सोमवार, 19 नवंबर 2007

ग़रीबी की बीमारी लाइलाज नहीं, लेकिन डॉक्टर की भूमिका हमें लेनी होगी


मेरे मित्र हैं हर्षवर्धन त्रिपाठी। बड़ा ही लोकप्रिय ब्लॉग चलाते हैं बतंगड़ और सच पूछें तो मुझे भी अपना ब्लॉग लिखने की प्रेरणा उन्हीं से मिली। उनके ब्लॉग पर एक लेख पढ़ा भारत में भूखों, ग़रीबों की विकराल होती समस्या पर। मन हुआ टिप्पणी लिखूं। लेकिन जब लिखने लगा तो वो लेख बना गया और इसलिए सोचा कि अपने ब्लॉग पर ही डाल दूं।
हर्ष का लेख है दुनिया के देशों में भूखे लोगों की दृष्टि से भारत की शर्मनाक स्थिति पर। मुझे इस बात से पूरा इत्तेफाक है कि ग़रीबी हमारा अभिशाप है और हमें इस पर शर्मिंदा होना चाहिए। लेकिन एक बार फिर मैं वहीं कहूंगा जो मैंने अपने परसों के लेख में कहा था। हम समस्याओं की जड़ में नहीं जाते। मुझे लगता है कि अगर ग़रीबी हमारे लिए एक राष्ट्रीय समस्या है, तो हमने अब तक इसपर सही नज़रिए से विचार ही नहीं किया है। ग़रीब या ग़रीबी कोई absolute term नहीं हैं। देश (अभी मैं ग्लोबल नहीं हो पाया हूं) के सभी ग़रीबों को एक बैनर के तले खड़ा नहीं किया जा सकता। गांव के किसानों की ग़रीबी और शहरी झुग्गियों में रहने वालों की ग़रीबी में अंतर है। आप दिल्ली की रेडलाइट्स (मेरा मतलब लाल बत्तियों से है) पर हर शनिवार को शनिदेव के नाम पर भीख मांगते किसी 'ग़रीब' को कोई काम ऑफर कर देखिए। आपको गालियां देते हुए वहां से चला जाएगा। मैं ये कत्तई नहीं कह रहा कि सभी ग़रीब इसीलिए ग़रीब हैं क्योंकि वे कामचोर हैं। लेकिन मैं ये कहने की कोशिश ज़रूर कर रहा हूं कि शहरी ग़रीबों के एक बड़े तबके की ग़रीबी का मूल कारण एक ख़ास मानसिकता है। वो मानसिकता शिक्षा और आत्म सम्मान बोध के अभाव के कारण है। शहरी ग़रीबों का बड़ा तबका अपनी कमाई का 60% से ज़्यादा नशे और जुए में उड़ा देता है। उसे लाख रुपये भी दे दीजिए। वो उसे भी उड़ा देगा। क्योंकि वो उस स्थिति से निकलना ही नहीं चाहता। अपनी इस स्थिति के लिए वो ही पूरी तरह ज़िम्मेदार नहीं है। हम सब यानी पूरा समाज इसके लिए ज़िम्मेदार है। क्योंकि जिस आदमी ने जीवन में कभी रसगुल्ला नहीं खाया हो, उसे आप कैसे बताएंगे कि उसका स्वाद कैसा लगता है। मीठा होता है! तो वो तो गुड़, चीनी या पेड़ा भी होता है। फिर रसगुल्ला?
आपको एक छोटी सी पौराणिक कहानी सुनाता हूं। विष्णु के 10 अवतारों के बारे में तो आपने सुना ही होगा। उनमें एक था वराह अवतार। वराह यानी सूअर। दरअसल हुआ यूं कि हिरण्यकश्यपु के भाई हिरण्याक्ष ने पृथ्वी का अपहरण कर उसे मल और कीचड़ के कुंड में डुबा दिया था। अब सुंदर, सुकुमार राजकुमार राम बनकर या रास रचइया, छलिया कन्हैया बनकर तो उस कुंड में कूदा नहीं जा सकता था। सो विष्णु को लेना पड़ा सूअर का अवतार। फिर क्या था, पाखाने में खुशबू आने लगी, कीचड़ रेशम सा कोमल लगने लगा। घुसे कुंड में और हिरण्याक्ष को पहुंचा दिया परलोक। लेकिन संकट यहां शुरू हुआ। सूअर के रूप में विष्णु को उस मल कुंड में ऐसा मज़ा आने लगा कि वहीं मस्त हो गए। लक्ष्मी जी परेशान। सब देवताओं की हवा टाइट हो गई। अब विष्णु जी को क्या करें। पहुंचे सब नारद के पास। नारद जी, कुछ करो। नारद जी लग गए मौके की ताक में। सूअर शरीरधारी विष्णु जी जब आराम से कुंड में नहाकर धूप में लोटपोट कर रहे थे, तभी पहुंच गए वहां। कहा, प्रभु। हिरण्याक्ष तो मर गया। अब तो चलो। क्षीरसागर में शेषनाग की शैया आपका इंतज़ार कर रही है। आपका