शुक्रवार, 31 अक्टूबर 2008

यह कमजोर याददाश्त है या छिछली समझदारी?

राहुल गांधी यूं तो 545 सांसदों में से महज एक सांसद हैं, लेकिन देश की मीडिया और यहां का प्रशासन उन्हें भावी प्रधानमंत्री के तौर पर ही देखता है। मैं भी अपवाद नहीं हूं। राहुल बाबा जब कुछ बोलते हैं या करते हैं, तो मुझे तो यही लगता है कि एक ट्रेनी प्रधानमंत्री अपनी रिपोर्ट कार्ड तैयार कर रहा है। इसलिए जब उन्होंने हाल ही में यह कहा कि उन्हें 17 साल से अपने पिता की हत्या का न्याय नहीं मिला है, तो मुझे हंसी भी आई और अफसोस भी हुआ। हंसी इसलिए आई कि एक बेटे को यही नहीं पता कि उसकी मां और बहन क्या कर रहे हैं और कह रहे हैं और अफसोस इसलिए हुआ कि ऐसे छिछले और बचकाने व्यक्तित्व को आज नहीं तो कल हमें अपने प्रधानमंत्री के रूप में देखना पड़ेगा।

राहुल से किसी स्कूली छात्रा (या शायद छात्र) ने अफजल को फांसी नहीं दिए जाने का कारण पूछा था। उस छात्रा ने भी राहुल से यह सवाल शायद इसीलिए पूछा क्योंकि उनमें उसे अपना भावी प्रधानमंत्री दिख रहा था। लेकिन राहुल बाबा को अपनी पहचान राजीव गांधी के पुत्र के तौर पर ज्यादा आकर्षक लगती है। सो उन्होंने कहा कि उन्हें उनके पिता की हत्या का न्यान 17साल में नहीं मिला। मैं तब से समझने की कोशिश कर रहा हूं कि राहुल ने किस न्याय की बात की है?

राहुल के पिता की हत्या श्रीलंका के आतंकवादी संगठन लिट्टे ने की। कानूनी तौर पर बात करें, तो तफ्तीश हुई और एक अभियुक्त नलिनि को इस हत्या के षडयंत्र में शामिल होने के लिए फांसी की सजा दी गई। उस समय इन्हीं राहुल जी की मां ने उसके लिए क्षमादान की अपील कर अपनी महानता की मुहर लगाई थी। इसके बाद बहुत दिन नहीं हुए जब उनकी बहन प्रियंका मीडिया से छिप कर नलिनि से मिलने गईं। बाद में इंडियन एक्सप्रेस में इसका खुलासा होने के बाद उन्होंने इसे मानवीय आधार पर की गई मुलाकात बताया। मां-बेटी ने नलिनि को मानवीय आधार पर सजा की अवधि पूरी होने से पहले रिहा करने की भी सार्वजनिक अपीलें कीं। और अब बेटा कह रहा है कि उसे न्याय नहीं मिला।

अब बात करें राजनीतिक पहलू की। राजीव गांधी के हत्यारे प्रभाकरन और उसके संगठन लिट्टे के प्रति द्रमुक एवं उसके नेता एम करुणानिधि की सहानुभूति और समर्थन कोई गुप्त तथ्य नहीं है। लेकिन केन्द्र सरकार बनाने के लिए राहुल गांधी की मां सोनिया गांधी ने इसी द्रमुक का समर्थन लिया और आज भी यह यूपीए सरकार का घटक दल है। इतना ही नहीं, इन्हीं करुणानिधि के दबाव में सोनिया गांधी की सरकार ने दूसरे देश के आंतरिक मामलों में दखल न देने की भारत की दशकों की विदेश नीति को धता बता दिया है। और इससे बड़ी विडंबना और क्या होगी कि विदेश नीति में यह ऐतिहासिक विसंगति भी देशहित में नहीं, बल्कि राजीव गांधी के हत्यारे लिट्टे को बचाने के लिए की गई है। श्रीलंका सरकार पर शीर्ष स्तर से यह दबाव बनाया जा रहा है कि वह लिट्टे के खिलाफ जारी अपनी निर्णायक लड़ाई में ढील दे दे। और फिर राहुल बाबा कह रहे हैं कि उन्हें अपने पिता की हत्या का न्यान नहीं मिला।

बेहतर होता कि एक स्कूली छात्रा के सामने पिता की हत्या पर न्याय न मिलने का रोना रोने की जगह अपनी मां के सामने इस बात की दुहाई देते। और इससे बेहतर होता अगर व्यक्तिगत मुद्दे छेड़ने के बजाय उस छात्रा के साथ ही पूरे देश को वह अफजल की फांसी पर उठ रहे सवाल का जवाब भी दे देते।

