पढ़-सुन के नहीं अपितु जे.एन.यू. का छात्र होने के नाते अपने अनुभव के आधार पर कह रहा हूं।

संजय भास्‍कर ने कहा…

बढ़िया लगा आपको पढ़ना

संजय भास्‍कर ने कहा…

आपका मेरे ब्लॉग पे स्वागत है.
धन्यवाद, मेरे ब्लॉग से जुड़ने के लिए और बहुमूल्य टिपण्णी देने के लिए

संजय भास्‍कर ने कहा…

khob jamegi jab milege do bhaskar yaar

सूफ़ी आशीष/ ਸੂਫ਼ੀ ਆਸ਼ੀਸ਼ ने कहा…

Machhar bahut kaat rahe hain!
Kachhua jalao machhar bhagao!
Beshak zaroori hai.....
Jai Hind!

Suraj ने कहा…

Interesting read and very true. I would also like to read your view about the problems in north-east. Heard that Manipur has been cut-off from rest of India for last 2 months and New Delhi continues to sleep peacefully. Where did we go wrong on the this front???