शनिवार, 22 दिसंबर 2012

पुलिस और राजनीति भी तो हमारे ही हैं

एक लड़की के साथ हुई दरिंदगी से पूरा देश उबल रहा है। मुझे पूरा भरोसा है कि इस उबाल में उन कुछ लोगों का खून भी खौल रहा होगा, जो उस दुर्भाग्यपूर्ण रविवार की रात को उस रास्ते से गुज़रे थे। उन्होंने उस लड़की और उसके दोस्त की खून से लथपथ काया देखी थी, उन तीन फरिश्तों की पुकार सुनी थी, जो उन्हें बचाने की जद्दोज़हद कर रहे थे। वे लोग भी ज़रूर आज टीवी के सामने बैठ कर अपनी बेटियों और बहनों के सामने इस हैवानियत पर पुलिस, नेताओं और उन शैतानों पर गालियों की बारिश कर रहे होंगे। कौन थे ये लोग? क्या अधिकार है इनको किसी और को गाली देने का? और वही लोग क्यों, मैं या आप अगर उसी रास्ते से उस दिन गुज़र रहे होते, तो हमने क्या रुक कर उन दोनों को अपनी गाड़ी से अस्पताल पहुंचाया होता? इन सवालों के जवाब केवल हम ख़ुद ही दे सकते हैं।

लेकिन मेरे मन में यह सवाल है कि जब तक हम ऐसे हैं, तब तक पुलिस या राजनीति कैसे बदल सकती है? यह पुलिस, यह राजनीति भी तो हमारा ही हिस्सा है। हमारे ही लोग हैं। मुझे लगातार यही लग रहा है कि देश भर में आक्रोश से भरी आवाज़ों में मूल मुद्दा कहीं खो सा गया है। मुझे ऐसा लगता है कि अन्ना के भ्रष्टाचार विरोधी आंदोलन की तरह ही यह जनांदोलन भी शुरू से ही अपना लक्ष्य भटक-सा गया है। अन्ना ने अपने आंदोलन का आधार जन लोकपाल को बना लिया, मानो जन लोकपाल के बनते ही देश में हर व्यक्ति साधु हो जाएगा, पैसे की ताक़त ख़त्म हो जाएगी और उपभोक्तावाद की मौत हो जाएगी। दिल्ली में हुए गैंगरेप पर हो रही पूरी बहस भी केवल अपराधी के लिए फांसी और कानून-व्यवस्था के मसले के रूप में सीमित हो गई है।

बलात्कार कानून-व्यवस्था का मसला कम और सामाजिक व्यवस्था का ज़्यादा है। बलात्कारियों को फांसी देना या लिंगच्छेदन कर देना या रासायनिक बधियाकरण कर देना जैसी सज़ाओं पर ज़रूर विचार होना चाहिए। लेकिन पिछले केवल हफ्ते भर में जिस तरह तीन साल, पांच साल की बच्चियों के साथ बलात्कार की घटनाएं सामने आई हैं, उसमें दोषी को सज़ा देने से ज़्यादा बड़ा सवाल मुझे यह लगता है कि इस आक्रोश के बीच भी ऐसे मामले क्यों सामने आ रहे हैं? दोषी को सज़ा देने का मूल मक़सद भी यही है कि किसी और को उस शारीरिक और मानसिक प्रताड़ना से न गुज़रना पड़े, जो बलात्कार के बाद ज़िंदगी भर की सौगात होती है।

रेप, एब्यूज़ एंड इनसेस्ट नेशनल नेटवर्क (रेनन) के आंकड़े बताते हैं कि देश में होने वाले बलात्कार के कुल मामलों में से 66 फीसदी के आरोपी किसी न किसी रूप में पीड़ित के जानने वाले होते हैं और 38 फीसदी तो सीधे दोस्त या परिवार से जुड़ा कोई शख़्स होता है। तो आप पुलिसिया व्यवस्था को चुस्त कर कितने बलात्कार रोक लेंगे।

