कल्पना कीजिए, निठारी की दर्दनाक हत्याओं के एक आरोपी कोली की मौत की सज़ा पर सबसे सर्द और मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया क्या हो सकती है? मेरे ऑफिस के एक सहयोगी की प्रतिक्रिया से मुझे इस सवाल का जवाब मिला। उन्होंने कहा, 'ग़रीब था, इसलिए मौत की सज़ा मिल गई।' उनकी इस प्रतिक्रिया की पृष्ठभूमि में पंढेर को यही सज़ा न मिलना था।
पंढेर को सज़ा न मिलना, इस देश की उसी भ्रष्ट और नाकार न्याय प्रक्रिया का नतीजा तो हो सकता है, जिस पर हमने सैकड़ों फिल्में भी बनाई हैं और हजारों लेख भी लिखे हैं, लेकिन कोली की सज़ा को 'एक ग़रीब की सज़ा' कहने की मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया इस तथ्य को पूरी तरह नज़रअंदाज करती है कि जिन मासूम लड़कियों का क़त्ल किया गया (और कोली ने तो उन मृत नाबालिग शरीरों का मांस तक खाया), वे किसी करोड़पति की बेटियां नहीं थीं। वैसे यह घटिया तर्क भी मैं उस मूर्खतापूर्ण प्रतिक्रिया के जवाब में ही दे रहा हूं, क्योंकि अगर वे करोड़पति की बेटियां होतीं, तो क्या कोली और पंढेर के वे कुकर्म उचित ठहराए जा सकते थे?
ख़ैर, कोली की सज़ा-ए-मौत पर आने वाली यह तो एक प्रतिक्रिया है, लेकिन दरअसल देखा जाए तो यह प्रतिक्रिया इस देश में पिछले दो दशकों से चल रही राजनीति के कारण तैयार हुए हमारे मानस की स्वाभाविक आवाज़ है। इस देश की राजनीति ने हमें हर उस बात से प्रेम करना सिखा दिया है, जिसे घोर सामाजिक-आर्थिक विकृति मानते हुए हमें घृणा करना चाहिए। लालू ने ख़ुद को चपरासी का बेटा बताया और पूरे बिहार के चपरासियों को उनमें अपना बेटा नज़र आने लगा। यह अलग बात है कि लालू अपने रोते हुए बेटे को चुप कराने के लिए सरकारी हेलीकॉप्टर में बनारस तक की सैर कराते रहे और राज्य भर के चपरासी अपने साहबों को पानी ही पिलाते रहे।
मुलायम ने अपने को ग़रीब का बेटा बताया। देश का रक्षा मंत्री बनने के बाद उन्होंने गर्व से घोषणा की कि उनके पूरे खानदान में कोई हवलदार तक नहीं बन सका और वह देश की रक्षा सेनाओं के मुखिया बन गए। यह अलग बात है कि उत्तर प्रदेश के तमाम ग़रीब अब भी हवलदारों के डंडे और गालियां खाने को मज़बूर हैं और मुलायम के विदेश शिक्षित बेटे अपने ग़रीब पिता की विरासत संभालने के लिए तैयार हैं। मायावती सत्ता में आईं तो उन्होंने ख़ुद को दलित की बेटी बताया। यह अलग बात है कि अपनी मूर्तियां लगाने में 250 करोड़ रुपए खर्च करने वाली इस दलित की बेटी के पास दंतेवाड़ा में मारे गए सीआरपीएफ के जवानों को देने के लिए पैसे नहीं थे।