हाल देखकर लक्ष्मी जी का रोते-रोते हाल बेहाल हो गया है। विष्णु लोक की सुवासित-सुगंधित हवाएं आपकी राह देख रही हैं, मखमल की सेज़ आपकी याद में सूख रही है। आप चलें। सूअर फटी आंखों से नारद को देख रहा था। बोला- नारद, तुम कभी नहीं समझ पाओगे कि यहां कितना आनंद है। अरे, इस मलकुंड की सुगंध और कोमलता के सामने सब फेल है। मैं तो कहता हूं, तुम भी आ जाओ। नारद जी ने सर पकड़ लिया। घंटों याद दिलाया कि आप जगतपालक हैं, परम सुंदर, परम सलोने, करोड़ों कामदेवों के स्वामी हैं। सभी देवताओं ने, लक्ष्मी जी ने मिन्नतें की। तब जाकर कहीं बड़ी मुश्किल से विष्णु ने वापस अपने शरीर में आना स्वीकार किया और क्षीर सागर की राह ली।
शहरी ग़रीबों के एक बड़े तबके की हालत भी विष्णु के वराह अवतार की तरह हो गई है। उन्हें 15 रुपये के देसी दारू, चरस की कश और दारू में मज़ा आने लगा है। उन्हें लगता है कि ये जो समाज के दूसरे पढ़े-लिखे सम्मानित लोग हैं, वो पैदा ही वैसे हुए हैं और वैसा होना केवल उन्हीं लोगों का अधिकार है। इन शहरी ग़रीबों का जन्म फुटपाथ पर हुआ, बचपन से अपनी मां को पुलिस वालों की गालियां खाते सुना, बाद में खुद के लिए सब की नज़रों में जलालत और नफरत देखी। पढ़ाई-लिखाई का ख्वाब भी नहीं देखा। किसी ने बाल पकड़ कर उठा लिया, तो खड़े हो गए, किसी ने ढकेल दिया तो बैठ गए। किसी ने कुछ फेंक दिया तो खा लिया। बचपने से अपने नाम का तो पता नहीं, गालियों से ही पहचान बनी। तो ऐसे किसी आदमी से एक संवेदनशील और अच्छा नागरिक बनने की उम्मीद उसके साथ ज़्यादती नहीं होगी। तो ऐसे वराहों को बहुत से नारदों की ज़रूरत है। इनकी हालत तब तक नहीं सुधर सकती, जबतक एक बड़ा सामाजिक सुधार आंदोलन नहीं चलता। उनमें आत्म सम्मान की भावना नहीं पैदा की जाती। केवल तभी इन शहरी ग़रीबों की आर्थिक हालत भी सुधर पाएगी, अपराध भी खत्म होंगे और भ्रष्टाचार भी कम होगा।
अब बात करते हैं दूसरे तरह के ग़रीबों की। ग्रामीण क्षेत्रों में रहने वाले ग़रीब। ग्रामीण अर्थव्यवस्था का केन्द्र है किसान। ग्रामीण क्षेत्र में किसानों के अलावा दूसरे सभी व्यवसायों से जुड़े लोगों की अर्थव्यवस्था किसानों की माली हालत पर ही निर्भर करती है। और किसानों की माली हालत निर्भर करती है खेती की स्थिति पर। किसान भी दो तरह के होते हैं, वे किसान जो अपना खेत जोतते हैं और दूसरे जो दूसरों का खेत जोतते हैं। जो दूसरों का खेत जोतते हैं, उन्हें उनका ठीक हक़ मिले और जो अपना खेत जोतते हैं, उन्हें फसल का ठीक दाम मिले। यहां भूमिका आती है सरकार की। यही है वो ग़रीब हैं जिनकी ग़रीबी राजनीति की भट्ठी का ईंधन बनती है। बिचौलिये ज़्यादातर मुनाफ़ा पी जाते हैं। बढ़ती महंगाई हलक में अटक जाती है। बच्चों के लिए अच्छी शिक्षा नहीं है, बीमारों के लिए अच्छे अस्पताल नहीं हैं। सिंचाई के लिए नहरें नहीं हैं, सो इन्द्र देव की कृपा ही किस्मत का आधार बन जाती है। इस ग़रीबी को दूर करने के लिए राजनीतिक इच्छाशक्ति की दरकार है।
सारांश, समाज और सरकार दोनों के ईमानदार सम्मिलित प्रयासों से ही ग़रीबी के राक्षस को हराया जा सकता है। ग़रीबी किसी की व्यक्तिगत समस्या नहीं है। ये तो एक भयंकर सामाजिक समस्या है जो कई और सामाजिक-राष्ट्रीय समस्याओं की जड़ है। जिस तेज़ी से उपभोक्तावाद अपने पैर पसार रहा है और समाज के दो हिस्सों के बीच आर्थक खाई बढ़ती जा रही है, अगर हम आज नहीं जगे तो फिर वक्त शायद हमें मौका ही न दे।