मंगलवार, 28 अक्टूबर 2008

मराठा गृहमंत्री की इस मर्दानगी पर लाखों राहुल राज न्योछावर

महाराष्ट्र के कांग्रेसी नेता शिवराज पाटिल जैसे रीढ़विहीन गृहमंत्री को पांच साल से झेलते-झेलते हम भूल गए हैं कि यह एक ऐसा मंत्रालय है, जिसके ऊपर देश की आंतिरक सुरक्षा की जिम्मेदारी होती है और इसलिए इसकी अगुवाई करने वाला नेता ऐसा होना चाहिए जो राज्य के प्रति अपराध करने वालों के लिए अपने-आप में एक सख्त संदेश हो। ऐसी विस्मृति के दौर में ही आज जब एकाएक एक और मराठा गृहमंत्री आर आर पाटिल का संदेश सुना तो नसों में रोमांच दौड़ गया। महाराष्ट्र राज्य के मराठा गृहमंत्री आर आर पाटिल ने कहा है कि जो भी कानून के साथ खिलवाड़ करने की कोशिश करेगा और लोगों को डराएगा, उसे गोली से जवाब दिया जाएगा। छोटे पाटिल साहब ने ये वीरतापूर्ण उद्गार व्यक्त किए वीर मराठा पुलिस की उस मुठभेड़ को जायज ठहराने के लिए, जिसमें बिहार के एक बेरोजगार युवक को इसलिए गोली मार दी गई थी, क्योंकि वह एक बस को 'हाईजैक' कर रिवॉल्वर लहराते हुए मुंबई के कमिश्नर से बातचीत करने की जिद कर रहा था।

एक बिहारी होने के नाते, पिछले कुछ महीनों से मुंबई और महाराष्ट्र में बिहारियों और उत्तर भारतीयों के खिलाफ जो कुछ हो रहा है, उस पर मेरा मन भी आक्रोश से भरा है। वोट की राजनीति के धुन में पागल एक राज ठाकरे ने दोनों राज्यों के करोड़ों लोगों के बीच जिस तरह का अविश्वास और जैसी तल्खी पैदा की है, उससे एक बिहारी को ही नहीं, हर भारतवासी को क्षुब्ध होना चाहिए। लेकिन छोटे पाटिल साहब इससे क्षुब्ध नहीं हुए। राज ठाकरे के गुंडे भारत के अन्य प्रांतों के नागरिकों को सड़कों पर दौड़ाते रहे, उत्तर भारतीय टैक्सी चालकों की टैक्सियों के शीशे तोड़ते रहे, बिहारियों, राजस्थानियों की दुकानें जलाते रहे, उत्तर प्रदेश और मध्य प्रदेश के गरीब, दिहाड़ी मजदूरों को सरेआम पीटते रहे, लेकिन उससे न तो कानून का उल्लंघन हुआ और न ही कोई भयभीत हुआ। क्योंकि अगर इन दोनों में से कुछ भी हुआ होता, तो पौरुष से लबरेज छोटे पाटिल साहब ने इन तमाम गुंडागर्दियों की जड़ में राजनीति सेंक रहे देशद्रोही राज ठाकरे को भी गोलियों से जवाब दिया होता, जैसा कि उन्होंने 'बिहारी माफिया राहुल राज' (आर आर पाटिल कम से कम इस विशेषण के लिए जरूर बाल ठाकरे से सहमत होंगे) को दिया।

राहुल राज पटना के एक प्रतिष्ठित प्रोफेसर का बेटा था, जो कि परसों नौकरी की तलाश में मुंबई पहुंचा था। उसने उस कृत्य को अंजाम देने की कोशिश की, जो आज हर देशभक्त आपसी बातचीत में अनौपचारिक तौर पर एक-दूसरे से कह रहा है, 'राज ठाकरे जैसे पागलों को तो सड़क पर खड़ा कर गोली मार देना चाहिए।' लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं कि आपसी बातचीत में जिस तरह आप अपना आक्रोश निकालते हैं, उसे आप हकीकत में भी अंजाम देने लगें। राहुल राज ने जो किया, उसके बाद वह न केवल कानून का बल्कि समाज का भी अपराधी हो गया था। बहस इस बात पर है भी नहीं कि वह अपराधी था कि नहीं। बहस इस बात पर है कि क्या वह दर्जे का अपराधी या आतंकवादी था, जिसे गोली मार देनी चाहिए थी। पूरी बस में एक आदमी, हाथ में एक रिवॉल्वर, किसी यात्री को नुकसान न पहुंचाने की उसकी चीखें, कमिश्नर से बातचीत करने के लिए मोबाइल की मांग क्या ऐसी परिस्थितियों का निर्माण करती हैं, कि उसे सीधे सिर में और पेट में शूट कर दिया जाना चाहिए था।