करोड़ों लोगों का दीवानगी के हद तक समर्थन पाने वाले इन नेताओं ने भारतीय जनमानस के मनोविज्ञान में एक मौलिक बदलाव किया है। ग़रीब होना, पिछड़ा होना, अछूत होना, अनपढ़ होना अब किसी के मन में आक्रोश पैदा नहीं करता। ये दरअसल सत्ता की सीढ़ियां चढ़ने के अलग-अलग रास्ते बन गए हैं। अछूत समाज से आने वाला युवक अब अंबेडकर की तरह इस सामाजिक कुरीति को उखाड़ फेंकने के लिए लड़ाई नहीं करता। अब तो वह रिक्शे पर लाउडस्पीकर से यह घोषणा करने में ज्यादा फायदा देखता है कि वह अछूत है।
ग़रीब के घर पैदा होना किस तरह किसी की महानता का हिस्सा हो सकता है, मुझे समझ नहीं आता। ग़रीबी भी दो तरह की होती है- एक, अकर्मण्यता से पैदा होती है और दूसरी, वैराग्य से पैदा होती है। गांधी की ग़रीबी वैराग्य से पैदा हुई थी, लेकिन नई दिल्ली रेलवे स्टेशन के पास चरस के एक कश के लिए 2-2 रुपए के कबाड़ की चोरी करने वाले की ग़रीबी अकर्मण्यता से पैदा हुई है। लेकिन लालू और मायावती छाप राजनीति ने हमारी मानसिकता ऐसी बना दी है कि हम ग़रीब चरसी की ग़ुरबत को भी उसका गुण ही मानने लगे हैं।
मेरे एक बहुत ही समझदार और अध्ययनशील मित्र हैं। उनसे एक दिन किसी ने मज़ाक में पूछा कि सीआरपीएफ के दो जवानों ने दो माओवादियों को रक्तदान किया है। आपकी प्रतिक्रिया? उन्होंने कहा, 'एक ग़रीब ने दूसरे ग़रीब को खून दिया है।' आश्चर्य है कि जिस दिन खून लेने वाले ग़रीबों ने खून देने वाले ग़रीबों को दंतेवाड़ा में गोलियों से छलनी किया था, उस दिन उनकी प्रतिक्रिया थी कि मारने वाले कोई खाना बांटने तो जा नहीं रहे थे।
जानमाने पत्रकार पी साईंनाथ ने एक किताब लिखी है- 'हू लव्स ड्राउट'। यह किताब देश के प्रशासन और अधिकारी तंत्र पर केंद्रित है। यह बात समझ में भी आती है, क्योंकि हर बाढ़, हर सूखे, हर भूकंप और हर आपदा में कई विधायक, मंत्री, अफसरशाह और बाबू करोड़पति बन जाते हैं। तो स्वाभाविक है कि उन्हें इन आपदाओं से प्यार भी होगा, इनका इंतजार भी होगा। लेकिन जो बात समझ में नहीं आती है, वह ये है कि 'हाउ कैन ए पर्सन लव द ट्रैजेडी, व्हिच लव्स हिम ऐज इट्स फॉडर'। ये आश्चर्यजनक नहीं तो क्या है। ग़रीबी, जातिवाद, अशिक्षा जिन लोगों को अपना चारा बना रही है, वही इनसे प्यार करने लगे हैं।
यह भारतीय राजनीति का चमत्कार है। और यह उन समझदार लोगों की उस उदासीनता का भी जवाब है जिसमें वे कंधे उचका कर कहते हैं, 'कोउ नृप होए, हमें का हानी'। राजनीति की दिशा एक पूरे राष्ट्र को नपुंसक बना सकती है, यथास्थितिवादी बना सकती है या फिर पौरुष और तेज से भर सकती है। लेकिन इसके लिए ज़रूरी है कि राजनीति का संबंध राष्ट्र से हो। जब तक राजनीति का संबंध सत्ता से बना रहेगा, हम अपने समाज के मनोविज्ञान में ऐसा ही ज़हर घोलते रहेंगे। यह सुनने में कुछ-कुछ यूटोपिया सा लगता है, लेकिन कुछ बनाने के लिए पहले उसकी कल्पना तो करनी ही होती है।
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8 टिप्पणियां:
तुम्हारे जैसे मूर्ख और सामंत जानवर उस जवाब का मतलब कभी समझ ही नहीं सकते ससुरे...
पंधेर कहीं के...
