शुक्रवार, 25 जून 2010

लॉन्ग लिव हेगड़े, येद्दुरप्पा इज डेड

'पार्टी विद ए डिफरेंस' के भारतीय जनता पार्टी के दावे की हवा तो बहुत पहले निकल चुकी थी, अब कर्नाटक के लोकायुक्त संतोष हेगड़े के इस्तीफे के बाद उसे अगर 'पार्टी विद एग ऑन इट्स फेस' (कालिख पुते चेहरे वाली पार्टी) कहा जाए, तो शायद ही कोई अतिशयोक्ति होगी। पब में लड़कियों को बाल पकड़ कर घसीटते हुए गुंडों का संरक्षण करने वाली कर्नाटक की भाजपा सरकार ने इस बार ईमानदारी को अपना निशाना बनाया है।

पिछले साल जब कच्चे लोहे के तस्कर और राज्य के मंत्री रेड्डी भाइयों की ओर से सरकार गिराने की धमकियों के बाद टेलीविजन चैनलों पर येद्दुरप्पा का आंसू बहाता चेहरा हमने देखा था, तो लगा था कि एक ईमानदार, शरीफ राजनेता रेड्डी भाइयों की राजनीति का शिकार हो रहा है। मुझे उस समय भी आश्चर्य हो रहा था कि क्यों भारतीय जनता पार्टी का शीर्ष नेतृत्व सरकार में मंत्री बनाए गए तीन तस्करों के आगे घुटने टेक रहा है। हो सकता है कि यही सरकार बचाने की कीमत रही हो, लेकिन अगर किसी भी कीमत पर सरकार बचाना ही राजनीति है, तो इस पार्टी के किसी भी नेता के मुंह से 'नैतिकता' और 'मूल्य' जैसे शब्द निकलते ही चार जूते लगाना चाहिए।

सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायधीश और लोकायुक्त हेगड़े ने इस्तीफा देते हुए जिन बातों का खुलासा किया है उसके बाद मुझे समझ में आ रहा है कि येद्दुरप्पा के आंसू दरअसल उनकी शराफत के नहीं, बल्कि उनकी नपुंसकता के आंसू थे। वे आंसू थे, जिंदगी भर के सपने यानी मुख्यमंत्री का पद छिनने के डर के। हेगड़े देश से विलुप्त होती उस दुर्लभ प्रजाति का हिस्सा हैं, जो ईमानदारी को अपना सर्वोच्च धर्म मानती है। उन्होंने रेड्डी भाइयों की तस्करी पर लगाम कस दिया था। कई भ्रष्ट वरिष्ठ पुलिस और प्रशासनिक अधिकारियों ने उनके डर से इस्तीफे दे दिए थे। उन्होंने जिन निष्ठावान और ईमानदार अधिकारियों की अपनी टीम बनाई थी, उनका कहना है कि तीन वर्षों के कार्यकाल में उन्होंने कभी किसी जांच में हस्तक्षेप नहीं किया और कभी अपनी ज़िम्मेदारी को दूषित नहीं होने दिया।

जिस शासन में जनप्रतिनिधि और पुलिस वाले अपना घर भरने में लगे हों, वहां हेगड़े ग़रीब और बेसहारा लोगों के लिए भगवान की तरह थे, जो अस्पताल से खदेड़ दी गई एक ग़रीब औरत के रात दो बजे किए गए फोन पर प्रतिक्रिया देते हुए अस्पताल फोन करते थे और उसके आठ महीने के बच्चे की भरती सुनिश्चत करवाते थे (हेगड़े के बारे में कर्नाटक में प्रचलित कई कहानियों में से एक)। ऐसे हेगड़े जब इस दर्द के साथ इस्तीफा देते हैं कि पूरी भाजपा सरकार भ्रष्टाचार का पोषण कर रही है, तो निर्लज्ज येद्दुरप्पा एक शातिर राजनेता की तरह यह बयान देते हैं कि उन्हें इस घटना से बहुत सदमा लगा है, लेकिन हेगड़े साहब का शर्मिंदा न करने के लिए वह उनसे इस्तीफा वापस लेने को नहीं कहेंगे। ठीक ही है। येद्दुरप्पा, रेड्डी और गडकरी से शर्मिंदा होने की तो उम्मीद की नहीं जा सकती, हेगड़े ही शर्मिंदा होने के लिए रह गए हैं अब।