और इन सबसे बढ़कर एक सवाल यह है कि नौकरी की तलाश में आया एक मध्यवर्गीय युवक अगर किसी ऐसे गुंडे को मारने के लिए हथियार उठा रहा है, जो न तो किसी विचारधारा के तौर पर और न ही किसी व्यक्तिगत तौर पर उसका दुश्मन है, तो इसका जिम्मेदार कौन है? वह क्या उसकी उस कुंठा का चरम नहीं है, जो सरकार की अकर्मण्यता और समाज की राजनीतिक चुप्पी से पैदा हुई है? क्या एक राहुल राज को माफिया करार देकर गोली मार देने से मध्यवर्गीय युवाओं के उस विद्रोह और कुंठा को भी जवाब मिल पाएगा, जो कि न जाने कितने लाख दिलों में धधक रही है?

मंगलवार, 7 अक्टूबर 2008

ये तो अभी झांकी है...

असम में बोडो और बंगलादेशी घुसपैठियों के बीच दंगों में सरकारी आंकड़ों के मुताबिक 50 लोगों की मौत हो चुकी है। एक लाख से ज्यादा लोग बेघर होकर राहत शिविरों में पहुंच चुके हैं। मरने वालों में कोई गर्भवती महिला भी है और बेआसरा होने वालों में 1 दिन का एक शिशु भी है। लेकिन सिर पर हाथ रखकर अफसोस करना और मानवता के बुरे दिन के लिए नेताओं को कोसने का मेरा मूड नहीं है। दंगों में गर्भवतियों के पेट फाड़ने और 1 दिन के बच्चों को भालों पर टांगने की कहानियां चंगेज खान के दिल्ली हमले के समय से ही हम सुनते आ रहे हैं।

इसलिए इन्हें एक भीषण सच्चाई के तौर पर स्वीकार कर लिया जाना चाहिए। सवाल यह है कि क्या इस सच्चाई के सामने घुटने भी टेक दिए जाने चाहिए? मैं अपने हर लेख में यही लिखता आया हूं कि दंगों, हत्याओं, बलात्कारों पर छाती पीटने की आदत छोड़ कर हमें उसकी जड़ों को खोदना होगा, केवल तभी हम इस सच्चाई को अपने दरवाजे से बाहर रख पाएंगे। नहीं तो पिछले हजार सालों से जैसे हम इन्हें मानवता के नाम पर कलंक कहकर छाती पीटते आए हैं, वैसे ही अगले दस हजार सालों तक और छाती पीटते रहेंगे।

पता नहीं अपने देश में कितने लोगों को ये पता होगा कि असम में आज का जनसंख्या संतुलन पूरी तरह बिगड़ चुका है। राज्य के 3,000 गांव ऐसे हैं, जहां की जनसंख्या में एक भी भारतीय नहीं है। छह जिले ऐसे हैं कि जहां मुसलमानों की संख्या 75 फीसदी से ज्यादा हो चुकी है। कहने की जरूरत नहीं है कि इसमें अधिसंख्य बंगलादेशी घुसपैठी हैं। अभी हाल ही में एक बंगलादेशी घुसपैठी के बाकायदा विधायकी का चुनाव लड़ चुकने का एक मामला सामने भी आया था। उस पर तुर्रा यह कि असम सरकार के मुताबिक फिलहाल जारी दंगे बंगलादेशी मुसलमानों के जातीय सफाए की साजिश है।

राज्य के तमाम पुलिस प्रमुख, राज्यपाल, न्यायाधीश वर्षों से केन्द्र सरकार को आगाह कर रहे हैं कि क्षेत्र की हालत खराब होती जा रही है। बंगलादेशी घुसपैठियों ने कई जिलों की अर्थव्यवस्था पर पूरी तरह कब्जा कर लिया है। कई गांवों में भारतीय हिंदू और मुसलमान, बंगलादेशियों की दहशत झेल रहे हैं। यही बंगलादेशी हूजी जैसे आईएसआई समर्थक आतंकवादी संघठनों के लिए तमाम स्थानीय मदद जुटाने का काम करते हैं। इसके बावजूद राज्य की कांग्रेसी सरकारों का अब तक का रवैया हमेशा से उन्हें हर संभव सहायता और समर्थन देने का ही रहा है। बगल में पश्चिम बंगाल की सरकार ने जिस तरह बंगलादेशियों को मतदाता सूची में नाम शामिल करवाने और राशन कार्ड दिलाने में मदद की है, वह भी अब कोई गुप्त जानकारी नहीं रह गई है।

