सोमवार, 31 दिसंबर 2012

एक बहादुर ज़िंदगी की गुमनाम मौत

आज सुबह उस बहादुर लड़की की अंत्येष्टि की कहानी और उससे जुड़ी घटनाएं पढ़ते हुए अनायास ही मेरे दिमाग में कुछ दिनों पहले की इसी तरह की कहानियां ध्यान में आ गईं, जो मुंबई हमलों के एकमात्र ज़िंदा पकड़े गए आतंकवादी को फांसी दिए जाने के बाद अख़बारों में आई थीं। 3.30 बजे सुबह निर्भया (उस लड़की के लिए दिया गया एक छद्म नाम) का शव सिंगापुर से आया। 7.30 बजे उसकी अंत्येष्टि कर दी गई।

उसकी मां चीख-चीख कर बेहोश होती रही कि मेरी बेटी को कुछ देर और मेरे पास रहने दो। लेकिन उस मां को अपनी बेटी को जी भर कर आखिरी बार देखने तक नहीं दिया गया। कांग्रेस सांसद महाबल मिश्रा ने अपने उन्हीं लोगों के साथ, जो उनके लिए चुनावी संसाधन जुटाते होंगे, लड़की की अंत्येष्टि के लिए सामान जुटाए। महाबल निर्भया के पिता की 'मदद' कर रहे थे। लेकिन इस मदद की असलियत इस बात से ही उजागर हो जाती है कि निर्भया के शव को अग्नि देने के लिए सूर्योदय तक का इंतज़ार नहीं किया गया। टॉर्च की रोशनी में आनन-फानन से अंतिम क्रिया कर दिया गया। अंतिम क्रिया कहां किया गया, यह भी गुप्त है।

ये खबरें, ये कहानियां हमारे लोकतंत्र पर एक थप्पड़ है। मैं सुबह से ही सोच रहा हूं सरकार की उस मानसिकता के बारे में, जिसके तहत यह किया गया। सरकारें कसाब और ओसामा बिन लादेन सरीखों के साथ ऐसा ही करती हैं ताकि उनकी तरह सोचने वालों के लिए वह सहेजने की जगह या याद न बन जाए। लेकिन निर्भया न क़साब थी, न ओसामा (अमेरिकी सरकार ने कुछ ऐसा ही किया था। फिर सरकार ने ऐसा क्यों किया? दरअसल क़साब या ओसामा का नाम हमारे ज़हन में इसीलिए आता है कि हम मानते हैं कि यह सरकार हमारी है।

लेकिन क्या यह सरकार भी मानती है कि हम उसके हैं? हां, वह हमें अपनी प्रजा ज़रूर मानती है, लेकिन अपना नहीं मानती। ठीक उसी तरह जैसे अंग्रेज हमें अपनी प्रजा ज़रूर मानते थे, लेकिन अपना नहीं मानते थे। इसीलिए भगत सिंह को जब फांसी दी गई, तो ऐसे कि किसी को पता न चले। उनके शव को आनन-फानन में जलाया गया। क्या इसलिए कि अंग्रेज भगत सिंह की निजता का सम्मान करते थे? निर्भया देश की नवोदित युवा क्रांति की प्रतीक बन चुकी है। और यह सरकार नहीं चाहती कि इस क्रांति को कोई चेहरा मिले।

सरकार दरअसल निर्भया की निजता नहीं, इसी क्रांति के प्रतीक को छिपाना चाहती है। वह नहीं चाहती कि नेहरुओं और गांधियों को टक्कर देता कोई ऐसा स्मारक भी खड़ा हो जाए, जो जनता का हो। यह बलात्कार की शिकार किसी आम लड़की की कहानी नहीं है, जिसे सामाजिक अपमान और क्लेश से बचाने के लिए निजता के नियम को बनाया गया है। उस लड़की के सभी संबंधी उसे जानते हैं, उसका गांव, उसका मोहल्ला उसको जानता है।

फिर यह सरकार किससे उसकी पहचान को छिपाना चाहती है? एक मिनट के लिए मान लीजिए कि उस लड़की का नाम राधा था। आप जान गए कि उस लड़की का नाम राधा था, तो उसकी निजता कैसे खंडित हो सकती है? आप तो उसे पहले भी नहीं जानते थे और अब भी नहीं जानते। यह जनता को बेवकूफ बनाने के लिए गढ़ा गया सिद्धांत है, जिसमें मीडिया को भी शामिल कर लिया गया है। उस बहादुर लड़की ने कोई पाप नहीं किया है कि उसकी पहचान छिपाया जाए।

इस क्रांति को सरकार कितनी हिकारत भरी नजर से देखती है, इसका प्रमाण पहले तो गृहमंत्री के उस मूर्खतापूर्ण बयान से मिला था, जब उसने कहा कि कल अगर गढ़चिरौली में 100 आदिवासी मारे जाएं तो क्या सरकार वहां बात करने चली जाएगी और दूसरा सबूत प्रधानमंत्री के उस घड़ियाली संदेश से मिला, जिसके खत्म होने के साथ ही उन्होंने कैमरामैन से पूछा कि उनका शॉट ठीक रहा कि नहीं। 12 दिनों तक देश का (क्योंकि दिल्ली में पूरा देश रहता है) युवा यहां-वहां मोमबत्तियां जलाता रहा, नारे लगाता रहा और वर्ल्ड कप की जीत के जश्न में भीड़ का हिस्सा बनने वाली सोनिया गांधी या उनके भावी प्रधानमंत्री बेटे में से कोई या उनका कोई विश्वस्त दरबारी एक बार भी उनके बीच नहीं आया। यह भी इस पूरे आंदोलन के प्रति इस सरकार की समझ का ही सबूत है।

यह सचमुच हमारा दुर्भाग्य है कि हम एक ऐसी सरकार की प्रजा हैं, जो लोकतंत्र की घोर अलोकतांत्रिक उपज है। इस विशुद्ध जनाक्रोश से निपटने के लिए इसकी प्रतिक्रिया देखिए। इंडिया गेट बंद कर देना, मेट्रो के 10 स्टेशनों को हर दूसरे-तीसरे दिन बंद करना, 1-2 जगहों को छोड़कर पूरी दिल्ली में 144 लगाना और दिल्ली पुलिस को लाठियां भांजने के लिए सड़कों पर उतार देना। लेकिन यह सरकार निश्चिंत है कि 2014 से पहले कैश सब्सिडी फेंक कर यह चुनाव जीत लेगी। 60 साल में हमारा लोकतंत्र इतना ही परिपक्व हुआ है कि पहले वोट के लिए दारू बंटती थी, अब नीतिगत टुकड़े फेंके जाते हैं। फिर क्या फ़िक्र, अंतिम लक्ष्य तो सत्ता ही है।

2 टिप्‍पणियां:

प्रशान्त ने कहा…

सत्ता वही है, अंग्रेजी जमाने वाली. आजादी कहां है.

indianrj ने कहा…

हमें भगवान् से ये ही प्रार्थना करनी चाहिए कि हम ऐसे कच्चे लालच में न आयें, साथ ही ये भी कि वो हमारी को कम से कम 2014 तक इतनी तेज़ रखे, कि हमें ये लाठियां, ये पानी की बोछारे, ये मेट्रो स्टेशन का बंद होना, और धारा 144 याद रहे। क्योंकि हमें अपनी अल्प याददाश्त की वजह से पहले ही काफी भ्युग्तना पड़ा है।