सोमवार, 12 मई 2008

RSS सरसंघचालक को एक भारतीय की चिट्ठी

आदरणीय सुदर्शन जी,
आप दुनिया के सबसे बड़े गैर सरकारी संगठन के मुखिया हैं, तो जाहिर है आपके पास समय की कमी रहती होगी। फिर एक सामान्य भारतीय नागरिक का पत्र पढ़ना तो आपके लिए बहुत ही मुश्किल होगा। इसलिए बिना किसी भूमिका के मैं आपको पहले यह बता दूं कि यह पत्र एक ऐसे राष्ट्रीय विषय के बारे में है, जिसका असर भारत के भविष्य पर हमेशा महसूस किया जाएगा। इसलिए कृपया अपनी व्यस्त दिनचर्या में से कुछ समय निकाल कर इसे जरूर पढ़ें।

यह पत्र है भारत-अमेरिकी असैनिक परमाणु करार के बारे में जो अब बस दम तोड़ने को है। 28 मई तक अगर भारत सरकार ने इस पर कोई अंतिम फैसला नहीं किया तो यह संग्रहालयों में रखे जाने वाले ऐतिहासिक दस्तावेजों का हिस्सा बनकर रह जाएगा। भारत की ओर से इस समझौते को सफल या असफल बनाने के लिए जिम्मेदार तीन पक्ष हैं- कांग्रेस, कम्युनिस्ट और भारतीय जनता पार्टी। तो आपको लगेगा कि आपको पत्र लिखने के पीछे मेरा क्या निहितार्थ है। बताता हूं। इस समझौते में सबसे बड़ी बाधा कम्युनिस्ट हैं। उनसे इससे अलग उम्मीद भी नहीं है क्योंकि वे किसी भी ऐसे कदम को रोकने के लिए कटिबद्ध हैं, जिससे भारत शक्तिशाली बनता हो। चीन का दुनिया में प्रभुत्व स्थापित हो, यह उनके जीवन का सबसे बड़ा सपना है। सो उनसे कोई बात करना ही बेकार है।

कांग्रेस की बात करें तो पिछले 4 से ज्यादा सालों में सत्ता के लोभ ने जिस तरह बार-बार उसे वामपंथियों के सामने घुटनों पर खड़ा किया है, उसके बाद उससे किसी तरह की उम्मीद की जा सकती है, मुझे नहीं लगता। बजट के बाद उम्मीद जगी थी कि शायद कांग्रेस देश के सामने अपनी छवि सही करने के लिए जल्दी चुनाव का खतरा उठाने को तैयार हो, लेकिन जैसे-जैसे चिदंबरम के बजट की आभा पर कालिख पुतती चली गई, यह तिनका भी छूटता गया। इसके बाद एक उम्मीद भाजपा पर थी कि शायद वह देशहित में कांग्रेस का समर्थन कर इस समझौते को परवान चढ़ाए, लेकिन वह भी अपने घटिया चुनावी स्वार्थ के कारण इसे मिट्टी देने को तैयार है।

चूंकि भाजपा के बड़े सभी नेताओं से आपकी गाहे-बगाहे मुलाकात होती रहती है तो आपने शायद इस मुद्दे पर उनसे चर्चा भी की हो। आपकी वैज्ञानिकों से भी मुलाकात होती है, तो उन्होंने भी अपनी राय दी होगी। अब क्योंकि अब्दुल कलाम से लेकर के सुब्रह्मण्यम जैसे वैज्ञानिक और जसजीत सिंह से लेकर सी राजामोहन जैसे तमाम विशेषज्ञ इस समझौते को बहुत ही जरूरी और राष्ट्रहित में बता रहे हैं, तो वैज्ञानिकों से आपको भी कुछ ऐसी ही राय मिली होगी। फिर आपने एक विशुद्ध वैज्ञानिक मसले पर अब्दुल कलाम पर आडवाणी को तरजीह क्यों दी है, यह किसी भी व्यक्ति के समझ से बाहर हो सकता है। आडवाणी सत्ता की राजनीति में हैं, इसलिए उन्हें सत्ता चाहिए। जिन कारणों से कांग्रेस पोखरण-2 की सालगिरह नहीं मनाती, कुछ उन्हीं कारणों से भाजपा यह समझौता नहीं होने देना चाहती।

