शनिवार, 31 जनवरी 2009

श्रीलंका ने दिखाई है राह, चलना तो हमें ही होगा

आज से दो साल पहले यह कल्पना करना भी मुश्किल था कि श्रीलंका को कभी तमिल चीतों से मुक्ति मिल सकती है। अंतरराष्ट्रीय मान्यता के तौर पर भले ही श्रीलंका एक देश था, लेकिन सार्वभौम सत्ता की परिभाषा के आधार पर श्रीलंकाई सीमा क्षेत्र में दो देश चल रहे थे। एक संयुक्त राष्ट्र से मान्यताप्राप्त श्रीलंका और दूसरा एलटीटीई के प्रशासन वाला श्रीलंका। दूसरे श्रीलंका में पूरी तरह एलटीटीई का शासन था। कर व्यवस्था, कानून व्यवस्था, सड़कों और अस्पतालों आदि के निर्माण की लोककल्याणकारी योजनाएं, सब की जिम्मेदारी पूरी तरह लिट्टे के चीतों की थी। ऐसे में श्रीलंका के राष्ट्रपति राजपक्षे और वहां की सेना ने पिछले दो वर्षों में जिस तरह की इच्छाशक्ति और ताकत दिखाते हुए एलटीटीई का सफाया किया है, वह लाजवाब है।

यह इसलिए भी लाजवाब है कि भारत भी अपने दसियों जिलों में कमोबेस ऐसी ही स्थिति झेल रहा है। पूर्वोत्तर के कई इलाके भारतीय सैनिकों के लिए वर्जित हैं। वे कहने के लिए भारतीय इलाके हैं, लेकिन भारत सरकार का कोई अधिकारी या कोई नागरिक भी बिना आतंकवादियों या उग्रवादियों की मर्जी के उन इलाकों में नहीं जा सकता। यहां तक कि देश के हृदयस्थल में बसे छत्तीसगढ़ के करीब 40 फीसदी जिलों में माओवादियों की समानान्तर सरकार चलती हैं। इन सभी इलाकों में लोग इन आतंकवादियों को टैक्स देते हैं, इनकी अपनी न्याय व्यवस्था है, अपना साम्राज्य है। लेकिन भारत सरकार ने इन उग्रवादियों और इनकी प्रभुसत्ता के आगे घुटने टेक रखे हैं। चाहे पूरे भारत में 60-70 श्रीलंका समा जाएं, चाहे भारतीय सेना श्रीलंकाई सैनिकों की तुलना में दस गुने से भी ज्यादा हों, लेकिन भारतीय प्रशासकों में श्रीलंकाई राजनीतिक इच्छाशक्ति का लेशमात्र भी नहीं है। जिस माओवाद की समस्या को स्वयं देश का प्रधानमंत्री सबसे बड़ी समस्या बता चुका हो, उससे निपटने की कोई समग्र रणनीति तक नहीं होना, इसी अभाव का प्रमाण है।

श्रीलंका की सरकार ने भारत को एक रास्ता दिखाया है। कोई भी समस्या कभी इतनी बड़ी नहीं होती कि राष्ट्र शक्ति को चुनौती दे सके बशर्ते इस शक्ति की कमान संभालने वाली भुजाओं में ताकत हो और हृदय में आग हो। दिक्कत यह है कि हमारी राजनीतिक व्यवस्था का ढांचा ही कुछ इस तरह है कि इसमें आगे बढ़ने के लिए हर कदम पर, हर दिन समझौते करने होते हैं। और शीर्ष तक पहुंचते-पहुंचते हम इतने समझौते कर चुके होते हैं, कि न तो हमारी भुजाओं में ताकत बचती है और न ही हृदय में आग।

1 टिप्पणी:

संजय बेंगाणी ने कहा…

दुनिया में आतंकवाद विरोधी माहौल बना है वह भी लाभ दे सकता है. बात वही है कौन मौके का फायदा उठाता है.