दूसरी बात, बलात्कार अनियंत्रित यौन इच्छा का चरम प्रकटीकरण है। तो क्या हमें उन कारकों के बारे में नहीं सोचना चाहिए, जहां से इस तरह की इच्छाओं को उठने से ही रोका जा सके। डब्ल्यूएचओ की रिपोर्ट बताती है कि जिन देशों में शराब की कीमतें बढ़ाई गईं, वहां महिलाओं के खिलाफ़ अपराध में कमी आई है। इस बारे में कोई ठोस आंकड़ा नहीं है, लेकिन यह देखना महत्वपूर्ण होगा कि 100 में से जिन 66 महिलाओं के साथ उनके किसी-न-किसी परिचित ने यौन उत्पीड़न किया, उनमें से कितनों ने शराब पी रखी थी या फिर शराब पीन के आदी थे। घर-घर में कंडोम के उत्तेजक विज्ञापन, फिल्मों में बढ़ती अश्लीलता- क्या इन सबका ऐसी घटनाओं में कोई योगदान नहीं है? इन पर भी चर्चा होनी चाहिए।

कानून-व्यवस्था का मसला निश्चित तौर पर महत्वपूर्ण है क्योंकि रेनन के मुताबिक बलात्कार के आरोप में पकड़े गए आरोपियों में से 97 फीसदी 24 घंटे के भीतर जेल से बाहर आ जाते हैं। इस आंकड़े के साथ ही उस स्टडी के निष्कर्षों को भी जोड़ कर देखा जाना चाहिए जो तिहाड़ जेल में बंद बलात्कार के आरोपियों/दोषियों के बीच किया गया। ऐसा हर क़ैदी पुलिस के हत्थे चढ़ने से पहले कम से कम चार बार किसी-न-किसी का यौन उत्पीड़न कर चुका था। साफ है कि अगर हमारी पुलिस संवेदनशील हो जाए और कानून के छेद बंद हो जाएं तो हर बलात्कारी की शिकार बनी कम से कम तीन लड़कियां बचाई जा सकती थीं। यानी सिर्फ दिल्ली में इस साल अब तक जिन 600 महिलाओं को इस वेदना से गुज़रना पड़ा है, उनमें से 450 को बचाया जा सकता था।

लेकिन एक बार फिर पुलिस के साथ समाज का रवैया कटघरे में है। आंकड़े बताते हैं कि बलात्कार के 54 फीसदी मामले तो पुलिस के पास जाते ही नहीं। ऐसा कुछ तो पुलिस की उदासीनता और कई मामलों में अपराधी के साथ मिलीभगत के कारण होता है और बहुत से मामलों में मां-बाप लड़की के भविष्य की चिंता करते हुए मामला दबा देना उचित समझते हैं। बलात्कार पीड़ितों के प्रति समाज का रवैया हमेशा से दोमुंहा रहा है। कई ऐसे मामले सामने आए हैं जब बलात्कार का शिकार हुई लड़की के परिवार को गांव या शहर तक छोड़ना पड़ गया है। तो हम कानून को जितना भी सशक्त कर लें, जब तक हमारा ख़ुद का रवैया नहीं बदलेगा, कोई फायदा नहीं होगा। इसको ऐसे समझें कि मान लें कि दिल्ली गैंगरेप के छहों आरोपियों को कल फांसी दे दी जाए। लेकिन जो लड़की इनकी दरिंदगी का शिकार हुई है, अगर उसे समाज जीने का अधिकार न दे, सम्मान न दे, एक सामान्य जीवन जीने का मौक़ा न दे- तो क्या फायदा इन छह को फांसी देने का। आख़िर तो हम इस लड़की की पूरी ज़िंदगी को उन दरिंदों के साए से नहीं उबरने देंगे न !

काटजू जैसे बहुत से लोग जिन्हें लग रहा है कि उनकी बहन, बेटी और बीवी घर की चहारदिवारियों में पूरी तरह सुरक्षित है, स्यापा कर रहे हैं कि मीडिया बेवजह इसे इतना ज़्यादा तूल दे रहा है। लेकिन इन बुद्धिजीवियों को यह समझ में नहीं आता कि यह आक्रोश एक दिन में पैदा हुआ आक्रोश नहीं है। और न ही ऐसा है कि ये आंदोलन समस्या के अंतिम समाधान का ब्रह्रास्त्र हैं। लेकिन जनांदोलनों का इतिहास और उनका मनोविज्ञान यही बताता है कि ऐसे आंदोलन लक्ष्य प्राप्ति की महत्वपूर्ण कड़ियां होती हैं। ऐसे कई जनांदोलनों से ही समाज अपना लक्ष्य प्राप्त कर सकता है और ऐसे स्वतःस्फूर्त आंदोलन ही समाज के ज़िंदा होने का सबूत हैं।





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