असम में बोडो और बंगलादेशी घुसपैठियों के बीच दंगों में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 50 लोगों की मौत हो चुकी है। एक लाख से ज्यादा लोग बेघर होकर राहत शिविरों में पहुंच चुके हैं। मरने वालों में कोई गर्भवती महिला भी है और बेआसरा होने वालों में 1 दिन का एक शिशु भी है। लेकिन सिर पर हाथ रखकर अफसोस करना और मानवता के बुरे दिन के लिए नेताओं को कोसने का मेरा मूड नहीं है। दंगों में गर्भवतियों के पेट फाड़ने और 1 दिन के बच्चों को भालों पर टांगने की कहानियां चंगेज खान के दिल्ली हमले के समय से ही हम सुनते आ रहे हैं।
इसलिए इन्हें एक भीषण सच्चाई के तौर पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस सच्चाई के सामने घुटने भी टेक दिए जाने चाहिए? मैं अपने हर लेख में यही लिखता आया हूं कि दंगों, हत्याओं, बलात्कारों पर छाती पीटने की आदत छोड़ कर हमें उसकी जड़ों को खोदना होगा, केवल तभी हम इस सच्चाई को अपने दरवाजे से बाहर रख पाएंगे। नहीं तो पिछले हजार सालों से जैसे हम इन्हें मानवता के नाम पर कलंक कहकर छाती पीटते आए हैं, वैसे ही अगले दस हजार सालों तक और छाती पीटते रहेंगे।
पता नहीं अपने देश में कितने लोगों को ये पता होगा कि असम में आज का जनसंख्या संतुलन पूरी तरह बिगड़ चुका है। राज्य के 3,000 गांव ऐसे हैं, जहां की जनसंख्या में एक भी भारतीय नहीं है। छह जिले ऐसे हैं कि जहां मुसलमानों की संख्या 75 फीसदी से ज्यादा हो चुकी है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें अधिसंख्य बंगलादेशी घुसपैठी हैं। अभी हाल ही में एक बंगलादेशी घुसपैठी के बाकायदा विधायकी का चुनाव लड़ चुकने का एक मामला सामने भी आया था। उस पर तुर्रा यह कि असम सरकार के मुताबिक फिलहाल जारी दंगे बंगलादेशी मुसलमानों के जातीय सफाए की साजिश है।
राज्य के तमाम पुलिस प्रमुख, राज्यपाल, न्यायाधीश वर्षों से केन्द्र सरकार को आगाह कर रहे हैं कि क्षेत्र की हालत खराब होती जा रही है। बंगलादेशी घुसपैठियों ने कई जिलों की अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है। कई गांवों में भारतीय हिंदू और मुसलमान, बंगलादेशियों की दहशत झेल रहे हैं। यही बंगलादेशी हूजी जैसे आईएसआई समर्थक आतंकवादी संघठनों के लिए तमाम स्थानीय मदद जुटाने का काम करते हैं। इसके बावजूद राज्य की कांग्रेसी सरकारों का अब तक का रवैया हमेशा से उन्हें हर संभव सहायता और समर्थन देने का ही रहा है। बगल में पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस तरह बंगलादेशियों को मतदाता सूची में नाम शामिल करवाने और राशन कार्ड दिलाने में मदद की है, वह भी अब कोई गुप्त जानकारी नहीं रह गई है।
इन सबके बाद रही-सही कसर पूरी करने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक अमर सिंह छाप नेताओं और मुशीरुल हसन छाप बुद्धिजीवियों की इस देश में कोई कमी नहीं है। ऐसे में अगर ये बंगलादेशी घुसपैठी हमारे-आपके घर में घुस कर हमें न मारें, तो यही कम है। बोडो और बंगलादेशियों की यह लड़ाई तो अभी एक झांकी भर है। आने वाले वर्षों में यह संघर्ष देश की हर गली में होगा। तो छाती पीटना छोड़िए और तैयारी कीजिए की आपकी गर्भवती बहन, भाभी या बीवी का पेट न फाड़ा जाए और आपके 1 दिन के बच्चे को भाले पर न नचाया जाए।
संघ के सरसंघचालक डॉ. मोहन भागवत का व्याख्यान- प्रथम दिवस
3 हफ़्ते पहले