आडवाणी जी का कहना है कि इस समझौते से हमारी परमाणु परीक्षण की आजादी खत्म हो जाएगी। जैसे समझौता न होने पर हम हर साल परीक्षण ही कर रहे हैं। फिर हमारे पास इस समझौते से निकलने की आजादी तो हमेशा है। खैर, तर्क-वितर्क की बाद छोड़ दीजिए। सीधी सी बात यह है कि इसके जो भी सुरक्षात्मक और वैज्ञानिक पहलू हैं, वह समझ पाने की क्षमता न आपमें है, न मुझमें, न आडवाणी जी में, न सोनिया जी में। आप और हम तो वही समझेंगे, जो समझाया जाएगा। जो पक्ष वाले हैं, वह अपनी मतलब के दो उपबंधों को बताएंगे, विपक्ष वाले अपनी मतलब के। इसलिए ऐसे मामले में जीवन की संध्या में किसी भी कीमत पर सत्ता पाने को आतुर एक राजनीतिज्ञ की राय के मुकाबले तपस्वी की तरह जीवन बिताते हुए एक शिक्षक का दायित्व निभा रहे पूर्व राष्ट्रपति, जो एक परमाणु वैज्ञानिक भी रह चुके हैं, की राय हर हालत में ज्यादा वजनी है।

अब क्योंकि चाहे यह मेरी गलतफहमी ही हो, मुझे आज भी लगता है कि आप निःस्वार्थ भाव से केवल और केवल देशहित पर विचार करने में सक्षम हैं और साथ ही आप भाजपा की नीतियों में बदलाव करने में भी समर्थ हैं (कम से कम अभी तक), इसलिए परमाणु करार को सफल होते देखने की अपनी चरम उत्कंठा से मैं आपको यह पत्र लिख रहा हूं। आप मेरे लिए उम्मीद की आखिरी किरण हैं और शायद देश के लिए भी।

भुवन भास्कर

14 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…

बिल्कुल सही आदमी को चिट्ठी लिखी है आपने. वैसे परमाणु समझौते पर आपको अपने अध्ययन को थोड़ा और गहरा करके ही राय बनानी चाहिए. कौन क्या कहता है इससे मतलब नहीं है. मतलब इससे है कि वह भारत के कितना हक में है. आपको शायद नहीं मालूम पूरी दुनिया में परमाणु से बिजली बनाने की तकनीकि खारिज की जा रही है. अमेरिका में तो पिछले 35 साल से कोई नया परमाणु बिजलीघर नहीं बना और जर्मनी ने भी तय किया है कि वह अब परमाणु बिजलीघर नहीं बनाएगा. आनलाईन देखना हो तो विस्फोट पर कुछ लेख हैं जिन्हें पढ़ना चाहिए.

दिनेशराय द्विवेदी ने कहा…

विस्फोट की राय से सहमत।

बेनामी ने कहा…

टेक्नोलोजी, अर्थशास्त्र और विदेश नीति की गहराईयां छोड़ दें, तो भी सबसे ज़्यादा उठाये जा रहे दो सवालों के जवाब पर सभी विशेषज्ञों के मुंह बंद हैं, पहला जब सारे विकसित देशों में यह प्रौदुगिकी अपनी कम कोस्ट-एफ्फेक्टिवेनेस और हाई मेंटेंनेंस कोस्ट के कारण खारिज की जा रही है, और प्लांट यूरोप/अमेरिका में बंद किए जा रहे हैं तो इन्हे अब विकासशील/गरीब देशों में लगाने का क्या तुक है?
दूसरा सवाल, की खतरनाक परमाणु कचरे का निपटारा कैसे होगा, विज्ञान के पास अभी तक न्युक्लियर वेस्ट डिस्पोसल का सुरक्षित तरीका नहीं है, फ़िर रेडियो-एक्टिविटी लीकेज से चर्नोब्य्ल जैसी विभीषिका की सम्भावना हमेशा बनी रहेगी. पर्यावरण का सवाल बहुत प्रासंगिक है.
और कलम एक बहुत ही काबिल इंजिनियर हैं, पर वे ईकोलोजिस्ट नहीं हैं. आप किसी बहुत ही काबिल स्पेस साइंटिस्ट से अपनी ब्रेन सर्जरी तो नहीं कराएँगे न. अपनी फील्ड में प्रवीण विशेषज्ञ दूसरे विषय में भी उतना ही एक्सपर्ट शायद न हो.
और नेता तो देश बेच कर खा ही रहे हैं, उनके बारे में बात करना ही बेकार है.

