बिनायक सेन को उम्रक़ैद की सज़ा सुनने के बाद उनकी पत्नी ने अपनी प्रतिक्रिया में कहा कि यह भारतीय लोकतंत्र के लिए एक अवसाद भरा दिन है। यह प्रतिक्रिया थोड़ी अजीब है। माओवाद और चाहे जिस भी तरह की समाजसेवा कर रहे हों, कम से कम देश में लोकतंत्र की जड़ें तो मज़बूत नहीं ही कर रहे हैं। अगर बिनायक सेन की पत्नी को लोकतंत्र की चिंता है, तो इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि शायद एक ग़ैर सरकारी संगठन चला रहे सेन छत्तीसगढ़ सरकार के माओवाद विरोधी उत्साह का मिथ्या शिकार बन रहे हों। आख़िर अपने देश में पुलिस महकमे की सबसे बड़ी विशेषताओं में किसी को कहीं भी और किसी भी अपराध के लिए जेल में डाल देना और फिर उसका अपराध साबित करना भी शामिल है ही। लेकिन फिर सेन के समर्थन में खड़े होने वालों और धरना-प्रदर्शन करने वालों की लिस्ट पर नज़र जाते ही, उनके निर्दोष होने की कहानी का पोपलापन सामने आने लगता है। सेन के मित्र वही लोग हैं, जो माओवादियों के मारे जाने पर मानवाधिकार की दुहाई देने लगते हैं और माओवादी हिंसा को वंचितों और अन्याय के शिकार हुए लोगों की क्रांति कह कर जश्न मनाते हैं। तो दाल में कुछ काला लगना स्वाभाविक है।
फर्ज़ कीजिए की आपके बुज़ुर्ग पिताजी अपने पेंशन का चेक लेने जाएं और वहां क्लर्क 20 मिनट तक केवल इसलिए उन्हें लाइन में खड़ा रखे क्योंकि तेंदुलकर का शतक पूरा होने वाला था और वह क्रिकेट का दीवाना है, तो आप क्या करेंगे। क्या आपका खून नहीं खौलेगा और आपका मन नहीं होगा कि उस क्लर्क के मुंह में कालिख पोतकर, उसका सर मुंडा कर उसे पूरे शहर में घुमा देना चाहिए। अगर आप किसी मंत्री के बेटे या बेटी नहीं है, आपका कोई नज़दीकी संबंधी कहीं का सांसद, विधायक, डीएम, एसपी कोई अन्य प्रशासनिक अधिकारी नहीं है, तो मेरा दावा है कि आपने कम से कम एक दर्ज़न बार तो अपने किसी दोस्त या परिवार में यह प्रतिक्रिया ज़रूर दी होगी कि अमुक अधिकारी या क्लर्क या ड्राइवर या दुकानदार या डॉक्टर या इंजीनियर को चौराहे पर फांसी दे देनी चाहिए। आम लोगों की यह सबसे आम प्रतिक्रिया है, जो व्यवस्था के प्रति उनका गुस्सा व्यक्त करने के काम आता है। माओवादी आम आदमी के इसी गुस्से को अंजाम तक पहुंचाते हैं। बहुत अच्छा काम करते हैं।
माओवादियों के तमाम समर्थक यहीं तक आकर रुक जाते हैं। लेकिन कहानी यहां से आगे बढ़ती है। माओवादी संगठन बनाते हैं और संगठन चलाने के लिए पैसा चाहिए होता है। पैसा ग़रीब किसान और मज़दूर नहीं दे सकते। तो उसके लिए कारोबारियों, ठेकेदारों और वेतनभोगियों की ज़रूरत होती है। अब कोई भी कारोबारी, ठेकेदार या वेतनभोगी अपनी मेहनत की कमाई में से माओवादियों को टैक्स तो दे नहीं सकता। तो, फिर वह अपने-अपने धंधों में बेइमानी करता है। और एक बार फिर कारोबारी, ठेकेदार, इंजीनियर या डॉक्टर की बेइमानी का अंतिम शिकार वहीं ग़रीब किसान और मज़दूर होते हैं, जिन्हें न्याय दिलाने के लिए माओवादियों ने इस सारी कहानी की शुरुआत की थी। तो, यहीं आकर मेरे अंदर का माओवादी भी मर जाता है। क्योंकि व्यक्तिगत तौर पर अपने आक्रोश की अभिव्यक्ति जहां मुझे अपील करती है, वहीं संगठन बनाकर राज्य को चुनौती देने का सैद्धांतिक आवरण मुझे डराता है।
इसमें दोष माओवादियों का ही नहीं है, यह तो संगठन का विज्ञान है। चाहे कथित खालिस्तान आंदोलन के नेता हों या कश्मीरी आतंकवाद के अगुवा या फिर उल्फा के अलंबरदार- सब ने करोड़ों की व्यक्तिगत संपत्तियां खड़ी की हैं और यह कोई गुप्त सूचना नहीं है। माओवादियों के प्रेरणा पुरुष नेपाल के पूर्व प्रधानमंत्री प्रचंड से पूछिए। सरकार को हर शोषण एवं अन्याय का मूल कारण बताकर और पूंजीवाद के जुमले गढ़ कर बिना जवाबदेही के अपहरण, हत्याएं और दूसरी आपराधिक गतिविधियां करना तो बहुत आसान है, लेकिन जब ख़ुद उन्हें ही देश का शीर्ष पद दे दिया गया तो वह निरर्थक विवाद पैदा करने और चीन के तलवे चाटने के अलावा कुछ नहीं कर सके। आजकल वह फिर आतंकवादी रास्तों पर लौटने की भूमिका तैयार कर रहे हैं।
मेरा यह सुविचारित मत है कि जंगल में घूमने वाले माओवादियों से ख़तरनाक क़ौम शहरों में रहने वाले कथित बुद्धिजीवी माओवादी हैं। बिनायक सेन की सज़ा पर एमनेस्टी इंटरनेशनल के लंदन कार्यालय से जताई गई चिंता की भाषा और तेवर देखिए। आपको समझ में आ जाएगा कि इन मानवाधिकार की आड़ में माओवाद बेच रहे ये कथित बुद्धिजीवी कितने ख़तरनाक हैं। गिलानी के साथ गलबहियां कर कश्मीर में भारतीय शासन को दुनिया का सबसे क्रूर और दमनकारी शासन बताने वाली अरुंधति राय इसी ख़तरनाक क़ौम का एक सिरा हैं। इसलिए जंगल को माओवादियों के सफाए से पहले इन शहरी माओवादियों को नकेल डालना बहुत ज़रूरी है, या कहें कि माओवाद पर विजय की पूर्व शर्त है। सवाल यह है कि रमन सिंह की सरकार की तरह क्या मनमोहन सिंह की सरकार भी इस पूर्व शर्त को पूरा करने का हिम्मत और इच्छा शक्ति रखती है।
शनिवार, 25 दिसंबर 2010
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2 टिप्पणियां:
जंगल में घूमने वाले माओवादियों से ख़तरनाक क़ौम शहरों में रहने वाले कथित बुद्धिजीवी माओवादी हैं।
बड़े पते की बात कही.. प्रशासन के भ्रष्ट तत्व और माओवादी एक दूसरे के पूरक हैं, एक पैंट के ही दो पांयचे हैं...
प्रशासन संवेदनहीन है इसलिये ये तत्व बढ़ रहे हैं..
हमारे सेक्युलर नेता नतीजों से नहीं इसके फायदों पर नजर गड़ाए हुए हैं.
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