वाह..... क्या आक्रोश है। मैं हमेशा सोचता था कि मेरे लेखों पर हमेशा अनुकूल टिप्पणियां ही क्यों आती हैं... क्योंकि मैं इस बात के लिए बिलकुल आश्वस्त हूं कि मैं जो भी कहता हूं, उससे बहुतों का विरोध भी होगा। आज पहली बार, एक जबर्दस्त विरोध आया है आपका। खुशी हुई और अपने ब्लॉग लेखन की सार्थकता का भी आभास हुआ। धन्यवाद।
भुवन जी आपके इस विवेचन में नहीं सहमत होने वाली कहीं कोई बिंदु नहीं दिखा | ५ मिनट तक सोचता रहा की आखिर किसी एक बिंदु पे अपनी असहमति (आपकी टिप्पणी पढने के बाद .. :) ) बताऊ ... पर .. खैर अगली बार देखेंगे |
सार्थक विवेचन !!! एक शिकायत है, आप अच्छा लिखते हैं पर बहुत कम लिखते हैं ... संभव हो तो हर पखवाड़े एक पोस्ट डालिए |
बहुत सही लिखा है. इनकी सोच राष्ट्र सापेक्ष नहीं सत्ता और सुविधा सापेक्ष है।
वाह! लौट आयी धार....
सही लिखा है भुवन... और तुम्हें गालियाँ भी अच्छी मिलीं... दरअसल इससे उन कर्महीनों की कलई खुल जाती है जो सच सुनते ही बौखला जाते हैं. जैसे की प्रेमरंजन... वो भी उसी तबके से होंगे जो कोली की सज़ा पर शायद जंतर मंतर पर मोमबत्ती परेड ही निकाल दे. इन साहब को तलाश तो पता चला कि इनका प्रोफाइल ही नहीं है. यानी इनके खुद के तो कोई विचार ही नहीं हैं. कोई दढ़ियल या बड़ी बिंदी वाली कान में मंत्र फूँक देती होगी और ये उसी की धुन पर नाचते होंगे. इन्हें तो यह भी नहीं पता कि विचार क्या होते हैं. जब तक नौकरी नहीं मिलती है यही चिरकुटई करते रहते हैं. बाद में सब बिसार देते हैं. खैर तुमने अच्छा लिखा है. धार के साथ लिखते रहो.
@ प्रेमरंजन!
भाई.. इस चर्चा में बाकी सब तो सामंत हैं. तुम ही दरिद्र नारायण हो. ज़रा तफसील से अपने बारे में तो बताओ.
प्यारे! कोई चोरी करे तो गरीबी जड़ हो सकती है उसकी. डाका डाले तो तर्क गरीबी हो सकती है. क़त्ल की वजह भी गरीबी और शोषण से जन्मा आक्रोश हो सकता है. लेकिन भाई वैशाखनंदन! बलात्कार, कुकर्म के लिए गरीबी को ज़िम्मेदार कैसे ठहरा सकते हो तुम. तुम्हारे पास बुद्धि नहीं है, यह तो तुम्हारे कमेन्ट से ही पता चल गया लेकिन इस बात को मानकर कम से कम चुप तो बैठ जाओ. मुंह खोलकर अपनी चिरकुटई क्यों जगजाहिर कर रहे हो. यार तुम लोग तो न्याय व्यवस्था पर ही सवाल उठा रहे हो. तो क्या माओवादियों की अदालतें ही अब फैसले करेंगी? देश कि अदालत भी कुछ हैं या नहीं. अगर संजीव नंदा, मनु शर्मा, विकास यादव अपराध की सज़ा पायें तो सब ठीक क्योंकि वो सामंत हैं. लेकिन पिशाच कोली को सज़ा मिले तो बेचारा गरीब. अब तुम्हें खुजली हो जाती है कि न्याय व्यवस्था ही खराब है. इसलिए भैया! तुमसे एक ही विनती है, कोली टाइप का कोई गरीब किसी दिन तुम्हारे घर की किसी महिला के गिरेबान पर हाथ डालेगे तो उसे खाना खिलाकर और कुछ रुपये देकर ही घर से विदा करना. बेचारा गरीब कुछ दिन तो इस पैसे से काम चला ही लेगा. तुमने ऐसा नहीं किया तो गरीबी से आजिज़ आकर फिर किसी का बलात्कार करेगा बेचारा. इस्सेलिये मेरी सलाह मान लेना भाई.
बहुत ही बढ़िया तरीके से काटे है .धार बनी रहे .
पर बेशर्मी से निपटना कम मुश्किल नहीं .
सही लिखा है भुवन... और तुम्हें गालियाँ भी अच्छी मिलीं... दरअसल इससे उन कर्महीनों की कलई खुल जाती है
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