सिद्धार्थ शंकर त्रिपाठी ने कहा…

आपके सदाशय को प्रणाम् …। किन्तु मेरे खयाल से आपने सुदर्शन जी से कुछ ज्यादा उम्मीद पाल ली है। RSS के भीतर भी जब इस विषय पर बहस हुई होगी तो अनेक मत-मतांतर सामने आये होंगे, क्योंकि इस जटिल विषय पर गैर-राजनीतिक लोग भी एकमत नहीं हो पाये हैं।

Pramendra Pratap Singh ने कहा…

अच्‍छी पोस्‍ट और सही व्‍यक्ति को चुना है

उक्‍त मेल पर आप अपनी बात भेज सकते हे editor@panchjanya.com,
panch@nde.vsnl.net.in

Batangad ने कहा…

चिट्ठी बहुत सही आदमी को लिखी है लेकिन, संकट यही है कि सही आदमी भी किसी विषय पर अब पहले जैसा कितना सही सोच रहे हैं।
और, दूसरे सवाल जो, टिप्पणियों में आए हैं उनके जवाब अब तक कहीं से नहीं आए हैं।

Ghost Buster ने कहा…

संबोधन चाहे जिस को भी किया हो पर लिखा आपने बेहतरीन है. इस करार का सबसे कड़ा विरोध करने वाले हैं:
१. चीन
२. पाकिस्तान
३. भारतीय कम्युनिस्ट पार्टियाँ

इसी से समझ में आ जाता है की यह करार भारत के कितने हित में है. खेद की बात है कि भाजपा भी छोटे राजनीतिक कारणों के चलते करार को समर्थन नहीं दे पाई.

विस्फोट की बात से नितांत असहमति है. ज़रा इंटरनेट पर सर्च करके देख लें, पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा की ओर एक बार फिर उन्मुख होने का प्रयास कर रही है. बीच के वर्षों में कुछ विरोध के स्वर तीव्र हुए थे मगर अब वो पीछे छूट गया है. आख़िर जब फोस्सिल फ्यूल्स बचेंगे ही नहीं तो ऊर्जा के लिए किसकी शरण में जाना होगा?

वर्तमान में भी हज़ारों परमाणु विजलीघर दुनिया भर में काम कर रहे हैं. १९८६ में चेरनोबिल के बाद से कोई दुर्घटना नहीं हुई है. सुरक्षा के लिहाज से कोई ख़तरा अब नज़र नहीं आता. न्यूक्लियर वेस्ट डिस्पोजल का और बेहतर उपाय ढूँढने की ज़रूरत है ना कि खब्त्पने के चलते बेमतलब के विरोध में लगे रहने के.

भुवन भास्कर ने कहा…

घोस्ट बस्टर ने मेरे ख्याल से हर्षवर्धन जी का इंतजार खत्म कर दिया है। दरअसल 'विस्फोट' और 'विचार' के विचारों का मैं सम्मान करता हूं, लेकिन फिर वही कहना चाहता हूं कि इस प्रस्ताव के पक्ष और विपक्ष में पहले ही इतने सारे दिग्गज लिख चुके हैं, कि हम या आप केवल उनके कुछ उद्धरण ही दे सकते हैं। जिससे मसला फिर वहीं पर टिका रहेगा जहां वह इस समय है।
इस समझौते से सब कुछ भारत के पक्ष में होगा, ऐसा न मैं मानता हूं और न ही किसी और को मानना चाहिए। क्योंकि कोई भी समझौता कुछ पाने और कुछ छोड़ने के मूल सिद्धांत पर टिका होता है। देखना यह चाहिए कि दोनों का संतुलन कैसा है।
आप सबको पता होगा कि इस समझौते के कुछ गुप्त दस्तावेज ऐसे हैं, जो किसी के भी सामने जाहिर नहीं किए गए हैं। फिर किसी का भी यह दावा करना कि उसकी राय ही सही है, उचित नहीं होगा। इसीलिए मैं भी यह दावा नहीं कर रहा। मेरा तो बस एक ही तर्क है कि अगर इसका विरोध करने वाले चीन, पाकिस्तान, वामपंथी और क्षुद्र राजनीतिक ताकतें हैं और समर्थन करने वाले अब्दुल कलाम, के नारायणन, जसजीत सिंह, सी राजामोहन और पूर्व राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार बृजेश मिश्र हैं, तो हमें इसे देश के लिए फायदेमंद ही मानना चाहिए।

भुवन भास्कर ने कहा…

@महाशक्ति
आपकी सलाह काफी अच्छी है। दोनों ई-मेल उपलब्ध कराने का धन्यवाद।

संजय बेंगाणी ने कहा…

सौ बात की एक बात, भारत को बिजली चाहिए..चाहिए और चाहिए ही.


फिर विकल्प है ही कितने?

