बुधवार, 14 मई 2008

बाजार की ज़रूरतों को साधने की कोशिश करता 'भूतनाथ'

कहते हैं साहित्य समाज का दर्पण होता है। लेकिन अब शायद सिनेमा ने इस भूमिका में साहित्य को ज्यादा कड़ी प्रतियोगिता देनी शुरू कर दी है। कारण यह है कि सिनेमा पर बाजार का ज्यादा प्रभाव है और इसलिए उस पर समाज की ख्वाहिशों के तुष्टिकरण का दबाव शायद कुछ ज्यादा ही रहता है। और अगर यह सच है तो पिछले शुक्रवार को पर्दे पर आई भूतनाथ ने अपनी यह भूमिका बखूबी निभाई है।

अमिताभ बच्चन के अभिनय की समीक्षा करना एक ऐसा बचकानापन होगा, जो मैं नहीं करूंगा। शाहरूख खान के जिम्मे इस फिल्म में करने को कुछ खास था नहीं, सो उनका अभिनय उनकी ख्याति के अनुरूप रहा, कहना सही नहीं होगा। जूही चावला काफी दिनों बाद बड़े पर्दे पर पहले जैसी ही खूबसूरत दिखी हैं और उनके अभिनय में ताजगी है। बाल कलाकार बंकू, जो अमिताभ के साथ फिल्म के केन्द्र में हैं, ने अच्छा अभिनय किया है, लेकिन क्योंकि 'तारे ज़मीं पर' के ईशान अवस्थी के अभिनय ने मुझे बहुत गहराई से प्रभावित किया था, तो शायद बंकू के प्रति मैं न्याय नहीं कर पा रहा। उसके अभिनय को मैं सामान्य की श्रेणी में ही रखूंगा।

अखबार वालों को शाम की हवा कम ही नसीब होती है। सो आज साप्ताहिक छुट्टी का पूरा फायदा उठाते हुए मैं भूतनाथ देखने निकल गया। यह नहीं कहूंगा कि पैसे वसूल नहीं हुए, क्योंकि फिल्म के कथानक को जानते हुए मैं इसके कोई असाधारण होने की उम्मीद भी नहीं कर रहा था। अमिताभ का एक नया चेहरा देखने की इच्छा थी और इस लिहाज से मेरे पैसे वसूल हो ही गए। फिल्म की बिलकुल शुरुआत में एक गाना फिल्माया गया है, जिसे देखकर मन ही मन मैं निर्देशक को कुछ 'आशीर्वचन' दे रहा था। गाना बच्चों के दो गुटों पर है, जो लड़ने को उतारु हैं। उन्हें फिल्म जोश के 'मैं भी हूं जोश में' वाले गाने का गेटअप दिया गया है। पूरा गाना देख कर आप साफ अनुमान लगा सकते हैं उसका हर स्टेप किसी अमेरिकी एलबम से उठाया गया है। गाने को देखकर मैं और मेरी पत्नी बच्चों के मन पर उस गाने से हो सकने वाले तमाम कुप्रभावों को लेकर चिंतित हो रहे थे। जिस तरह 10-15 साल के बच्चों को एडल्ट गेट अप दिया गया था और उस गाने के बोल में जिस तरह 'घूंसे मारूंगा', 'हड्डियां तोड़ूंगा', 'जूते लगाउंगा','दांत तोड़ दूंगा' जैसे उद्गार प्रयोग किए गए हैं और जिस तरह की आक्रामकता बच्चों में प्रदर्शित की गई है, छोटे बच्चों पर उसके असर की कल्पना मात्र से सिहरन होती है।

लेकिन जैसे-जैसे फिल्म आगे बढ़ी, मैंने लेखक-निर्देशक को अपने शुरुआती आरोपों से बरी कर दिया। मुझे लगा कि वे बेचारे हमारे सामाजिक ढांचे को छिन्न-भिन्न करने का कोई षड्यंत्र नहीं कर रहे, दरअसल वे बाजार के हाथों मजबूर हैं। फिल्म के उत्तरार्द्ध में कुछ अच्छी बातें दिखाई गईं। जैसे जादू कर स्कूल की दौड़ जिताने की बंकू की जिद पर भूतनाथ को उसे यह समझाते हुए दिखाया गया कि जिंदगी की दौड़ चमत्कार से नहीं जीती जाती, उसे जीतना होता है। अमेरिका में रहने वाले कैलाशनाथ के 8-9 साल के पोते को उनका पैर छूते दिखाना और फिर उनके साथ रहने की जिद करना, बच्चों के मन पर कुछ अच्छा असर छोड़ेगा, मुझे लगता है। इसमें मुझे गीता के इस महान सूत्र के भी दर्शन हुए जिसमें भगवान ने कहा है कि तुम मरते हुए जिस भाव का चिंतन करते हो, वही तुम्हारे बंधन का कारण होता है। अपने घर के मोह में बंधे कैलाशनाथ मरने के बाद भी उसी घर में भूतनाथ बन कर बंधे रह जाते हैं। आत्मा की मुक्ति के लिए श्राद्ध जैसे विशुद्ध भारतीय संस्कारों को स्थापित करने की भी फिल्म में कोशिश की गई है।

तो आखिर में मुझे लगा कि भूतनाथ दरअसल हमारे समाज का ही एक प्रतिबिम्ब प्रस्तुत कर रहा है, जहां हम हर दिन डिस्कोथेक की आधुनिकता और मंदिर की पारंपरिकता में संतुलना साधने की जुगत लगाते रहते हैं। कुल मिलाकर फिल्म औसत कही जा सकती है, जिसमें कम पात्रों के साथ एक भावनात्मक ताना-बाना बुनने की कोशिश की गई है।

1 टिप्पणी:

Srijan Shilpi ने कहा…

अच्छी समीक्षा....