इन सबके बाद रही-सही कसर पूरी करने के लिए कश्मीर से कन्याकुमारी तक अमर सिंह छाप नेताओं और मुशीरुल हसन छाप बुद्धिजीवियों की इस देश में कोई कमी नहीं है। ऐसे में अगर ये बंगलादेशी घुसपैठी हमारे-आपके घर में घुस कर हमें न मारें, तो यही कम है। बोडो और बंगलादेशियों की यह लड़ाई तो अभी एक झांकी भर है। आने वाले वर्षों में यह संघर्ष देश की हर गली में होगा। तो छाती पीटना छोड़िए और तैयारी कीजिए की आपकी गर्भवती बहन, भाभी या बीवी का पेट न फाड़ा जाए और आपके 1 दिन के बच्चे को भाले पर न नचाया जाए।

शनिवार, 27 सितंबर 2008

मैं आभारी हूं मुशीरुल, अर्जुन, लालू और मुलायम का

फिर दिल्ली में एक बम फटा है। गिनती मायने नहीं रखती। और सच पूछिए तो अब राहत देती है। दो शनिवार पहले जब बम फटे तो राहत हुई कि चलो केवल पांच ही जगह फटे, 20 जगहों की तैयारी थी। यानी 15 जगहों पर तो बचे। आज फटा तो लगा कि एक ही फटा। फॉर ए चेंज। अब तो आदत हो गई है, सीरियल धमाकों की। देश की सरकार के काबिल मंत्री व्यवहारिकता का पाठ पढ़ाते हुए जब कहते हैं कि 100 करोड़ लोगों के पीछे पुलिस की सुरक्षा तो नहीं जा सकती। उसके बाद तो सड़े कुत्ते के चमकते दांत देखने वाले आशावादी लोग भी यह उम्मीद करने की बेवकूफी नहीं कर सकते कि अब और धमाके नहीं होंगे। तो फिर कुल मिलाकर राहत की दो ही बातें बचती हैं। पहला, अपना तो कोई नहीं मरा। दूसरा, अच्छा चलो एक ही जगह फटा, केवल पांच मरे। जब तक हमारा कोई नहीं मरा, तब तक मरने वाले केवल एक संख्या ही तो होते हैं।

खैर, ये हमारी नियति है। हमारी व्यक्तिगत नहीं, सामाजिक नहीं बल्कि राष्ट्रीय नियति। हमारी नियति हैं सोनिया गांधी और उनके प्रिय पालतू चारण। मान लो सोनिया गांधी नहीं होतीं, तो? मान लो, 2009 में हमारा नेतृत्व बदल जाए, तो? नियति नहीं बदलेगी। नेतृत्व उस पूर्व गृहमंत्री का होगा, जिन्हें यह कहने में शर्म नहीं आती कि तीन आतंकवादियों को छोड़ने के फैसले का उन्हें ज्ञान नहीं था, वह भी तब जब वह उस समय गृहमंत्री, सरकार के दूसरे सबसे बड़े और अपनी पार्टी के सबसे ताकतवर नेता थे। अगर उनमें इतना नैतिक साहस होता कि वह देश के सामने अपनी नपुंसकता स्वीकार कर माफी मांगते, तो फिर कुछ उम्मीद जग सकती थी, लेकिन....।

इसीलिए मैंने कहा कि यही हमारी राष्ट्रीय नियति है। नेतृत्व बदल जाए तो भी नियति नहीं बदलेगी। यह विक्रमादित्य का सिंहासन है। जो बैठेगा, वहीं सत्ता की भाषा बोलेगा। तो फिर क्या सब खत्म हो गया है? क्या एक राष्ट्र के नाते हम आखिरी सांसें गिन रहे हैं? शायद। लेकिन उम्मीद की एक आखिरी किरण बची है। और वह है, जनता, आम लोग। नियति नेतृत्व के बदलने से नहीं, जनता के बदलने से बदलेगी। मैं शुक्रगुजार हूं, मुशीरुल हसन का, अर्जुन सिंह का, लालू प्रसाद का, मुलायम यादव का। यही वो हैं, जो मुझे उम्मीद की किरण दिखा रहे हैं।

सोनिया और आडवाणी के देशभक्ति के नारे मुझे डराते हैं, क्योंकि इनमें भुलावे का खतरा है। लेकिन मुशीरुल, अर्जुन, लालू और मुलायम इस देश की मदहोश, बेहोश जनता की छाती पर चढ़कर उसकी आंखों में उंगली डाल कर दिखा रहे हैं कि देखो, हमने तुम्हारे भारत को तबाह करने की शपथ उठा ली है, अगर तुममें थोड़ी भी गैरत बाकी है, अगर तुममें अपनी मिट्टी, अपनी संस्कृति और अपने पूर्वजों के प्रति थोड़ा भी सम्मान बाकी है, तो जाग जाओ।

