भारतीय जनता पार्टी में जसवंत सिंह की वापसी हो गई है। जसवंत का पार्टी से निकाला जाना और उनकी पार्टी में वापसी, दोनों का भाजपा के इतिहास में खास महत्व रहेगा। मज़ेदार बात यह है कि भले ही ये दोनों घटनाएं आपस में एक दूसरे की पूरक दिख रही हों, मुझे लगता है कि ये दोनों ही पार्टी में आ रही ज़बर्दस्त गिरावट और उसके पतन की राह में दो महत्वपूर्ण मील के पत्थर है। जसवंत सिंह को निकालने के पीछे वजह बहुत ही साफ और तार्किक थी, लेकिन तरीक़ा बिलकुल अलोकतांत्रिक और ग़ैर-राजनीतिक था। खबरें ऐसी भी आई थीं कि तत्कालीन पार्टी अध्यक्ष राजनाथ सिंह और राजस्थान की भाजपा नेता वसुंधरा राजे की व्यक्तिगत राजनीति के कारण जसवंत की बलि ली गई। एक एंगल संघ का भी था।
कारण जो भी रहा हो, जिस तरीके से यह पूरी कार्रवाई की गई, उससे साफ था कि यह पार्टी की अंदरूनी राजनीति का हिस्सा था। लेकिन इसके पीछे की वजह बिलकुल उचित थी। पार्टी के शीर्ष पर बैठा नेता अगर पार्टी के बुनियादी सिद्धांतों में ही यक़ीन नहीं रखता, तो उसके पार्टी में रहने का कोई कारण नहीं है। हालांकि जिस तरह शिमला की बैठक के लिए पहुंचने के बाद बिना स्पष्टीकरण मांगे राजनाथ ने उन्हें होटल में ही फोन कर के हटाए जाने की सूचना दी, वह पार्टी के व्यक्तिवादी और पतनशील होते जाने का एक लाजवाब उदाहरण था। मेरा स्पष्ट मत है कि यह विकल्प जसवंत को देना चाहिए था कि या तो वह अपनी लिखी क़िताब के उस हिस्से को एक्सपंज करें यानी वापस लें, जिसमें उन्होंने लिखा है कि जिन्ना विभाजन के लिए ज़िम्मेदार नहीं हैं या फिर स्वयं पार्टी छोड़ दें। लेकिन ऐसा नहीं किया गया और उन्हें आनन-फानन में पार्टी से निकाल दिया गया।
अब उस घटना के क़रीब 10 महीने बाद पार्टी को यह लग रहा है कि बीती बातों को भुला देना चाहिए। 'बीती बातें' !!! राष्ट्रीय जीवन के सार्वभौम सिद्धांत क्या कभी पुराने पड़ सकते हैं? ख़ास बात यह है कि जसवंत ने इस दौरान एक बार भी जिन्ना या सरदार पटेल पर अपने विचारों में बदलाव का संकेत तक देना ज़रूरी नहीं समझा। यानी जसवंत ने अपनी निजी साख पर तो धूल का एक कण तक नहीं लगने दिया, लेकिन पार्टी के कर्णधारों ने पार्टी की साख को पूरे कालिख में ही रंग दिया। वाह री कैडर आधारित पार्टी की सैद्धांतिक निष्ठा।
अब मामला बातों और मुद्दों का तो है ही नहीं, अब मामला ताकतवर शख़्सियतों की व्यक्तिगत इच्छाओं का है। आपकी शक़्ल मुझे अच्छी लगती है, आप रोज़ सुबह-शाम मेरे को हाज़िरी देते हैं, आप मेरी हर हां में हां मिलाते हैं, पार्टी में आपका रहना मेरी व्यक्तिगत ताक़त को बढ़ाता है, तो आप पार्टी के लिए अपरिहार्य हैं। और फिर जिन्ना तो आडवाणी की भी कमज़ोर नस हैं। जसवंत की वापसी एक तरह से आडवाणी के पाकिस्तान में दिए बयान पर पार्टी की मुहर है। साथ ही यह इस बात का भी सबूत है कि भाजपा पर से संघ का नियंत्रण पूरी तरह ख़त्म हो गया है। यह इस बात का भी सबूत है कि भारतीय जनता पार्टी में सामूहिक नेतृत्व अब केवल भाषणबाजी का विषय रह गया है और सिद्धांत की राजनीति केवल अगरबत्ती दिखाने की धार्मिक कवायद रह गई है।
सदस्यता लें
टिप्पणियाँ भेजें (Atom)
2 टिप्पणियां:
भाजपा जिसकी स्थापना के मूल में ही सिद्धांत था, आज उसी पार्टी का सिद्धांत विहीन हो जाना पीडादायक लग रहा है.
भाजपा को डुबोने के पीछे एक बड़ा कारन है - व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा. जब तक व्यक्तिगत महत्वाकांक्षा को तरजीह दिया जाता रहेगा तब तक पार्टी का भला नहीं हो सकता.
मिडिया के साथ हिन्दू भी भ्रम पाले बैठा है ,भाजपा हिंदूवादी है .आप कह रहें है व्यक्तिवादी है.
यशवंत सिंह में न तब कुछ था .न अब . फिर रिनिउअल क्यों ? गडकरी कहीं दिमाग से पैदल
तो नहीं है ?
एक टिप्पणी भेजें