4 टिप्‍पणियां:

Batangad ने कहा…

मैंने भारत की भुखमरी पर सचमुच इस नजरिए से कभी सोचा ही नहीं। सही बात है एक बड़ा वर्ग है जिसे गरीबी में भी सुख मिलता है। लेकिन, सवाल यही है कि राजनैतिक इच्छाशक्ति कोई पार्टी क्यों दिखाएगी जब इससे वोट नहीं मिलते। हां, हम आप जागकर जरूर कुछ करने की कोशिश कर सकते हैं।

अनूप शुक्ल ने कहा…

बहुत अच्छा लिखा है।

Asha Joglekar ने कहा…

यह आपने सही लिखा है कि गरीबों का एक वर्ग
उसी हाल मे जीना पसंद करता है और इसकी उसे आदत पड जाती है ।
लेकिन इसके पीछे कारण क्या है ?
शायद यह कि जब वह पहली बार शहर में आता है तो मेहनत और ईमानदारी से उसे रोटी नसीब नही होती । तो वह औरों के अनुभव से चालाकी और निकम्मेपन के पाठ सीखता है । और यह अपेक्षाकृत आसान तरीका उसे रास आ जाता है ।शिक्षा और आत्मसम्मान के बिना तो ये जागृति नही हो पायेगी ।

संजय शर्मा ने कहा…

दिल से लिखा गया दिल को छू गया . अब अच्छे ब्लोगर की संख्या बढ़ने से मन सकारात्मकता की ओर झुकते रहने को कह रहा है. अब लिस्ट बनाना होगा किसे पढ़ें किसे न पढ़ें . लिखते रहिये हम पढ़ते रहेंगे . बहुत-बहुत धन्यवाद !