मुशीरुल हसन मानते हैं कि जामिया के आरोपी आतंकवादियों के लिए चंदा जुटाना उनका शिक्षक धर्म है। अशोक वाजपेयी को एनडीटीवी पर मैंने उनका समर्थन करते हुए सुना। तर्क है कि जब तक आरोप साबित नहीं हुआ, वे बच्चे निर्दोष हैं। इसलिए यह कुलपति महोदय का पैतृक कर्तव्य है कि उन्हें कानूनी मदद दी जाए। और इसके लिए मुशीरुल साहब ने पूरी जामिया के छात्रों को चंदा इकट्ठा करने को कहा है। इस तर्क से तो किसी भी कॉलेज या विश्वविद्यालय के हर उस छात्र को कानूनी मदद देना यूनिवर्सिटी का दायित्व है, जिस पर कोई भी आपराधिक मुकदमा चल रहा हो। जेएनयू के किसी चिनॉय महाशय का कहना था, कि हॉस्टल में रहने वाला हर छात्र कॉलेज प्रशासन का बच्चा है। तो फिर हॉस्टल में होने वाले हर अपराध और मिलने वाले हर हथियार के लिए सीध प्रिंसिपल या कुलपति की हड्डी क्यों नहीं तोड़ देनी चाहिए। मुशीरुल साहब गृह युद्ध की तैयारी करा रहे हैं। आतंकवाद के आरोप में पकड़े गए लड़कों को उन्होंने पूरे कौम के पीड़ित अबोध बच्चों का तमगा दिया है। अर्जुन सिंह का मुशीरुल को समर्थन करना आश्चर्यजनक नहीं है। जिस तरह मुशीरुल ने प्रेस कॉन्फ्रेंस बुला कर अपने इरादे की घोषणा की, साफ है कि उन्हें मानव संसाधन मंत्री से हरी झंडी पहले ही मिल चुकी थी। लालू जी और मुलायम जी को सिमी भी ऐसे ही अबोध बच्चों की टीम लगती है, जो क्रिकेट या फुटबॉल खेलने के लिए बनी है।

जिन बातों को समझाने के लिए पहले किताबों से खोज कर उदाहरण लाने पड़ते थे, प्रखर वक्तृत्व क्षमता की जरूरत होती थी, वो अब एक अनपढ़, अनगढ़ भारत वासी को भी अपने-आप समझ में आने लगी है। इसलिए बस यही मेरी उम्मीद हैं। शाबास मुशीरुल, शाबास अर्जुन, शाबास लालू, शाबास मुलायम। शायद भारत मां के सीने में सुराख करने की आपकी कोशिशें ही इस देश की जनशक्ति की कुंभकरनी नींद को तोड़ सकें और शायद इन्हीं के कारण हमारी नियति बदल सके।

बुधवार, 27 अगस्त 2008

'इस चैनल को तो बंद करा देना चाहिए'

लगता है जैसे किसी स्टिंग ऑपरेशन से त्रस्त एक भ्रष्ट नेता प्रेस की आजादी के खिलाफ अपनी भड़ास निकाल रहा है। जब भी ऐसा होता है, तो विश्वास मानिए कि हर पत्रकार को काफी खुशी होती है। लगता है पत्रकारिता जिंदा है। लगता है कि भ्रष्टों के बीच कलम का खौफ कायम है। लेकिन जब एक वरिष्ठ और संवेदनशील पत्रकार ही किसी न्यूज चैनल के बारे में दुख और क्षोभ के साथ ऐसी टिप्पणी करे, तो फिर लगता है कि पत्रकारिता को अपने गिरेबान में झांक कर देखने की जरूरत आ गई है। कल का दिन ओलंपिक में भारतीय तिरंगे को सम्मान दिला कर लौटे जांबाजों के स्वागत का दिन था। करोड़ों देशवासियों के लिए उनके प्रति कृतज्ञता जताने का दिन था कि हमारे द्वारा चुने गए पतित नेताओं के भ्रष्टाचार की दलदल में कमर के नीचे तक धंसे होने के बावजूद अपनी अप्रतिम प्रतिभा और कौशल से तीन धुरंधरों ने देश को ओलंपिक का सर्वश्रेष्ठ प्रदर्शन दिया। दिन में इन विजेताओं ने देश के शीर्ष नेतृत्व से मुलाकात की, एक पांच सितारा होटल में प्रेस से रूबरू हुए। मन में एक गौरवपूर्ण अहसास लिए दिन खत्म करने की उनकी उम्मीद कायम न रह सकी, कम से कम तीनों मुक्केबाजों, विजेन्दर, अखिल और जितेन्द्र के बारे में तो यह कहा ही जा सकता है।

