शुक्रवार, 16 मई 2008

वो सुबह कभी तो आएगी....

मैं अक्सर एक कल्पना करता हूं कि मैं सोया हुआ हूं और एकाएक 1,000 लोगों की भीड़ हाथों में मशाल लिए नारे लगाते हुए मेरे घर पर हमला कर देती है। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मेरे भीतर किस तरह का डर होगा। मैं अक्सर कल्पना करता हूं कि मैं खाना खा रहा हूं। अचानक मेरे घर पुलिस आती है मुझे बिना कोई कारण बताए खींचती हुई ले जाती है और कुछ दूर ले जाकर गोली मार देती है। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मैं किस तरह डरूंगा। मैं अक्सर कल्पना करता हूं कि मेरी मां, मेरी बेटी या मेरी पत्नी मेरे साथ कहीं जा रही हैं। कुछ गुंडों की टोली आती है और उन्हें मेरे सामने तार-तार कर देती है। मैं कुछ नहीं कर पाता। मैं सोचता हूं कि अगर ऐसा हो तो मैं किस तरह चीखूंगा। और इन कल्पनाओं में एक और कल्पना है मैं कि अगर इनमें से कुछ भी न हो, लेकिन हमेशा इनमें से कुछ भी होने की आशंका बनी रहे, तो मेरी ज़िंदगी कैसी होगी। मैं ऐसी भयानक कल्पनाएं इसलिए नहीं करता क्योंकि मैं कोई मनोरोगी हूं, मैं ऐसी पैशाचिक कल्पनाएं इसलिए करता हूं क्योंकि मैं उस कुंठा, उस डर, उस दहशत को समझना चाहता हूं जो 1947 के विभाजन के समय लाखों लोगों ने झेली होगी, सोमालिया, रवांडा, सर्बिया-हर्जेगोविना, यूगोस्लाविया में लाखों ने सही होगी और तिब्बत, म्यांमार तथा पश्चिम बंगाल के नंदीग्राम में लाखों लोग आज भी झेल रहे हैं।

दरअसल मैं आज एक लेख पढ़ रहा था म्यांमार के बारे में। जिसमें कहा गया था कि म्यांमार की सरकार दुनिया की सबसे बुरी सरकार है। उसी अखबार में एक और खबर थी नंदीग्राम के बारे में। नंदीग्राम की खबर बहुत ही दुखद होने के बावजूद काफी रोचक भी थी। वाम मोर्चा सरकार में आरएसपी के मंत्री के घर सीपीएम के कुछ गुंडों ने बम फेंक दिया। घर जलकर खाक हो गया, मंत्री की बहू 90 फीसदी जली हालत में अस्पताल में है और बेटा भी बुरी तरह घायल है। एक ऐसी पार्टी के मंत्री का यह हाल, जो पिछले 30 वर्षों से सीपीएम के साथ सत्ता में है। अभी हफ्ते भर पहले ही नंदीग्राम उस समय खबरों में आया था जब पंचायत चुनावों के दौरान वहां गश्त कर रहे डीआईजी आलोक राज को सीपीएम के एक सांसद ने क्षेत्र में न निकलने की धमकी दी थी। वैसे ये तो खबरें हैं, जो बाहर आती हैं। इसलिए कि इनमें पीड़ित होने वाला डीआईजी और मंत्री है। लेकिन उस दहशत का क्या जो वहां रहने वाली हर मां, बेटी, बहू, पत्नी और हर बेटे, बाप और पति के जेहन में दिन-रात भरे रहते हैं। छह महीने पहले जब पहली बार नंदीग्राम चर्चा में आया था, उस समय वहां से आने वाली खबरें दिल दहला देने वाली थीं। महिलाओं के साथ सरेआम बलात्कार किए गए थे, उनकी योनियों में सरिए डाले गए थे, पुरुषों को जानवरों की तरह दौड़ा कर गोली मार दी गई थी और यह सब किया था उस पार्टी के गुंडों ने जो पश्चिम बंगाल में शासन में है। उसी पार्टी के मुख्यमंत्री ने इन पाशविक कृत्यों को सही ठहराते हुए कहा था कि उन महिलाओं का बलात्कार और उन अधनंगे किसानों गोली मारना दरअसल उन्हीं की भाषा में उन्हें दिया गया जवाब था।