बेनामी ने कहा…

दुश्मन जो भी करे ज़रूरी नही की हमें उसका उल्टा ही करना चाहिए.................. हम समर्थन करेंगे हमारी मरजी पर दुश्मन विरोध कर रहा है सिर्फ़ इसीलिए समर्थन करना सही नहीं है
और पर्यावरण/ प्रकृति को बचने की बात करना क्या 'खबत्पना' है? हर पढ़ा लिखा यही सोचता है आजकल, फ़िर तो दुनिया का भगवान भी कुछ नहीं बिगड़ सकता (बचेगी नहीं तो बिगडेगा क्या खाक)
"ज़रा इंटरनेट पर सर्च करके देख लें, पूरी दुनिया परमाणु ऊर्जा की ओर एक बार फिर उन्मुख होने का प्रयास कर रही है. बीच के वर्षों में कुछ विरोध के स्वर तीव्र हुए थे मगर अब वो पीछे छूट गया है. आख़िर जब फोस्सिल फ्यूल्स बचेंगे ही नहीं तो ऊर्जा के लिए किसकी शरण में जाना होगा?"
हम अनपढ़ लोगों को साईट या डेटा दिखा दो महाराज! और फोसिल फ्यूल नही तो सौर ऊर्जा कहाँ गई, पवन ऊर्जा कहाँ गई, जियो-थर्मल ऊर्जा कहाँ गई, नेनो-टेक पिको-टेक में विकास नहीं होगा क्या (जिससे एनर्जी-एफिसिएंसी ९८%+ तक पहुच सकेगी)
याद रखो, दुनिया में तुम्ही सबसे होशियार नहीं हो, तुमसे ज़्यादा जानकर आजकल छुट्टे घूमते हैं, कोई चिल्लर का भाव नहीं देता.

Ghost Buster ने कहा…

@ श्रीमान विचार कुमार:

१. दुश्मन विरोध कर रहा है इसलिए हम समर्थन नहीं कर रहे. मूल सवाल यह है कि दुश्मन आख़िर विरोध कर क्यों रहा है. इसीलिए ना कि ये करार भारत के हित में है. कोई और कारण आपको पता हो तो बताइए.

इस समझौते पर हस्ताक्षर के बाद जोर्ज बुश जब पाकिस्तान गए थे तो मुशर्रफ ने उनके सामने मांग रखी थी कि ठीक ऐसा ही समझौता अमरीका को पाकिस्तान के साथ भी करना चाहिए. मगर उन्होंने वहां लोकतंत्र ना होने का कारण बताकर दो टूक इनकार कर दिया.

२. प्रकृति का विनाश फोस्सिल फ्यूल्स ज्यादा करते हैं जिन्हें आप अपने वाहन में धड़ल्ले से इस्तेमाल करते हैं. परमाणु ऊर्जा की खूबी है कि यह उस तरह का पर्यावरण ह्रास नहीं करती क्योंकि इसमें ग्रीन हॉउस गैसों का उत्पादन नहीं होता. न्यूक्लीयर वेस्ट की समस्या का बेहतर उपाय खोजने में वैज्ञानिक लगे हुए हैं.

३. सर्च का एक बार प्रयास करके तो देखें. कोई हाई स्कूल का विद्यार्थी पास हो तो मदद कर देगा. लेकिन कोई सच्चाई जानना ही ना चाहे तो भगवान भी मदद नहीं कर सकते.

४. सौर ऊर्जा, पवन ऊर्जा, जियो-थर्मल ऊर्जा के नाम आपने सुन रखे होंगे मगर इनकी वास्तविक उत्पादकता कितनी है ये भी जानते हैं? ये सब केवल सप्लीमेंट्री उपाय हैं वो भी हर जगह सम्भव नहीं.

५. होशियारी और होशियारों के छुट्टे घूमने के बारे में आपके विचार सच्चे जान पड़ते हैं. तभी आपने इस चीज को हासिल करने को ज्यादा तवज्जो नहीं दी लगती है.

बेनामी ने कहा…

IAEA और अमरीकी सरकार/विश्वविद्यालयों की साईट पर मुझे विश्वास नहीं. विकी पीडिया पर कोई डेटा नहीं मिला. मुझ अनपढ़ को अभी तक कोई निष्पक्ष साईट ईकोलोजिकल और इकोनोमिक डेटा के साथ परमाणु ऊर्जा का समर्थन करती नहीं दिखी. पर कुछ साइट्स मैंने देखीं, इनकी जानकारी ज़रूर सही तथ्यों पर आधारित है:
http://lairdofglencairn.spaces.live.com/Blog/cns!FA29A59CC6777652!738.entry
www.greenpartywestsussex.co.uk/nuke.htm
www.greenpeace.org/international/press/reports/nuclear-power-unsustainable
www.million-against-nuclear.net/background/6reasons.htm
www.wwf.org.uk/core/about/cymru_0000004724.asp

शायद इन्हे पढ़कर कुछ सदबुद्धि आए, पर उम्मीद कम है.

Manish Pathak ने कहा…

Bhuwan,

you are perfectly right in choosing the adressee. I am really happy seeing that people are taking this issue very seriously even while commenting on your blog. But making personal comments is not something encouraging or appreciated.

Keep putting good stuff.

manish