उनकी किस्मत खराब थी कि रात को वो पहुंच गए इंडिया टीवी के स्टूडियो। करीब 11 बजे रात को चल रहा था लाइव। अब या तो बेचारों को ताजा टीवी संस्कृति की जानकारी नहीं है, या फिर उन्हें यह भी नहीं पता था कि इंडिया टीवी ने महीनों पहले न्यूज चैनल के चोले के अंदर सी ग्रेड मनोरंजन चैनल के टोटके भर लिए हैं। एक एंकर (उसके साथ मेरी सहानुभूति है क्योंकि मुझे पता है कि उसने जो भी किया, उसके पीछे केवल चैनल के नीति निर्धारकों का दबाव होगा और सहानुभूति इसलिए कि पत्रकारिता करने आया कोई भी व्यक्ति लंगूरों और भालुओं की तरह स्क्रीन पर नाचना पसंद नहीं करता) बॉक्सिंग ग्लब्स पहन कर बैठी थी और उन तीनों मुक्केबाजों को खुद से लड़ने के लिए ललकार रही थी। बेचारे हरियाणे के खिलाड़ी गिड़गिड़ा रहे थे कि जी, वो... हम तो रिंग में ही लड़ पाते हैं। जी, हमें तो माफ ही कर दो। फिर अंत में उनमें से एक बेचारा लड़ने को तैयार हुआ और इंडिया टीवी को अपना प्रिय टीआरपी तमाशा मिल गया। एक मुक्केबाज को ऐसा कच्छा पहनाया गया था, कि जिन अंगों को तमाम साहित्यों में गुप्त कह कर पुकारा गया है, वो प्रकट होने का आभास दिला रहे थे।

टीआरपी के इस नंगे खेल में किसी भी संवेदनशील व्यक्ति का फट पड़ना स्वाभाविक है। तो इस लेख के शीर्षक के तौर पर जिस बयान का मैंने जिक्र किया, वह आश्चर्यजनक नहीं लगता। लेकिन इसकी गंभीरता तब और बढ़ जाती है जब एक गुजराती और एक हिंदी अखबार शुरू करने वाले अनुभवी और देश के सबसे प्रतिष्ठित आर्थिक अखबार में वरिष्ठ संपादक के पद पर मौजूद मेरे एक वरिष्ठ सहयोगी जैसे पत्रकार ऐसी टिप्पणी करने पर मजबूर हो जाएं। दरअसल यह पूरा खेल जब इंडिया टीवी पर चल रहा था, उस समय मैं अपने अखबार के पन्ने छोड़ने में व्यस्त था। लेकिन उसी बीच उनका फोन आया और बातचीत में उनका दुख और क्षोभ भी बाहर आ गया। मीडिया के गिरते स्तर पर चर्चा नई नहीं है, लेकिन मेरे मन में कल रात से यही सवाल आ रहा है कि जब ऐसे वरिष्ठ और अनुभवी पत्रकार भी इंडिया टीवी छाप पत्रकारिता से इस हद तक क्षुब्ध हों, तो एक आम आदमी के मन में पत्रकारिता (क्योंकि आम आदमी पत्रकारिता को चैनल या अखबार के नजरिए से नहीं देखता, उसके लिए तो हर पत्रकार पूरी पत्रकारिता का प्रतिनिधि है) की क्या प्रामाणिकता बच रही होगी।

शनिवार, 23 अगस्त 2008

'प्रमाण पत्र' का जुमला फेंकने की बजाय आइए मुद्दों की बात करें

जब भी आतंकवाद की बात होती है और जब भी उसके खिलाफ मुस्लिम समुदाय के सक्रिय सहयोग की बात होती है, इस समीकरण से असहज हुए एक तबके की ओर से छूटते ही एक बड़ा लोकप्रिय जुमला जड़ दिया जाता है- मुसलमानों को किसी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं है। कल मैंने लिखा था कि भारतीय मुसलमानों को कौम के घोषित ख़ैरख़्वाहों की देशविरोधी नीतियों के विरोध में आगे आना चाहिए। प्रसंगवश आरएसएस का भी जिक्र किया था, क्योंकि दुर्भाग्य से इस देश में राष्ट्रीय गौरव और अल्पसंख्यकवाद का विरोध करने वाले सभी लोगों को संघी ही करार दिया जाता है। मुझे चार टिप्पणियां मिलीं उनमें तीन का स्वर यही था कि मुसलमानों को संघ या बीजेपी से देशभक्ति का प्रमाणपत्र लेने की जरूरत नहीं हैं।