सिद्धांत गढ़ने और लच्छेदार ज़ुमले उछालने में भाजपा नेताओं का कोई सानी नहीं है। भय, भूख और भ्रष्टाचार मिटाने का दावा करने वाली यह पार्टी है, जिसके शासन वाले राज्यों में गुजरात को छोड़कर शायद ही कोई ऐसा हो, जिसके मुखिया पर भ्रष्टाचार के गंभीर आरोप न हों। ज्यादा भयंकर बात यह है कि इन आरोपों पर पार्टी के राष्ट्रीय नेतृत्व को कोई शर्म नहीं आती, उसके कानों पर जूं नहीं रेंगती। अगर उसका मुख्यमंत्री शातिर है, राज्य को लूट का अड्डा बना कर भ्रष्ट विधायकों को अपने काबू में रख रहा हो, तो इससे शीर्ष नेतृत्व को कोई परेशानी नहीं है।

यह मरती हुई पार्टी के सांसों से उठती दुर्गंध है। मेरी चिंता यह है कि स्वामी विवेकानंद, शिवाजी महाराज, मदनमोहन मालवीय, डॉक्टर केशव बलिराम हेडगेवार, बाल गंगाधर तिलक और ऐसे ही सैकड़ों खालिस चरित्रवान और देशभक्त महापुरुषों के सांस्कृतिक राष्ट्रवाद का नारा देकर चुनाव जीतने वाली भाजपा का यह घिनौना चेहरा देश की जनता का भरोसा पूरे सिद्धांत से कमजोर कर देगा क्योंकि आखिरकार किसी भी राष्ट्र का चरित्र उसके नेता के भाषण से नहीं, बल्कि उसके कृत्य से बनता है।

3 टिप्‍पणियां:

Rakesh Singh - राकेश सिंह ने कहा…

भाजपा के लिए इमानदार हेगड़े का इस्तीफा कोई नई बात नहीं है. NDA सासन में दो सबसे इमानदार, कर्मठ और अच्छा काम करने वाले मंत्री जगमोहन और सुरेश प्रभु (शिव सेना) को भी मंत्रिमंडल से निकाला गया था, दोनों के इस्तीफे के कारन अगल-अलग थे. सुरेश प्रभु शिव सेना के लिए अपने विभाग से पैसे नहीं जुटा पा रहे थे तो जगमोहन जी दिल्ली के अवैध बिल्डिंग मालिकों और भ्रष्ट लोगों की आँख की किरकिरी बने हुए थे.

कर्नाटक में रेड्डी बंधुओं के पैसे से ही भाजपा आज सत्ता में है, वरना भाजपा और संघ ने इससे पहले भी खूब जोर लगाया पर कांग्रेस का पैसा उस पर भारी पडा. क्या कहा जाए, जनता भी अब इमानदार को वोट नहीं देती , नहीं तो जगमोहन जी दिल्ली से कैसे हार जाते? ऐसे सैकड़ों उदाहरण हैं जहाँ जनता और मीडिया बेईमान और बीके हुए लोगों को सर आँखों पे रखता है - मुहम्मद अजहरुद्दीन जैसे match fixer बिना मिहनत किये ही लोक सभा की शोभा बढाते हैं.

येदुरप्पा के लिए सांप छछूंदर वाली स्थिति है, रेड्डी बंधुओं के पैसे बिना भाजपा कर्नाटक में कांग्रेस और देवगौड़ा को टक्कर नहीं दे सकता और रेड्डी बंधुओं को रखो तो भ्रष्टाचार....

