शनिवार, 21 अगस्त 2010

इंडिया इंक के डायरेक्टरों का वेतन 1 करोड़ सालाना तो होना ही चाहिए

सांसदों का वेतन तीन गुना होने पर पूरा देश गुस्से और घृणा से भरा हुआ है। मैं इस पूरे मसले के उठने के दिन से ही सोच रहा हूं कि ऐसा क्यों है? मुकेश अंबानी, रतन टाटा, नंदन नीलेकणी और ऐसे सैकड़ों लोग हैं जिनका मासिक वेतन भी कुछ करोड़ रुपयों में है, लेकिन उनके प्रति तो कभी हमें गुस्सा नहीं आता। एक इंजीनियर, प्रोफेसर या टेलीविजन पत्रकार का औसत वेतन भी 30-40 हज़ार रुपए हो चुका है, तो फिर सांसदों का वेतन 16 हज़ार रुपए क्यों होना चाहिए? इस बात से शायद ही कोई इंकार कर सकता है कि 10-15 लाख लोगों का प्रतिनिधित्व करने वाले, हर महीने सैकड़ों लोगों की मेजबानी करने वाले और हर हफ्ते किसी ने किसी के निजी कार्यक्रम में शामिल होने और गिफ्ट देने वाले सांसदों का वेतन बढ़ना चाहिए। फिर यह गुस्सा और घृणा क्यों?

मुझे लगता है कि यह गुस्सा और घृणा सासंदों पर नहीं बल्कि उनके सांसदपने पर है? हमारे देश के छह दशकों के महान लोकतंत्र की यह सबसे बड़ी कमाई है कि हमारे यहां राजनेता गुंडागर्दी, अपराध, भ्रष्टाचार और हर तरह की सामाजिक बुराई का सबसे बड़ा प्रतीक बन चुके हैं। एक राजनेता सांसद चुने जाने के लिए 10-10 करोड़ रुपए तक खर्च करता है। बढ़े हुए वेतन के साथ भी उसका पांच साल का वेतन होगा करीब 2.5 करोड़। तो क्या इसी के लिए वह 10 करोड़ रुपए खर्च करता है?

सांसदों पर इस देश की सुरक्षा से लेकर कृषि और शिक्षा से लेकर कारोबार तक के लिए नीतियां और कानून बनाने की ज़िम्मेदारी है। हमारे सांसद अपनी इस ज़िम्मेदारी को कितनी अच्छी तरह निभाते हैं, हम सबको पता है। कई बार तो कोरम पूरा नहीं होने के कारण संसद में किसी महत्वपूर्ण विषय पर चर्चा तक टालनी पड़ती है। और तो और, संसद के अंदर सवाल पूछने जैसे अपने मूल कर्तव्य के पालन के लिए भी सांसदों द्वारा घूस लिए जाने की घटना सामने आ चुकी है। हर सांसद को उसके 5 साल के कार्यकाल में सीधे उसके माध्यम से खर्च करने के लिए 10 करोड़ की रकम मिलती है। इसके अलावा दसियों सरकारी योजनाओं के लिए मिलने वाली करोड़ों रुपए की अन्य रकम भी सांसदों के ज़रिए खर्च होती है। इनमें वास्तव में कितना कल्याण योजनाओं पर खर्च होता है और कितना जनप्रतिनिधियों की अगुवाई में सरकारी अधिकारियों के बंदरबांट में निकल जाता है, इसका अनुमान हर भारतीय को है।

तो अब जब लालू जी के नेतृत्व में तमाम सांसदों ने (वामपंथियों को छोड़कर) जब अपने को ग़रीबी का पुतला बना कर वेतन बढ़ाने के लिए अभियान छेड़ ही दिया है, तो यह देश के लिए एक अच्छा मौक़ा है। तमाम सांसदों को देश रूपी कंपनी के बोर्ड का डायरेक्टर मानते हुए 1-1 करोड़ रुपए सालाना वेतन दे दिया जाना चाहिए। लेकिन इसके साथ ही उन्हें मिलने वाली अनगिनत अन्य सुविधाएं वापस ली जानी चाहिए। वे और उनकी पत्नियों के लिए ट्रेन में प्रथम श्रेणी की आजीवन यात्रा सुविधा के अलावा विमान में मुफ्त टिकट, लुटियंस ज़ोन में मुफ़्त बंगले आदि की सुविधाएं वापस लेना चाहिए। बोर्ड की यानी संसद की बैठकों में उनकी उपस्थिति अनिवार्य करनी चाहिए। उनके लिए सीएल, पीएल, मेडिकल और सिक लीव तय होनी चाहिए और उससे ज्यादा छुट्टी लेने पर उन्हें विदाउट सैलेरी करना चाहिए। जो फंड उन्हें जनता के लिए दिया जाए, उसके एक-एक पैसे का हिसाब उसी तरह होना चाहिए जैसे किसी कंपनी के डायरेक्टरों के हस्ताक्षर से खर्च होने वाली रक़म का होता है। साथ ही भ्रष्टाचार के किसी भी मामले में पकड़े जाने पर उन्हें बोर्ड से बाहर किया जाना चाहिए।

लालू जी को प्रधानमंत्री बनने का बड़ा शौक़ है। सो एक दिन के लिए ही सही, एक छद्म संसद बनाकर वह प्रधानमंत्री तो बन ही गए। और इत्तेफाक़ तो देखिए, वह छद्म प्रधानमंत्री बने भी तो उसी काम के लिए, जिसके लिए वह वास्तव में प्रधानमंत्री बनने का सपना देखते हैं- और ज्यादा पैसे बनाने के लिए। तो ये जिस योजना का ब्लूप्रिंट मैं यहां रख रहा हूं, वह निश्चित तौर पर ऐसे सांसदों के बूते की नहीं है जो लालू जैसे नेता को केवल अपना वेतन बढ़ाने के लिए प्रधानमंत्री मानने को तैयार हैं। तो फिर... । इस यूटोपिया को पाने के लिए किसी और नेता की ज़रूरत है, जो कम से कम अभी तो दृष्टिपटल पर नहीं। तो, तब तक हर मंच पर इसके लिए आवाज़ उठाते हुए उस नेतृत्व का इंतज़ार करते हैं।

1 टिप्पणी:

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

अपने सांसद यदि इमानदार और निष्पक्ष हों तो सांसदों के वेतन बढाने का समर्थन करता हूँ. पर दुर्भाग्य तो यही है की हमारे नेता (लालू, मुलायम, कलमाड़ी, सुखराम .....) इतने निचे गिर चुके हैं की इन्हें बेईमान कहना बेईमान शब्द को गाली लगता है.