मैं आम तौर पर टिप्पणियों पर टिप्पणी करने के पक्ष में नहीं रहता, लेकिन मुझे लगता है कि 'प्रमाण पत्र की जरूरत नहीं है' के जुमले पर मुझे कुछ कहना चाहिए। मैं इस बात से पूरी तरह सहमत हूं कि आपको किसी से देशभक्ति का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है, लेकिन आपको अपने आसपास के लोगों और समाज के प्रति संवेदनशील तो रहना ही होगा। दरअसल यह बात समझने में उन लोगों को दिक्कत होती है जो अपने घर को साफ रखने के लिए कचरा सड़क पर फेंकने में यकीन रखते हैं। नहीं तो क्या आप खुद उस मुहल्ले में रहना पसंद करते हैं, जहां आपका पड़ोसी रोज शराब पीकर दंगे कर रहा हो, जहां आपकी बेटी और पत्नी खुद को सुरक्षित नहीं महसूस कर रही हों। वहां तो आप यह जुमला नहीं उछालते कि इस दारूबाज को किसी से अच्छा होने का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं है। वहां आप उसे मुहल्ले से निकालने के लिए सबसे पहले झंडा उठाते हैं, लेकिन जब यही घटना पड़ोस के मुहल्ले में होती है तो आप उस शराबी के मानवाधिकार का कानून पढ़ने लगते हैं।

पिछले 5 साल में हुए दसियों विस्फोट में पकड़े गए सभी आतंकवादी अगर एक ही कौम के हैं तो क्या इसके लिए दूसरे कौम दोषी हैं। हर दूसरे महीने बाजारों में, अस्पतालों में, रेलवे और बस स्टेशनों पर लोगों के चीथड़े उड़ रहे हैं और हमें कहा जा रहा है कि ऐसा करने वाले भटके हुए बच्चे हैं। हर प्राकृतिक आपदा में बिना मजहब देखे लोगों की दिन-रात सेवा करने वाले लोगों को साम्प्रदायिक होने का प्रमाण पत्र देने वाले लोग सिमी और हूजी का खुलकर समर्थन कर रहे हैं, लेकिन उनसे नहीं पूछा जाता कि उन्हें किसी को सेकुलरिस्ट, फासिस्ट, कम्युनलिस्ट आदि के सर्टिफिकेट बांटने का क्या अधिकार है।

बम विस्फोट के मामले में पकड़े गए हर संदिग्ध के घर वाले अपने बयान में यह जरूर कहते हैं कि उनके बच्चे को इसलिए परेशान किया जा रहा है कि वह मुसलमान है। मतलब किसी को केवल इसलिए नहीं छुआ जाए कि वह मुसलमान है। सुप्रीम कोर्ट को पागल घोषित करने वाले बुखारी की जामा मस्जिद में करीब साल भर पहले एक विस्फोट हुआ था। क्या हुआ उसकी जांच का? वहां गए दिल्ली पुलिस के अधिकारी को वहां से अपमानित कर, डरा कर भगा दिया गया था, जांच भी नहीं करने दी गई। और अब वही बुखारी कह रहा है कि बशीर का बलिदान कौम की भलाई करेगा। यानी सारे आतंकवादी मुसलमानों की भलाई में विस्फोट और हत्याएं कर रहे हैं। इसके बाद भी बुखारी मुसलमानों का सबसे बड़ा मजहबी नेता है। सिमी का समर्थन करने वाले लालू और मुलायम मुसलमानों के सबसे बड़े नेता हैं।

तो अनिल जी, तस्लीम जी और दिनेशराय जी मुझे बताएं कि प्रमाण पत्र का सवाल कहां उठता है। हमारे आसपास, अगल-बगल, आगे-पीछे जो हो रहा है, उसकी अनदेखी एक अंधा भी नहीं कर सकता। सब चीजें शीशे से भी ज्यादा साफ है। फिर भी अगर आप नहीं देख पा रहे, तो मतलब यही है कि आपने अपनी संवेदी इन्द्रियां कुंद कर ली हैं और आप देखना ही नहीं चाहते। आपको यह तो जरूर याद होगा कि विश्व हिंदू परिषद के एक नेता वेदांती ने करुणानिधि का सर काटने का फतवा दिया था और उसके साथ खड़ा होने के लिए एक आम हिंदू की तो बात छोड़िए, बीजेपी और संघ के लोग भी तैयार नहीं हुए। उस समय किसी ने यह सवाल नहीं उठाया कि वेदांती को किसी से सभ्य होने का प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं। यह हाल बुखारी या लालू या मुलायम का क्यों नहीं होता?