मुझे लगता है वास्तविक भारतीय राजनीति में इमानदारी और सिद्धांत का महत्व अब नहीं के बराबर रह गया है. भ्रष्टाचार हमारे समाज में गहरी पैठ बना चुका है, सरकार किसी की बने भ्रस्टाचारियों को ख़ास फर्क नहीं पड़ता. वैसे भ्रस्टाचारियों की पहली पसंद स्वाभाविक रूप से कांग्रेस ही रही है.

बेनामी ने कहा…

प्रस्तुतकर्ता भुवन भास्कर us patra samooh se hai jo cong ka mosera BJP ka sotela hai, lekhak bhi usi rah par hai. sath mosere ka diya jata hai sotele ka nahin. gandhi nehru ki virasat vali cong sada desh ke shtruon ka samarthan karti hai. 1984 gavah hai,J&K, Afzal,1962 ka Tibbat,anginat kalank puti cong ke bhopal kang par ap kis agyatvas par the prabhu? BJP ki Bat ka batangarh, cong ke katle-am bhi maf, yeh kaisa hai insaf.Shirsh media ka shish dayitva kya yahi hai.Is pakhand ko janta samajh chuki hai.pakhandi nange ho rahe hain.

भुवन भास्कर ने कहा…

बेनामी महोदय, अच्छा होता अगर आपने कोई नाम भी धारण किया होता। मैं किसका मौसेरा हूं, किसका सौतेला और किसका सगा, इसका फैसला आप करें, इससे मुझे कोई उज्र नहीं है। दिक़्कत यह है कि आपने मेरे पुराने लेख तो छोड़िए, यह लेख भी पूरा नहीं पढ़ा है, नहीं तो आपने यह छिछला निष्कर्ष नहीं निकाला होता। जितने सारे विषय अपने गिनाए हैं, 1984, जम्मू-कश्मीर, अफज़ल, 1962 और भोपाल (इसी महीने) आदि सभी कभी-न-कभी मेरा विषय बने हैं और आगे भी अलग-अलग संदर्भों में बनते रहेंगे। अगर आपने अपना मेल आईडी देने में लज्जा न दिखाई होती, तो मैं ये लेख आपको भेज भी देता। लेकिन माफ कीजिएगा, मैं समस्याओं को अपने एक ख़ास सैद्धांतिक चश्मे से देखता हूं, न कि किसी दूसरे के। अगर मेरे अपने पिता या सहोदर भाई भी मेरे अपने सैद्धांतिक चश्मे से नंगे दिखेंगे, तो मैं कहने में संकोच नहीं करूंगा। आपको केवल 1984, जम्मू-कश्मीर, अफज़ल, 1962 और भोपाल याद हैं। लेकिन मुझे इनके अलावा तीन दुर्दांत आतंकवादियों को एक सत्तालोलुप सरकार के बेशर्म विदेश मंत्री द्वारा सी-ऑफ करने आतंकवादियों के दरवाजे तक जाना भी याद है। उसी वाजपेयी सरकार के कार्यकाल में मुझे बीएसएफ के 16 जवानों को मार कर बंगलादेशी सैनिकों द्वारा जानवरों की तरह उलटा लटकाना और उसके बाद भारत की नपुंसक प्रतिक्रिया भी याद है। मुझे यह भी याद है किस तरह वाजपेयी सरकार के समय अटल जी के एक करीबी संबंधी ने दलाली की दुकान खोल ली थी। मैं यह भी जानता हूं कि दो जून की रोटी के लिए तरसने वाले बिहार भाजपा के कई विधायक आज सुमो और स्कॉर्पियों का काफिला लेकर चलते हैं। बेनाम जी, मुझे और भी बहुत कुछ याद है। बस, फ़र्क यह है कि न ही मैं भाजपा की दलाली कर अपना घर चला रहा हूं और न ही कांग्रेसियों की तरह एक विदेशी महिला के तलवे चाट सकता हैं। इसलिए मेरे लेख जिनता बुरा आपको लगते हैं, कुछ उतना ही बुरा ये मेरे वामपंथी और कांग्रेसी मित्रों को भी लगते हैं। टिप्पणी के लिए धन्यवाद।