खैर, ये तो वे घटनाएं हैं जिनका जिक्र पहले भी हो चुका है। मैं तो बात कर रहा था दहशत की। छह महीने पहले भूमि उच्छेद समिति के किसानों को गांवों से खदेड़े जाने से लेकर आरएसपी के मंत्री का घर उड़ाने तक हम आराम से घरों में सोते रहे हैं। नई-नई फिल्मों में नई-नई मॉडलों के अंगों का विश्लेषण करते रहे हैं। अपनी-अपनी नौकरियों में अपने-अपने समीकरण बनाते-बिगाड़ते रहे हैं। छोटी-छोटी बातों पर हेठी करते रहे हैं, अपनी शेखी बघारते रहे हैं। लेकिन उन्हीं छह महीनों में नंदीग्राम की हर धड़कन की दहशत की कल्पना कीजिए। घरों में दुबके गरीब अधनंगे किसान। और उनकी झोपड़ियों को हिलाती मोटरसाइकिलों का शोर। उस शोर के दूर होने का इंतजार करते बेबस कान। अगर कहीं वह शोर घर के आगे आकर थमे तो लगे जैसे जान निकल गई। हर घर पर लगे सीपीएम के झंडे मानो उन्हें उनके खून का रंग याद दिला रहे हों कि अगर हमारा साथ नहीं दिया इसी रंग से रंग देंगे तुम्हें। अखबारों में आई खबरें आपने भी पढ़ी होंगी, जिनमें बताया जाता था कि किस तरह सभी घरों पर सीपीएम के झंडे लगा दिए गए हैं और निकलने वाले हर सीपीएम जुलूस में हर घर से एक आदमी का शामिल होना अनिवार्य कर दिया गया था।

कैसी होगी वह दहशत। जहां बीडीओ, एसडीओ, दारोगा सभी सीपीएम कैडर की तरह बर्ताव करते हैं और मुख्यमंत्री बदले की बात करता है। किसका सहारा होगा उन्हें। क्या यही वह दहशत नहीं है, जो कभी चंगेज खां के हमले के समय दिल्ली वालों ने महसूस किया होगा, मुगलों के समय मंदिरों ने महसूस किया होगा और पिछले पचास सालों से तिब्बत महसूस कर रहा होगा। यह चीन नहीं, यह सोवियत संघ नहीं, चिली नहीं, क्यूबा नहीं, भारत के पश्चिम बंगाल का एक इलाका है। लेकिन शायद इसीलिए वामपंथी देश की सीमाओं को नहीं मानते। वामपंथ का चरित्र पूरी दुनिया में एक ही है।

कहते हैं लोकतंत्र में नेताओं का सबसे अच्छा इलाज जनता ही करती है। लेकिन पिछले छह महीने में नंदीग्राम का लोकतंत्र देखने के बाद लगने लगा है कि क्या पश्चिम बंगाल में वास्तव में लोकतंत्र की सुबह होगी। क्या सच में यह रात कभी खत्म होगी?

3 टिप्‍पणियां:

शोभा ने कहा…

भुवन जी
आपने सही कहा है। राजनीति का आजकल यही हाल है। आशा करते हैं कि कभी कुछ तो बदलेगा।

Udan Tashtari ने कहा…

काश, कुछ बदलाव की आँधी चले.

संजय शर्मा ने कहा…

विपक्ष मे बैठा वामपंथी सभी राजनितिक दलों को सशर्त समर्थन विपरीत परिस्थियों मे देता रहा है .इस लिहाज से सभी दलों के प्यारे रहे , कहे जा सकते हैं . इधर यह फैशन जोरों पर है पत्रकारों मे ,आँख मूँद कर वामपंथी टाइप बातें करना , लिखना , ग़लत सलत के समर्थन मे तर्क ढूढ़ना , ये अंध विश्वास के नही अंधश्रद्धा के मारे है सो इनका जाना-आना बंगाल होता नही . शुक्र है अब बंगाल के रियलटी शो दिखने लगा है .अब कितना दिन बांकी रह गया है लाल रंग की लाली झड़ने मे ?. बिहार की ठेठ जनता जब विकास का पता खेल सकती है ,तो बंगाल क्यों नही ?