बेहतर होता कि अगर प्रमाण पत्र का जुमला फेंकने के बजाय उन मुद्दों पर बात की जाती जिनके कारण यह कहने की जरूरत पड़ रही है कि हमें आपसे प्रमाण पत्र लेने की जरूरत नहीं।

शुक्रवार, 22 अगस्त 2008

भारत का मुसलमान- राष्ट्रवादी या आतंकवादी ?

भारत में लगातार हो रही आतंकवादी घटनाएं, इनमें स्थानीय मुसलमानों की बढ़ती भूमिका, साथ ही साथ इस्लामी आतंकवाद के विरोध में मुखर होता मुसलमानों का एक तबका। इन तीनों घटनाओं के बीच एक आम भारतीय मुसलमान का खुद को आतंकवादी कहे और समझे जाने का दर्द। गड़बड़ कहां है? इसे समझे बिना नतीजे पर तो पहुंचा नहीं जा सकता। तो आइए समझने की कोशिश करते हैं।

वामपंथियों, सेकुलरों और मुसलमानों की नजर में भारत में इस्लाम का सबसे बड़ा दुश्मन राष्ट्रवाद। और राष्ट्रवाद का प्रतिनिधि संगठन राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस)। दूसरा पक्ष, सेकुलरों के सबसे बड़े प्रतिनिधि लालू यादव और मुलायम यादव और मुसलमानों का सबसे पड़ा पंथिक नेता अब्दुल्ला बुखारी। आरएसएस कहता है कि इस देश के 98 फीसदी मुसलमानों की मूल भूमि भारतवर्ष है इसलिए इन सभी की संस्कृति राम और कृष्ण की संस्कृति है। मक्का, मुहम्मद और कुरान मुसलमानों का धर्म हो सकते हैं, लेकिन उनकी संस्कृति आर्य संस्कृति है। इस ढांचे को समझने-समझाने के लिए वह इंडोनेशिया का उदाहरण देता है जो इस्लामिक देश है, लेकिन जहां का सबसे बड़ा सामाजिक आयोजन रामलीला होती है, जहां का राष्ट्रीय एयरलाइन 'गरुड़' है और जहां के मुसलमान का नाम मेगावती सुकर्णोपुत्री जैसा होता है। तो आरएसएस की
नजर में हिंदू राष्ट्रवाद और इस्लाम का आपस में कोई विरोध नहीं है। अपनी इसी सोच के कारण संघ ने राष्ट्रवादी मुसलमानों के संगठन की कोशिशें भी शुरू कर दी हैं और इसके लिए एक प्रचारक इंद्रेश को बाकायदा जिम्मेदारी भी सौंपी गई है।

और आइए अब देखते हैं कि दूसरे पक्ष के प्रतिनिधि लालू, मुलायम और बुखारी क्या कहते हैं? लालू और मुलायम घोषित और सिद्ध आतंकवादी संगठन सिमी पर प्रतिबंध का विरोध कर रहे हैं। और बुखारी? अहमदाबाद बम विस्फोट के मास्टर माइंड बशीर के पिता को सांत्वना देने गए बुखारी साहब कहते हैं कि बशीर के इस बलिदान से कौम की सलाहियत होगी। (इंडियन एक्सप्रेस, फ्रंट पेज, 22 अगस्त)। समझने की बात यही है और गड़बड़ भी यहीं है। लालू, मुलायम और बुखारी ने मुसलमान समाज के प्रति अपनी राय साफ कर दी है। उन्हें लगता है कि देश का हर मुसलमान या तो आतंकवादी है या आतंकवाद का समर्थक है, पाकिस्तान का हामी है।

दृश्य अब कुछ साफ लग रहा है। एक ओर राष्ट्रवाद और दूसरी ओर आतंकवाद। राष्ट्रवाद की धारा कह रही है कि मुसलमान राष्ट्रवादी है और उसे मिलकर आतंकवाद को कुचल देना चाहिए। आतंकवाद कह रहा है कि मुसलमान आतंकवादी है और उसे राष्ट्रवाद को मटियामेट कर देना चाहिए। गेंद मुसलमानों के पाले में है। चुनाव मुसलमान का है। अगर इस देश का मुसलमान बशीर को कौम का शहीद मानने वाले और सिमी पर प्रतिबंध से अनिद्रा के शिकार हुए राष्ट्रद्रोहियों के साथ खड़ा होगा, तो फिर खुद को संदेह की नजरों से देखे जाने का उसका दर्द ढकोसले से ज्यादा कुछ नहीं लगेगा।